Book Title: Gruhastha Dharm Part 02
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहर किरणावली-"३२ वो किरण" गहस्थ-धर्म (द्वितीय भाग) व्याख्याता स्व. जैनाचार्य श्री श्री १००८ पूज्य श्री जवाहरलाल जी म. सा. सम्पादकपं. शोभाचन्द्र जी भारिल्ल, न्यायतीर्थ प्रकाशक श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, समता भवन, बीकानेर (राज.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवाहर किरणावली-"३२ वौं किरण " गृहस्थ-धर्म (द्वितीय भाग) . व्याख्यातास्व. जैनाचार्य श्री श्री १००८ पूज्य श्री जवाहरलाल जी म. सा. सम्पादक - पं. शोभाचन्द्र जी भारिल्ल, न्यायतीर्थ प्रकाशक श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, समता भवन, बीकानेर (राज.) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक श्री अ भा साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर (राजस्थान) प्रथम आवृत्ति- संवत २०१४ वि. प्रकाशक- श्री सम्यग् ज्ञानमन्दिर, कलकत्ता द्वितीय श्रावृत्ति सन् १९७६. प्रतियां ११०० मूल्य- ३) ५० (तीन रुपये पचास पैसे) मुद्रक - जैन आर्ट प्रेस, समता भवन, बीकानेर ( राजस्थान ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण का प्रकाशकीय जवाहर किरणावली की ३२वीं किरण प्रकाशित करते हुए अत्यन्त प्रसन्नता होती है । महामहिम स्व० पूज्य श्री जवाहराचार्य जैन समाज के महान् सन्त थे । उनकी ओजस्वी वाणी ने जन-जन के हृदय को उद्वेलित और प्रभावित किया था । उनके प्रभावजनक उपदेशों से सहस्रों व्यक्तियों का जीवन परिवर्तित हो गया था । लाखों को नई प्रेरणा और नई दिशा का ज्ञान हुआ था । उनके बहुमूल्य व्याख्यान " जवाहर किरणावली" के नाम से प्रकाशित हुए हैं । प्रस्तुत प्रकाशन उसी शृङ्खला की एक कड़ी है । इससे पूर्व प्रकाशित पुस्तक में सम्यग्दर्शन संबंधी व्याख्यान पहले प्रकाश में नहीं आये थे । बारह व्रत रतलाम मंडल की ओर से छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित हुए थे । उन सबको एक ही साथ प्रकाशित करने की आवश्यकता थी । उनमें भाषा सम्बन्धी संस्कार की भी आवश्यकता थी और पूज्य श्री के संगृहीत लिखित साहित्य के आधार पर कतिपय विषयों की वृद्धि की भी आवश्यकता थी । वह कार्य इस संस्करण में किया गया है । उदाहरणार्थषडावश्यक गृहस्थ-धर्म का एक अनिवार्य अंग है । उस पर पूज्य श्री ने अपने व्याख्यानों में हृदयग्राही विवेचन किया Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । उसको गृहस्थ-धर्म में सम्मिलित किये बिना गृहस्थ धर्म अपूर्ण ही रह जाता है । वह त्रुटि यहां दूर कर दी गई है । इसी प्रकार अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि व्रतों संबन्धी पूज्यश्री के कतिपय तेजपूर्ण विचार, जो पहले इनके साथ प्रकाशित नहीं हुए थे, यहां शामिल कर दिये गये हैं । आशा है, इस परिष्कार से पाठकों को विशेष लाभ होगा । श्री जवाहराचार्य जी के व्याख्यानों में हमें एक क्रान्ति का उद्घोष करने वाले क्रान्तिकारी, सुप्त समाज को जगाने वाले महान् सुधारक, उत्पीड़ितों एवं दुःखों से व्याकुल जनसमूह को धैर्य और साहस बंधाने वाले सहायक तथा जन्ममरण की पीड़ाओं से त्रस्त जगत् को अमरत्व का संदेश देने वाले शांतिदूत के दर्शन होते हैं । प्रस्तुत प्रकाशन का सम्पादन समाज के सुपरिचित साहित्यसेवी पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने किया है, जिससे प्रकाशन अधिक उपयोगी हो गया है । इस पुस्तक को प्रकाशित करने में श्री जैन जवाहर मित्र मंडल (व्यावर ) का बहुमूल्य हार्दिक सहयोग मिला है । अतः हम मंडल के अत्यन्त आभारी हैं । यदि समाज ने इस प्रकाशन का अधिक से अधिक स्वागत किया तो हमें भविष्य के लिए अधिक प्रेरणा और स्फूर्ति मिलेगी । ८७, धर्मतल्ला स्ट्रीट कलकत्ता - १३. सरदारमल कांकरिया, मन्त्री सम्यक् ज्ञानमन्दिर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्किंचित् जैनधर्म का प्रधान सन्देश है - परमात्मतत्त्व की उपलब्धि और परमात्मतत्त्व की उपलब्धि का अर्थ है - आत्मा के समस्त बन्धनों को तोड़ फेंकना, अपने ही भीतर छिपे हुए अनन्त ऐश्वर्य को प्राप्त कर लेना और इस प्रकार संपूर्ण सिद्धि का लाभ करना । आत्मिक ऐश्वर्य या परमसिद्धि यद्यपि आत्मा के भीतर ही विद्यमान है, वह बाहर से नहीं लाई जाती, तथापि उसे प्रकट करने के लिए विकट साधना अपेक्षित होती है । उस साधना के, जैन - शास्त्रों में, संक्षेप में दो रूप बतलाये गये हैं— ज्ञान और चारित्र | साधना के स्वरूप, लक्ष्य और मार्ग को समझने के लिए सर्वप्रथम ज्ञान की आवश्यकता है । ज्ञान के प्रभाव में साधक आत्मा अगर साधना के लिए उद्यत हो जाता है तो भी वह गलत राह पर चल पड़ता है और कभी - कभी ऐसा विपरीत मार्ग पकड़ लेता है कि वह अपनी साधना के लक्ष्य के सन्निकट पहुंचने के बदले अधिकाधिक दूर होता चला जाता है । उसकी साधना निरर्थक हो जाती है । अतएव ज्ञान को साधना का प्रथम अंग अंगीकार किया गया है । शास्त्रकार कहते हैं ----- अन्नाणी किं काही ? किं वा णाही से पावगं । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के लिए कमर कसकर खड़ा हुआ बेचारा अज्ञानी जीव क्या कर सकेगा और वह कैसे समझ पायगा कि कल्याण क्या है और अकल्याण क्या है ? मगर स्मरण रखना चाहिए कि ज्ञान, साधना का एक अंग ही है, सम्पूर्ण साधना नहीं है । ज्ञान से साधना के स्वरूप को समझा जा सकता है, साधना का लक्ष्य स्थिर किया जा सकता है और मार्ग भी निश्चित किया जा सकता है पर यह तो साधना का प्रारम्भ है, उसकी समाप्ति नहीं है। साधना को परिपूर्ण और सफल बनाने के लिए क्रिया की आवश्यकता अनिवार्य है । क्रिया के बिना जान लेने मात्र से कुछ हाथ नहीं आता । इसलिए कहा है क्रियाविरहितं हन्त ! ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गति बिना पथज्ञोऽपि, नाप्नोति पुरमीप्सितम् ।। अर्थात् -जिस ज्ञान के अनुसार अनुष्ठान नहीं किया जाता, वह कोरा ज्ञान निरर्थक है-फलप्रद नहीं है। आप किसी नगर में पहुंचने का मार्ग जानते हैं, मगर चलते नहीं, उस ओर कदम बढ़ाते नहीं - क्रिया करते नहीं तो केवल मार्ग जान लेने मात्र से उस नगर में नहीं पहुंच सकते ।। ___ इस प्रकार क्रिया, ज्ञान पर निर्भर है, मगर ज्ञान की सार्थकता क्रिया में है । इसी कारण शास्त्र स्पष्ट रूप से यह घोषणा करता है कि वही ज्ञान सफल और सार्थक है जो आचरण को जन्म देता है । नयविशेष की अपेक्षा तो जिस ज्ञान से चारित्र का उद्भव नहीं होता, वह ज्ञान, ज्ञान ही नहीं है-अज्ञान है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ , इससे सहज ही समझा जा सकता है कि जैनधर्म में चारित्र को कितना अधिक महत्त्व दिया गया है | चारित्र की बदौलत ही साधु, साधु कहलाता है और श्रावक श्रावक कहलाता है । मगर आज की लोकरूढ़ि कुछ भिन्न प्रकार की हो गई है । साधु तो ग्राज भी सर्वविरति - सकल संयमको अंगीकार करने वाला ही कहलाता है, परन्तु श्रावक बनने के लिए मानो कोई मर्यादा ही नहीं रह गई है । कोई श्रावक के मूल गुणों को चाहे अंगीकार न करे तो भी वह जैन कुल में उत्पन्न होने मात्र से अपने आपको श्रावक पद का अधिकारी समझने लगता है । मगर सच्चा श्रावक तो वही कहला सकता है, जिसने गृहस्थ धर्म को प्रतिज्ञा के रूप में अंगीकार किया है । भगवान् महावीर की यह उदारता थी कि उन्होंने श्रावक-श्राविका को भी संघ में स्थान प्रदान किया, परन्तु उस संघ में वस्तुतः वही सम्मिलित माना जाना चाहिए, जिसने सम्यक्त्व के साथ अणुव्रतों को धारण किया है । जैन धर्म - शास्त्र में साधुओं की तरह श्रावक के चारित्र का भी विवेचन किया गया है । परन्तु मूल ग्रागम प्राकृत भाषा में है और उस भाषा को समझने वाले आज उंगलियों पर गिने जा सकते हैं । अतएव प्रत्येक गृहस्थ मूल आगमों से अपने आचार को ठीक तरह समझ नहीं सकता । इसके अतिरिक्त आगम सूत्र रूप हैं और सूत्र रूप में रचित आगमों से जैसा चाहिए, वैसा विशद बोध प्राप्त कर लेना सब के लिए सरल नहीं है । जिसने उनके अन्तस्तत्त्व को पहचाना है, वही भलीभांति उसे समझ सकता है । स्वर्गीय पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज ऐसे ही Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभाशाली महापुरुषों में अग्रगण्य थे । उनकी प्रतिभा अनोखी और सर्वतोमुखी थी। उन्होंने अपने साधु-जीवन में लम्बे समय तक प्रवचन किये। जब मैंने उन लिपिबद्ध किये गये प्रवचनों को देखा तो लगा कि यह अपूर्व निधि फाइलों में पड़ी-पड़ी सड़ने को नहीं है । इसे दुनिया को लुटा देना चाहिए । सहयोग मिला और सम्पादन-कार्य प्रारम्भ हुआ। प्रारम्भ की तीन किरणें पूज्य श्री के जीवन काल में प्रकाशित हो सकी । पूज्य श्री देवलोक पधार गये, मगर सेठ श्री चम्पालाल जी सा० बांठिया के उत्साह से सम्पादन कार्य अग्रसर होता ही चला गया । यह क्रम भले ही मन्द पड़ गया है, मगर अब तक चालू है। सेठ श्री सरदारमल जी सा. कांकरिया की साहित्य-भक्ति के फलस्वरूप यह ३२ वीं और ३३ वी किरण प्रकाश में आ रही हैं । इनके प्रकाशित होने से गृहस्थ-धर्म तीन भागों में समाप्त हो रहा है । __ इन तीनों भागों में सम्यग्दर्शन, श्रावक के बारह व्रतों और छह आवश्यकों पर पूज्य श्री के प्रवचन हैं । इनमें से बारह व्रत पहले मंडल की ओर से पृथक्-पृथक् प्रकाशित हुए थे । इस संस्करण में उनमें भी कुछ न्यूनाधिकता की गई है । विस्तार-भय से कुछ कथाएं कम कर दी गई हैं । वे कयाएं पाठकों को ‘उदाहरणमाला' में मिल जाएंगी। जो कथाएं अत्यावश्यक प्रतीत हुईं, उन्हें रहने भी दिया गया है । इसी प्रकार अहिंसा आदि व्रतों सम्बन्धी पूज्य श्री के प्रभावशाली वचन नये भी सम्मिलित कर दिये गये हैं। आशा है, इससे गृहस्थ-धर्म के जिज्ञासुओं को विशेष लाभ होगा। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ -धर्म के तीनों भाग पढ़कर पाठक समझ सकेंगे कि श्रावक का कितना दायित्व है, कितना कर्तव्य है और क्या गौरव है ? ये प्रवचन श्रावक जीवन का परिपूर्ण चित्र हमारे सामने उपस्थित करते हैं । जो गृहस्थ ध्यानपूर्वक इन्हें पढ़ेंगे, उनके अन्तःकरण में एक बार अवश्य यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि दिन-रात साधुओं के आचार की आलो चना करने वाले गृहस्थ कितने पानी में हैं ? जो श्रावक चाहते हैं कि हमारे साधु शास्त्र - प्रतिपादित आचार से इंच भर भी इधर-उधर न हों, वे अपने विषय में भी यही क्यों नहीं सोचते ? इसका अभिप्राय यह नहीं कि हम साधुओं से ऐसी आशा न रक्खें, मगर हम श्रावकों को भी शास्त्रप्रतिपादित श्रावकाचार का अनुसरण करना चाहिए । तभी हम दूसरों की आलोचना करें तो कदाचित् शोभा दे । भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित श्रावकाचार इस लोक और परलोक - दोनों दृष्टियों से प्रत्यन्त कल्याणकारी है । जो उसे अपने जीवन में उतारेगा उसका यह जीवन भी धन्य बन जायेगा और ग्रागामी जीवन भी । फिर पूज्य श्री ने उसका जिस ढंग से विवेचन किया है, वह भी बड़ा ही मार्मिक है । इस अशांत विश्व में अगर शांति का संचार कभी होना है तो वह तभी होगा जब दुनिया के लोग उन सिद्धान्तों पर चलेंगे, जो यहां प्रतिपादित किये गये हैं । हम Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहेंगे कि ऐसा हो और जगत् में सर्वत्र शांति का प्रसार हो । अन्त में सम्यक् ज्ञानमंडल और उसके सेवाभावी उत्साही मंत्री श्री कांकरियाजी के प्रति पाठकों की ओर से मैं कृतज्ञता प्रकाश करता हूँ, जिनके प्रशस्त सहयोग से यह उपयोगी और जीवन-निर्माण करने वाला साहित्य प्रकाश में आया है। ब्यावर । ता० ८-६-५७ . ) - शोभाचन्द्र भारिल्ल Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द जवाहर किरणावली की ३२ वीं किरण 'गृहस्थ - धर्म' ( द्वितीय भाग) का संवत् २०१४ में श्री सम्यग् ज्ञान मंदिर, कलकत्ता की ओर से प्रकाशन हुना था । पिछले कुछ वर्षों से यह पुस्तक अलभ्य थी । श्रद्धालु पाठकों का इसके पुनः प्रकाशन हेतु विशेष आग्रह था, अतः श्री प्र० भा० साधुमार्गी जैन संघ की ओर से इस अमूल्य पुस्तक की दूसरी प्रवृत्ति प्रकाशित की जा रही है । आशा है, संस्कार - निर्माण एवं धर्माचरण में यह प्रकाशन उपयोगी सिद्ध होगा । " भंवरलाल कोठारी मन्त्री, श्री प्र० भा० साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर (राज.) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका - पृष्ठ १. सत्याणुव्रत (क) सत्य क्या है ? सत्य का महत्त्व असत्य सत्य से लाभ, असत्य से हानि श्रावक के लिए त्याज्य असत्य स्थूल झूठ के भेद सत्य-व्रत के अतिचार उपसंहार ७३-१११ २. अस्तेयव्रत विषयारम्भ चोरी के कारण चोरी का फल अदत्तादान विरमणव्रत अतिचार Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२-२४८ ११५ १२८ १३१ १४४ १५४ १६२ १८० १८३ ३. ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य त्रिविध ब्रह्मचर्य लाभ और माहात्म्य अब्रह्मचर्य से हानि ब्रह्मचर्य व्रत ब्रह्मचर्य रक्षा के उपाय स्त्रियां और ब्रह्मचर्य . 'विवाह आधुनिक विवाह देशविरति ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य व्रत के अतिचार उपसंहार ४. परिग्रह-परिमाणवत विषय प्रवेश. इच्छा-मूर्छा परिग्रह से हानि अपरिग्रह-व्रत इच्छा परिमाण-व्रत अतिचार २०४ २२१ २३८ २४५ २४६-३४६ २५१ २६६ २७५ २६६ ३१६ ३४३ Page #15 --------------------------------------------------------------------------  Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्याणुव्रत Page #17 --------------------------------------------------------------------------  Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य क्या है ? तं सच्चं भयवं -प्रश्नव्याकरण सूत्र 'सत्य भगवान् है' यह कह कर जिस सत्य की प्रशंसा की गई है, उस सत्य की पूर्ण एवं सांगोपाग व्याख्या करना कठिन है और हमारे तथा आपके लिए तो असंभव-सा ही है। सत्य की पूर्ण व्याख्या करने के अधिकारी वे ही पुरुष हैं, जिन्होंने सत्य को पूर्ण रूप से अपना लिया हो । सत्य की पूर्ण व्याख्या शब्दों द्वारा हो नहीं सकती। जिन महापुरुषों ने पूर्ण रूप से सत्य को प्राप्त कर लिया है, उनमें और ईश्वर में कोई भेद नहीं रहता । हम छद्मस्थों में तो अभी इतनी भी शक्ति नहीं कि उन महापुरुषों ने अपने पावन उद्गार रूप शास्त्रों में जो कुछ कहा है, उसे पूर्णतया समझ सकें । सत्य की पूर्ण व्याख्या करना यद्यपि हमारे लिए कठिन है, तथापि प्रत्येक मनुष्य प्रयत्न करने पर, सर्वत्र नहीं तो किसी न किसी अंश तक, अपने ध्येय तक पहुंचता ही है। इसी नीति के अनुसार हम अपनी शक्ति भर यह बतलाने का प्रयत्न करेंगे कि सत्य क्या है ? - यों तो साधारणतया मनुष्य मात्र को, सत्य का वास्तविक स्वरूप जानने की इच्छा रहती है, क्योंकि सत्य आत्मा का निज स्वरूप है। परन्तु सत्य को अच्छी तरह वे ही लोग Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) जान सकते हैं, जिन्हें सत्य हृदय से प्यारा है, जो सत्य के उपासक हैं या उसकी उपासना करना चाहते हैं और सत्य के सामने त्रिलोकी की सम्पदा को ही नहीं, वे अपने प्राणों को भी तुच्छ समझते हैं । जो किसी एक सम्प्रदाय, पंथ या मजहब के पीछे उन्मत्त है, जो स्वार्थ को सर्वोपरि समझकर सत्य-असत्य की परवाह नहीं करता, जो सत्य-असत्य का विवेक न करके केवल हाँ में हाँ मिलाना ही जानता है, ऐसा मनुष्य सत्य को नहीं पहचान सकता । जिस विचार, बात और कार्य का त्रिकाल में भी पलटा न हो, जिसको अपनी आत्मा निष्पक्ष भाव से अपनावे, जिसके पूर्णरूप से हृदय में स्थित हो जाने पर भय, ग्लानि, अहंकार, मोह, दम्भ, ईर्ष्या, द्व ेष, काम, क्रोध, लोभ आदि कुत्सित भाव निःशेष हो जायें, जो भूत में था, वर्तमान में है। और भविष्य में होगा तथा जिसके होने पर आत्मा को वास्तविक शांति प्राप्त हो, उसी का नाम 'सत्य' है । वेदव्यासजी ने सत्य की व्याख्या निम्न प्रकार से की है : सत्यं यथार्थे वाङ मनसे, यथादृष्टं यथा नुमितं यथाश्रुतं वाङ मनश्चेति परत्र बोधसंक्रान्तये वागुक्ता सा यदि न वञ्चिता भ्रांता वा प्रतिपत्तिबाध्या वा भवेदिति । -योगदर्शन भाष्य सा० पा० ३ मन सहित वाणी के यथार्थ होने का नाम 'सत्य' है । यानी जैसा देखा, समझा और सुना है, दूसरे को कहते समय मन और वाणी का ठीक वैसा ही प्रयोग हो, उसे 'सत्य' कहते हैं । देख, सुन और समझकर सम्यक् प्रकार से जो Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) बात अपनी समझ में आई है, ठीक वही सुनने वाले की समझ में आये, उसका नाम 'सत्य' है । जिसके द्वारा अवास्तविक बात विचार और कार्य का विरोध होता है, तथा जिसके प्रकट हो जाने पर अवास्तविक विचार, बात और कार्य नहीं ठहर सकते हैं, उसे 'सत्य' कहते हैं अर्थात् वास्तविक विचार, बात और कार्य ही सत्य हैं । महाभारत में कहा है : श्रविकारितमं सत्यं सर्ववर्णेषु भारत । सभी वर्गों में सदा विकार रहित रहने वाले का नाम ही 'सत्य' है । सत्य की मूर्ति किसी पाषाण की बनी हुई नहीं होती है, न इसका कोई स्थान ही नियत है । यह देह में स्थित जीव के समान सब जगह मौजूद है । कोई वस्तु या स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ सत्य न हो। जिस वस्तु में सत्य नहीं है, वह वस्तु किसी काम की नहीं रहती और उसका नाम भी बदल जाता है । जैसे सूर्य में सत्य वस्तु 'प्रकाश' है । यदि सूर्य में से प्रकाश निकल जाय, तो उसे सूर्य कोई न कहेगा । दूध में सत्य वस्तु 'घृत' है । यदि घृत निकल जाय तो उसे दूध कोई न कहेगा । तात्पर्य यह है कि 'सत्य' उस स्वाभाविक और वास्तविक वस्तु का नाम है, जिसके होने पर किसी वस्तु, विचार, कार्य आदि के नाम, रूप तथा गुण में परिवर्तन न हो सके और जिसके न रहने पर ये तीनों या इनमें से कुछ बातें बदल जाएँ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) स्वभावतः मनुष्य के हृदय में एक से एक उत्तम गुण विद्यमान है । उत्तम गुण सीखने के लिए मनुष्य को कहीं जाना नहीं पड़ता, वे तो सर्वथा स्वाभाविक होते हैं । यदि मनुष्य कुसंग में पड़ कर बुरी बातें अपने हृदय में न भर ले और जन्म से ही सत्य के वातावरण में पले तो संभवतः वह असत्याचरण का विचार भी न करे । यदि किसी शिशु को सत्यासत्य विवेक का उपदेश न भी दिया जाय किन्तु असत्य आचरण उसके सामने न किया जाय तो निश्चिय ही वह सत्य का अनुगामी बनेगा । सारांश यह है कि सत्य एक प्राकृतिक गुण है और असत्य अस्वाभाविक है, आरोपित है। सत्य एक व्यापक और सार्वभौम सिद्धांत है । संसार में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं और उनके सिद्धांत भी पृथक पृथ्क हैं। बहुत से मतों के ऊपरी सिद्धांत तो इतनी भिन्नता रखते हैं कि एक मतानुयायी दूसरे मतानुयायी से मिल नहीं पाता । बल्कि इन्हीं ऊपरी सिद्धान्तों को लेकर प्रायः आपस में महायुद्ध मचा देते हैं । ऐसा होते हुए भी, सब मतावलम्बी, यदि गम्भीरतापूर्वक निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो मालूम होगा कि धर्म की नींव 'सत्य' के ऊपर ही है और वह सत्य सब के लिए एक है । उस सत्य को समझ लेने पर, वे ही लोग, जो आपस में धर्म के नाम पर द्वेष करते हैं, द्वेष-रहित होकर एक दूसरे से गला मिला कर भाई की तरह प्रेमपूर्वक रह सकते हैं । सत्य का पूजन प्रत्येक मनुष्य कर सकता है। इसके लिए जाति विशेष या धर्म विशेष का कोई -बन्धन नहीं है। बल्कि जो कोई सत्याचरण करता है, वह पूरा धर्मात्मा बन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) जाता है । सत्य के पूजन की सामग्री के लिए वैसे तो कौड़ियां भी खर्च नहीं होतीं, पर कभी-कभी इतनी कीमत चुकानी पड़ती है कि जिसकी समानता, संसार की सारी उत्तम से उत्तम वस्तुएँ भी नहीं कर सकतीं । यदि कोई पूछे कि सत्य का पूजन किस तरह करना चाहिए तो अर्थात् सत्य का श्राचरण कर । सत्य का प्राचररण करना ही उत्तर मिलेगा - 'सत्यं चर' मन, वचन और काया से सत्य की पूजा करना है । