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________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि . जे भावा तत्तो वि हु, तद्देसगगीयसाहुवसओ वा। सम्मं कहवि न नाया, बहुसो चिंतिजमाणा वि॥ १३ ॥ ते किं समइवियप्पण-परपुरिसवसेण निच्छयमुविंति। न हि सूराणुज्जोइयनहमुजोविंति' खज्जोया ॥ १४॥ इय सच्छंदपरूवणकरस्स कुग्गहपरस्स य जणस्स। संसग्गिं दावग्गिं, व वजयंतेहि कुसलेहिं ॥ १५ ॥ कालबलोचियकिरियारईसु असढेसु अप्पमाईसु। सुगुरूसु पज्जुवासणपरे हिं तक्कहियकारीहिं ॥ १६ ॥ जिणपूजण-वंदण-ण्हवणपमुहकिच्चेसु निच्च जइयव्वं । जम्हा सुत्ते वुत्तं, दंसणमिह पढम मुक्खंगं ॥ १७ ॥ एयंजुत्तेहिं चिय, तत्तो वरचरणकारणेसु सया। सम्मं पयट्टियव्वं, सामाइयमाइकिरियासु ॥ १८ ॥ एत्तेहिं तो वि जओ, निव्वुइगमणुम्मणाण भव्वाणं । अक्खेवकरणदक्खं, विजइ अन्नं न गुणठाणं ॥ १९ ॥ एवं चिय सहलत्तं, उवेइ माणुस्समाइसामग्गी। एयविरहे पुण सयलं, विहलमिमं कासकुसुमं व॥ २० ॥ इय पवरमईणं कित्तियं किच्चजायं, सयमवि विउसाणं साहिमो तुम्हमित्थं । तह कह वि हु धम्मे वट्टियव्वं जएहिं,२ जह भववणमूलुम्मूलणं होइ झत्ति ॥ २१ ॥ इति द्वितीयकुलकम् १. 'मुज्जोयंति' इति अ०। २. 'बुहेहिं' इति अ०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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