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________________ संयोग से सन् १९७५ वि०सं० २०३२ में खरतरगच्छीय श्री जिनरंगसूरिजी का उपाश्रय, व्यवस्थापक श्रीमाल सभा, जयपुर के सहयोग से वल्लभ-भारती प्रथम खण्ड का प्रकाशन हुआ । अतएव श्रीमाल सभा का मैं आभारी हूँ । वि०सं० २००३ का वर्ष मेरे लिए अत्यन्त सौभाग्यशाली रहा कि जब श्रद्धेय प्रवर आगमज्ञ पूज्य मुनिराज श्री जम्बूविजयजी महाराज ने वल्लभ-भारती प्रथम खण्ड का अवलोकन करने के पश्चात् इसके द्वितीय खण्ड के प्रकाशन की ओर इंगित किया । इंगित ही नहीं पूज्यश्री ने आदेशात्मक निर्णय भी दिया कि इस ग्रंथ का प्रकाशन शीघ्र करो । प्रकाशन में आर्थिक सहयोग के रूप में उनका निर्देश था कि श्री सिद्धि मनोहर भुवन ट्रस्ट भी इसमें सहयोग देगा और प्रकाशकों में श्री आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर का नाम भी सम्मिलित करना होगा तथा प्राकृत भारती से भी सहयोग के लिए प्रयत्न करो। इस आदेश के फलस्वरूप मैंने प्रयत्न किया और मुझे प्रसन्नता है कि प्राकृत भारती अकादमी एवं एम०एस०पी०एस०जी० चेरिटेबल ट्रस्ट ने भी संयुक्त प्रकाशन के लिए स्वीकृति प्रदान की । यह जिनवल्लभसूरि ग्रन्थावलि (वल्लभभारती द्वितीय खण्ड) चारों संस्थाओं के संयुक्त प्रकाशन के रूप में प्रकाशित हो रहा है । सन् १९६१ का कार्य ४ दशाब्दी बाद भी प्रकाशित हो, तो मेरे लिए हर्ष का विषय है ही । परिशिष्ट पूज्य मुनिराज श्री जम्बूविजयजी महाराज का परामर्श था कि वल्लभ भारती प्रथम खण्ड आपका शोध प्रबन्ध था, जो कि सन् १९७५ में प्रकाशित हुआ था। अब इस पुस्तक में आचार्य जिनवल्लभूसूरि की समस्त कृतियाँ प्रकाशित हो रही हैं, अतः इस पुस्तक का नाम भी जिनवल्लभसूरिग्रंथावलि रखना उपयुक्त होगा । पूज्य श्री के इस परामर्श को मैंने स्वीकार किया और इस पुस्तक का नाम जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि रखा । साथ ही मुनिराज श्री का यह भी कथन था कि इस पुस्तक से सम्बन्धित परिशिष्ट Jain Education International 47 For Private & Personal Use Only प्रस्तावना www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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