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य का महत्त्व सच्चमि धिई कुव्वहा । एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं झोसइ ॥ -प्रा० सू० प्र० श्रु० यथावस्थित वस्तुस्वरूप को प्रकट करने वाला सत्य ही है। कुमार्ग का परित्याग करके जो मनुष्य त्याग को ग्रहण करता है और उसके पालन में धैर्य रखता है, वही तत्त्वदर्शी, सब पाप-कर्मों का नाश करता है। शास्त्र के उक्त प्रमाण से प्रकट है कि सत्य सर्व पापों का नाश करने वाला है। बिना सत्य को अपनाये, वे कर्म जो अनन्त काल से जीव को घेर रहे हैं, दूर नहीं होते । तात्पर्य यह है कि, पापों का नाश करके स्वर्गादि सुखों को प्राप्त कराने वाला सत्य ही है । संसार में प्रत्येक मनुष्य धर्म का इच्छुक होता है और अपनी आत्मा का कल्याण चाहता है । आत्मा का कल्याण धर्म से ही होता है । जिससे कि आत्मा का कल्याण होता है, उस धर्म में प्रधान वस्तु 'सत्य' ही है । यदि धर्म से सत्य को पृथक् कर दिया जाय तो धर्म नाममात्र के लिए शेष रह जायेगा अर्थात् अपूर्ण होगा। लेकिन आप धर्मात्मा तभी बन सकते हैं जब वास्तविक सत्य का पालन करें । नामधारी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यवादी धर्मात्मा नहीं बन सकते । वैसे तो सत्य को सब मानते हैं, लेकिन इसे पूरी तरह कार्य रूप में नहीं लाते । • सत्य को जैन-शास्त्रों ने तो धर्म के प्रधान अङ्गों में से एक माना है, परन्तु अन्य धर्मों में भी सत्य को यही स्थान प्राप्त है । महाभारत (शांति पर्व) में कहा है : . नास्ति सत्यात्परो धर्मः अर्थात्-सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । तात्पर्य यह है कि सत्य को सभी ने धर्म के प्रधान अंगों में माना है। सत्य की विशेष प्रशंसा के लिए महाभारत में कहा है सत्यस्य वचनं साधुन सत्याद्विद्यते परम् सत्य वचन ही सब से श्रेष्ठ है । सत्य से उत्तम और कुछ भी नहीं है । इसी तरह धर्म की उत्पत्ति का स्थान सत्य को ही माना है । यथा सत्येनोत्पद्यते धर्मो दयादानेन वर्द्धते ॥ . सत्य से धर्म की उत्पत्ति होती है और दया दान से उसकी वृद्धि होती है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में सत्य की प्रशंसा में कहा है कि: 'मन्त्र, औषधि और विद्याओं का साधन सत्य से होता है । चारण (देव विशेष) तथा श्रमणों की आकाश-गमनादि विद्याएँ सत्य के प्रभाव से ही सिद्ध होती हैं। सत्य, मनुष्यों का वन्दनीय, देवताओं का अर्चनीय, असुरगणों का पूजनीय Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) और अनेक व्रतधारियों द्वारा स्वीकार किया हुआ संसार में सारभूत (निचोड़) है । सत्य क्षोभ करने के योग्य न होने से महासमुद्र से भी बढ़कर गम्भीर, विचलित न होने के कारण मेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर, सन्ताप को दूर करने के कारण चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य, वस्तु-स्वरूप का यथार्थ प्रकाशक होने से सूर्यमण्डल से भी अधिक तेजस्वी, अति-निर्दोष होने के कारण आकाशमण्डल से भी अधिक . स्वच्छ, और सत्य-प्रेमियों के हृदय को वश में रखने के कारण गन्धमादन-पर्वत से भी अधिक सुगन्धित है।' सत्य के विषय में भर्तृहरि ने कहा है 'सत्यं चेत्तपसा च कि ?' यदि सत्य विद्यमान है तो तप करे तो क्या और न करे तो क्या ? अर्थात् तप से भी सत्य का प्रभाव अधिक है। चाणक्य ने अपनी नीति में कहा है:मुक्तिमिच्छसि चेत्तात, विषयान्विषवत्त्यज । क्षमार्जवदयाशौचं, सत्यं पीयूषवत्पिव ॥ 'हे भाई यदि आप मुक्ति के इच्छुक हैं तो विषयों को विष के समान छोड़कर, सहन-शीलता, सरलता, दया, हृदय की पवित्रता और सत्य को अमृत की भांति पीयो।' ___ सत्य की महिमा बतलाते हुए कहा गया है:सत्येनाग्निर्भवेच्छीतो, आगाधं धत्तेऽम्बु सत्यतः । नासिश्छिनत्ति सत्येन, सत्याद्रज्जूयते फणी ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) अर्थात् - सत्य के बल से जला देने के स्वभाव वाली अग्नि शीतल हो जाती है, इबा देने वाला अथाह जल थाह वाला हो जाता है, काटने वाली तलवार भी नहीं काट सकती पौर भयंकर विषधर सर्प रस्सी के समान हो जाता है । _ आवश्यक सूत्र में कहा है कि-"सत्यवादी सत्य के प्रभाव से समुद्र या जल की बाढ़ में नहीं डूब सकता, किन्तु उसके लिए वह जल थाह हो जाता है । दिशा को भूल जाने पर, यथा-स्थान ले जाने वाले सैन्यादि से युक्त हो जाता है । अग्नि-उपद्रव उसकी कोई हानि नहीं कर सकता । तपाया हुआ तेल, लोहा, शीशा आदि वस्तुएं हाथ में लेने पर उसका हाथ नहीं जला सकतीं। सत्यधारी पर्वत से गिराये जाने पर भी नहीं मर सकता एवं खङ्गधारी शत्रुनों में चारों पोर से घिर जाने पर भी, उनके बीच से अक्षत शरीर बच आता है और वध, बन्धन अभियोग, वैर आदि घोर उपद्रवों से बाल बाल सुरक्षित रहता है। सत्य के पालन करने वालों में ऐसी दिव्य शक्ति होती है कि स्वयं देवता भी उनके समीप चले आते हैं। जो मनुष्य सत्य का आचरण करने लग जाता है, वह लोगों में देव के समान पूजनीय हो जाता है। उसका आत्म-बल बढ़ जाता है और वह उस आत्म-बल द्वारा, महान् से महान कार्य भी कर सकता है । आत्म-बल किसी भी बल से कम नहीं है । इस बल के सामने भौतिक बल तुच्छ, हेय और नगण्य है । .. जिन तोपों और मशीनगनों के नाम मात्र से लोग कांप उठते हैं, जिनकी गड़गड़ाहट की भयंकर ध्वनि से, लोगों के रोम रोम खड़े हो जाते हैं और गर्भवती स्त्रियों के गर्भ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) पतन हो जाते हैं, वे तोपें तथा मशीनगनें, सत्य द्वारा बल प्राप्त करने वाले आत्मबली का एक रोम भी नहीं हिला सकतीं । उनके सामने वे शाक-भाजी भरने के टोकरों के समान निकम्मी हो जाती हैं । इस सत्य द्वारा प्राप्त आत्म-बल को, आजकल 'सत्याग्रह' भी कहते हैं । सत्याग्रह का वास्तविक अर्थ, सत्यबल . का प्रयोग या सत्य पर अटल रहना है । सत्य के बल की तुलना कोई बल नहीं कर सकता। इस बल के सामने, मनुष्य-शक्ति तो क्या किन्तु देव-शक्ति भी हार मान जाती है । कामदेव श्रावक पर देवता ने अपनी सारी शक्ति का प्रयोग किया, लेकिन कामदेव ने अपनी रक्षा के लिए किसी अन्य शक्ति का प्राश्रय नहीं लिया। उसने केवल सत्योपार्जित आत्म-बल से ही उस देवता की सारी शक्ति को परास्त कर दिया था ।' प्रह्लाद के जीवन का इतिहास भी सत्याग्रह का महत्त्वपूर्ण दृष्टांत है । प्रह्लाद ने अपने पिता की अनुचित आज्ञा नहीं मानी । इसलिए उस पर कितने ही अत्याचार किये गये, लेकिन अन्त में सत्याग्रह के सामने, अत्याचारी पिता को ही परास्त होना पड़ा। बहुत से लोग अत्याचार को मिटाने के लिए, अत्याचार से ही काम लेते हैं । अत्याचार से, अत्याचार चाहे एक बार मिटा-सा दिखाई भी दे, परन्तु वास्तव में वह निर्मूल नहीं होता । समय पाकर वह मिटा हुआ अत्याचार भयंकर रूप में ज्वालामुखी की तरह फट कर बाहर निकल आता है और उसकी लपटें प्रतिपक्षियों का नाश करने के लिए पहिले से भी ज्यादा उग्रता से लपलपाने लगती हैं । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३) अतएव अत्याचार का अत्याचार से नाश करने का विचार “निरर्थक है । अत्याचार से न तो अत्याचार ही भली भाँति मिटता है, न संसार में शांति ही फैलती है। इसका वास्तविक उपाय तो सत्याग्रह ही है क्योंकि सत्याग्रह में दूसरे के नाश का हेतु नहीं रहता, किन्तु उसे सुधारने का हेतु रहता है । . अत्याचार का प्रभाव, केवल शरीर पर ही पड़ा करता है, मन पर नहीं। और जब तक मन पर प्रभाव न पड़े, तब तक जिस कार्य के लिए अत्याचार किया जाता है, उस कार्य में पूर्णतया और स्थायी सफलता प्राप्त नहीं होती । लेकिन सत्याग्रह का प्रभाव मन पर पड़ता है और मन सारे शरीर का राजा है । इसलिए सत्याग्रह द्वारा प्राप्त सफलता स्थायी और शांतिप्रद होती है । जिस समय भारत में चारों ओर हिंसा का ही साम्राज्य था, लोग यज्ञ के नाम पर अनेक मूक पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध कर डालते थे, वे पशुओं को अपना खाद्य समझते थे, उस समय भगवान महावीर ने सत्याग्रह (सत्य-संदेश) द्वारा ही उस हिंसा को मिटाकर शांति स्थापित की थी । भगवान् महावीर राजपूत थे । यदि वे चाहते तो राज्य-सत्ता से भी हिंसा को मिटा सकते थे । लेकिन इस तरह से मिटाई हुई हिंसा निर्मूल नहीं होती । भगवान् महावीर के न रहते ही, या राज्य-शक्ति में शिथिलता आते ही वह हिंसा पुनः प्रचलित हो जाती। ... सत्याग्रह एक महाशस्त्र है। उसका प्रयोग अत्याचारों पर रामबाण की तरह अचूक होता है । हाँ, शर्त यही है कि प्रयोग करने के पहले प्रयोग करने वाला, अपने दुर्गुणों को दूर करके, अपने ही ऊपर सत्याग्रह का पूरा प्रयोग कर ले । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) इसमें विजयशाली होने पर, उसका प्रभाव प्राणियों पर ही नहीं, किन्तु जड़ पदार्थों पर भी पड़ता है । सत्यनिष्ठ पुरुष के प्रभाव से, अग्नि शीतल हो जाती है, विष अमृत बन जाता है और अस्त्र-शस्त्र फूल से कोमल हो जाते हैं। जब इतना हो जाता है तो कर-प्राणियों की क्रूरता दूर होने में सन्देह ही क्या है ? इसके विपरीत अर्थात् अपने दुर्गुणों को दूर किये बिना, केवल दूसरों को दबाने के लिए जो सत्याग्रह किया जाता है, वह सत्याग्रह दुराग्रह हो जाता है और स्वयं करने वाले का ही नाश कर देता है। ऐसे भी अनेक उदाहरण विद्यमान हैं। भगवान् महावीर ने सत्याग्रह का प्रयोग पहले अपने ही ऊपर कर लिया था। इससे वे चण्डकौशिक ऐसे विषधर सर्प के स्थान पर लोगों के मना करते हुए भी निर्भयतापूर्वक चले गये । उस चण्डकौशिक ने-जिसकी दृष्टि मात्र से ही जीवों को मृत्यु का आलिंगन करना पड़ता थाभगवान् महावीर को अपने भयंकर विषेले दांतों से काटा भी, लेकिन सत्य के प्रताप से वह विष भगवान् की किंचित् मात्र भी हानि न कर सका। उल्टे चण्डकौशिक की तामसी प्रकृति भगवान् महावीर की सात्विकी-प्रकृति से टकरा कर शांत हो गई और भगवान् से बोध पाकर वह कल्याण-मार्ग का पथिक बना। जिसने सत्य के द्वारा अपनी आत्मा को बलवान् बना लिया है, वह मृत्यु से भी भय नहीं करता । प्राणों के असीम संकट में पड़ने पर भी, ऐसा आत्मबली धैर्य से जरा भी विचलित नहीं होता और प्रसन्नतापूर्वक अपने प्राणों का त्याग करता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) गजसुकमाल सुनि श्मशान में बारहवीं भिक्षु पडिमा धारण किये हुए थे । इतने में सोमल ब्राह्मण श्राया । उसने कोधित हो, गजसुकमाल मुनि के सिर पर चारों ओर मिट्टी की पाल बना कर उसमें जलते हुए खैर के अंगारे भर दिये लेकिन गजसुकमाल मुनि का ध्यान भंग न हुआ । इस भीषण विपत्ति से भी गजसुकमाल मुनि का हृदय क्षुब्ध नहीं हुआ, न ब्राह्मण के प्रति उनके हृदय में क्रोध ही उत्पन्न हुआ । हाँ, दया के भाव अवश्य उत्पन्न हुए । सत्य तो उनके हृदय में स्थित था ही, उसी के प्रभाव से उन्होंने विचारा कि, "मेरे सिर पर जो अंगारे रखे गये हैं, उनसे मेरी कोई क्षति नहीं है। पौद्गलिक शरीर मेरा नहीं है, मैं तो रूप, रस, गन्ध आदि से रहित, उज्ज्वल आत्मा हूँ । यह शरीर रहता तो अच्छा ही था, किन्तु यदि नष्ट हुआ जा रहा है तो मुझे कुछ दुःख नहीं है । हाँ, इस ब्राह्मण की अज्ञानता पर मुझे अवश्य दुःख है, जिसके वश यह ऐसा कर रहा है । इसकी अज्ञानता ही ऐसा करा रही है, इसका दोष नहीं है । आत्मा तो मेरी और इसकी समान ही है । मुझे इसके प्रति किसी प्रकार का क्रोध या घृणा नहीं है अंगारे जल रहे हैं। गजसुकमाल मुनि का मस्तक खिचड़ी की तरह सीज रहा है । किन्तु गजसुकमाल मुनि शांत हैं और उनकी आत्मा एक दिव्य-लोक की ओर प्रस्थान करने की तैयारी कर रही है । गजसुकमाल मुनि अन्त तक शांत रहे । इसी शांति के प्रभाव से उन्हें तत्क्षण केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया और इसी नाशवान् शरीर को त्याग कर मोक्ष प्राप्त किया । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि सोमल अकारण ही, शांतमूर्ति गजसुकमाल मुनि के प्राणों का इस प्रकार ग्राहक बना था, लेकिन गजसुकमाल मूनि सत्य को पहचानते थे, इसी कारण न तो उन्हें दुःख ही हुआ, न सोमल पर क्रोध ही आया। लोगों को अपने किये हुए अपराधों का फल भोगने में भी दुःख और दण्ड देने वाले पर क्रोध होता है। इसका कारण सत्य का न जानना है । सत्य न जानने और उसकी शक्ति प्राप्त न करने से ही ऐसे लोग अपराध, बिलबिलाहट और क्रोध का पाप बांधते हैं । सत्य के बल के सामने अन्य बल कुछ नहीं है । सत्य का बल होने पर भय तो नाम मात्र को नहीं रहता, न दुःख ही होता है । सत्य को जान लेने और उसके द्वारा आत्मबल प्राप्त कर लेने से ही सुदर्शन सेठ ने अर्जुन को, जिसने ११४४ मनुष्य मार डाले थे और श्रेणिक जैसा प्रतापी भी जिसका कुछ न कर सकता था, परास्त कर दिया। इतना ही नहीं, अर्जुन को भी सत्य द्वारा प्रात्मा को बलवान् बनाने का उपाय बतलाकर, सच्चे मार्ग का पथिक बना दिया । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्य नहिं असत्य सम पातक पुंजा, गिरि सम होहिं न कोटिक गुंजा।। -तुलसीदास जिस तरह करोड़ों गुजाओं (चिरमियों) का ढेर पहाड़ के समान नहीं हो सकता, इसी तरह अन्य पापों का समूह, झूठ के पाप के समान नहीं हो सकता । अर्थात् झूठ का पाप सब पापों से बढ़कर है । झूठ सत्य का विरोधी है । पहले कहा गया है कि धर्म का उत्पादक और परलोक में सूखदाता 'सत्य' ही है। इसके विरुद्ध असत्य, धर्म का नाशक और परलोक में दुःखदाता है । परलोक के लिये तो 'असत्य' हानिप्रद है ही, परन्तु इस लोक के लिये भी यह कैसा हानिकारक है, इसकी निन्दा के लिये शास्त्र में कहा हैजम्बू ! बितियं च अलियवयणं लहु सगलहु चवल भणियं भयकर-दुहकर-अयसकर-बेरकरगं अरतिरतिरागदेसमणसं किलेसवियरणं अलियनियडि-साइजोयबहुलं रणीयजण-णिसेवियं निसंसं अप्पञ्चयकारगं परमसाहुगरहणिज्जं परपीलाकारगं परमकण्ह-लेससहियं दुग्गति Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) विणिपायवड्ढणं-भवपुणब्भवकरं चिरपरिचिप्रमणुगयं दुरंत कित्तियं वीयं अहम्मदारं । दूसरा आस्रवद्वार, अलीक वचन यानी मिथ्या-भाषण है । यह मिथ्या-भाषण, लघु-अर्थात् जो गुण-गौरव से होन हैं, उनके द्वारा सेवन किया जाता है । यह भय, दुःख अकीर्ति और वैर को बढ़ाता है तथा अरति [पारलौकिक विषयों से द्वेष] रति [सांसारिक विषयों से प्रेम और रागद्वेष रूप मन को क्लेश का देने वाला है । मिथ्या-भाषण करने से मनुष्य का विश्वास नहीं रहता और इससे प्राणियों की हिंसा भी होती है। इस मिथ्या-भाषण के कारण प्राणी को बार बार संसार में जन्म-मरण करना होता है । यह अनादि काल से चले आते हुए संसार में प्राणियों के साथ लगातार चलता आया है । इसका परिणाम बहुत ही भयंकर होता है । यह अधर्म का दूसरा द्वार है ।। असत्य अस्वाभाविक, अवास्तविक और कृत्रिम वस्त है । मनुष्य को असत्य उसी प्रकार सीखना पड़ता है, जैसे ठग या चोर किसी को अपना गुरु बना कर उससे शनैः शनैः चोरी और ठगाई की कला सीखता है । सीखने के पहिले, जैसे मनुष्य में ये दुर्गुण नहीं होते, उसी प्रकार मनुष्य के स्वच्छ हृदय में असत्य भी नहीं होता है । ___ जो कार्य, बात और विचार, मन, वचन या काया से अयथार्थ और दूसरे के हृदय को दुःख देने वाला हो, उसको 'असत्य' कहते हैं । असत्य अयथार्थ तो है ही, परन्तुं जिस बात, कार्य या विचार से दूसरे को दु.ख .पहुंचे तो उसके वास्तविक और यथार्थ होने पर भी शास्त्रकारों और विद्वानों Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ने उसकी गणना, सत्य में नहीं की है -जैसे सूयगडाङ्ग सूत्र में कहा है - सच्चेसु वा अणवज्जं वयन्ति । 'ज' वाक्य पाप-रहित और दूसरे को पीड़ा उत्पन्न करने वाला न हो, वही सत्य है । यानी जिस वाक्य से दूसरे को पीड़ा हो, वह सत्य नहीं है ।' दश वैकालिक सूत्र में मुनियों को भाषा-प्रयोग का उपदेश देते हुए कहा है - तहेव कारणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वा । वाहियं वावि रोगित्ति, तेरणं चोरत्ति नो वए । 'काने को काना, नपुंसक को हीजड़ा, व्याधिग्रस्त को रोगी, चोरी करने वाले को चोर, ऐसा कटु वाक्य यथार्थ होते हुए भी न कहना चाहिये । यह सत्य नहीं कहलाता, क्योंकि इस से दूसरे के हृदय को दुःख होता है ।' और कहा है - तहेव फरुसा भासा, गुरुभूगोवधाइरणी । सच्चामोसा न वत्तव्वा जो पावस्स आगमो।। 'शंकित भाषा के समान कठोर भाषा, सत्य होने पर भी लोक में प्राणियों का घात करने वाली अर्थात् अत्यन्त अनर्थकारक होती है ! अतः कटु सत्य का भी प्रयोग न करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि वह सत्य, जिसके कथन से दूसरे के Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) हृदय को दुःख पहुंचे, सत्य नहीं, वरन् असत्य है । मनुस्मृति में भी कहा है हीनाङ्गानतिरिक्तान् विद्याहीनान् वयोऽधिकान् । रूपद्रव्यविहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत् ॥ भावार्थ - हीन अंग वाले को कारणा इत्यादि, अधिक अङ्ग वाले को छः उङ्गली वाला ग्रादि, अविद्वान् को मूर्ख, अधिक आयु वाले को बूढ़ा डोसा आदि, रूपहीन को कुरूप, द्रव्यहीन को कङ्गाल और हीन जाति वाले को नीच आदि शब्दों से न कहे । यद्यपि यह भाषा यथार्थ है, किन्तु इन वाक्यों से सुनने वाले का दिल दुखता है, इसलिये ऐसा 'सत्य', सत्य नहीं है ।। १ ।। योगदर्शन के भाष्य में वेदव्यासजी ने कहा है - एषा सर्वभूतोपकारार्थप्रवृत्ता न भूतोपघाताय, यदि चैवमप्यभिधीयमाना, भूतोपघाताय परैव स्यात् न सत्यं भवेत् । वाक्यों का प्रयोग, इस प्रकार से करना चाहिए, जिससे जीवों का मङ्गल हो । किसी को भी दुःख न हो । यदि वाक्य के ठीक-ठीक उच्चारण से भी दूसरे को दुःख हो तो वह सत्य नहीं, वरन् असत्य है । शास्त्रकारों और विद्वानों ने तो इस प्रकार उस सत्य की, जो दूसरे के हृदय को दुखित करे, निन्दा करके उसे असत्य बतलाया ही है, परन्तु ऐसे कटु सत्य का प्रयोग करने वाला संसार में भी निंद्य समझा जाता है । इसीलिये जिस Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) बात, कार्य या विचार से दूसरे को दुःख पहुंचे, वह सत्य नहीं कहलाता । उसकी गणना सभी ने झूठ में ही की है । दवैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन की टीका में मृषावाद (झूठ ) चार प्रकार का बतलाया गया है । सद्भावप्रतिषेध, असद्भावोद्भावन, श्रर्थान्तर और गर्दा । सद्भाव प्रतिषेध उस झूठ को कहते हैं, जिसके द्वारा किसी के हृदय में स्थित अच्छे भावों को बुरा बताया जाय अथवा विद्यमान वस्तु को अविद्यमान कहा जाय । जो वस्तु नहीं है, उसका विधान करना असद्भूतोद्भावन असत्य कहलाता है । जैसे— जीव को न मारने में धर्म और मरते हुए जीव को बचाने में किसी की किसी प्रकार सहायता करने, की सेवा करने और विनय करने को पाप कुपात्र समझने के भाव भरना आदि । पाप बताना, या माता-पिता, पति बताना तथा उन्हें 'अर्थान्तर' उस झूठ को कहते हैं, जिससे किसी बात, पुस्तक, वस्तु आदि के वास्तविक अर्थ या गुण श्रादि की जगह अवास्तविक गुण, अर्थ आदि बताये जायं । जैसे गाय को घोड़ा बताना, अमृत को विष या विष को अमृत बताना, शास्त्र के सही अर्थ को छोड़ कर दूसरा ही अर्थ करना । उस कार्य, बात या विचार को गर्हा झूठ कहते हैं, जिससे किसी की निन्दा हो, या किसी के हृदय को दुःख पहुंचे । शास्त्र में गुरंगानुसार, मिथ्या भाषण के तीस नाम बतलाये हैं । जैसे ‘अलीक' (झूठ ) १. 