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प्रतिक्रमण-समाचारी
गुरुथुइ-गहणे थुइ तिन्नि वद्धमाणक्खरस्सरा पढइ। सक्कत्थय थवं पढिय, कुणइ पच्छित्त उस्सग्गं ॥ २४॥ एवं ता देवसियं, राइयमवि एत्थमेव' नवरि तहिं । पढमं दाउं मिच्छा-दुक्कडं पढइ सक्कत्थयं ॥ २५ ॥ उट्ठिय करेइ विहिणा, उस्सग्गं चिंतिए य उज्जोयं । बीयं दंसणसुद्धीए, चिंतए तत्थवि तमेव ॥ २६ ॥ तइए निसाइयारं, जहक्कम चिंतिऊण पारे। सिद्धत्थयं पढित्ता पमजसंडासमुवविसइ ॥ २७ ॥ पुव्वं व पुत्तिपेहण-वंदणमालोयसुत्तपढणं च। वंदण-खामण-वंदण-गाहातिगपढणमुस्सग्गो ॥ २८॥ तत्थ य चिंतइ संजम-जोगाण न जेण होइ मे हाणी। तं पडिवजामि तवं, छम्मासं ता न काउमलं ॥ २९ ॥ एगाइ इगुणतीसूणयंपि न सहो न पंचमासमवि। एवं चउ ति दुमासं, न समत्थो एगमासंपि॥ ३०॥ जा तंपि तेरसूणं, चउसइमाइ तो दुहाणीए। जाव चउत्थं तो आयंबिलाइ जा पोरिसि नमो वा ॥ ३१॥ जं सक्कइ तं हियए, धरित्तु पारित्तु पेहए पुत्तिं । दाउं वंदणमसढो, तं चिय पच्चक्खए विहिणा॥ ३२॥ इच्छामो अणुसटुिं ति भणिय उवविसिय पढइ तिन्नि थुइ । मिउसद्देणं सक्कत्थयाइतो चेइए वंदे॥ ३३॥ अह पक्खियं चउद्दसिदिणंमि पुव्वं व तत्थ देवसियं। सुत्तंतं पडिक्कमिउं तो सम्ममिमं कमं कुणई ।। ३४ ।।
२. 'मिच्छा मे' इति अ० बी०।
१. 'एवमेव' इति अ० बी०। ३. 'सक्कथयं' इति अ० बी० ।
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