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________________ १६८ चतुर्विंशति-जिनस्तुतयः सव्वजगबंधवाणं, पहाण सिवपुर पहाण सुगणाणं । भदं सदसण-सम्मं नाण-चरणा णव जिणाण ॥ २॥ जेण अणेगे जीवा, तारंसु तरिहिं तितह तरिति लहुँ। भीमभवजलहितोयं, जिणमयपोयं तमल्लियह ॥ ३॥ वरकमलकंतिकाया सत्तिकरा मोरवाहणा तुरियं । पन्नत्ती कुणउ सुहं, जिणिंद भत्ताण सन्नाणं ॥ ४॥ ४. अभिनंदनजिनस्तुतिः अद्भुट्ठ धणुसयतिय, कविलंछण पुणवसुंमि नक्खत्ते। सिद्धत्था-संवर-सुय, अभिनंदण जय जयंतचुय ॥ १ ॥ निम्महिय-महामोहंधयार-पसराण निच्च जलियाणं । विगयमलाण जिणाणं, जगप्पईवाण पणमामि॥ २॥ कंदप्प-संप्प-दप्पप्प-सम-विसप्पंत-पयड-माहप्पं । जिण-सुद्धतसमं तं सइ सुमरह सुगुरु सीसं तं ॥ ३॥ तत्ततवणिज्जवन्ना, कमलनिसन्नां देवनर मन्नां । धिय-वज-संकलाउ हरउ दुरियाई..." ॥ ४॥ ५. सुमतिजिनस्तुतिः धणुसयपमाण कुंथुकतणुधरं मेह-मंगला-तणयं । सुमइजिणंद वंदे, चुयं जयंताउ महरिक्खे ॥ १॥ करि-मयर-संख-चक्कं, करिदुमासणपहुल्लसंतजना। सुरमहिया संतावं, हरंतु जिणचलणजलनिहिणो ॥ २॥ निचिदुक्कड़-मोह-तमोह-छन्न जय पयडणुब्भडपयावं । लोयपसिद्धं सिद्धं, सिद्धंतरविं माणे कुणसु॥ ३॥ अकलंककणयकाया, कक्कसकुलिसंकुसंकियकरग्गा। सियकरिवरमारुढा, करेऊ वजंकुसी कुसलां ॥ ४॥ ६. पद्मप्रभजिनस्तुतिः नमह सुसीमा-धर-सुयमड्ढाइयधणुस उच्च कमलंकं । पउमप्पहमवयरियं, चित्तासुं नवम · गेविज्जा॥ १॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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