'शठ' २. अनार्य लोग कहते हैं, इससे 'अनार्य' ३, माया से युक्त तथा मिथ्या रूप होने के कारण इसका नाम 'माया मृषा' ४ भी है । जो वस्तु नहीं है, उसे यह बतलाता है, इसलिये इसका नाम Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२) 'असत्य' ५ है। दूसरे को ठगने के लिये अधिक को कम या कम को अधिक बताता है, कपट से भरा हुआ है और जो वस्तु नहीं है उसे बतलाता है, इसलिये इसका नाम 'कूट कपट' ६ है । सच्ची बात से यह अलग रहता है और सत्य इससे हटा हुआ है, इसलिये इसका नाम 'निरर्थक अनर्थक' ७ है । द्वेष के कारण इससे दूसरे की निन्दा की जाती है, अथवा साधु पुरुष इसकी निन्दा करते हैं, इसलिये इसका नाम 'द्वेष गह. णीय' ८ है । सीधा न होने के कारण इसका नाम 'वक्र'. है । पाप या माया और उसका कारण होने से, इसका नाम 'कल्क तत्कारण' १० है । ठगने के, कारण इसका नाम 'वञ्चना' ११ है। किये हुए काम से, मिथ्या बोलकर इनकार करने से इसका नाम 'मिथ्या पश्चात् कृत' १२ है । अविश्वास उत्पन्न करने के कारण इसका नाम 'सती' (अविश्वास) १३ है । अपने दोष को और दूसरे के गुण को झूठ बोलकर ढांकने से इसका नाम 'उच्छन्न' १४ है । अच्छे मार्ग से हटा कर, न्यायरूपी नदी के तट से अलग रखता है, इसलिये इसका नाम 'उत्कूल' १५ है । पीड़ित मनुष्यों से बोला जाने के कारण, इसका नाम 'आर्त' १६ है। किसी के ऊपर झूठा अपराध लगाने से इसका नाम 'अभ्याख्यान' १७ है । पाप का कारण है, इससे इसका नाम 'किल्विष' १८ है । मन्डलाकर टेढ़ा होने से, इसका नाम 'वलय' १६ है । इसके हृदय का पता नहीं पड़ता, इससे इसका नाम 'गहन' २०है। स्पष्ट न होने के कारण, इसका नाम 'मन्मन' २१ है । वस्तुस्वरूप को ढांकता है, इस कारण, इसका नाम 'नम' २२ है । अपने कपट को छिपाने के लिये बोला जाता है, इसलिये इसका नाम 'निष्कृति' २३ है । इसमें विश्वास नहीं होता, इसलिये इसका नाम 'अप्रत्यय' २४ है । इसका व्यवहार Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) अनूचित होने के कारण इसको 'असमय २५ कहते हैं । वस्तु के न होने पर भी होना बतलाता है, इसलिये इसका नाम 'अमत्य सन्धत्व' २६ है । यह पुण्य और सत्य का शत्रु है इस कारण इसका नाम 'विपक्ष' २७ है । इससे बुद्धि बिगड़ जाती है, इसलिए इसका नाम 'अपधीक' २८ है । माया के कारण अशुद्ध होने से 'ऊपद्धि शुद्ध' २६ नाम है। वस्तु वा सत्ता को ढंक देता है, इसलिये इसे 'अवलोप' ३० कहते हैं । अलीक वचन के ये तीस सार्थक नाम हैं। इस प्रकार इसके और भी अनेक नाम होते हैं।' झूठ का यह थोड़ा सा स्वरूप बताया है । इसको अपनाने वाला, सदा दुःख की ओर ही अग्रसर होता है । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य से लाभ और असत्य से हानि प्रियं सत्यं वाक्यं, हरति हृदयं कस्य न सखे । गिरं सत्यां लोकः प्रतिपदमिमामर्थयति च ॥ सुराः सत्याद्वाक्यादति मुदिताः कामिकफलं । अतः सत्याद्वाक्याद् व्रतमभिमतं नास्ति भुवने ॥ प्रिय सत्य वाक्य किसके हृदय को हरण नहीं करते अर्थात् सबका का हृदय हरण कर लेते हैं । लोक, पद पद में सत्य की याचना करते हैं । देवता सत्य से प्रसन्न होकर मनोवांछित फल देते हैं । इसलिए संसार में, सत्य से बढ़ कर दूसरा कोई व्रत नहीं है । - सत्य असत्य के विषय में ऊपर संक्षेप में बतलाया जा चुका है । अब यह देखना है कि सत्य को धारण करने से क्या लाभ है और झूठ को न तजने से क्या हानि है ? । सत्य का पालना तीन प्रकार से होता है । मन से, वचन से और काया से । जिस विचार में, संसार के किसी प्राणी को कष्ट देने की कल्पना न की गई हो, जिसके प्रकट कर देने पर किसी प्रकार की कुत्सित भावना का परिचय न मिले और वस्तुस्थिति का ज्ञान प्राप्त करके निष्पक्ष भाव से प्राणीमात्र को Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५) अपना मित्र समझते हुए जो विचार किया जाय, वह मानसिक सत्य है । जिस वाणी में किसी को अनुचित कष्ट पहुंचने योग्य बात न कही गई हो, जो विचारपूर्वक बोली गई हो, जिसको वक्ता ने निःस्वार्थ-भाव से केवल सत्य का स्पष्टीकरण करने के लिए कहा हो, जो बात जैसो देखी, सुनी या समझी है, उसको वैसे ही समझाने को कही हो, वह वाचिक अर्थात् वाणी का सत्य है। जिस कार्य के करने से संसार के किसी प्राणी का अहित न होकर हित ही हो, जो स्वार्थ, छल, दम्भ, ईर्ष्या, द्वेषादि दुर्गुणों से रहित हो, शास्त्र में वर्णित नीति को जिस कार्य से क्षति न पहुंचती हो, वह कायिक सत्य है । - उपरोक्त तीनों भेदों का एकीकरण हो जाने पर शास्त्र में जिस सत्य को भगवान् ने पूर्ण सत्य कहा है, वह सत्य तैयार हो जाता है अर्थात् ऐसे सत्य को पूर्ण रूप से पालन करने वाले में और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं रहता ।। सत्य विचार, सत्य भाषण और सत्य व्यवहार करने वाला मनुष्य ही उत्कृष्ट से उत्कृष्ट सिद्धि प्राप्त कर सकता है। जिस मनुष्य में सत्य नहीं है, समझना चाहिए कि उसकी देह जीव-रहित काष्ठ-पाषाण की तरह, धर्म के लिये अनुपयोगी है। मनुष्य को असत्याचार से प्रकट में चाहे कुछ लाभ दीखे, परन्तु वे लाभ क्षणिक और अस्थायी होते हैं तथा ऐसे लाभ के पोछे अनेक ऐसी हानियां छिपी रहती हैं, जो उस समय नहीं दीखतीं । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) जो मनुष्य, सत्य का आचरण नहीं करता, वह संसार में कभी सुखी नहीं रह सकता है और न उसका कोई आदर ही करता है । जब इस लोक के लिए यह बात है, तब परलोक के लिए भी यही बात हो तो इसमें सन्देह ही क्या है ? " संसार के लिए भी, सत्य का व्यवहार अत्यावश्यक है । यदि सत्य व्यवहार निःशेष हो जाय, तो सारे कारबार उसी दिन बन्द कर देने पड़े क्योंकि असत्याचरण जब प्रत्येक व्यक्ति का ध्येय हो जायेगा, तो कोई एक दूसरे पर किंचित् भी विश्वास कैसे कर सकता है ? इन्हीं बातों को दृष्टि में रख कर किसी ने कहा है सत्येन धार्यते पृथ्वी, सत्येन तपते रविः । सत्येन वाति वायुश्च सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ , 'सत्य ने ही पृथ्वी को धारण कर रखा है, सत्य से ही सूर्य तपता है, सत्य से ही हवा बहती है और सब कुछ सत्य से ही स्थिर है ।' प्रकृति ने मनुष्य को ही सत्याचरण नहीं सिखाया है, बल्कि वह स्वयं भी सत्य का अनुसरण करती है अर्थात् समयानुसार र ऋतुओं का परिवर्तन और ग्रह उपग्रहों का ठीक ठीक अपने कक्ष पर चलना भी सत्य की पुष्टि करता है । यदि गर्मी की ऋतु के स्थान पर वर्षा ऋतु और वर्षा -: - ऋतु के स्थान पर हेमन्त ऋतु श्रादि उलटफेर हो जाया करे, तो कैसी भारी गड़बड़ी हो जाय, यह बात सब जानते हैं । जिस प्रकार प्रकृति के नियम, सत्यं का पालन करते Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) हैं, उसी प्रकार मनुष्य के अन्दर भी एक ऐसा पदार्थ है, जो सदा सत्य - पालन का आदेश देता है । उस वस्तु का नाम है 'आत्मा' | किसी झूठे कार्य का आत्मा कभी समर्थन नहीं करता। यदि मनुष्य अपने हृदय में बुरे विचारों और दुष्कर्मों की आंधी लाकर, आत्मा को चारों ओर से धलिआच्छादित न कर दे, तो आत्मा उसे सर्वदा सत्य मार्ग ही दिखलायेगा । इतना सब कुछ कहते हुए जब कोई भी मनुष्य, क्रोधादि दुर्गुणों को हृदय से निकाल कर शांत भाव से विचार करता है, तो उसे वही दिव्य प्रकाश किसी अंश में दिखाई देता है, जो सत्यपालन करने वाले को दिखाई दिया करता है । अर्थात् आत्मा उसे ऐसा ही मार्ग दिखाता है, जो उसके लिए कल्याणकर हो । जब कोई मनुष्य किसी ऐसे कार्य को करना चाहता है, जो सत्य के विरुद्ध हो, तो उसकी आत्मा भीतर ही भीतर संकेत करती है कि यह काय बुरा है । इसको करना तुम्हारे लिये उचित और कल्याणकर नहीं है । यद्यपि आत्मा की यह पुकार मानव के पाप पुद्गलों के पुञ्ज से आच्छादित मन तक पूरी नहीं पहुंचती, परन्तु कैसा भी घोर पापी मनुष्य क्यों न हो, इस मधुर सन्देश का आभा उसे अवश्य मिल जाता है । जो सत्य, आत्मा - रूप से मनुष्य के हृदय में स्थित है, वही सत्य सारे संसार में भिन्न २ रूपों में दिखाई देता है । प्रत्येक पदार्थ में यह किसी न किसी रूप में अवश्य मौजूद है । यदि यह न हो, तो संसार की स्थिति ही एक विचित्र प्रकार की हो जाय । सत्य की अनुपस्थिति में मनुष्य ही मनुष्य के प्राणों का ग्राहक बन सकता है । जिस मनुष्य के हृदय से, सत्य की शक्ति निकल जाती Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) है, अर्थात् आत्मा को उसके बुरे विचारों के पुद्गल चारों तरफ से घेरे लेते हैं वह मनुष्य न करने योग्य कार्यों को भी करके, उसके फलस्वरूप नाना प्रकार के दण्ड भोगता और पाप कर्म बांधता है । ऐसा मनुष्य जितने २ कार्य करता है, वे कार्य उसे ही शांतिदाता नहीं होते । जैसे एक मनुष्य सत्य को भूल कर क्रोध से उत्तेजित होकर, किसी मनुष्य का वध कर डालता है । पश्चात् वह चाहे भाग भी जाय, किन्तु उसकी आत्मा को कदापि सुख नहीं मिलता। जीवन भर उसकी आत्मा उसे कोसती रहती है। यदि संयोग से वह पकड़ लिया गया और न्यायाधीश ने उसे प्राण-दन्ड दिया, तो फैसला सुनने के समय से प्राण नाश हो जाने के समय तक वह अपने ही विचार में कितनी ही बार मरता और जीता है। जिसके हृदय में सत्य होता है, वह मृत्यु को सम्मुख उपस्थित देख कर भी नहीं घबराता। यदि कोई मनुष्य उसका वध करने चलता है, तब भी वह ऐसी घबराहट में नहीं पड़ता, जैसी घबराहट में असत्य का आश्रय लेने वाला मनुष्य पड़ जाया करता है । सारांश यह है कि सत्य के पालन करने वाले को किसी भी समय अशान्ति नहीं होती। सत्य इस लोक और परलोक में कल्याण करने वाला और असत्य चक्कर में डालने वाला है। इन दोनों के भेदों को जानकर भी, जो मनुष्य सत्य का पालन और असत्य का त्याग नहीं करता, वह बुद्धिमान् नहीं कहा जाता । जो लोग, सत्य में भय और असत्य में सुख मानते हैं, वे भारी भ्रम में हैं । उनके हृदय की वृत्तियां ही इस ढंग की बन गई हैं, जिससे वे ऐसा समझने लग गये हैं । किन्तु Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) वास्तव में यह बात नहीं है । सच्चा सुख तो सत्य के ग्रहरण करने से ही मिल सकता है । जिस प्रकार अफीम खाने वाला व्यक्ति अफीम खाने में ही सुख मानता है, किन्तु वास्तव में देखा जाय तो अफीम न खाने में ही सुख है, इसी प्रकार असत्य का आश्रय ग्रहण करने वाला व्यक्ति भी असत्य में ही सुख समझता है किन्तु उसका यह व्यसन छूट जाय तो वह भी मानने लगे कि मैं भूल करता था, वास्तविक सुख तो सत्य का आश्रय ग्रहण करने से ही हो सकता है । जिस प्रकार अफीम का नशा छोड़ने वाले मनुष्य को पहले कष्ट का अनुभव होता है, उसी प्रकार असत्य को छोड़कर सत्य ग्रहण करने वाले को भी कुछ कष्ट-सा अनुभव होता है । किन्तु यदि उसके हृदय में सद्ज्ञान का प्रकाश उदय हो जाता है, तो वह इस कष्ट को बिना अनुभव किये ही पार लग जाता है । जिस प्रकार, बन्दर पींजरे में कैद होकर अटपटापन अनुभव करता है, उसी प्रकार चञ्चल चित्त वाले मनुष्य को भी सत्य मार्ग का अबलम्बन करने में बड़ा अटपटापन लगता है क्योंकि उसे असत्य मार्ग पर चलने का अभ्यास हो गया है और वह उस मार्ग का व्यसनी वन गया है । यह व्यसन या तो थोड़ा सा कष्ट सहकर छूट सकता है या किसी पूर्ण ज्ञानी के उपदेश से । सत्य से मनुष्य को कभी भी शान्ति नहीं मिल सकती । शान्ति सदैव सत्य का आश्रय लेने से ही मिला करती है । जो मनुष्य असत्य में सुख का अनुभव करते हैं, उन पर असत्य का पूरा कब्जा हो चुका है, ऐसा समझना चाहिए । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जो मनुष्य अफीम खाना शुरू करता है वह सोचता है कि मैं इसे वश में रखूगा, किन्तु परिणाम बिल्कुल उल्टा होने लगता है । थोड़े ही दिनों में वह अफीम अपने भक्त पर ऐसा कब्जा जमा लेता है कि जब तक उसे अफीम नहीं मिल जाता, वह चलने फिरने से लाचार हो जाता है और बड़े दुःख का अनुभव करता है । ठीक इसी प्रकार असत्य का सेवन करने वाले मनुष्य की दशा होती है । जब वह असत्य का सेवन प्रारम्भ करता है, तब सोचता है कि मैं इस पर कब्जा रखंगा, किन्तु कुछ ही दिनों में वह असत्य उसके जीवन का मूलमन्त्र-सा बन जाता है । असत्य के बिना उसको व्यवहार चलाना कठिन दिखाई देने लगता है और शनैः शनै: वह पतन की ओर जाता हुआ असत्य के ऐसे भारी खड्डे में जा गिरता है, जहां से बिना किसी अच्छे मुनि-महात्मा या किसी अन्य ,सत्यमूर्ति मनुष्य की सहायता के उसका उद्धार होना भी कठिन हो जाता है । मनुष्य को जब तक अनुभव नहीं हो जाता, तब तक सत्य का महत्त्व उसकी समझ में नहीं आता । जब उसके सिर पर कोई ऐसी आपत्ति आ पड़ती है, जो असत्य का आश्रय लेने से उत्पन्न हुई हो, तो तत्काल ही वह समझ जाता है कि सत्य का क्या महत्त्व है और उसी समय से वह असत्य का परित्याग कर देता है। सत्यमार्ग पर चलना, तलवार की धार पर चलने के समान कठिन भी है और फलों के बिछौने पर सोने के समान सरल भी । इसमें प्रकृति की भिन्नता का अन्तर है । ऐसे मनुष्य भी हैं, जो अकारण ही असत्य बोलते रहते हैं और सत्य-व्यवहार को तलवार की धार पर चलने के Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान कठिन मानते है । उनका विश्वास है कि सत्य व्यवहार करने वाला मनुष्य संसार में जीवित नहीं रह सकता। दूसरे ऐसे भी मनुष्य हो चुके हैं और हैं, जो असत्य व्यवहार करने की अपेक्षा मृत्यु को श्रेष्ठ मानते हैं । सत्य-व्यवहार उनके लिये फलों की सेज है । फिर उस मार्ग में उन्हें, चाहे कितने ही कष्ट क्यों न हों किन्तु वे उनकी परवाह किये बिना ही प्रसन्नतापूर्वक अपने मार्ग पर चलते रहते हैं। ____ जो मनुष्य सत्यमार्ग का पथिक है, उस पर शत्रु भी विश्वास करता है और यह बात घ्र व सत्य है कि वह शत्रु से भी विश्वासघात नहीं करता । इसके लिये महाभारत में वणित एक कथा का उदाहरण दिया जाता है । जिस समय महाभारत-युद्ध में दुर्योधन की प्रायः सब सेना औ भाई निःशेष हो गये, सौ भाइयों में से एक दुर्योधन ही नीवित बचा, उस समय दुर्योधन ने सोचा कि मैं अकेला क्या कर सकता हूँ ? पांडवों के पास इस समय भी पर्याप्त शक्ति है और मैं अपने भाइयों में से अकेला हूँ । यह सोच कर वह प्राण बचाने के लिये एक तालाब की जलराशि में जा छिपा । कई दिन तक इसी प्रकार छिपे रहने के पश्चात् उसने सोचा कि मैं क्षत्रिय हूँ, उद्योग करना मेरा परम कर्त्तव्य है । अतः कोई ऐसा उपाय सोचना चाहिए कि जिससे मेरी मृत्यू भी न हो और मैं पूरी शक्ति के साथ अकेला ही पांडवों से युद्ध कर सकू । सोचते-सोचते उसके विचार में यह बात आई–'युधिष्ठिर सरल हृदय हैं और सदैव सत्य भाषण करते हैं, अतः उन्हीं से कोई ऐसी युक्ति पूछनी चाहिए, जिससे मैं अजेय हो जाऊ । यह सोचकर दुर्योधन जल से बाहर निकला और युधिष्ठर के पास जाकर Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) पूछने लगा-महाराज! मुझे कोई ऐसी युक्ति बताइये, जिससे मैं अजेय हो जाऊं और भीम या अर्जुन, जिनका . मुझे विशेष भय है, मेरा कुछ न बिगाड़ सकें । युधिष्ठिर ने उत्तर दिया-राजन् ! यह सिद्धि तो तुम्हारे घर में ही है, कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है । माता गांधारी बड़ी सती है । यदि वे एक दृष्टि से तुम्हारे खुले शरीर की ओर देख लें तो तुम्हारा सारा शरीर वज्र के समान कठोर हो जाय । किन्तु एक बात है, वह यह कि शरीर के जिस भाग पर उनकी दृष्टि न पड़ेगी, वह कच्चा रह जायेगा। युधिष्ठिर की यह बात सुनकर दुर्योधन अत्यन्त प्रसन्न हआ और सोचने लगा-अब क्या है ? अभी जाकर माता गांधारी के सामने से नग्न होकर निकल जाऊ । बस, फिर तो अर्जुन और भीम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे । दुर्योधन यह सोचता हुआ अपने घर की ओर जा रहा था कि मार्ग में उसे श्रीकृष्ण मिले । उन्होंने दुर्योधन के हृदय की बात जान कर कहा-'दुर्योधन ! यह युक्ति तो धर्मराज युधिष्ठिर ने अच्छी बतलाई और इससे तुम्हारा शरीर भी वज्र बन जायेगा, किन्तु बिलकुल नग्न होकर, तुम्हें अपनी माता के पास जाना उचित नहीं है । लज्जा की रक्षा के लिये, कम से कम एक कमल-कोपीन तो अवश्य लगा लेना।' पहले तो इसके लिए दुर्योधन कुछ आनाकानी करता रहा, किन्तु श्रीकृष्ण के नीति बतलाने पर उसने यह बात स्वीकार कर ली। वह अपनी माता के पास गया और उससे यह सारी कथा कही । गान्धारी यह सुन कर चौंकी । उसे यह नहीं मालूम था कि मेरे में ऐसी शक्ति मौजूद है । किन्तु Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) युधिष्ठिर सदैव सत्य बोलते हैं, कभी असत्य भाषण नहीं करते, अतः अविश्वास करने का कोई कारण भी न था। गांधारी ने एक दृढ़-दृष्टि से दुर्योधन को देख लेना स्वीकार किया। तब दुर्योधन एक कमल-कोपीन लगाकर उसके सामने आ खड़ा हुआ । गान्धारी ने एक दृढ़-दृष्टि से दुर्योधन के शरीर की ओर देख लिया। इससे उसका सारा शरीर तो वज्र के समान कठिन हो गया, किन्तु जो स्थान ढका हया था, वह कच्चा रह गया । दुर्योधन ने सोचा कि - इस स्थान के कच्चे रह जाने से मेरी क्या क्षति हो सकती है ? यह स्थान तो धोती के भीतर रहता है । इस पर कौन चोट करने जाता है ? यह विचार कर, वह बाहर निकल पाया और पांडवों के पास जाकर, दूसरे दिन भीम से गदायुद्ध करने की बात तय की । गान्धारी के नेत्रों में ऐसी शक्ति होने का कारण, उसका पतिव्रत धर्म ही था । उसने अपने नेत्रों से कभी भी किसी परपुरुष को बुरी दृष्टि से नहीं देखा था । पतिव्रता स्त्री के नेत्रों में यह शक्ति होती है कि यदि वह किसी को पुत्र की तरह प्रेम की दृढ़- दृष्टि से देख ले तो उसका शरीर वज्रमय हो जाय और यदि क्रोध की दृष्टि से देख ले तो भस्म हो जाय । मनुष्य यदि चाहे, तो अपने नेत्रों और वाणी में, सत्य से ऐसी शक्ति पैदा कर सकता है क्योंकि असत्य स्थान पर दृष्टि न डालने और असत्य भाषण न करने से वागो और नेत्रों में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो सकती है कि नेत्र से जिसे देख ले, उसका शरीर वज्र सा दृढ़ हो जाय, य। भस्म हो जाय और वाणी से जो कुछ कह दे, वही पूरा हो जाय । