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________________ २८. प्रथमजिनस्तवनम् - ३३ पद्यात्मक इस स्तोत्र में यथासामान्य प्रथम तीर्थपति श्रीआदिनाथ के गुणों की स्तवना और स्वयं की लघुता प्रदर्शित की गई है। ___ स्तवना की अपेक्षा भी तद्देशीय प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के छन्दों की विविधता के कारण इसका महत्त्व विशेष है। यह कृति अपभ्रंश प्रधान है किन्तु प्राकृत भाषा का प्रभाव भी इस पर लक्षित होता है। इसमें दोहा, पद्धटिका, पादाकुलक, वस्तुवदन, मदनावतार, द्विपदी, मात्रा पचपदी, एकावली, क्रीडनक, हक्का, षट्पदी आदि छन्दों का कवि ने स्वतंत्रता से प्रयोग किया है। तत्कालीन प्राकृत-अपभ्रंश स्तोत्र साहित्य में छन्द वैविध्य की दृष्टि से यह रचना संभवत: अजितशान्ति स्तोत्र के बाद सर्वप्रथम ही हो! परवर्ती काल में इन प्राकृत/अपभ्रंश छन्दों का अपभ्रंश एवं प्राचीन हिन्दी में प्रचुरता से उपयोग हुआ है। यह रचना भी अप्रकाशित है। २९. लघु अजित-शान्तिस्तवनम् - इस स्तोत्र का प्रसिद्ध और अपरनाम 'उल्लासि' है। इसमें द्वितीय जिनेश्वर अजितनाथ और सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ की स्तुति की गई है। श्वेताम्बर जैन-स्तोत्र-साहित्य में प्रसिद्धतम 'अजितशान्तिस्तव' के अनुकरण पर कवि ने इसकी रचना की है। कोमलकान्तपदावली का जो लालित्य और संगीत अजितशान्ति स्तव में है, उससे कुछ अधिक ही इसमें प्राप्त होता है। जिन पदों में दोनों तीर्थंकरों की स्तुति एक साथ की गई हैं, उसमें कवि की शब्द-योजना तथा भाषासौष्ठव देखते ही बनता है। इस स्तोत्र का आज भी खरतरगच्छ समाज में त्रयोदशी एवं विहार के दिवसों में पठन-पाठन प्रचलित है और दैनिक संस्मरणीय सप्तस्मरण स्तोत्रों में इसका द्वितीय स्थान है। इसकी लोकप्रियता और प्रभावोत्पादकता का इससे अधिक और क्या प्रमाण हो सकता है? यह स्तोत्र श्री धर्मतिलकगणि कृत टीका सहित 'सटीकाः वैराग्यशतकादिपंचग्रंथा' में प्रकाशित है। ३०-३२.स्तम्भनपार्श्वनाथ स्तोत्र, क्षुद्रोपद्रवहर-पार्श्वनाथ स्तोत्र एवं महावीर-विज्ञप्तिका - क्षुद्रोपवहर पार्श्वनाथ स्तोत्र २२ आर्याओं में प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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