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________________ १४. चित्रकूटीय-वीरचैत्य-प्रशस्तिः (अष्टसप्ततिः) स्वयम्भुवोऽक्षावलियाम आदृता, विशेषतु[ष्य]वृषभावभासिनः। चतुर्मुखश्री[ध]रशङ्कराश्चिरं, भवस्थितिध्वंसकृतः पुनन्तु वः॥ १॥ भक्तिव्यक्ति[भरा]नतामलवपुःसङ्क्रान्तकान्तस्फुरत् सर्वाङ्गस्तदनुस्मृतेरिव तरां बिभ्रत्तदेकात्मताम्। यः सद्धर्मकथाक्षणे सममि[मं] त्रातुं समग्रं जनं, क्लृप्तानेकतनुर्व्यभाव्यत स वो वीरः शिवं यच्छतात् ॥ २॥ स जिनो जीयादलिकुल[ललामविलुलितसुकार्य] बहुलजटम्। ___ मुखचन्द्रचन्द्रिकावा[या]मकाम विचरंश्चकोर इव॥ ३ ।। बद्धाञ्जलिस्त्रिदशसंहतिरास्यपद्म-निर्यद्वचो मधुरसं निभृता[तं] पिबन्ती। यत्कायकान्तिविसरच्छुरितावभासे, भृङ्गावलीव भविनां स मुदे सुऽस्तु] पार्श्वः॥ ४॥ श्रीलीलासद्मपद्मं मुखशशिविशदाभीषुभिभिन्नमुच्चै रुन्मीलत्पत्रपुञ्जारुणरुचिरुचिरं हस्तपादानुलग्नम्। जिह्वालं[शं] जगत्याः समुदितमिव वाक्सारसंसारहेतो __ र्बिभ्राणा भूरिभूतिस्त्रिभुवनजननी पातु देवी गिरां वः॥ ५ ॥ मथितदवथौ सम्पूर्णांशे सदामृतवर्षिणि, प्रसरति घनच्छाये प्राज्ये प्रमारनृपान्वये। स्फुटशुचिरुचिः श्रीमान्मुक्तोपमोऽद्भुतवैभव स्त्रिभुवनजयी राजा भोजो बभूव विभुर्भुवः॥ ६॥ १. यह प्रशस्ति चित्तौड़ के वीर-चैत्य में शिलापट्ट पर उत्कीर्ण की गई थी किन्तु आज यह प्राप्त नहीं है। इसकी एकमात्र प्रतिलिपि हस्तलिखित प्रति के रूप में लालभाई दलपतभाई भारतीय संकृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद, पू० मुनि श्री पुण्यविजयजी के संग्रह में ग्रन्थाङ्क ७९३ पर प्राप्त है। इस प्रशस्ति का प्रसिद्ध नाम 'अष्टसप्तति' भी है। इसके प्रणेता श्रीजिनवल्लभसूरि हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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