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४) प्रायः पूर्वकाल के लोगों की वाणी में वह शक्ति होती थी कि वे जिसके लिये जो कुछ कह देते थे, वही हो जाता था । उनका आशीर्वाद या शाप, मिथ्या नहीं होता था । वे लोग सत्य का पालन करते और बात-बात में न तो किसी को आशीर्वाद ही देते थे, न शाप ही । आज के लोग दिनरात दूसरे का बुरा-भला चाहा करते हैं, अर्थात् आशीर्वाद । या शाप दिया करते हैं, परन्तु कुछ नहीं होता। इसका कारण यही है कि सत्य को न पहिचानने से उनकी वाणी निस्तेज हो जाती है। यदि सत्य को पहिचान लें तो, न तो वे इस प्रकार किसी का भला बुरा ही चाहें और न चाहा हुआ भला-बुरा निष्फल हो हो। दूसरे दिन दुर्योधन और भीम का गदा-युद्ध हुआ । भीम ने अपनी पूरी शक्ति से दुर्योधन के सिर, पीठ, छाती, भुजा आदि स्थानों पर गदा-प्रहार किये, किन्तु सब निष्फल। गदा लगती और टकरा कर लौट आती । दुर्योधन का बाल भी बांका न होता । इसी समय भीम को अपनी प्रतिज्ञा याद आई कि मैंने द्रोपदी के चीरहरण के समय दुर्योधन की जङ्घा चूर्ण करने को प्रतिज्ञा की थी। बस, फिर क्या था। तत्क्षण उसने अपनी गदा का प्रहार दुर्योधन की जङघा पर किया । जङ्घा कच्ची तो रह ही गई थी, गदा लगते ही चूर्ण हो गई और दुर्योधन गिर पड़ा। ___ यह कथा बहुत लम्बी है । इसे यहीं छोड़ कर यह विचारना है कि युधिष्ठिर का यह व्यवहार कैसा कहा जा सकता है, जो शत्रु को भी उचित और सत्य सलाह ही देते हैं। जो मनुष्य सत्य-व्रत के पालने वाले हैं, वे अपनी शरण में आये हुए शव के साथ भी दुष्टता का व्यवहार नहीं करते। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५) शरण में आया व्यक्ति, जो सलाह पूछता है, बिना किसी प्रकार का भेद-भाव रखे और बिना किसी प्रकार की ई के वे ठोक-ठीक बतला देते हैं। वे यह नहीं देखते कि शरणागत शत्रु है या मित्र । युधिष्ठिर यह जानते थे कि दुर्योधन से मेरा युद्ध चल रहा है । मेरे भाई भीम और अर्जुन को हराने के लिए ही यह मुझ से सलाह पूछने आया है। इस समय यदि वे चाहते तो कोई ऐसी राय बतला सकते थे, जिससे स्वयं दुर्योधन अपना नाश अपने हाथ से कर लेता । किन्तु यूधिष्ठिर ने ऐसा न करके स्वच्छ हृदय से, सच्ची और लाभदायक सम्मति हो दी । ऐसा करने वाले, सत्यमति युधिष्ठिर के सत्यव्रत की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है । उक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि जो मनष्य सत्यमार्ग का पथिक है, वह अपने शत्रु की क्षति के लिए भी कभी झूठ का आश्रय नहीं लेता बल्कि आवश्यकता पड़ने पर, शत्रु यदि राय पूछे तो शत्रुता को दूर रख कर एक मित्र की तरह राय देता है । युधिष्ठिर को दुर्योधन ने कितने कष्ट दिये थे ? वह युधिष्ठिर को अपना कैसा भयंकर शत्रु समझता था। फिर भी युधिष्ठिर ने दुर्योधन से असत्य भाषण नहीं किया । दुर्योधन के अजेय होने पर, युधिष्ठिर की ही हानि थी क्योंकि उसे पराजित करने के लिए ही यह युद्ध हुअा था । लेकिन युधिष्ठिर ने ऐसे समय में भी सत्य को ही प्रधानता दी और अपनी हानि की कुछ चिन्ता न की । आज के लोगों पर, युधिष्ठिर जैसी कोई विपत्ति न होते हुए भी, वे असत्य को कितनी प्रधानता देते हैं और शत्रु से झूठ न बोलना तो दूर Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६) रहा, मित्र से भी झूठ बोलने में संकोच नहीं करते। ऐसे लोग, इस बात को बिलकुल भूल जाते हैं कि असत्यः · की विजय नहीं होती, विजय सत्य की ही होती है । यद्यपि युधिष्ठिर ने स्वयं दुर्योधन को अजेय होने को युक्ति बता दी थी और वह यूक्ति असत्य नहीं थी, फिर भी सत्य की विजय होने के लिए, दुर्योधन को मार्ग में कृष्ण मिल गये और उसे पराजित होना पड़ा। इसी प्रकार, सत्य की विजय और असत्य की पराजय होने के लिये, कुछ न कुछ कारण उत्पन्न हो ही जाया करते हैं । सत्य बड़ा ही महत्त्वपूर्ण और कल्याणकारक सिद्धान्त है। इसके पालन करने वाले को तो सदैव आनन्द है ही, किन्तु जो व्यक्ति सत्य का पालन करने वाले व्यक्ति के सम्पर्क में एक बार भी आ जाता है और उसकी एक भी शिक्षा ग्रहण कर लेता है, वह भी भविष्य में अपना कल्याण-मार्ग पा जाता है। परलोक के लिये तो सत्य सुखदायक और झूठ दुखदायक है ही, परन्तु इस लोक में सत्यवादी की प्रशसा और भूठे की निन्दा होती है । इसके सिवाय भूठ सदा चल भी नहीं सकता । एक समय सम्भव है कि झूठ द्वारा किसी को धोखा दे दिया जाय, परन्तु दूसरे समय, वह झूठा मनुष्य धोखा देने में समर्थ न होगा बल्कि झूठे मनुष्य की सच्ची बात पर भी सहसा कोई विश्वास नहीं करेगा। इसके लिए एक कवि ने भी कहा है फेर न हहैं झूठ से, जो करिही व्यवहार । जैसे हांडी काठ की, चढ़े न दूजी बार ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] अर्थात्-झूठ का व्यवहार फिर उसी तरह नहीं हो सकता, जैसे लकड़ी की हांडी दूसरी बार नहीं चढ़ सकती। अाजकल के लोग सत्य का महत्त्व भूल जाने के ' कारण व्यापारादि कार्यों में तो स्वार्थवश झूठ का प्रयोग करते ही हैं, परन्तु धर्म-कार्यो में भी झूठ को स्थान देने से नहीं हिचकते और जहां स्वार्थ भी नहीं है, ऐसी जगह अर्थात् हंसी-मजाक आदि व्यर्थ की बातों में भी झूठ की भरमार रखते हैं । लेकिन इस प्रकार का झूठ का प्रयोग करने से न तो वारणो में ही तेज रहता है, न संसार में कोई विश्वास ही करता है । जहां सत्यवादी के केवल संकेत-मात्र पर भरोसा किया जाता है, वहां झूठे के दस्तावेजों पर भी विश्वास करने में लोग हिचकते हैं । झूठ बोलने वाले का इतना अविश्वास हो जाता है कि फिर उसके विश्वास पर कोई कार्य नहीं छोड़ा जाता । व्यवहार सूत्र में कहा है कि ___ अन्य अपराधों की सरलतापूर्वक आलोचना कर लेने पर, सूत्रोक्त विधि के पश्चात् उस साधु को आचार्यादिश्रेष्ठ पदवी दी भी जा सकती है, लेकिन गाढ़ागाढ़ कारण होते हुए भी जो साधु कपट-युक्त झूठ बोले, शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करे, वह आजीवन ऐसी किसी पदवी को पाने का अधिकारी नहीं हो सकता। झूठ सब पापों से बढ़कर पाप है और सत्य सब धर्मों से बढ़कर धर्म है । संसार के अन्य पाप विशेषतः सत्य को न.समझने से ही होते हैं, इसलिए बुद्धिमान् लोग झूठ को त्याग कर सत्य को अपनावें । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक के लिए त्याज्य श्रसत्य नास्ति सत्यात्परो धर्मो, नानृतात्पातकं परम् । स्थितिहि सत्यधर्मस्य, तस्मात् सत्यं न लोपयेत् ॥ - महाभारत, शांतिपर्व । " सत्य के समान धर्म नहीं है, न असत्य के समान पाप ही है । धर्म सत्य के आश्रय से टिकता है. इसलिए सत्य का लोप कभी न करना चाहिए । जैन - शास्त्र में पंच महाव्रत बतलाये गये हैं । उन पंच महाव्रतों में पहला महाव्रत अहिंसा का पालन और हिंसा का त्याग है तथा दूसरा महाव्रत सत्य का धारण और मृषावाद का त्याग है । इन महाव्रतों को साधु तो सम्पूर्ण और सूक्ष्म रूप से धारण करता है, लेकिन श्रावक गृहस्थ होने के कारण पूर्ण रूप से धारण करके इनका पालन नहीं कर सकता । अहिंसा व्रत पूर्ण रूप से पालन करने में छः काय के जीवों की हिंसा का त्याग होता है और श्रावक गृहस्थ होने के कारण उन्हें खेती, व्यापारादि संसार के आवश्यक कार्यों को करना पड़ता है । इन सांसारिक कार्यों में वह सर्वथा जीव - हिंसा से बच सके, यह असम्भव है । इसी बात को ध्यान में रख कर शास्त्रकारों ने श्रावक को ऐसा अहिंसा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) व्रत बतलाया है, जिसमें श्रावक के संसार-व्यवहार में भी बाधा, न पहुंचे और वह व्रत का पालन भी कर सके । श्रावक के अहिंसा व्रत में केवल स्थूल हिंसा का ही त्याग होता है । गृहस्थाश्रम पालने वाला गृहस्थ स्थूल सूक्ष्म का विचार न करके स्थल के बदले सूक्ष्म हिंसा का पहिले ही त्याग करने जाता है तो वह ऐसा चक्कर में पड़ता है कि सूक्ष्म हिंसा का व्रत तो नहीं पालता सो नहीं पालता, लेकिन स्थूल हिंसा के त्याग से भी पतित हो जाता है । इसलिए बुद्धिमान् लोग पहले अहिंसा व्रत को धारण करके स्थूल पाप को छोड़ते हैं और फिर जब वे गृहस्थी के कार्यों को छोड़ देते हैं, तब सूक्ष्म अहिंसा व्रत को धारण करके सूक्ष्म पापों का भी त्याग करते हैं । जिस प्रकार अहिंसा में स्थूल और सूक्ष्म के भेद किये गये है, उसी प्रकार सत्य में भी स्थल और सूक्ष्म के भेद बतलाये हैं । स्थूल बातों के लिये झूठ बोलना स्थूल झूठ और सूक्ष्म रीति से झूठ बोलना सूक्ष्म झूठ कहा जाता है । ___ श्रावक को जैसे अहिंसा-व्रत में स्थूल हिंसा का त्याग बताया गया है उसी तरह सत्यव्रत में भी स्थूल मषावाद का त्याग बताया गया है । जिस कार्य, बात या विचार को संसार व्यवहार में कहा जाता है कि यह झूठ है और जिससे किसी जीव को अकारण ही दुःख होता है, उसे स्थूल झूठ कहते हैं । शास्त्र में श्रावक के इस दूसरे व्रत-सत्य के धारण और स्थूल झूठ त्याग को स्थूल-मृषावाद-विरमणव्रत कहा है। गृहस्थ सूक्ष्म मृषावाद से नहीं बच सकते । इसलिए सूक्ष्म मषावाद का त्याग गृहस्थ श्रावकों को न बतला कर Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) साधुओं के लिए ही बतलाया है और श्रावकों को स्थूल मषावाद का त्याग बतलाया है । यदि गृहस्थ श्रावक पूर्ण या किसी अश में, सूक्ष्म मृषावाद से भी बच सके, तो कोई बुराई की बात नहीं है, लेकिन शास्त्रकारों ने उसके लिए स्थूल-मृषावाद का त्याग ही आवश्यक बतलाया है क्योंकि सूक्ष्म-मषावाद के त्याग में, सत्य की जो व्याख्या पहले की गई है, उसका पूर्ण रीति से पालन करना पड़ता है और उसके विरोधी झूठ का सर्वथा त्याग करना पढ़ता है । लेकिन ग्रहस्थ श्रावक संसार में रहता है इसलिए वह यदि सूक्ष्म झठ का त्याग करता है, तो उसे संसार में अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ता है । इसलिए श्रावक को शास्त्रीय दृष्टि के सूक्ष्म-झूठ का त्याग न बतला कर शास्त्रकार ने उन्हें स्थूल झूठ त्यागने का ही उपदेश दिया है । कुछ लोगों का कथन है कि श्रावकों को सर्वथा झूठ न बोलने का ही उपदेश देना चाहिए, सूक्ष्म-स्थूल के भेद को न समझाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से सूक्ष्म-झठ का अनुमोदन होता है । लेकिन ऐसा कहने वाले लोग जैनशास्त्र के रहस्यों से अनभिज्ञ हैं, उन्हें जैन-शास्त्र के अगाध विचारों का अच्छी तरह ज्ञान नहीं है । जैन-शास्त्र ऐसी किसी बात का निषेध नहीं करते, जिनके बिना मनुष्यों का काम न चल सकता हो । ऐसी अवस्था में उन श्रावकों को, जो अपने सांसारिक कार्यों को करते हुए सत्य का पालन चाहते हैं, यदि स्थूल और सूक्ष्म झूठ के भेद न बतलाये गए, तो वे सत्य का पालन कैसे कर सकते हैं ? सूक्ष्म से तो गृहस्थ श्रावक सर्वथा बच नहीं सकते और लौकिक में जिस झूठ को झूठ कहा जाता है, उस झूठ का स्थूल झूठ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१) में त्याग हो ही जाता है, इसलिए बुद्धिमान् लोग झूठ के भेद न बताने की बात का समर्थन नहीं कर सकते । श्रावक के लिए इस स्थूल-मृषावाद विरमण व्रत का धारण करना उचित और आवश्यक है । इस व्रत के घारण करने पर सांसारिक कार्यों में किसी प्रकार की बाधा नहीं हो सकती, बल्कि सांसारिक मार्ग सरल हो जाता है । इस व्रत के पालने वालों पर लोग विश्वास करने लगते हैं तथा इस व्रत के धारण करने पर झूठ बोलने के पाप से भी बहुत अंश में बच जाते हैं। सत्य से क्या लाभ है और झूठ से क्या हानि है, वह तो पहिले बहत समझाया जा चूका है । अब भी यदि कोई यह कहे कि हमारा सांसारिक कार्य झठ के बिना केवल सत्य से नहीं चल सकता, तो वह उसका भ्रम है । सत्य से काम नहीं चल सकता, झठ से ही काम चलता है, यह सर्वथा गलतफहमी है । पहिले तो संसार में संभवतः कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे जो अपना काम सत्य से चलाते हैं, झूठ को पास भी नहीं आने देते । दूसरे यदि सत्य से काम नहीं चल सकता तो झूठ ही झूठ से भी नहीं चल सकता । कोई मनुष्य आजन्म झूठ न बोलने की प्रतिज्ञा कर ले तो उसके कार्यों में बाधा न होते हुए वह निर्विघ्न अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रह सकता है, परन्तु यदि कोई सत्य न बोलने की प्रतिज्ञा करे, तो उसका कार्य कुछ घण्टे तक भी नहीं चल सकता। उदाहरणार्थ लगी तो है भूख, परन्तु कहे, कि मेरा पेट भरा है, तो वह कब तक जीवित रह सकेगा ? पेट दुख रहा है, लेकिन पैर का दर्द बतावे, तो अन्त में उसे सत्य बोलने के लिए बाध्य होना ही होगा। सारांश यह कि सत्य बोलने Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) से किसी काम में बाधा नहीं पा सकती, बल्कि सत्य न बोलने से बाधा संभव है। जो भारतवर्ष किसी समय सत्य के लिये प्रसिद्ध था, वही इस समय झूठ के लिये प्रसिद्ध सुना जाता है। पाश्चात्य देश वाले, जब वे बहुत वर्ष पूर्व भारत की यात्रा करने आये थे, तब उन्होंने अपने यात्रा-वृत्तान्त में लिखा है कि "भारत के लोग भूल कर भी झूठ का प्रयोग नहीं करते और पराई वस्तु को मिट्टो के समान मानते हैं, अर्थात् छूते तक नहीं । यही कारण है कि भारत के लोग अपने घरों में ताले नहीं लगाते ।" आज उसी देश के लोग अपने भारत यात्रा-वृत्तान्त में लिखते हैं कि " भारत के लोग झूठ बोलने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते और नैतिक-जीवन में बहत गिरे हए हैं।" यद्यपि यह बात सर्वांश में सत्य नहीं है, क्योंकि भारत में आज भी कई ऐसे-ऐसे महानुभाव हैं, जो कदापि झूठ नहीं बोलते, लेकिन पूर्वकाल में जितने सत्यवादी थे, उतने इस काल में दिखाई नहीं देते, इसी से ऐसा कहने का मौका मिलता है । भारतीयों को अपना यह कलंक मिटा देना उचित है । यदि मनुष्य झूठ को त्याग दे और सत्य को अपना ले, तो आज दिन अदालतों की सीढ़ियों पर उन्हें प्रायः नित्य चक्कर काटना होता है, जिन वकीलों का घर अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे से भरना होता है, उनकी खुशामद करनी होती है और अनेक कष्टों का सामना करना होता है, उन सब से बच जाय । सत्य के न होने से ही वकील, वैरिस्टर और अदालतों का काम चल रहा है । यदि सब लोग सत्य को अपना ध्येय बना लें तो अदालतों और वकील, वैरिस्टर Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) आदि को, जो इसी कमाई पर ग्रानन्द उड़ाया करते हैं, दूसरा उद्योग करना पड़े प्रर्थात् उनका काम बन्द हो जाय । यद्यपि वकीलों का काम सत्य के अनुसंधान में न्यायाधीश को सहायता देने का है, परन्तु आजकल के बहुत से वकील झूठ को सत्य बनाने में ही अपना गौरव समझते हैं । सत्य के विना, किसी मनुष्य का उत्थान नहीं हो सकता । सत्य और प्रिय वचन, वाणी का तप कहलाता है । गीता में कहा है , करं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ् मयं तप उच्यते ॥' अध्याय १७ 6 जो सुनने वाले के मन में उद्वेग करने वाला न हो, सत्य और प्रिय हो, स्वाध्याय का अभ्यासी हो, वह भाषण वाणी का तप है ।' में गीता में जो बात कही है, वही उत्तराध्ययन सूत्र निम्न प्रकार से कही है 'कोहे माणे य माया य, लोभे य उवउत्तया । हासे भय मोहरिए, विकहासु तहेव य ॥ एयाई अट्ठ ठाणाई परिवज्जित्त संजयो । सावज्जं मियं काले, भासं भासिज्ज पन्नवं ॥ क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता और विकथा को छोड़ कर, बुद्धिमान् को समय पर थोड़ी और Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) ऐसी निर्दोष वाणी का प्रयोग करना चाहिये जिससे किसी को कष्ट न हो। तात्पर्य यह है कि सत्य भी प्रिय हो । किसी को दुःख देने वाले अप्रिय सत्य की सब ने निन्दा करके उसे त्वाज्य बताया है । चाणक्य ने अपनी नीति में कहा है अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम् । नीचप्रसंगः कुलहीनसेवा; चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम् ।। अत्यन्त क्रोध, कटु-वचन, अपने जनों से वैर, नीच का संग और कुलहीन की सेवा, ये चिह्न नरकवासियों की देह में रहते हैं । और कहा है- . 'परस्परस्य मर्माणि, ये भाषन्ते' नराधमाः । त एव विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत् ॥' __'जो नराधम परस्पर अन्तरात्मा को दुःखदायक वचन भाषण करते हैं, वे विमौटे में पड़ कर सांप की तरह निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं।' ____ मनु ने अपनी स्मृति में कहा हैसत्यं ब्रू यात प्रियं ब्रू यान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । ‘सत्य कहे और प्रिय कहे, अप्रिय सत्य भी न कहे ।' अप्रिय वचन की इस प्रकार सब धर्म के शास्त्रों ने निन्दा की है और सत्य होते हुए भी उस सत्य को, जिससे Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) किसी को दुःख हो, झूठ ही के समान माना है । इसके विपरीत प्रिय वचन की प्रशंसा में चाणक्य ने कहा है 'पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्नं सुभाषितम् । मूढः पाषाण-खण्डेषु, रत्नसंज्ञा विधीयते ॥' ___पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं- जल, अन्न और प्रिय वचन ।' किन्तु मूों ने पापारण के टुकड़े को रत्न संज्ञा दे रखी है। 'प्रियवाक्यप्रदानेन, सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः । तस्मात्तदेव वक्तव्यं, वचने का दरिद्रता ॥' ‘मधुर वचन के बोलने से सब जीव सन्तुष्ट होते हैं, इस कारण उसी का बोलना योग्य है । वचनों में कुछ खर्च तो होता ही नहीं है, फिर इसमें दरिद्रता क्यों ?' इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि किसी को प्रसन्न करने के लिये भूठमूठ ही प्रशंसा की जाय और कोई बात सुनाई जाय । झूठ की गणना तो सदैव झूठ में ही होती है । शास्त्र ने अप्रिय सत्य को त्याज्य तो अवश्य कहा है, किन्तु प्रिय झूठ को ग्राह्य नहीं कहा है। इन सब बातों पर विचार करके श्रावक को इस दूसरे स्थूल मषावाद विरमण व्रत को धारण करना उचित ही है। इस एक व्रत के धारण करने से श्रावक अनेकों पापों और दुर्व्यसनों से छूट सकता है । इसके लिए एक दृष्टान्त दिया जाता है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ एक धनी युवक कुसंगति में पड़ कर अनेक दुर्व्यसनों का शिकार हो गया । शराबपीना, वैश्यागमन आदि अनेक दोष उसमें थे । जब उसके माता-पिता समझाकर हार गये तो वे उस युवक को लेकर एक महात्मा की शरण में गये । महात्मा ने बड़े प्यार से समझाकर उस युवक से कहा कि मेरे कहने से केवल एक बात छोड़ दे और वह यह कि झूठ मत बोला कर । यूवक ने देखा कि इसमें कोई हर्ज नहीं है। इस बात को मान लेने से अपने कार्यों में तो किसी प्रकार की बाधा न होगी। यह विचार कर उसने झूठ न बोलने की प्रतिज्ञा ले ली। स्वभावानुसार वह शराब पोने चला, परन्तु तत्काल ही उसे विचार हुआ कि यदि मुझ से कोई पूछेगा 'तुम कहां गये थे ?' तब मैं क्या उत्तर दूगा ? झूठ न बोलने की तो प्रतिज्ञा कर ही चुका था, इसलिए शराब पीने नहीं गया और बैठा रहा । इसी प्रकार प्रतिज्ञा के भय से उसके सब दुर्व्यसन छूट गये और वह शुद्ध हो गया । