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जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि
ओहट्टइ सम्मत्तं, मिच्छत्तबलेण पिल्लियं संतं । परिवटुंति कसाया, अवसप्पिणिकालदोसेणं ॥ ६४॥ एक्के तवगारविया, अन्ने सिढिला सधम्मकिरियासु। मच्छरवसेण दुन्निवि, होहिंति अपुट्ठधम्माणो॥ ६५ ॥ फिट्टइ गुरुकुलवासो, मंदा य मई य होइ धम्मम्मि। एयं तं संपत्तं, जं भणियं लोगनाहे णं ॥ ६६॥ उवगरणवत्थपत्ताइयाण वसहीण सड्ढगाणं च। जुज्झिस्संति कएणं, जह नरवइणो कुडुंबीणं ॥ ६७॥ कलहकरा डमरकरा, असमाहिकरा अनिव्वुइकरा य। होहिं ति एत्थ समणा, दससु वि खित्तेसु सयराहं ॥ ६८॥ ववहारमंततंताइयम्मि निच्चुज्जुयाण य मुणीणं । विगलिंति आगमत्था, अणत्थलुद्धाण तद्दियहं ॥ ६९॥ होहिंति साहुणो वि य, सपक्खपरपक्खनिद्दया धणियं। एयं तं संपत्तं, बहुमुंडे अप्पसमणे य॥ ७० ॥ जं सक्कइ तं कीरइ, जं च न सक्कइ तहेव सद्दहणं। केवलिजिणेहिं भणियं, सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ॥ ७१॥
इति स्वप्नसप्ततिः
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