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________________ द्वादशकुलकानि २. द्वितीयं कुलकम् पबलपवणप्पणुल्लिय-कयलीदललग्गसलिललवलोलं । अवलोइऊण जीविय-जुव्वण-धण-सयणसंजोगं ॥ १॥ संजोगमूलमिह पुण, पुणरुत्ताणंततिक्खदुक्खोहं । लक्खिय सत्ताण सदो-वउत्तचित्तेहि तुब्भेहिं ॥ २॥ चिंतेयव्वं भवनिग्गुणत्तणं दुल्लहत्तणं तह य। माणुस्सखित्तपमुहाण कुसलनिप्फत्तिहेऊणं ॥ ३॥ भावेयव्वं भव्वं, ' निव्वाणसुहिक्ककारणमवंझं । सिद्धंततत्तमुज्झित्तु कुग्गहं निउणबुद्धीए ॥ ४॥ जम्हा थेवो वि हु होइ कुग्गहो सयलकुसलपच्चूहो। तालउडविसलवो इव, महंतसम्मोहहे ऊ य॥ ५॥ जइवि हु बहुविहमयभेयसवणओ समयअनिउणत्तणओ। उस्सग्गऽववायविवेगविरहओ अतहबुद्धित्ता ॥ ६॥ समयत्थपईवोवमसुहगुरुसंसग्गिलाभविगमाओ। सिद्धंतविरुद्ध-पमत्त-सत्त-ठिइ-दंसणाओ य॥ ७ ॥ निउणाण वि उप्पज्जंति कुग्गहा किमुय मुद्धबुद्धीणं। तह वि हु विहुणिय धीरेहिं ते लहुं चिंतियव्वमिणं ॥८॥ अहह !! असुहाण कम्माण, विलसियं जप्पभावओ अम्हे। संमोह तिमिर भीमे, काले इहइं समुप्पन्ना ॥ ९ ॥ नो पिच्छामो सव्वन्नुणो सयं न मणपज्जवजिणाई। न य चुद्दसदसपुव्विप्पमुहे विस्सुयसुयहरे वि॥ १०॥ एवं पि अम्ह सरणं, ताणं चक्खू गई पईवो य। भयवं सिद्धंतु च्चिय, अविरुद्धो इट्ठदिढेहिं ॥ ११ ॥ तदणुगउ च्चिय मग्गो, अणुसरियव्वो वियारियव्वो य। तप्परतंतत्तेण य, जइयव्वं सव्वकज्जेसु॥ १२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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