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूल झूठ के भेद प्राणियों के हितचिन्तक शास्त्रकारों ने श्रावक के त्याग करने योग्य स्थूल- झूठ के भेद भी बतला दिये हैं, जिससे श्रावक लोग इस झूठ पर विशेष रूप से ध्यान रख सकें, क्योंकि संसार में विशेषत: इन्हीं कारणों से झूठ बोला जाता है । शास्त्र में कहा है "थूलगं मुसावायं समरणोवासश्रो पच्चक्खाइ से य मुसावाए पंचविहे पन्नत्त, तं जहा - कन्नालीए गवालीए भोमालीए नासावहारे कूडसक्खिज्जे || " श्रर्थात् — श्रमणोपासक स्थूल - झूठ का त्याग करें । वे स्थूल- झूठ पांच प्रकार के हैं- कन्या के विषय में, गौ के विषय में, भूमि के विषय में, धरोहर रक्खी हुई वस्तु के विषय में और झूठी साक्षी देने के विषय में । इस पांच प्रकार के स्थूल - झूठ के विषय में पृथक्पृथक् व्याख्या की जाती है । १ - कन्नालिए अर्थात् कन्या के विषय में झूठ यहां शंका हो सकती है कि कन्या ही के लिए झूठ बोलने का निषेध क्यों किया ? क्या पुरुष, बालक या स्त्री Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) के विषय में झूठ बोलना त्याज्य नहीं है ? ऐसी शंका करने वाले के लिए ही टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि___ " तेन सर्वमनुष्यजातिविषयमलोकमुपलक्षितम् ।" - अर्थात्- कन्या का नाम लेकर मनुष्यमात्र के लिए झूठ न बोलने को कहा गया है । यहां कन्या के विषय में जो झूठ बोलने का निषेध है, उसमें उपलक्षण से मनुष्य जाति के विषय में झूठ बोलने का निषेध समझना चाहिए । मनुष्यमात्र के लिए झूठ न बोलने का त्याग न लिख कर कन्या के ही लिए यों लिखा है कि एक तो कन्या के विषय में झूठ बोलना संसार में सब से अधिक निन्द्य समझा जाता है, दूसरे कन्या से ही मनुष्य की उत्पत्ति है । जब जड़ के विषय में झूठ बोलने का त्याग होगा, तब शाखा पल्लव अादि के विषय में झूठ बोलने का त्याग आप ही हो जायेगा । इसलिए कन्या के विषय में झूठ का त्याग करना है । कन्या के विषय में झूठ का त्याग करने का अर्थ यह नहीं है कि अन्य मनुष्य के विषय में झूठ बोला जाय, वरन् यह अर्थ है कि कन्या के साथ ही मनुष्य-मात्र के विषय में झूठ बोलने का त्याग है । __मनुष्यों में कन्या को प्रधान माना गया है । पाश्चात्य देशों में भी यह नियम है कि जहाज के तूफान आदि संकटजनक स्थिति में होने पर पहले कन्याओं की, पश्चात् बालकों की, स्त्रियों की और फिर पुरुषों की रक्षा का क्रमशः ध्यान रखा जाता है । इसका कारण यही है कि कन्या, पुरुष-रत्न की खान और भावी संतान की माता है । विपत्ति में फंसे हुए जहाज से कन्या का उद्धार पहिले Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) करने का अर्थ यह नहीं है कि अन्य पुरुषों की रक्षा ही न की जाय । इसी तरह यहां कन्नालिए का अर्थ यह नहीं है कि केवल कन्या ही के विषय में झूठ न बोला जाय । संकटापन्न जहाज से जैसे कन्या को आदि लेकर सब मनुष्यों की रक्षा की जाती है, ऐसे ही कन्या को प्रादि लेकर मनुष्य-मात्र के विषय में झूठ का त्याग करना, ऐसी शास्त्राज्ञा है । जो मनुष्य कन्या के विषय में झूठ बोलता है, वह मातृ-पक्ष का घोर विरोध करता है । इस महा पाप से बचने के लिये ही शास्त्र में कन्या का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए कहा है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से कन्या के लिए झूठ न बोले । जो इस प्रकार है द्रव्य से तात्पर्य यह है कि कन्या रूपवती हो, सुन्दर हो, अंग, उपांग में किसी प्रकार का दोष न हो, उच्च वर्ग की हो, परन्तु स्वार्थवश या और किसी कारण से उसे कुरूपा, अंगहीना ग्रादि, वास्तव में जो है उसके सर्वथा या न्यूनाधिक विपरीत क्तला देना, या कन्या में किसी प्रकार उक्त दोष होते हुए भी उन्हें प्रकट न करके उसे निर्दोष एवं सुरूपा बताना । क्षेत्र से मतलब यह है कि, कन्या है तो किसी दूसरे प्रान्त या गांव की और उसे बतलाना किसी दूसरे ही प्रान्त या गांव की। __ काल से यह अर्थ है कि वास्तव में कन्या जिस उम्र की हो, उससे कम या अधिक बताना ।। भाव से तात्पर्य यह कि चतुर कन्या को मूर्ख या मूर्ख को चतुर बताना, कन्या में जो गुण या दुर्गुण हैं, उन्हें छिपाना या न्यूनाधिक बताना । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) इसी तरह कन्या के लिये वर के विषय में भी उक्त प्रकार का उलट-फेर करना, कन्या के लिये झूठ बोलना है । जैसे वर बूढ़ा, कुरूप, मूर्ख और किसी अन्य देश का है, लेकिन उसे यूवक सून्दर और विद्वान् बतलाना । इसी तरह सभी मनुष्यों के विषय में समझ लेना । सारांश यह है कि जो बात कन्या से सम्बन्ध रखती है, उसमें किसी प्रकार का, किसी कारण से अयथार्थ भाषण करना, कन्या के विषय में झूठ बोलना कहलाता है। आज समाज में जो विषमता है, उसके कारणों में से एक कारण कन्या के लिए झूठ बोलना भी है। विशेषतः इसी कारण विधवाओं की इतनी संख्या बढ़ रही है और दम्पती में असन्तुष्टता रहती है । 'समाज द्वारा कन्या पर और क्या-क्या अत्याचार होते हैं, यह एक स्वतंत्र विषय है, जिसे यहां पर कहना अप्रासांगिक होगा। सम्भवतः अब यह प्रश्न होगा कि- अंगहीना, कुरूपा आदि सदोष कन्या कुप्रांरी तो रह नहीं सकती, ऐसी अवस्था में बिना झूठ बोले काम कैसे चले ? अर्थात् किसी प्रकार झूठ बोल कर भी उसका विवाह तो करना ही पड़ता है । लेकिन ऐसी शंका करने वाले लोग भ्रम में पडे हए हैं। संसार में कन्या ही अंग-हीन आदि दोषयुक्त नहीं होती, बल्कि पुरुष भी होते ही हैं । जब कन्या कुमारी नहीं रह सकती, तो क्या ऐसा पुरुष यह नहीं कह सकता कि ' मैं कुआँरा क्यों रहूँ?" ऐसी अवस्था में उचित तो यह है कि साय मार्ग का अवलम्बन लेकर झूठ के पाप से बचें । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) २- गवालिए अर्थात् गौ के विषय में झूठ ____ गौ के विषय में झूठ न बोलने के लिये भी कन्या की ही तरह यह प्रश्न होता है कि क्या गौ के सिवाय अन्य पशुओं के विषय में झूठ बोलना मना नहीं है ? इस प्रश्न का उत्तर भी वही है, जो कन्या के विषय में दिया गया है अर्थात् जिस प्रकार मनुष्यों में कन्या उत्तम है, उसी तरह पशुओं में गौ प्रधान मानी गई है। गौ के विषय में झूठ बोलने का त्याग, सब पशुओं के विषय में झूठ बोलने का त्याग समझना चाहिए । गौ पशुओं में सर्वोत्तम इसलिए मानी गई है, क्योंकि मनुष्यों के लिए गौ ही विशेष रूप से आधार है । गाय की सहायता के बिना गृहस्थी नहीं निभ सकती । सूखे तरण खाकर बदले में घी, दूध आदि देने वाला, गौ के सिवाय दूसरा कोई पशु नहीं है । कृषि में भी विशेषतया गौ की ही सहायता होती है, जैसे हल खींचने के लिए बछड़े देना, खाद के लिए गोबर देना आदि । जैन समाज या भारतवर्ष ने ही गौ को सब पशुओं में प्रधान माना है, ऐसा नहीं बल्कि यूरोपियनों ने भी गौ की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। आनन्द और कामदेव ऐसे उत्कृष्ट श्रावक. गौत्रों को इन्हीं कारणों से पालते थे और श्रीकृष्ण ने भी इन्हीं बातों को सिद्ध करने के लिये गौएं चराई थीं कि संसार में ऋद्धिसिद्धि की दाता गौ ही है। गौ की महत्ता बताना, यह भी एक . स्वतन्त्र विषय है, इसलिए यहां इतना ही कथन पर्याप्त है। सारांश यह है कि गौ सर्वोत्कृष्ट पशु है । इसलिये Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) इसे आदि लेकर सब पशुओं के लिए झूठ न बोलने का शास्त्र का उपदेश है । कन्या के समान गौ के लिये भी, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में त्याग करना आवश्यक है । जैसे अच्छी या बुरी गाय को बुरी या अच्छी बताना, कम या ज्यादा दूध " देने वाली गाय को ज्यादा या कम दूध देने वाली बताना, एक देश की गाय को दूसरे देश की गाय बताना और सीधी या चिट्टी मारने वाली, गाय को मारने वाली या सीधी बताना आदि । ३ - भोमालिए अर्थात् भूमि के विषय में झूठ 1 भूमि विषयक झूठ के त्याग में भूमि के साथ ही उन सब वस्तुओं के विषय में झूठ बोलने का त्याग आ जाता है, जिनकी उत्पत्ति भूमि से है । फिर चाहे वे सचेतन हों या अचेतन । जैसे फल, वृक्ष आदि सचेतन और प्राय: सोना, चांदी, पत्थर, मिट्टी, घर आदि प्रचेतन । इसीलिये भूमि के साथ ही, भूमि से उत्पन्न होने वाली और उससे बनी हुई वस्तु मकान, नोहरा, महलादि सम्बन्धी झूठ का भी त्याग समझना चाहिए क्योंकि भूमि आधार है और उस पर के या उससे उत्पन्न होने वाले पदार्थ आधेय हैं । आधार को ग्रहण करने से आधेय का भी ग्रहण स्वयं हो जाता है । इसमें भी कन्या और गौ विषयक झूठ-त्याग के समान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विचार से त्याग करना आवश्यक है । ४ - नासावहारे अर्थात् धरोहर के विषय में झूठ किसी की रखी हुई धरोहर को न लौटाने या विना Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) रखे ही मांगने के लिए जो मिथ्या भाषण किया जाता है, वह धरोहर विषयक झूठ कहलाता है। यद्यपि इसकी गणना चोरी में हो सकती है और मनु ने इसे चोरी में ही माना है, जैसे " यो निक्षेपं नार्पयति, यश्चानिक्षिप्य याचते । तवुभौ चौरवच्छास्यौ दाप्यौ वा तत्सम दमम् ॥ जो रखी हुई धरोहर को न देवे और जो बिना रखे मांगे, वे दोनों चोर के समान ही दण्डनीय हैं । लेकिन जैन शास्त्रों ने, क्योंकि यह कार्य मुख्यतया झूठ बोलने से ही होता है, इस कारण इसे झूठ में माना है । गौण रूप में यह चोरी भी है । इसमें भी पूर्व वर्णनानुसार द्रव्य, क्षेत्र आदि के विचार से त्याग करना आवश्यक है । ५- कूडसक्खिजे अर्थात् झूठी साक्षी . किसी दूसरे के या अपने लाभ के लिये अथवा दूसरे की हानि के लिए न्यायाधीश, पंचायत संघ आदि के सन्मुख जो मिथ्या भाषण किया जाता है वह मिथ्या भाषण, झूठी साक्षी कहलाता है । झूठी साक्षी देना निन्द्य कार्य है और घोर पाप है । मनु ने झूठी साक्षी देने वाले के विषय में कहा है"वाच्यार्था निहताः सर्वे वाङ मूला वाग्विनिःसृताः । तास्तु यः स्तेनयेद्वाच्यः स सर्वस्तेयकृन्नरः ॥" शब्दों ही में वाच्य, भाव से नियत हैं और शब्दों का Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) मूल वाणी है, क्योंकि सब बातें शब्दों से ही जान कर की जाती हैं । जो वारणी को चुराता है अर्थात् अन्यथा कहता है, वह सब भांति की चोरी करने वाला होता है । " ब्रह्मघ्नो ये स्मृता लोका, ये च स्त्रीबालघातिनः । - मित्रद्र हः कृतघ्नस्य, ते ते स्युबवतो मृषा ॥ ब्राह्मण, स्त्री और बालक को हत्या करने वाले को, मित्रद्रोही तथा कृतघ्नी को जो लोक मिलते हैं, वे ही लोक झूठी गवाही देने वाले को मिलते हैं। वहां लोक शब्द से मतलब है गति का । तात्पर्य यह है कि झूठी साक्षी देना मनु ने भी महान् पाप माना है। जिस मनुष्य पर जनता विश्वास करती है, वह यदि किसो के सच्चे सोने को नकली बतलावे, अथवा किसी के नकली सोने को सच्चा बना कर खरीदवावे, तो शास्त्र कहता हैं कि ऐसा करने वाला सोने के वर्तमान और भावी स्वामी को अन्तराय ( दुःख ) देने का अपराधी है क्योंकि ऐसा होने पर उस असली सोने के स्वामी तथा नकली सोने के खरीददार की आत्मा को बड़ी चोट पहुंचती है और प्रायः या तो वे उस ऐसा बताने वाले को हानि पहुंचाने की चेष्टा करते हैं, या स्वयं धसका खाकर मर जाते हैं। इसके सिवाय इस प्रकार झूठ बताने वाला अपनी प्रामाणिकता को भी तिलांजलि देता है । इसके विरुद्ध यथार्थ बात कहने पर न तो प्रामाणिकता को ही धक्का लगता है और न उपरोक्त दोष की ही सम्भावना रहती है । बल्कि उसकी प्रामाणिकता Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) बढ़ जाती है । यही वात झूठी साक्षी देने के विषय में भी है। झूठी साक्षी में भी द्रव्य, क्षेत्र आदि के विचार से त्याग करना आवश्यक है। यद्यपि धरोहर के विषय में झूठ और झूठी साक्षी, पहिले तीन प्रकार (कन्नालिए, गवालिए, भोमलिए) के झूठ के अन्तर्गत आ जाते हैं, लेकिन इन्हें विशेष निंद्य समझ कर शास्त्रकारों ने इनका वर्णन पृथक्-पृथक् किया है । श्रावक को, वर्णन किये हुए इन पांचों प्रकार के स्थूल मृषावाद को समझ कर इनका त्याग करना और स्थूल मषावाद विरमण व्रत को धारण करना उचित है । इस दूसरे व्रत के अतिचारों का वर्णन आगे किया जाता है । RAM RAA AM VI Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य व्रत के अतिचार श्रावक के स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के पांच प्रतिचार हैं । आवश्यक सूत्र में श्रावक को स्थूल मृषावाद का त्याग बतलाने के साथ ही कहा है " थूलगमुसावायवेरमणस्स · समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्वा । तंजहासहस्सब्भक्खाणे रहस्सब्भक्खाणे सदारमंतभेए मोसुवएसे कूडलेहकरणे ।" , “स्थूल-मृषावाद विरमण व्रत के, जिसको श्रावक के लिए धारण करने का विधान है, पांच अतिचार है । इन पांचों के नाम (१) सहस्सब्भक्खाणे, (२) रहस्सब्भक्खाणे, (३) सदारमंतभेए, (४) मोसुवएसे, (५) कूडलेहकरणे हैं । ये अतिचार श्रावक के जानने योग्य हैं, लेकिन आचरण करने योग्य नहीं हैं । इसीलिए श्रावक को इनसे बचना उचित है।" शास्त्रकार ने किसी त्याज्य कार्य के करने का विचार लाने को अतिक्रम, कार्य-पूर्ति के लिए साधन एकत्रित करने को व्यतिक्रम, कार्य की बिल्कूल तैयारी हो लेकिन अभी किया नहीं है उसे अतिचार और पूर्ण कर डालने को अनाचार कहा है । अर्थात् व्रत के उल्लंघन करने की चार कक्षाएं हैं। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लंघन का प्रारम्भ अतिक्रम से होता है और अन्त अनाचार की शक्ल में होता है । यथा-कोई मनुष्य असत्य बोलने के लिये उद्यत हुआ। उसका जैसे ही असत्य बोलने का विचार हुआ अतिक्रम हो गया, यानि उसने व्रत की पहली मर्यादा को तोड़ डाला । अर्थात् किसी व्रत को भंग करने के संकल्प का नाम अतिक्रम है । पश्चात् संकल्प को पूरा करने का जब प्रयत्न करता है, यानि झूठ बोलने के साधन जुटाता है, उसका नाम 'व्यतिक्रम' है । ऐसा करना व्रत की दूसरी मर्यादा का उल्लंघन करना है। फिर व्रत की अपेक्षा रखता हुआ, कुछ अंश में व्रत का नाश करता है, उसका नाम 'अतिचार' है । शास्त्र में जहां भी अतिचार का उल्लेख है वहां सब जगह व्रत की तीसरी मर्यादा का अर्थात् मध्यम श्रेणी का उपदेश किया है । लेकिन व्रत की अपेक्षा न करके संकल्प-रूप भंग किया जाय तो वह अनाचार हो जाता है। इस दूसरे व्रत के ऊपर वर्णन किये हुए पांच अतिचार हैं, जिनके विषय में पृथक-पृथक व्याख्या की जाती है । १- सहस्तब्भक्खाणे बिना विचार किये एकदम किसी को मिथ्या दोष लगा देना, जैसे तू चोर है, या तू जार है इत्यादि । यह पहला सहसा अभ्याख्यान नाम का अतिचार है। इस अतिचार के विषय में जितनी भी व्याख्या की जाय, कम है, क्योंकि आजकल बिना विचारे एकदम किसी पर दोषारोपण कर देना सहज कार्य बन गया है । दोष की सत्यता पर विचार किये बिना ही किसी पर दोष लगा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) देना अत्यन्त अनुचित है । लोग यदि इस अतिचार का अर्थ भलीभांति समझ लेते तो यह दुर्गुण दिखाई न देता। अब भी यदि इस पर विचार किया जाय तो दोष मिट सकता है। आज के लोग और किसी बात में तो चाहे निरंकुश न रहते हों, परन्तु जीभ पर अंकुश रखने का प्रयत्न तो शायद ही करते होंगे । सम्भवतः इसी कारण किसी से कोई दोष हुना हो या न हुआ हो, उस पर सहसा दोषारोपण कर दिया जाता है । उचित तो यह है कि यदि किसी में कोई दुर्गुण दिखाई भी पड़े तो नम्रता-पूर्वक उसे सूचित करके भविष्य के लिये सावधान कर दिया जाय । लेकिन इसके विपरीत दूसरों के दोषों का ढिंढोरा पीटने में प्रायः लोग अपना गौरव समझते हैं । आज इस दुर्गुण की सहायता के लिए साधन भी खुब मिल जाते हैं । दो पैसे के कार्ड या समाचार-पत्र द्वारा किमी के छोटे या निर्मूल दोष को संसार के सन्मुख बढ़ा कर रख देना सहज हो गया है। जिनका कार्य अधर्म पर चलते हुए किसी मनुष्य को अपनी सत्ता से धर्म पर लाने का और निष्पक्ष होकर न्याय देने का था, उन पंचायतों को भी आज, पक्षपातपूर्ण न्याय करते और किसी के द्वारा लगाये गये दोष की सत्यता का विचार किये बिना ही, एकदम उसको अपराधी मान लेते सुना जाता है । सम्भवतः उन्हें भी इसी प्रकार से खाने आदि का लोभ, या दूसरे को नीचा दिखाने का विचार रहता होगा । लेकिन यह कार्य पंचायतों के लिये अशोभनीय है। पंचायतों के लिये ही नहीं, किन्तु घर के लोगों के Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) लिये भी यह सुनाई पड़ता है कि प्रायः घर के ही लोग एक दूसरे को झूठे दोष लगा कर नीचा दिखाने का उपाय किया करते हैं । यह कितना नीच कार्य है । व्रतधारी श्रावकों को इस प्रतिचार से अवश्य ही बचना चाहिये । सब संसार ही ऐसा करता है, यह विचारना उचित नहीं है । संसार चाहे सुधरे या न सुधरे, आप अपने कर्त्तव्य का पालन करते जाइये । जिस प्रकार जूता पहिनने वाला मनुष्य पृथ्वी पर कांटे का अस्तित्व देखना अनावश्यक समझता है, इसी प्रकार आप भी विचार लीजिये कि मैंने व्रत ग्रहण किया है । इसलिये लोग चाहे खयाल रखें या न रखें, मुझे तो खयाल रख कर इस दोष से बचना ही चाहिये । अर्थात् बिना सोचे समझे अन्य लोगों की तरह किसी के सिर एकदम दोष न मढ़ देना चाहिये । तलवार का घाव अच्छा हो सकता है, लेकिन झूठे कलंक का भयंकर घाव उपाय करने पर भी अच्छा होना कठिन हो जाता है । इसलिये किसी को झूठा कलंक लगाने का घृणित कार्य कर्भी न करना चाहिये । २ - रहस्तभक्खाणे एकान्त में बैठे किसी विषय का विचार करते हुए मनुष्यों को देख कर उनकी बात के विषय में असत्य अनुमान बांध कर कहना कि ये राज्यविरोधादि विषय की बातचीत करते होंगे, 'रहस्सब्भक्खाणे ' है । आज की जनता में उक्त दोष बहुत देखा जाता है । कोई स्त्री पुरुष चाहे वे आपस में बहिन-भाई ही हों, यदि एकान्त में बात करते हों तो लोग बिना विचार किये ही Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) केवल बातें करते देख कर उन पर सन्देह करने तथा वैसे लोगों के आगे प्रकट करने में प्रायः नहीं हिचकिचाते और कलंक लगाने लगते हैं । लेकिन विचारशील मनुष्य को इस दुर्गुण से दूर रहना चाहिये । इस दूसरे अतिचार और पहिले अतिचार में यह अंतर है कि पहिले अतिचार में एकदम दोषारोपण किया जाता है और इस दूसरे अतिचार में किसी प्रकार का सन्देह पाकर दोषारोपण किया जाता है । सन्देह के आधार पर कलंक लगाने का दोष पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में विशेष देखा जाता है। उनमें अधिकांश को कोई कार्य तो रहता नहीं, इसलिये जरा सी बात को चाहे वह सत्य हो या झूठ, विशेष समय तक घोटती रहती हैं । व्रतधारी श्रावक को इस प्रकार किसी को एकान्त में बात करते देख कर सन्देह लाना और दोष लगाना उचित नहीं है। ३- सदारमन्तभेए अपनी स्त्री ने जो कुछ मर्म-भरी बात कही हो, जिसे छिपाने की आवश्यकता है या स्वयं ने उससे जो कुछ कहा हो, दूसरे के आगे उसका प्रकाश करना ‘सदारमन्तभेय' कहा जाता है । ऐसा करने से लज्जावश उस स्त्री का, अपनी या दूसरे की हत्या कर देना आदि अनर्थ-परम्परा का होना सम्भव है । इसलिये सत्य होने पर भी ऐसा करना अतिचार है। आज के पुरुष स्त्रियों को कुछ समझते ही नहीं है, Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) बल्कि यहां तक तुच्छ समझते हैं कि स्त्री को पैर की जूती कहने तक नहीं हिचकिचाते । इस कारण स्त्रियों से किसी प्रकार की सम्मति लेना तो दूर रहा, उनकी गोपनीय बातों को भी प्रकट करने में कुछ विचार नहीं रखते । लेकिन ऐसा समझना पुरुषों की उद्दण्डता के सिवाय कुछ नहीं कहला सकता । स्त्रियों को इस दर्जे तक तुच्छ समझने वाला स्वयं तुच्छ बुद्धि का है । वह इस बात को नहीं विचारता, कि यदि स्त्री पैर की जूती है तो उससे हथलेवा जोड़ते समय मित्र के नाते जोड़ा या जूती से ? स्त्रियों को इस प्रकार समझ लेने से ही आज भारत के प्राचीन गौरव से लोग हाथ धो बैठे हैं । जिस समय भारत उन्नति की चरम सीमा पर पहुंचा था, उस समय का इतिहास देखने से पता लग सकता है कि स्त्रियों को कितनी ऊंची दृष्टि से देखा जाता था और समाज में उनका कितना ऊंचा स्थान था । उसके बाद जैसे-जैसे पुरुष स्त्रियों का सन्मान कम करते गये, वैसे ही वैसे वे स्वयं अपने सन्मान को भी नष्ट करते गये । राष्ट्र में नवीन चैतन्य ग्राना स्त्रियों की उन्नति पर निर्भर है । कई लोगों ने स्त्री - समाज को पंगु समझ रखा है, या कहो कि पंगु बना रखा है । यही कारण है कि यहां