SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने सं० १३१७ में भीमपल्ली स्थान पर ५१ अंगुल परिमाण की मूर्ति की प्रतिष्ठा की ही थी। कुछ विद्वानों के मतानुसार सरस्वती की प्राचीनतम प्रतिमायें जैनों द्वारा ही स्थापित हुई हैं। हरिणीवृत्त में ग्रथित यह भारती स्तोत्र २५ श्लोकों में है। रचना की शैली सदा की भांति ही सालंकारिक, सुललितपदा तथा विदग्धमनोहरा है। सरस्वती का स्वतंत्र स्वरूप स्थापित करते हुए भी कवि ने उसका जिनवाणीरूप दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया है। इसीलिये वह भारती से 'परमविरतं' की याचना करता है। ४५. नवकार स्तोत्र - नवकार मंत्र समस्त जैन सम्प्रदायों में सर्वश्रेष्ठ मंत्र माना जाता है। इसे १४ पूर्वो का सार स्वीकार करते हुए जैन सम्प्रदाय इसकी महत्ता के सम्मुख चिन्तामणिरत्न, कल्पवृक्ष, चित्रावेली, रत्नराशि तथा कामकुम्भ को भी तुच्छ गिनता है। शत्रुञ्जय तीर्थ के समान ही इस मंत्र को प्रमुखता प्रदान की गई है। इस नवकार मंत्र में अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं को पंच परमेष्ठि रूप में स्वीकार किया गया है। उसके आराधक को 'सर्वपाप-विनिर्मुक्त' होने का फल प्राप्त होता माना जाता है। इस स्तोत्र में भी प्रथम और दूसरे पद्य में इसकी महत्ता का निर्देश है। तीसरे से आठवें तक पंच परमेष्ठि का स्वरूप और ध्यान तथा आराधना की विधि है तथा ९ से १३ तक इसके आराधन से फल प्राप्त करने वाले कतिपय आराधकों के नाम तथा इससे होने वाले अनेक प्रकार के फलों और सिद्धियों का वर्णन है । अन्तिम पद्य में अपने नाम के साथ इस मंत्र के आराधन की शिक्षा देते हुए उपसंहार किया गया है। इस स्तोत्र की भाषा अपभ्रंश है और इसका छन्द वस्तुवदन और दूहा मिश्रित 'द्विभंगी' है। यह नवकार स्तोत्र अनेक पुस्तकों में प्रकाशित है। प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002681
Book TitleJinvallabhsuri Granthavali
Original Sutra AuthorVinaysagar
Author
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2004
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy