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जिम सरणाइय माणुसहं, कोइ करइ सिरछेउ । न मुणइ जं जिण - भासियउ, तिम कुगुरह संजोउ ॥ ११ ॥ हुंड-विसप्पिणि भसम गहु, दूसम कालु कलिड्डु । जिणवल्लहसूरि भडु नमहु, जिणिउ सत्तु निसि ॥ १२ ॥ जा जहि कुलगुरु आवियउ, ते तहि भत्ति करंत । विरला जोइवि जिणवयण, जहि गुण तहि रचंति ॥ १३ ॥ हा हा दूसमकाल बलु, खल वक्कत्तण जोइ । नामेणिय सुविहिय तणइ, मित्तु वि वयरीय होइ ॥ १४ ॥ तहि चेडाहिव हउं नमउं, सुमणिय परमत्थांह । हीयडइ जिणवर इक्कपर, अनु सुद्धउ गुरु जांह ॥ १५ ॥ जिणि जिणवर पहु हीलियइ, जणु रंजियइ सहासु । सो वि सुगुरु पणमंतयइ, फूटि न हिया हयासु ॥ १६ ॥ मिरियभवे जिउ वीर जिण, इक्क उसत्त लवेण । कोडाकोडि सागर भमिउ, किं न भणह मोहेण ॥ १७ ॥ तव संजम सुत्तेण सहु, सव्वु वि सहलउ होइ । सो वि उत्तलवेण सह भवदुह लक्खई देइ ॥ १८ ॥ माया मोह चएह जण, दुलहउ जिणविहधम्मु । जो जिणवल्लहसूरि कहिउ, सिग्घ देह सिव सम्मु ॥ १९ ॥ संसउ कोइ म करहु मुणि, संसइ होइ मिच्छत्तु । जिणवल्लहसूरि जुगपवर, नमहु सु तिजग पवित्तु ॥ २० ॥ जई जिणवल्लहसूरि गुरु, नह दिट्ठ नयणेहिं । जुगपहाण तर जाणीयइ, णिच्छइ गुण-चरिएहिं ॥ २१ ॥ ते धन्ना सुकयत्थ नर, ते संसारु तरंति । जे जिणवल्लहरि तणीए, आण सिरेण धरंति ॥ २२ ॥ तह न रोग दोहग्गु नह, तह मंगल कल्लाण । जे जिणवल्लह गुरु नमइ, तिन्नि संझ सुविहाण ॥ २३ ॥
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परिशिष्ट - ५
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