के सुधार - प्रान्दोलनों में पूरी सफलता नहीं होती । यदि स्त्रियों को इस प्रकार तुच्छ न समझकर उन्हें उन्नत बना दिया जाय, तो जो सुधार - प्रान्दोलन आज अनेक प्रयत्न करने पर भी असफल रहते हैं, उन्हें असफल होने का सम्भवतः कोई कारण ही न रहे । स्त्रियों की शक्ति कम नहीं है । जैन - शास्त्र में वर्णन Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) है कि स्त्रियों की स्तुति स्वयं इन्द्रों ने की है और उन्हें साक्षात् देवी कह कर त्रिलोक में उत्तम बतलाया है । त्रिलोकीनाथ को जन्म देने वाली स्त्री ही है । भगवान् महावीर जैसे को उत्पन्न करने का सौभाग्य इन्हीं को प्राप्त मनु ने भी कहा है है 66 यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः । " जहां पर स्त्रियों का सत्कार होता है, वहां देवता आकर रमण करते हैं अर्थात् वह घर स्वर्ग बन जाता है । जिन स्त्रियों का इतना महत्त्व है, उन्हें तुच्छ समझ कर अपमानित करने से पुरुष सुखी कैसे बन सकते हैं ? सुखी होना तो स्त्रियों की उन्नति और उनके सत्कार पर ही निर्भर है । चाणक्य ने कहा है 11 " दाम्पत्यकलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता । जहां दम्पती ( पति - पत्नी ) में कलह नहीं रहता है, यानी एक दूसरे को सन्मानपूर्ण दृष्टि से देखते हैं, अपमानित नहीं करते है, वहां लक्ष्मी आप ही आकर विराजमान होती है । स्त्रियों की उच्चता और लज्जा को दृष्टि में रख कर ही शास्त्रकारों ने उनकी किसी गोपनीय बात को दूसरे के सामने प्रकट करने से पुरुषों को मना किया है । इसके लिये चाणक्य ने भी अपनी नीति में कहा है - "अर्थनाशं मनस्तापं, गृहिणीचरितानि च । वञ्चनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥” Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ "धन का नाश, मन का ताप ( दुःख ), गृहिणी का चरित्र यानी उनके विषय की बात, अपनी ठगाई की बात और अपमान बुद्धिमान् किसी के आगे प्रकट न करें।" अपनी स्त्री के विषय की सच्ची गुप्त बात को भी प्रकट करना दूसरे व्रत का अतिचार है, इसलिए बुद्धिमान इससे बचें। इस अतिचार में पुरुष को लक्ष्य करके स्त्रियों के विषय में जो कुछ कहा गया है वे ही बातें स्त्रियों के विषय में समझनी चाहिये और उन्हें इस अतिचार का नाम 'सभत्तारमंतभेए' समझना चाहिये । स्त्रियों का भी कर्तव्य है कि वे पुरुष से जो कुछ गुप्त बात कहें, या पुरुष उनसे जो गुप्त बात कहे, उन बातों को किसी के आगे प्रकाशित न करें। ऐसा करने पर उनके लिए भी वही अतिचार हो जाता है। . - ४- मोसुवएसे दूसरे को असत्य का उपदेश करना, मृषोपदेश कहा जाता है । यदि अचानक असावधानी से मिथ्या उपदेश दे दिया जाय अथवा अपने पास सम्मति पूछने के लिए आये हुए को मिथ्या उपदेश किया जाय, जैसे—मैंने अमुक समय पर इस प्रकार मिथ्या भाषण द्वारा अमुक कार्य किया था, इत्यादि प्रकार से किसी को उपदेश किया जाय तो अतिचार है। यद्यपि ऐसा करने वाला चाहे मिथ्या-भाषण न कर रहा हो, तथापि वह दूसरे को मिथ्या-भाषण में प्रवृत्त करता है, अतः यह अतिचार है । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) आजकल के लोगों में दूसरे को मिथ्या उपदेश देने की प्रवृत्ति ज्यादा नजर आती है । यदि स्पष्ट रीति से मिथ्या उपदेश न देंगे तो बात को इस प्रकार घुमा कर कहेंगे कि सुनने वाले के समीप वह उपदेश का कार्य करे । इस प्रकार उपदेश देने वाले के लिये सुनने वाला जो सम ता है कि ये अनुभवी हैं और जो कुछ कह रहे हैं, वह मेरे हित के लिये है । लेकिन यह उसका उपदेश भ्रम मात्र होता है । लोग इस बात को नहीं विचारते कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ उसका प्रभाव सुनने बाले पर कैसा पड़ेगा और उसका परिणाम क्या होगा ? उनका ध्येय तो कुछ और ही रहता है । जैसे एक आदमी ने दूसरे से कहा कि - 'मेरा पेट दुखा करता है, सिर दुखा करता है, या भोजन हजम नहीं होता ।' सुनने वाले ने इसके उत्तर में कहा कि - 'ऐसा ही हाल मेरा भी रहा करता था, लेकिन जब से मैंने बीड़ी, सिगरेट, गांजा या चाय पीना प्रारम्भ किया, तब से यह रोग चला गया ।' यद्यपि ऐसा कहने वाले ने दुर्व्यसनों का स्पष्ट उपदेश नहीं दिया, तथापि उसके कहने का तात्पर्य यही है कि वह भी इन्हें पीये । यदि ऐसा करने वाला इन्हें पीने के लिये स्पष्ट कहता, तब तो इस उपदेश की गणना अतिचार में न होकर अनाचार में होती, लेकिन उसने स्पष्ट नहीं कहा, इसलिये प्रतिचार है । यह बात तो इस अतिचार को समझाने मात्र के लिये कही गई है । लोग ऐसा ही नहीं, बल्कि ऐसे - ऐसे मिथ्या उपदेश दिया करते हैं कि सुनने वाला, महान् अन्धकार में जा गिरता है, जहां से उसे निकालना कठिन हो जाता है । जैसे - किसी के " मैं गरीब हूँ" यह कहने पर Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या कहने के प्रथम ही उससे इस बात का कहा जाना किमैं भी ऐसा ही गरीब था, लेकिन अमूक धर्म को छोड़ कर अमुक धर्म में चले जाने से, झूठ बोलने से या जुआ खेलने से मालदार हो गया । इस प्रकार के मिथ्या-उपदेश द्वारा अपनी संख्या बढ़ाने के लिये या और किसी कारण से उसे सत्य से दूर करके असत्य के गड्ढे में गिरा दिया जाता है । अहम्मन्यता के लिये भी बहुत लोग ऐसे ही उपदेश देकर लोगों को अपने चंगुल में फंसाये रखना चाहते हैं । ऐसा करने वाले स्वार्थ-वश कृत्याकृत्य का भी विचार नहीं करते । लेनिक मिथ्या उपदेश का प्रभाव सदा नहीं रहता, कभी न कभी मिटता ही है । फिर जिसे भी यह मालूम हो जाता है कि इन उपदेशों से मुझे भ्रम में डाला गया था, वह उसी क्षण से उस ( इस प्रकार भ्रम में डालने वाले ) को घृणा की दृष्टि से देखने लगता है । ऐसा उपदेश, जो सत्य नहीं है और जिसके सुनने से सुनने वाला सत्य से पतित होता है, या बुरे कार्य में प्रवृत्त होता है, ‘मोसुवएसे' है । श्रावक को इस अतिचार से बचने के साथ ही ऐसे उपदेशकों पर विश्वास करने से भी बचना चाहिए। ५- कूडलेहकरणे जाली-लेख, किसी दूसरे के अक्षर सरीखे अक्षर, नकली छाप मुहर आदि बनाना 'कूटलेखकरण' है । . वे बातें, जिनकी गणना झूठ में हैं, लेखनकला द्वारा कार्य रूप में परिणत करना · कूटलेखकरण' अर्थात् झूठालेख लिखना कहलाती हैं । झूठे दस्तावेज लिखना, समाचार Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) पत्रों में झूठी खबरें देना, खोटे सिक्के, नोट हुण्डी श्रादि की रचना करना आदि -आदि बातें यदि असावधानी से हो जाय तो अतिचार है, अन्यथा अनाचार हैं। मान लीजिए - किसी ने कहा कि. अमुक बात ऐसी है, यद्यपि उस बात के सत्य होने का विश्वास नहीं है, लेकिन इस प्रकार ऐसा कहने वाले के विश्वास पर उस झूठी बात को समाचार पत्र में छपवा दिया जाय तो अतिचार है । किन्तु यह मालूम होते हुए भी कि यह बात सत्य है, यदि ऐसा किया तो अनाचार है । इसी प्रकार दस्तावेज आदि के विषय में भी समझना चाहिए | आजकल झूठे लेख लिखना, झूठा दस्तावेज बनाना झूठे सिक्के प्रादि बनाना विशेष सुनाई देता है । यदि विचारा जाय तो इसका मूल कारण लोभ के सिवाय कुछ न होगा । लोभ के वश होकर ही लोग सत्यासत्य का विचार नहीं करते और इसी से ऐसा करने में नहीं हिचकचाते । जाली दस्तावेज बना कर, एक के दो या और ज्यादा लिख-लिख कर गरीबों के गले काटने को ही, बहुधा श्राजकल के लोगों ने व्यापार मान रखा है । ऐसा करने वाले इस बात को नहीं विचारते कि इस तरह से द्रव्योपार्जन करके हम कितने दिन आनन्द उड़ा सकते हैं और ऐसा आनन्द उड़ाने का परिणाम क्या होगा ? ऐसा करने से संसार में तो अपकीर्ति होती ही है लेकिन उस लोक में भी, जहां कि अन्त समय तक सबको जाना पड़ता है, सुख प्राप्त नहीं होता, किन्तु भयंकर कष्ट प्राप्त होना स्वाभाविक है । ऐसे भाइयों को यह ध्यान में रखना चाहिए, कि सत्य के व्यापार से यदि लाभ कम भी हुआ तो वह उतना ही लाभ सांसारिक कार्य Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) के चलाने के लिये पर्याप्त होने के साथ ही इस लोक और परलोक दोनों जगह सुखदाता होगा, लेकिन असत्य के व्यापार का ज्यादा लाभ भी दोनों ही जगह दुःखप्रद सिद्ध होगा । किसी के विरुद्ध, समाचार-पत्रों में झूठे लेख लिखने, tosबिल छपवाने आदि का तो आजकल फैशन सा हो गया है । प्रायः लोग इसी में अपनी विद्वत्ता समझने लगे हैं । ऐसा करने वाले इस बात को बिल्कुल भूल जाते हैं कि इस असत्य कार्य का उस लोक में क्या परिणाम होगा । उस लक को भूलने के साथ ही उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहता कि हमारे इस झूठ के खुलने पर इस लोक में भी कैसे निन्द्य समझे जाएंगे और लोगों का हम पर कितना प्रविश्वास हो जायगा । 4 इस प्रतिचार को बताने का तात्पर्य यह है कि उस लेखन - कार्य से जो झूठ की परिभाषा में आता है- बचा जाय । किसी असत्य कार्य को असावधानी या झूठ से कर डालने में भी अतिचार है । प्रतएव प्रत्येक कार्य में सावधानी रखने की प्रावश्यकता है । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार केवल श्रावकों का ही नहीं, मनुष्य-मात्र का कर्तव्य है कि वह मन, वचन और काया से सत्य का पालन करे । पशुओं में भी सत्य वर्तमान है, फिर मनुष्य-समाज सत्य से वंचित रहे, यह कितना बुरा है । इसलिये मनुष्य-मात्र को सत्य का पालन करना उचित है । ... श्रावकों के लिये इस व्रत का धारण करना अत्यावश्यक है। इस व्रत को धारण करने से वे झूठ के भयंकर पाप से बचे रह सकते हैं । बिना 'सत्य को अपनाये धर्म का पालन उचित रूप से नहीं हो सकता ।। स्थूल-झूठ के जो विभाग बतलाये हैं, वे श्रावक के लिये सर्वथा त्याज्य हैं । इन विभागों के बताने का तात्पर्य यह है कि गृहस्थी से प्रायः इन्हीं कारणों से झूठ बोला जाता है । इनका त्याग करने पर स्थूल-झूठ मात्र का त्याग हो जाता है और लौकिक व्यवहार में वह किसी प्रकार का असत्याचारी नहीं रहता। अतिचारों का उल्लेख, शास्त्रकारों ने इस अभिप्राय से किया है कि गृहस्थी में इन बातों का कार्य विशेष पड़ता है और असावधानी या भूल से इन कार्यों का हो जाना सम्भव है । इसलिये श्रावक को अपने व्रत में सावधानी रखने के वास्ते ही, अतिचारों का रूप बतलाया गया है । श्रावकों Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६). को अतिचार-रहित व्रत पालन करने और अतिचार न हो जाय, इस बात से सावधान रहने की आवश्यकता है । जिस प्रकार राज्य की सीमा होती है, ऐसे ही व्रत की सीमा अतिचार है । इन सीमानों का उल्लंघन करना व्रत का उल्लंघन है । व्रत का पूर्ण रूप से पालन तभी समझा जाता है, जब उसमें अतिचार न हो । यदि व्रत में अतिचार का का ध्यान न रखा गया तो व्रत अपूर्ण है । इस दूसरे व्रत को अतिचार-रहित पालन करने से श्रावक अपने आपके लिये सुगति का आयुष्य बांधता है क्योंकि इस व्रत को पूर्ण रूप से पालने पर श्रावक अन्य पापों से भी लगभग बच जाता है और पापों से बचना अपने आपको कूगति में डालने से बचाना है। अतः इस व्रत के पालने वालों का सदा कल्याण ही है । * * सत्य भगवान् है, इसलिए सत्य की आराधना करो । सत्य का आसरा गहो । सत्य. पर श्रद्धा रखो । सत्य का आचरण करो । मन से, वचन से और काया से सत्य की आराधना करो । सत्य भाषण करने से निडर बन जाओगे। सत्य बोलने से अगर कोई प्राण ले ले तो भी परवाह मत करो। कदाचित् तुम सोचो कि हमारी सत्य बात मानी नहीं जायगी, लेकिन अगर कोई सत्य पर विश्वास नहीं करता तो तुम्हारी क्या हानि है ? तुम अपने सत्य पर अटल रहो। असत्य के भय से सत्य को त्याग कर असत्य का आसग Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) लेने की आवश्यकता नहीं है । तुम्हारी बात सत्य नहीं मानी जाएगी, यह विचार कर अगर भय किया तो इसका अर्थ यह हुआ कि तुम्हें सत्य पर पूर्ण विश्वास नहीं है । चिन्ता नहीं, अगर कोई तुम्हारे सत्य पर बिश्वास नहीं करता। भले ही तुम्हारे सत्य की लोग निन्दा करें, खिल्ली उड़ावें या सत्य के कारण भयंकर यातना पहुंचावें, परन्तु भय मत खाओ । अगर तुम भय खाते हो तो समझ लो कि तुम्हारे अन्तर के किसी न किसी कोने में सत्य के प्रति अश्रद्धा का कुछ भाव मौजूद है । सत्य पर जिसे पूर्ण श्रद्धा है, वह निडर है । संसार की कोई भी शक्ति उसे भयभीत नहीं कर सकती। तुम किसी से भी भय न करके सत्य ही सत्य का व्यवहार रखो तो तुम जान जाओगे कि मुझे ईश्वर मिल गया। ईश्वर की शरण में जाने का उपाय है-सत्य ! सत्य ईश्वरीय विधान है। तुम ईश्वर की शरण ले लोगे फिर किसी प्रकार का भय न होगा। भय का स्थान तो असत्य है । __ अगर आप अपने प्रत्येक जीवन-व्यवहार को सत्य की कसौटी पर कसें, सत्य को ही अपनावें और सत्य पर पूर्ण श्रद्धा रखें तो आप ईश्वर की शरण में पहुंच सकेंगे और आपका अक्षय कल्याण होगा। असत्य साहसशील नहीं होता । वह छिपना जानता है, बचना चाहता है, क्योंकि असत्य में स्वयं बल नहीं है । निर्बल का आश्रय लेकर कोई कितना निर्भय हो सकता है ? किन्तु सत्य अपने आपमें बलशाली है । जो सत्य को अपना अवलम्ब बनाता है, उसमें सत्य का बल आ जाता है और वह उस बल से इतना सबल बन जाता है कि विघ्न और Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) बाधाएं उसका पथ रोकने में असमर्थ सिद्ध होती हैं । वह निर्भय सिंह की भांति निस्संकोच होकर अपने मार्ग पर अग्रसर होता चला जाता है । * * मनुष्य को जब तक अनुभव नहीं हो जाता, तब तक उसकी समझ में सत्य का महत्त्व नहीं आता । जब उसके सिर पर कोई ऐसी आपत्ति आ पड़ती है - जो सत्य का आश्रय लेने से उत्पन्न हुई हो तो तत्काल ही वह समझ जाता है कि सत्य का क्या महत्त्व है ! सत्य - मार्ग पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान कठिन भी है और फूलों के बिछौने पर चलने के समान सरल भी है । इसमें प्रकृति की भिन्नता का अन्तर है। ऐसे मनुष्य भी हैं, जो अकारण ही असत्य बोलते हैं और सत्य व्यवहार को तलवार की धार पर चलने के समान कठिन मानते हैं । उनका बिश्वास है कि सत्य व्यव - हार करने वाला मनुष्य संसार में जीवित ही नहीं रह सकता । दूसरे ऐसे भी मनुष्य हो चुके हैं और हैं, जो असत्य व्यवहार करने की अपेक्षा, मृत्यु को श्रेष्ठ मानते हैं । सत्य - व्यवहार, उनके लिये फूलों की सेज है । फिर उस मार्ग में उन्हें चाहे कितने ही कष्ट हों, किन्तु वे उनकी परवाह किये बिना ही, प्रसन्नता पूर्वक अपने मार्ग पर चलते रहते हैं । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) सत्यवादी के संसर्ग से असत्यवादी के हृदय का परिवर्तन शीघ्र हो जाता है । सत्यव्रत के पालने वाले मनुष्यों में ऐसी ही शक्ति होती है। उनके एक बार के सम्पर्क से ही पतित से पतित व्यक्ति भी अपना कल्याण-मार्ग देख लेता है । जिसने सत्य-व्रत का एक-देश ग्रहण कर लिया, वह भविष्य में पूर्ण सत्य-व्रती बन जाता है। सत्य बड़ा ही महत्त्वपूर्ण और कल्याणकारक सिद्धान्त है । इसके पालन करने वाले को तो सदैव आनन्द है ही, किन्तु जो व्यक्ति सत्य का पालन करने वाले व्यक्ति के संपर्क में एक बार भी आ जाता है और उसकी एक भी शिक्षा ग्रहण कर लेता है, तो वह भी भविष्य में अपना कल्याणमार्ग पा जाता है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तेय-व्रत Page #89 --------------------------------------------------------------------------  Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयारम्भ पांच व्रतों में से तीसरा व्रत 'अस्तेय' या श्रदत्तादानविरमण है । अस्तेय या अदत्तादान - विरमरण, स्तेय या दत्तादान के प्रभाव को कहते हैं । स्तेय या श्रदत्तादान का अर्थ है चोरी । चोरी से निवृत्ति के लिये जो व्रत धारण किया जाता है, उसे 'अदत्तादान - विरमण ' या ' अस्तेय व्रत कहते हैं ! " इस व्रत को धारण करने की आवश्यकता और इससे होने वाले लाभ बताने के पहिले, यह आवश्यक प्रतीत होता है कि इस व्रत को धारण करने के लिये जिस चोरी से निवृत्त होना पड़ता है, उसका कुछ रूप बताया जाय । अतएव संक्षेप में पहिले इसी पर विचार कर लें । मन, वचन, काय द्वारा दूसरे के हकों को स्वयं हरण करना, दूसरे से हरण करवाना या इसका अनुमोदन करना, चोरी कहलाता है । अर्थात् जिस पर अपना वास्तविक रीति से अधिकार नहीं, फिर वह अधिकार चाहे रहा ही न हो, या रहा हो, लेकिन त्याग दिया हो, उस पर बिना उसके स्वामी की आज्ञा के अधिकार करने, उसे अपने काम में लेने और उससे लाभ उठाने को चोरी कहते हैं । मन में दूसरे के हकों को हरण करने के संकल्पविकल्प करना, मानसिक चोरी है । वचन द्वारा दूसरे के हकों को हरण करना, या दूसरे की वारणी को छिपाना, वाचिक चोरी है । इसी प्रकार, जिन कार्यों के करने से दूसरे के Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) हकों को आघात पहुंचता है, दूसरे के हकों का जिन कार्यों द्वारा अपहरण किया जाता है, दूसरा अपने हकों से वंचित रहता है, उन सब कार्यों की गणना कायिक-चोरी में है । इस प्रकार मन, वचन और काय के योग द्वारा, दूसरे के हकों का अपहरण करना, अपहरण करके उनका उपभोग करना, उनसे काम लेना, मन, वचन और काय द्वारा की गई चोरी कहलाती है। मन, वचन, काय, और इनके योगों द्वारा विशेषतः द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की चोरी होती है । द्रव्य से तात्पर्य है, वस्तु का, फिर वह वस्तु चाहे सजीव हो या निर्जीव । क्षेत्र का अर्थ है, स्थान । जैसे घर, बाग, मार्ग आदि । काल का अर्थ है, समय । जैसे, शताब्दी, वर्ष, महीना, दिन आदि । भाव का अर्थ है विचार और कार्य । - चोरी विशेषतः दो प्रकार की होती है । एक तो वास्तविक मालिक की अनुपस्थिति में या उसकी असावधानी में । जैसे सेंध लगा कर, जेब काट कर, ताला खोल कर चोरी करना आदि । दूसरी, वास्तविक मालिक की उपस्थिति या असावधानी में भी । जैसे डाका डाल कर, मार्ग में लूट कर चोरी करना आदि । जिस वस्तु पर अपना अधिकार ही नहीं है, या जो वस्तु दूसरे के अधिकार की है, उसे बिना उस वस्तु के स्वामी की आज्ञा और इच्छा के ग्रहण करना, अपने उपभोग में लेना और लाभ उठाना, द्रव्य की चोरी है । फिर वह वस्तु, सजीव- जैसे मनुष्य, पशु, पक्षी, वनस्पति आदि हो, या निर्जीव-जैसे सोना, चांदी, रत्न, मकान, वस्त्र आदि । . सैंध लगा कर, जेब काट कर, डाका डाल कर, मार्ग Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) में लूट कर ठग कर जाली नोट हुण्डी बना कर, झूठा दस्तावेज बना कर, राज्य का महसूल चुरा कर, ग्राहक से कपट द्वारा अधिक मुनाफा लेकर पड़ी हुई चीज - फल, रुपया, पैसा आदि दूसरे की मालिकी का जानते हुए उठा कर इत्यादि उपायों से दूसरे के हकों का अपहरण करना और लाभ उठाना, चोरी है । इसी प्रकार वस्तु में सम्मिश्रण करना, एक वस्तु बता कर दूसरी देना या लेना, कम देना, ज्यादा लेना, घूस देना - लेना भी चोरी है । ऐसे ही और भी कई उपायों से द्रव्य चोरी होती है । इस सभ्य कहलाने वाले युग में केवल उन्हीं उपायों से होने वाली चोरियों की गणना चोरी में है, जिन उपायों से कि चोरी करने पर, राज्य नियमानुसार दण्डित हो सके । जिन उपायों से चोरी करने पर राज्य - नियमानुसार दण्डित नहीं हो सकता, उनकी गणना चोरी में नहीं की जाती । लेकिन शास्त्रानुसार उस कार्य, बात, विचार की गणना भी चोरी में है, जिसके द्वारा दूसरे के हकों का अपहरण किया जावे, या उनसे अनुचित फायदा उठाया जावे । आज के कानून कुछ इने गिने उपायों द्वारा दूसरे के हक - हरण को ही चोरी में मान कर प्रकारान्तर से, चोरी के दूसरे सब मार्ग खुले कर दिये हैं । इसलिये चोरी के वे सभी उपाय निकले हैं, जिनके द्वारा चोरी करने वाले, दूसरे के हकों का अपहरण करने पर भी राज्य - नियम से दण्डित नहीं होते । सेंध लगाने, डाका डालने, ठगने, जेब काटने आदि राज्य - नियम से दण्ड्य उपायों द्वारा चोरी करने वाले, चाहे दो पैसे की भी चीज चुरावें, तब भी वे चोर कहलाते हैं और राज्य - नियमानुसार दण्डित होते हैं, परन्तु सभ्य उपायों द्वारा चोरी करने वाले, हजारों लाखों Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) और करोड़ों रुपयों की चोरी करके भी साहूकार ही बनें रहते हैं और राज्य - दण्ड से बचे रहते हैं । ऐसे सभ्य उपायों द्वारा चोरी करने वाले लोगों से जनता की जितनी हानि हो सकती है, उतनी हानि उन असभ्य उपायों द्वारा चोरी करने वाले लोगों से शायद ही होती हो क्योंकि असभ्य उपाय द्वारा चोरी करने वाले लोगों से, जनता सावधान रहती है और उनसे अपने हूकों की रक्षा करने का उपाय भी करती है । परन्तु इन सभ्य उपायों द्वारा चोरी करने वाले प्रतिष्ठित 'शाह' नामधारी लोगों से जनता सावधान नहीं रहती । इस प्रकार, उन असभ्य उपायों द्वारा चोरी करने वालों की अपेक्षा सभ्य उपायों द्वारा चोरी करने वाले कहीं अधिक भयंकर हैं । इन सभ्य उपायों में से कुछ चुने हुए उपाय नीचे दिये जाते हैं । कई लोग व्यापार में स्थिति का झूठा रोब जमा कर लोगों से माल लाते हैं, व्यवहार करते हैं, और दूसरों का रुपया अपने यहां जमा रखते हैं । इस प्रकार दूसरों का धन खींच कर झूठा जमा-खर्च करके बाद में अचानक ही दिवाला निकाल देते हैं। कई व्यापारी, अपनी संपत्ति के बल से बाजारों में एक दम से वस्तु का भाव घटा या बढ़ा देते हैं और इस तरह सारे बाजार पर अपना श्राधिपत्य जमा कर दूसरे के हों का अपहरण करते हैं । --- कई व्यापारी ग्राहक को तो कहते जाते हैं किज्यादा ले, सो छोरा-छोरी खाय या गऊ खाय । ग्राहक सम भते हैं कि व्यापारी कसम खा रहा है, परन्तु व्यापारी यह कह कर भी वस्तु का मूल्य अधिक लेता है । अधिक ली हुई रकम छोरा-छोरी या गाय या गाय के खाते में जमा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) कर लेते हैं । लड़के-लड़की के खाते की रकम, उनके खानेपीने विवाह-शादी आदि में लगा देते हैं और गाय के खाते की रकम, घर में पली हई गाय के खिलाने-पिलाने में खर्च कर देते हैं । यदि घर के लड़के-लड़की या गाय के खर्च से कुछ रकम बची रही तो छात्रालय, गोशाला आदि में देकर चोर होते हुए भी अपनी गणना दानवीरों में कराने लगते हैं। कई व्यापारी, अपढ़ ऋण लेने वाले को एक-सो रुपया देकर, दस्तावेज एक शून्य अधिक–अर्थात् एक हजार का लिखवा लेते हैं । इसी प्रकार ब्याज, सवान, ज्योढ़ान प्रादि में भी छल से दुगुना तिगुना कर लेते हैं । कई लोग किसी सार्वजनिक संस्था या लोकोपयोगी कार्य के लिये धन एकत्रित करके, या तो एकदम से दाब बैठते हैं, या नाम के लिये थोड़ा-बहुत कुछ खर्च करके, शेष धन हजम कर जाते हैं । कोई-कोई ऐसी संस्था या कार्य को कुछ समय तक, जब तक कि उसके नाम पर धन प्राप्त होता रहता है, चलाते भी रहते हैं और उसमें अपना मतलब भी गांठते रहते हैं। ___ कइयों ने विज्ञापनबाजी को चोरी का साधन बना रखा है । पत्रों, हैण्ड-बिलों आदि द्वारा विज्ञापन करके लोगों से आर्डर या पेशगी कीमत लेते हैं, परन्तु विज्ञापन के अनुसार न माल ही देते हैं, न कार्य ही करते हैं। विज्ञापन द्वारा किस तरह चोरी की जाती है, इसके लिये एक विज्ञापन के विषय में सुनी हुई बात इस प्रकार है एक विज्ञापनबाज ने मक्खियों से बचने की दवा का विज्ञापन किया । उसने अपने विज्ञापन में लिखा- “ केवल Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) एक आने के टिकिट भेज देने मात्र से हम यह दवा भेजते हैं, जिसे भोजन करते समय पास रखने पर मक्खियां नहीं सताती।" लोगों ने उसके पास एक-एक आने के टिकिट भेजे । विज्ञापक ने उन टिकिटों में से तीन पैसे के टिकिट तो अपनी जेब में रखे और एक पैसे के कार्ड पर टिकिट भेजने वालों को उत्तर दे दिया-"आप भोजन करते समय एक हाथ हिलाते जाइये, फिर मक्खियां नहीं सता सकतीं।" -- . मतलब यह है कि आज के कानूनों से असभ्य चोरियों की संख्या चाहे कम हो गई हो, परन्तु सभ्यता की ओट में होने वाली चोरियों की संख्या में तो वृद्धि ही सुनी जाती है । असभ्य उपायों से चोरी करने वाले को राज्य भी दण्डित करता है और समाज भी घृणा की दृष्टि से देखता है, परन्तु इन सभ्य उपायों से चोरी करने वाले को न तो राज्य ही दण्ड देता है और न समाज में ही घृणित माना जाता है । हां, ऐसी चोरी करने वाला समाज में 'चतुर' या 'होशियार' अवश्य कहलाता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि आज संसार का अधिकांश समाज चोरी के पाप में पड़ा हुआ है। चोरी करने वालों को दण्ड देने वालों में से भी, बहुतों के लिये सुना जाता है कि वे स्वयं घूसादि के नाम पर हजारों लाखों की चोरी करते हैं । स्वयं तो इतनी बड़ी बड़ी चोरी करें और दूसरों को रुपये आठ आने की चीज चुराने पर भी दण्ड दें, यह कैसे उचित कहला सकता है ? चोरों को दण्ड देते समय उन्हें अपना विचार नहीं पाता । वे इस बात को नहीं देखते कि हम जब ऐसी बड़ी बड़ी चोरी करते हैं, तब हमको इस छोटी चोरी करने वाले Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दण्ड देने का क्या अधिकार है ? जब तक कोई स्वयं चोरी करता है, तब तक वह दूसरे को कैसे दण्ड दे सकता है ? दूसरे से किसी बात का पालन करवाने के लिये पहले स्वयं उसका पालन करना अत्यावश्यक है । आप स्वयं चोरी करें और दूसरे को चोरी के लिए उचित दण्ड दें, यह न्याय नहीं कहला सकता । जीवधारियों की चोरी भी द्रव्य की चोरी में शामिल है । किसी जीवधारी पर उसकी स्वयं की और यदि वह बेसमझ है तो उसके अभिभावक स्वामी आदि की आज्ञा के बिना अपना अधिकार करना, उसके द्वारा किसी रूप में लाभ उठाना, चोरी है । जैसे पशु, पक्षी, स्त्री, बालक आदि को बिना उनके स्वामी की आज्ञा के अपने अधिकार में करना, उन्हें बेच कर उनसे फायदा उठाना । किसी के घर, बाग, खेत, मार्ग, गांव, देश या राज्य पर बिना उसकी आज्ञा के अधिकार करना, उन्हें अपने काम में लेना या किसी प्रकार का फायदा उठाना, क्षेत्र की चोरी है। वेतन, किराया, सूद, कमीशन आदि देने के लिये समय को न्यूनाधिक बताना, काल की चोरी है। किसी कवि, लेखक, वक्ता के भावों को लेकर उन पर अपना रंग दे अपने बताना, किसी के उपकार को न मानना, शास्त्र या ग्रन्थ के किसी भाव को पलटना या छिपाना और उनके नाम पर अनुकम्पा को पाप में बताना, दूसरे का उपकार न करने के लिये लोगों को उपदेश देना आदि कार्यों की गणना भाव-चोरी में है । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) जिस प्रकार___मा देह किंचि दारणं । . (प्र० व्या० सू० ) अर्थात् – जरा भी दान मत दो। इस कथन की गणना भठ में की गई है। इसी प्रकार बहुत से कार्यों की गणना चोरी में भी की गई है । जैसेअदत्तादान विरमण व्रत का उपदेश करते हुए प्रश्न-व्याकरण सूत्र में कहा है " इस व्रत को धारण करने वाला, दूसरे की निन्दा न करे, दूसरे के दोष न निकाले, दूसरे से द्वेष न करे, दूसरे के नाम पर. लाई हई वस्तू आप न भोगे, दूसरे के सुकृत, सच्चरित्रता और उपकार का नाश न करे, दूसरे को दान देने में विघ्न न करे और दूसरे के गुण सुन कर असह्य न बनावे क्योंकि ऐसा करना चोरी है ।" .. दशवैकालिक सूत्र में कहा हैतवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । प्रायार-भावतेणे य, कुव्वइ देवकिविसं ॥ अर्थात्-जो आदमी तप, अवस्था, आचार और भाव को छिपाता है, दूसरे के पूछने पर स्पष्ट नहीं कहता, वहसाधु होने पर भी- किल्विष ( नोच ) देव की योनि में उत्पन्न होता है । गीता में कहा है Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैर्दत्ता न प्रदायभ्यो भुङक्त स्तेन एव सः । (अ० ३) अर्थात्-अपने पर जिसका उपकार है, जिससे अपने को सहायता मिली है, उसका बदला न चुकाना चोरी है । जिस वस्तु की कमी से दूसरे को हानि पहुंचती है, उस वस्तु का आवश्यकता से अधिक संचय करना या उपभोग करना भी एक प्रकार की चोरी है क्योंकि उस वस्तु का अधिक उपभोग करने वाले को भी हानि पहुंचती है, और वह चीज दूसरे को नहीं मिलती। इसलिये दूसरे की अन्तराय भी आती है । इसी प्रकार और भी बहुत से कार्यों की गणना भाव-चोरी में है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में चोरी के तीस नाम बतलाये हैं। इन नामों पर ध्यान देने से चोरी का व्यापक भाव समझ में पा सकता है । वे इस द्रकार हैं गुणानुसार चोरी के तीस नाम बताये जाते हैं । वे ये हैं- ( १ ) चोरी, (२) दूसरे के हकों को हरा जाता है, इसलिये ‘परहृत', (३) बिना दिया हुआ दूसरे का द्रव्य लिया जाता है, इसलिये ' अदत्त', ( ४ ) क्रूर मनुष्यों द्वारा सेवित होने से 'क्रूरकृत', (५) दूसरे के धन से लाभ लिया जाता है, इसलिये ‘परलाभ', ( ६ ) संयम-नाशक होने से 'असंयम', .(.७ ) दूसरे के धन में लोलुपता होने से 'पर-धनगृद्धि', (८) दूसरे के धन के लिये चंचल रहने से 'लौल्य', ( 6 ) दूसरे का धन चुराया जाता है, इसलिये 'तस्करत्व', (१०) दूसरे का धन हरण किया जाता है, इसलिये अपहार', Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) ( ११ ) यह कार्य हाथ की चालाकी से होता है, इसलिये 'हस्तलस्व', (१२) यह पाप-कर्म कराता है, इसलिये 'पापकर्मकरण', (१३ ) अस्तेय का नाशंक है, इसलिये 'स्तेय', ( १४ ) दूसरे का द्रव्य नाश किया जाता है, इससे 'हरणविषणास', ( १५ ) दूसरे का धन लिया जाता है, इसलिये 'प्रादान', ( १६ ) दूसरे के धन का लोप किया जाने से 'धन लोपन', ( १७ ) अविश्वास का कारण होने से 'अप्रत्यय', ( १८ ) दूसरे को पीड़ा देने से 'अवपीड़', (१६) दूसरे के धन को छीन लेने से 'पाप', (२०) 'क्षप', (२१) 'विक्षेप', ( २२ ) छल-कपट युक्त होने से, 'कूटता, ( २३ ) कुल का कलंक बनाने से ' कुलमसि', (२४) दूसरे के धन की लालसा होने से, 'कांक्षा', ( २५) इसे छिपाने के लिये दूसरे की प्रार्थना करनी पड़ती है और दीन वचन बोलने पड़ते हैं, इससे 'लालपन-प्रार्थना', ( २६ ) दुःख का कारण होने से 'व्यसन', ( २७ ) दूसरे के धन में लोलुपता होने से ' इच्छामूर्छा', तथा (२८) तृष्णा-गृद्धि', (२६) माया सहित होने से ' निकृति ' कर्म, और (३०) किसी के सामने दूसरे का धन न लेने से 'अप्रत्यक्ष ' नाम है । मित्रद्रोह आदि पापों से भरे हुए अदत्तादान के ऐसे ही और अनेक नाम हो सकते हैं । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी के कारण चोरी करने का अन्तरंग कारण द्रव्यलोलुपता है । उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में कहा है रूवे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तो व सत्तो न उवेइ तुढ़ि। अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले प्राययइ अदत्तं ।। अर्थात्-- रूप की ओर जिसे सन्तोष नहीं है, यानी जो रूप और रूपवान के परिग्रह में अत्यन्त आसक्त हो गया है और जिसे इनके संग्रह की सदैव लालसा बनी रहती है, वह लोभ का मारा हुआ तथा असन्तोष के वेग से व्याकुल पुरुष दूसरे की चोरी करता है। . यही बात शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श के लिये भी कही है। यानी जो इनका लोभी हो गया है, वह इनकी प्राप्ति के लिये चोरी करने में भी संकोच नहीं करता । मतलब यह कि विषयसुख का लोभ या आसक्ति ही चोरी का अन्तरंग कारण है। - चोरी के बाह्य कारणों में से पहिला कारण हैलोगों की बेकारी और भूखों मरना । बेकार लोग भूखों Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरते अपने पेट की ज्वाला बुझाने के लिये चोरी का आश्रय लेते हैं । पेट की ज्वाला से पीड़ित लोग उचित-अनुचित उपायों का ध्यान नहीं रखते, किन्तु जिस तरह बनता है, उसी तरह दूसरों का धन हरण करके अपने पेट की ज्वाला बुझाते हैं। समाचार-पत्रों से प्रकट है कि केवल भारत में ही प्रति वर्ष सैकड़ों मनुष्य बेकारी से घबराकर आत्म-हत्या कर लेते हैं। बेकार होने पर भी जो लोग चोरी को बुरा समझते हैं, वे आत्म-हत्या कर डालते हैं । मतलब यह कि चोरी करने के कारणों में से एक कारण बेकारी है। बेकारी बढ़ाने में मुख्यतः कारखानों का हाथ है । जिस काम को करके लाखों-करोड़ों आदमी अपना भरणपोषण करते थे, कारखानों के होने पर उन लाखों-करोड़ों की आजीविका कुछ ही लोगों को मिल जाती है । इस तरह कारखानों से बेकारी बढ़ गई है ।, बेकारी बढ़ने का दूसरा कारण है, देश के वाणिज्य और कला-कौशल का नष्ट होना । जब देश का वाणिज्य और कला-कौशल नष्ट हो जाते हैं, तब उनके द्वारा आजीविका चलाने वाले लोग बेकार भूखों मरते चोरी करने लग जाते हैं। ___ बेकारी के ऐसे और भी कई कारण है, जिनका वर्णन करना अनावश्यक है। चोरी के बाह्य कारणों में से दूसरा कारण फिजूल खर्ची है । फिजूल-खर्ची में पहला नम्बर जुए का है । सट्टा, फाटका, लॉटरी, सौदा, शर्त आदि सब जुए के ही रूप हैं । आलसी लोग जुआ खेलने लगते हैं । जब वे अपनी सम्पत्ति को उसमें स्वाहा कर देते हैं, तब चोरी करने लगते हैं । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) प्रारम्भ तो- ऐसे लोगों की चोरी अपने ही घर तक रहती है, परन्तु जब घर में दाल नहीं गलती या कुछ नहीं रह जाती, तब वे दूसरे के धन पर हाथ साफ करने लगते हैं । फिजूलखर्ची में, दूसरा नम्बर अन्य - अन्य दुर्व्यसनों का है । यानी शराब, गाँजा, भंग, तमाकू, चर्स, रण्डीबाजी आदि अन्य बुरे कार्यों का व्यसन होना । दुर्व्यसनी को जब दुर्व्यसनों के लिये पैसा नहीं मिलता, तब वह चोरी करने लगता है । फिजूलखर्ची में तीसरा नम्बर सामाजिक कुप्रथाओं का है । समाज में जब यह नियम होता है कि विवाह, शादी, नुकते या किसी और काम में इतना खर्च करना ही चाहिए, या इतना रुपया, इतना जेवर, इतना कपड़ा होने पर ही विवाह हो सकता है, या अमुक वस्तु श्रौर इतनी रसोई देनी चाहिए, तब इस कुप्रथा और फिजूल खर्ची का पोषण करने के लिये भी लोग चोरी करने लगते हैं । यह बात दूसरी है कि ऐसे लोग असभ्य उपायों से दूसरे के हकों को हरण न करके सभ्य उपायों से हरण करें, परन्तु ऐसा करना भी तो चोरी • ही है । मतलब यह कि फिजूल खर्ची भी चोरी का एक कारण है । चोरी के बाह्य कारणों में से तीसरा कारण है, यश कीर्ति या बड़ाई की चाह । इस कारण से चोरी करने वालों में पहला नम्बर उन लेखकों, वक्ताओं और कवियों का है, जो अपनी बड़ाई के लिये, दूसरों के लेख, कविता और भावों को चुरा कर, उसी रूप में या कोई दूसरा रंग चढ़ा कर अपने नाम से प्रसिद्ध करते हैं । दूसरा नम्बर है उन सेठ, साहूकार, अमीर, रईस और राजानों का, जो दूसरे के धन Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) को चोरी के उपायों से हरकर केवल यश-कीर्ति के लिये, विवाह-शादी, मेहमानी भ्रमण आदि में खर्च करते हैं, या दानी बनने के लिये संस्था आदि को दान देते हैं । ऐसे ही वे हैं, जो दूसरे का राज्य छीन कर अपने को वीर कहलाना चाहते हैं अथवा जो दूसरे का रोजगार मार कर अपने को बड़ा व्यापारी प्रसिद्ध करने के इच्छुक रहते हैं । तीसरा नम्बर है, उन साधु-सन्त कहलाने वालों का, जो केवल प्रशंसा और प्रतिष्ठा के लिये अपने आपको, आचार-भ्रष्ट होने पर भी उत्तम साधु, स्थविर न होने पर भी अपने को स्थविर, तपस्वी न होने पर भी अपने को तपस्वी और विद्वान् न होने पर भी अपने को विद्वान् बताते हैं । मान बड़ाई के लिये और भी बहुत लोग बहत रूपों से चोरी करते सुने जाते हैं, जिनका वर्णन यहां विस्तार भय से नहीं किया जाता है । चोरी का चौथा कारण है-स्वभाव । अशिक्षा और कुसंगति के कारण बहुत लोगों का स्वभाव ही ऐसा हो जाता है कि उनके पास किसी प्रकार की कमी न होने पर भी या दूसरा रोजगार मिलने पर भी, वे चोरी करना अच्छा समझते हैं और चोरी करते हैं । ___ चोरी का सबसे बड़ा बाह्य कारण अराजकता है । राज्य द्वारा जब भूखों मरते हुओं की व्यवस्था नहीं की जाती, दुर्व्यसन नहीं मिटाये जाते, सामाजिक कुप्रथानों तथा मान-बड़ाई के लिये चोरी करने वालों को नहीं रोका जाता और शिक्षा का प्रबन्ध नहीं किया जाता, तब तक चोरी होना स्वाभाविक है । चोरी कौन और कैसे करते हैं तथा चोरों में किन Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (58) लोगों की गणना है, इसके लिए प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा है कि ― " दूसरे का धन हरण करने में दक्ष, इसके लिये अवसर के जानकार तथा साहस रखने वाले और हाथ की सफाई वाले ही लोग चोरी करते हैं । अपने स्वरूप को छिपा, बातों का आडम्बर बना, मधुर-मधुर बोल कर दूसरे को ठगने वाला चोर होता है । जिसकी आत्मा तुच्छ है, जिसकी धन- लालसा बढ़ी हुई है, जो देश या समाज से बहिष्कृत है, जिसे मर्यादा भंग करने में संकोच नहीं है, जो जुना खेलता है, चोरी में बाधा देने वाले को या जिससे घन मिलने की प्राशा है उसकी घात करने में जिसे भय या संकोच नहीं होता, अपने साथियों की घात करने में भी जो नहीं हिचकिचाता और ग्राम, नगर, जंगल आदि को जला देता है, वह चोरी करता है । जो ऋण लेकर फिर लौटाना नहीं जानता, जो सन्धि भंग करता है, जो सुव्यवस्था रखने वाले राजा का बुरा चाहता है, साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका में जो भेद डालता है और चोरी करने वालों को उनके चोरी के कार्य में किसी भी रूप से सहायता देता है, वह चोर है । चोर लोग, जबरदस्ती या गुप्त रह कर और वशीकरणादि मन्त्रों का प्रयोग करके गांठ काट कर तथा और भी दूसरे उपायों से दूसरे का धन, स्त्री, पुरुष, दास, दासी, गाय, घोड़ा आदि हरण कर लेते हैं । इसी प्रकार राज-भंडार तोड़ कर भी धन - हरण करते हैं । इसी तरह दूसरे के धन को हरण करने के प्रत्याख्यान - रहित, विपुल बल परिवार वाले, अपने धन में सन्तोष न मानने वाले और दूसरे के धन का लोभ रखने वाले बहुत से राजा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ० ३ ) लोग, दूसरे राजा के देशों को नष्ट करके धन हरण करने के लिये, युद्ध के निमित्त चतुरंगिणी सेना सजा और 'पहिले मैं ही विजय कर लूं ' ऐसा दर्प रखने वाले उत्तम योद्धानों को लेकर तथा व्यूह बना कर, दूसरे के बल को नष्ट करके उसका हरण करते हैं । और भी कहा गया है कि - अनुकम्पा और परलोक के डर से रहित चोर लोग, ग्राम, नगर, खदान, आश्रम, श्रादि तथा समृद्ध देशों को लूट लेते हैं और उन्हें नष्ट कर डालते हैं । चोरी करने में स्थिर हृदय और दारुण बुद्धि वाले निर्लज्ज लोग, लोगों के घर में सेंध फोड़ कर, घर में रखे हुए धन-धान्यादि का हरण करते हैं और सोये हुए गाफिल लोगों को लूट लेते हैं। धन की खोज में ऐसे लोग, काल - काल में और जाने न जाने योग्य स्थान का बिचार नहीं करते, किन्तु जहां रक्त की कीच हो रही है, मृतकों के शव रक्त से भीगे पड़े हैं, प्रेत, डाकिनी - शाकिनी आदि घूमती हैं और शृगाल, उलूकादि भयानक पशु-पक्षी शब्द करते हैंऐसे घोर श्मशानों में, सूने मकानों में, पर्वत की गुफाओं में तथा जहां सर्पादि भयंकर जानवर रहते हैं, ऐसे विषम जंगलों में रह कर, शीत ताप की पीड़ा सहते हैं और यही चिन्ता किया करते हैं कि किसी का धन हरण करें। ऐसे स्थानों में रहते हुए, ये लोग भूख लगने पर कभी तो लड्डू भात मदिरा आदि का भोजन - पान करते हैं और कभी कन्दमूल, मृतक - शरीर या जो कुछ मिल जावे, वही खा लेते हैं । जिस प्रकार भेड़िया खून की तलाश में इधर-उधर घूमता फिरता है, उसी प्रकार चोर लोग भी पराये धन की तलाश में इधर-उधर घूमते-फिरते हैं और नरक तिर्यंच योनि में Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) होने वाले कष्टों को वे निरन्तर यहीं भोगते हैं । चोरी करने वाले लोग, सज्जनों से निन्दित हैं, पापी हैं, राजाज्ञा भंजक हैं, प्राणियों के दुःख के कारण हैं और मानसिक चिन्ताओं तथा इसी लोक में सैकड़ों दुःखों से युक्त हैं । * * Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरी का फल चोरी नीच कर्म है । इस नीच काम में प्रवृत्त होने वाले की इन्द्रियां और मन सदा चंचल रहते हैं, जो धर्ममार्ग में बाधक है । धर्म में इन्द्रियों और मन के एकाग्र होने की खास आवश्यकता है किन्तु चोरी करने वाले की इन्द्रियां और मन संयम में नहीं रहते, इससे वह धर्म से सदा दूर रहता है । चोरी करने वाले की वृत्तियां ऐसी खराब हो जाती हैं कि संसार के किसी भी नीच - कार्यं से उसे घृणा नहीं होती । उसकी वृत्तियां निरन्तर पापों में ही जाती हैं । प्रेम, दया, अहिंसा आदि गुण चोरी करने वाले के पास भी नहीं ठहरते । चोरी की निन्दा करते हुए भगवान् ने प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा है " हे जम्बू ! तीसरा ग्राश्रव - द्वार प्रदत्तादान यानी नहीं दिये हुए धनादि को ग्रहण करना है । यह अदत्तादान, हरण करना, जलाना - मारना, भय पाना आदि पापों से लिप्त है । अदत्तादान की उत्पत्ति दूसरे के घन में रौद्र-ध्यान सहित मूर्छा होने से होती है । यानी धन से जिसकी तृष्णा नहीं मिटी है, वही चोरी करता है । चोरी करने वाले लोग, श्राधी रात तथा पर्वतादि विषम स्थानों तक का आश्रय लेते हैं और उत्सवादि में गाफिल तथा सोये हुए को लूट लेना, ठग लेना, दूसरे के चित्त को व्यग्र करना, दूसरे को मार डालना, उनका Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम होता है । यह चोरी कार्य, राग द्वेष से पूर्ण, दया से रहित, आर्यजनों तथा साधुजनों से निन्दित और तस्करों को बहुत प्रिय है । अदत्तादान भय, अकीर्ति, वध, नाश, संग्राम, प्रियजनों तथा मित्रजनों की अप्रीति और जन्म-मरण का कारण है। यह कार्य, दुःखों के प्रवेश करने का द्वार है । इसके करने वाले को राजादि द्वारा दण्ड प्राप्त होता है । इसका फल दारुण है, यह बड़े पाप का प्रवाह है, इसलिये इस कार्य को आश्रव द्वार कहते हैं । चोरी करने वाले की कीर्ति नष्ट हो जाती है । ऐसे आदमी का विश्वास करना तो दूर रहा, लोग उसके पास भी खड़े नहीं रहते, उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं । चोरी करने वाले की इस लोक और परलोक में जो दुर्गति होती है, उसका वर्णन प्रश्नव्याकरण सूत्र में सुन्दर ढंग से किया गया है। कर्म से पराभव पाये हुए लोग, अपनी इन्द्रियों को संयम में नहीं रख सकते। तब शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श में लोलूप बन कर, इनके मोह में मुग्ध होकर तथा दूसरे के धन में लोभ-तृष्णा बढ़ी हुई होने से, ठग कर, झूठ बोल कर और सेंध आदि द्वारा दूसरे का धन हरण करते हैं । तब उन नरकगामी चोरों को पकड़ कर राजपुरुष अपने आधीन करते हैं, बांध कर प्रसिद्ध-प्रसिद्ध मार्गों से घुमाते हैं और लातें, घूसे, जूते, लकड़ी आदि से मारते हैं। ___ चोरी करने के कारण इस लोक में होने वाले कष्टों का वर्णन करते हुए सूत्र में कहा है कि चोरी करने वाले लोग, मर कर नरक में जाते हैं । नरक आनन्द-दाता स्थान नहीं होता है, किन्तु उसमें कहीं Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो धधकती हुई आग रहती है और कहीं अत्यन्त शीत । ऐसे नरक में उन्हें अनेकों कठिन दुःख भोगने पड़ते हैं। बहुत काल तक वहां रह चुकने के पश्चात् वे तिर्यक्योनि में जन्म पाते हैं, जहां नरक के समान ही दुःख होता है । चोरी करने वाले लोग यदि अनन्तकाल के पश्चात् मनुष्यभव पाते भी हैं, तो अनेकों बार नरक-तिर्यक-योनि में परि भ्रमण कर चुकने पर मनुष्य जन्म पाते हैं । मनुष्य-जन्म में भी वे सुखी नहीं होते, किन्तु या तो अनार्य जाति में उत्पन्न होते हैं, या आर्य-जाति के ऐसे कुल में जन्म लेते हैं, जिससे लोग घृणा करते हैं । इस प्रकार मनुष्य-योनि पाकर भी वे पशु तुल्य कष्ट भोगते हैं । मनुष्य-योनि में भी वे तत्त्वज्ञान नहीं पाते, क्योंकि वे शास्त्र-विरुद्ध तत्त्व के उपदेशक, एकान्त हिंसा में श्रद्धा रखने वाले और कामभोग की बहुत लालसा वाले होते हैं । मनुष्य भंव में वे लोग नरक जाने के ही काम करते हैं और अपने संसार को बढ़ाते हैं । चोरी करने वाले इस तरह आठ प्रकार के कर्म-बन्धनों से अपने को बांध कर, नरक, तिर्यक, मनुष्य, देव-भव रूपी संसार में भटकते रहते हैं । इन वर्णन किये हुए सब पापों और कष्टों से बचने के लिये चोरी को त्यागना उचित है । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रदत्तादान - विरमण व्रत प्रदत्तं नादत्ते, कृतसुकृतकामः किमपि य ; श्रुतश्रेणीस्तस्मिन् वसति कलहंसीव कमले || विपत्तस्माद् दूरं व्रजति रजनीवाम्बरमणेः । विनीतं विद्येव, त्रिदिवशिवलक्ष्मीर्भजति तम् ॥ ( सिंदूर प्रकरण ) अर्थात् - जो पुण्यकामी बिना किसी की दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करते, उनमें शास्त्र श्रेणी इस प्रकार रहती है, जैसे कमल पर कमलहंसी । ऐसे लोगों से विपत्ति उसी प्रकार दूर हट जाती है, जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर रात्रि हट जाती है । जिस तरह विद्या - विनीत पुरुष को अंगीकार करती है, उसी तरह अदत्तादान के त्यागियों को स्वर्ग और मोक्ष की लक्ष्मी स्वीकार करती है । चोरी का जो सूक्ष्म और स्थूल रूप संक्षेप में बताया गया है, उससे निवृत्त होने के लिये अदत्तादान - विरमरण व्रत को धारण करना उचित है । इस व्रत को धारण करके पालन करने वाला, इस लोक में सुखी रहता है, विश्वासपात्र माना जाता है, यश तथा कीर्ति प्राप्त करता है और परलोक में भी सुख पाता है । इस व्रत की प्रशंसा और इससे होने वाले लाभ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) के विषय में प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा है कि- .. अन्य के द्रव्य को हरण करने की क्रिया से निवृत्तियुक्त, यह अदत्तादान-विरमण नाम का व्रत, सुव्रत और सम्मान देने वाला है । यह व्रत, तृष्णा और कलुषता का निग्रह करने वाला, इन्द्रियों को संयम में रखने वाला, तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट उत्कृष्ट निग्रन्थ-धर्म है । यह व्रत पाप के मार्ग को रोकने वाला है। इस व्रत को धारण करने वाला सब मनुष्यों में उत्तम बलवान् है । इसके धारण करने वाले को कोई भय नहीं है और न उसे कोई दोष ही लग सकता है। ___ अन्य विद्वानों ने भी इस व्रत की प्रशंसा करते हुए कहा है तमभिलषति सिद्धिस्तं वृणीते समृद्धिः, तमभिसरति कोतिर्मुञ्चते तं भवातिः । स्पृहयति सुगतिस्तं नेक्षते दुर्गतिस्तम्, परिहरति विपत्तियो न गृह्णात्यदत्तम् । (सिन्दूरप्रकरण ) ___ अर्थात्-सिद्धि उसकी अभिलाषा करती है, समृद्धि उसे स्वीकार करती है, कीर्ति उसके पास आती है, सांसारिक पीड़ाएं उसे त्याग देती हैं, सुगति उसकी स्पृहा (चाह) करती है, दुर्गति उसे नहीं देखती है और विपत्ति उसे छोड़ देती है, जो बिना दिये हुए यानी अदत्त को ग्रहण नहीं करता। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) शास्त्र में बताये हुए पांचों व्रत, एक दूसरे से इस प्रकार सम्बन्ध रखते हैं कि एक भी व्रत का पूर्ण रीति से पालन करने पर सब व्रतों का पालन स्वयं हो जाता है और एक भी व्रत का खण्डन करने पर सब व्रतों का खंडन हो जाता है । इसलिये शेष चार व्रत का पालन करने के लिये भी इस व्रत को धारण करना आवश्यक है । शास्त्र में अदत्तादान - विरमण के दो रूप बताये गये हैं। एक सूक्ष्म और दूसरा स्थूल अथवा महाव्रत एवं अणुव्रत । सूक्ष्म व्रत साधु के लिये बताया गया है और स्थूलव्रत गृहस्थ श्रावकों के लिये । गृहस्थ - श्रावक सूक्ष्म - प्रदत्ता - दान - विरमण व्रत का पालन नहीं कर सकते, क्योंकि महाव्रत ( सूक्ष्म व्रत ) तीन करण और तीन योग से धारण किया जाता है, तथा उसमें किसी की बिना दी हुई वस्तु मात्र को ग्रहण करने का त्याग करना होता है । सूक्ष्म प्रदत्तादान विरमण व्रत को धारण करते समय साधु प्रतिज्ञा करते हैं समणे भविस्सामि श्ररणगारे श्रचिणे प्रपुत्ते अपसू परदत्तभोई पावकम्मं गो करिस्सामिति समुट्ठाए सव्वं भंते प्रदिरणादारणं पञ्चक्खामि । ( आचा० द्वि० श्रु० १६ वां अ० ) अर्थात् - हे पूज्य ! मैं गृह, धन, पशु, पुत्र को त्याग कर दूसरे का दिया हुआ भोगने वाला साधु होता हूँ । इसलिये मैं सावधान होकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि अदत्तादान का पाप मैं नहीं करूंगा, किन्तु वे ही चीजें भोगूगा, जो दूसरे ने मुझे दी हों । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) अहावरे तच्चे भंते ! महव्वए अदिन्नादाणाम्रो वेरमणं सव्वं भंते ! महव्वए अदिन्नादाणं पञ्चक्खामि, से गामे वा नगरे वा रन्ने वा अप्पं वा बहुं वा अणुवा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सगं अदिनगेण्हेज्जा नेवन्नेहिं अदिण्णं गिण्हावेज्जा अदिन्नं गिरणहंतेवि अन्ने ने समणुजाणेज्जा; जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजारणामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसरामि । तच्चे ते ! भंमहव्वए उवडिप्रोमि सव्वानो अदिन्नादाणाम्रो वेरमणं ॥ ( दशवैका० चौ० अ० ) अर्थात्- गुरु से शिष्य ने पूछा- भगवन् ! तीसरा महाव्रत कौन सा है ? गुरु ने कहा-तीसरा महाव्रत अदत्तादान से निवर्तना है । शिष्य ने पूछा- उसमें क्या करना पड़ता है ? गुरु ने कहा- ग्राम नगर या जंगल आदि में, थोड़ी या ज्यादा, छोटी या बड़ी, सचित्त या अचित्त वस्तु को किसी के दिये बिना ग्रहण करे नहीं, दूसरे से ग्रहण करावे नहीं और ग्रहण करने वाले को भला समझे नहीं, मन से, वचन से और काय से । तब शिष्य कहता हैभगवन् ! मैं अदत्तादान को बुरा समझ कर आपके कथनानूसार उससे निवर्तता है । मैं अदत्तादान का प्रतिक्रमण करता हूं, निन्दा करता हूँ और इस पाप को आत्मा से Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (εε) अलग करके तीसरे महाव्रत सर्वथा अदत्तादान - विरमण में उपस्थित होता हूँ । सूक्ष्म ( महा ) व्रत धारण करने के समय साधु को इस प्रकार प्रतिज्ञा करनी होती है । इस प्रतिज्ञा के अनुसार, साधु बिना दी हुई किसी भी वस्तु को नहीं ले सकते, फिर वह वस्तु चाहे गुरु की हो, शिष्य की हो, या और किसी की हो । जिस वस्तु पर किसी का अधिकार नहीं है, या जो वस्तु सार्वजनिक है, साधु उसका उपयोग भी बिना किसी की प्रज्ञा के नहीं कर सकते क्योंकि ऐसी वस्तु पर साधु का अधिकार नहीं रहा है । संसार की सारी वस्तुनों साधु अपना अधिकार उठा चुके हैं, इसलिये वे उसी वस्तु का भोगोपभोग करं सकते हैं, जो दूसरे ने दी हो । साधु यदि किसी को अपना शिष्य भी बनावेंगे तो उस शिष्य बनने वाले के अभिभावकों की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर । अभिभावकों की आज्ञा के बिना शिष्य बनाने वाले साधु का यह महाव्रत भंग हो जाता है । इसी तरह अन्य सम्प्रदाय से के साधु को, बिना उसके गुरु की अनुमति प्राप्त किये अपने में मिला लेना भी प्रदत्तादान है । की मतलब यह कि सूक्ष्म व्रत धारण करने वाला, किसी वस्तु को बिना दूसरे के दिये अपने काम में नहीं ला सकता । गृहस्थ - श्रावक यदि सूक्ष्म व्रत धारण करे तो सार्वजनिक चीज तो क्या, घर की भी उन चीजों को नहीं ले सकता, जिन पर घर के किसी दूसरे आदमी का किंचित् भी अधिकार है । इसलिये जब तक वह गृहस्थ है, तब तक सूक्ष्म प्रदत्तादान - विरमरण व्रत का पालन करने पर, उसका गृहस्थ- जीवन नहीं निभ सकता, इस बात को विचार कर. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) शास्त्रकारों ने गृहस्थ श्रावकों के लिये स्थूल अदत्तादानविरमरण व्रत बतलाया है । उन्होंने श्रावकों के लिये यह व्रत धारण करना आवश्यक बतलाया है । थूलगश्रदत्तादारणं समरगोवासश्रो पञ्चखाइ, से दिन्नादा दुविहे पन्नत्ते तंजहा - सचित्तादाणे श्रचितादत्तादाणे । ( आवश्यक सूत्र अ० ६ ) अर्थात् -- श्रमणोपासक 'स्थूल अदत्तादान का त्याग करे । स्थूल अदत्तादान दो प्रकार का है । एक सचित्त- अदत्तादान और दूसरा चित्त - अदत्तादान | टीकाकार ने स्थूल अदत्तादान की व्याख्या करते हुए कहा है कि दुष्ट अध्यवसाय - पूर्वक अपने अधिकार से परे, अर्थात् दूसरे के अधिकार की वस्तु को बिना उस वस्तु के श्रधिकारी की आज्ञा के ग्रहण करना, स्थूल - अदत्तादान है । यह अदत्तादान दो प्रकार का है । जिसमें जीव है वह सचित्त है और सचित्त की चोरी करना, सचित्त- अदत्तादान है । सचित्त में मनुष्य, पशु, पक्षी, कीटाणु, बीज, वृक्ष प्रादि वे सब शामिल हैं, जिनमें जीव है जिसमें जीव नहीं है, उसे अचित्त कहते हैं । जैसे सोना, चांदी, ताम्बा, पीतल, रत्न, कंकर, वस्त्र आदि । अचित्त की चोरी करना अचित्त - अदत्तादान है । शास्त्रकारों ने गृहस्थ - श्रावकों को स्थूल प्रदत्तादानविरमण व्रत में उस चोरी का त्याग बताया है, जिसे संसार में चोरी कहते हैं और जिस चोरी के करने से चोरी करने Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) वाला चोर कहा जाता है तथा लोग घृणा से देखते हैं । जो वस्तु सार्वजनिक है, जिस वस्तु पर किसी व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं है, उसे लेने या उसका उपभोग करने का त्याग श्रावकों को नहीं कराया जाता । मतलब यह कि दृष्ट अध्यवसायपूर्वक दूसरे के हकों को हरण करने की क्रिया से निवर्तना, स्थूल अदत्तादानविरमण व्रत है । इस तीसरे व्रत के धारण करने में, जहां साधु तीन करण और तीन योग से अदत्तादान का पूर्णतया त्याग करते हैं, वहां श्रावक दो करण और तीन योग से स्थूल-अदत्तादान का त्याग करता हैं । जैसा कि आनन्द श्रावक ने किया था । यथा तदारांतरं च रणं थूलयं अदिन्नादारणं पञ्चक्खाति जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेति, न कारवेति, मणसा वयसा कायसा ॥ ( उपा० सू० प्र० प्र०) अर्थात् - स्थूल मृषावाद त्यागने के पश्चात् आनन्द श्रावक ने स्थूल-अदत्तादान का त्याग दो करण-करूंगा नहीं और कराऊंगा नहीं और तीन योग- मन मे, वचन से काय से किया। स्थूल-अदत्तादान विरमरण व्रत धारण करने पर श्रावक के न तो सांसारिक काम ही रुकते हैं और न वह स्थूल चोरी के पापों में ही पड़ता है । संसार में भी वह प्रामाणिक और विश्वासपात्र माना जाता है । इसलिये श्रावकों को यह व्रत अवश्य धारण करना चाहिये । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) बहुत लोग समझते हैं कि हमारा काम चोरी किये बिना नहीं चल सकता । ऐसा समझना उसी. प्रकार. की कमजोरी और भूल है, जैसी भूल कमजोर और नशेबाज की होती है- जो यह समझता है कि बिना नशे के मेरा जीवन नहीं रह सकता । किन्तु वास्तव में यह समझना कि हमारा काम बिना चोरी किये नहीं चल सकता, नितान्त भूल है । बिना चोरी किये जो काम चलेगा, वह काम चोरी करके चलाये गये काम से असंख्यगुना श्रेष्ठ होगा। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिचार इस तीसरे व्रत स्थूल अदत्तादान - विरमण के पांच अतिचार हैं थूलगदिन्नाणवेर मरणस्स पंच प्राइयरा जाणिव्वा न समायरियव्वा, तंजहा - तेनाहडे, तक्करप्पोगे विरुद्ध रज्जातिकम्मे, कूडतुल्लकूडमाणे, तप्पडिरूवगववहारे । ( उपा० सू० प्र० अ० ) अर्थात् - स्थूलअदत्तादान - विरमण के पांच अतिचार श्रावक को जानने योग्य हैं, परन्तु आचरण करने योग्य नहीं हैं। वे अतिचार ये हैं- स्तेनाहुत, तस्करप्रयोग, विरुद्धराज्यातिक्रम, कूटतुलकूटमान, तत्प्रतिरूपकव्यवहार । अतिचार तभी तक प्रतिचार है, जब कि उसमें बताये हुए काम संकल्प पूर्वक न किये जावें । संकल्प पूर्वक यानी जान बूझ कर इन्हीं कामों को करने से यही काम अनाचार की गणना में श्रा जाते हैं और अनाचार होते ही व्रत भंग हो जाता है । भगवान् ने इन अतिचारों को विशेष रूप से इसलिए बताया है कि प्रतिचार में बताई हुई बातों का काम गृहस्थी में विशेष रूप से पड़ता है, इसलिये इन कामों को जान पर इनसे बचने की सावधानी रखे, अन्यथा व्रत टूट जाएगा । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४) ऊपर कहे हुए पांच अतिचारों में से पहला अतिचार तेनाहडे या स्तेनाहृत है । टीकाकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है स्तेना:- चौरास्तैराहृतं-पानीतं किञ्चित् कुकुमादि देशान्तरात् स्तेनाहृतं, तत् समर्घमिति लोभाद् गृहृतोऽतिचारः। ___ अर्थात् -चोरों द्वारा दूसरी जगह से हरण की हुई वस्तु, फिर वह वस्तु कुकुम ही क्यों न हो, लोभ से ग्रहण करना ‘स्तेनाहृत' या 'तेनाहडे' अतिचार है। कई लोग वस्तु को सस्ती देख कर उसके विषय में बिना कुछ अनुसंधान किये ही उसे खरीद लेते हैं । परन्तु ऐसा करने में कभी न कभी चोरी की वस्तु खरीद में भा जाना स्वाभाविक है । जानबूझ कर चोरी की वस्तु खरीदना चोरी के ही समान पाप है । इस प्रकार से चोरी की वस्तु खरीदने वाले को राज्य भी चोर के ही समान दण्ड देता है और चोरी की न जान कर साहूकारी रीति से खरीदी हुई वस्तु को बिना मूल्य लौटाये ही ले लेता है। इसलिये प्रत्येक वस्तु को लेते समय यह जांच कर लेना उचित है कि यह वस्तु चोरी की तो नहीं है । चोरी की वस्तु भूल से भी न खरीदनी चाहिये, अन्यथा वह अतिचार हो जाएगा। यहां प्रश्न होता है कि चोरी के विषय में मोटे रूप से कैसे जाना जा सकता है कि यह वस्तु चोरी की है ? इसके लिये सब से बड़ी पहचान वस्तु के बाजार-भाव से Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५) विशेष कम दाम में मिलना है । जिस वस्तु का बाजार में एक रुपया लगता है, वही वस्तु यदि आठ आने में मिल रही हो तो वह सन्देह होना स्वाभाविक है कि यह वस्तु कैसी है, जो इतनी कम कीमत में बिक रही है । इस सन्देह पर से अनुसन्धान किया जावे तो चोरी की वस्तु होने पर बिना मालूम हुए न रहेगा । संसार में जब कोई किसी वस्तु को बाजार भाव से कम में मांगता है तब वह चीज लाने वाला उस मांगने वाले से प्रायः कहता है कि 'यह चीज चोरी की नहीं है' या कहता है- 'सस्ती चीज लेनी हो तो कहीं चोरी की ढूढो । मतलब यह कि बाजार भाव से सस्ती प्रायः वही चीज मिलती है, जो चोरी की हो । वैसे तो जिसका काम रुका होता है । वह भी बाजार भाव से सस्ती चीज देता है, परन्तु ऐसी चीज इतनी सस्ती नहीं होती जितनी सस्ती चोरी की चीज होती है । इसलिए चोरी की चीज का पहचान में आना कोई कठिन बात नहीं है । वस्तु के विषय में सन्देह हो और जांच करने पर भी उसके विषय में विश्वास न हो तो ऐसी वस्तु को न खरीदना ही अच्छा है। - दबा-छिपा कर बेचने वाले लोगों की चीज के विषय में भी इसी प्रकार का सन्देह हो सकता है । ऐसी वस्तु भी बिना विश्वास किये लेना ठीक नहीं। दूसरा अतिचार तक्करप्पओगे या तस्करप्रयोग है । इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं तस्कराः- चौरास्तेषां प्रयोगः हरणक्रियायां औरगमभ्यनुज्ञा तस्करप्रयोगः। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) अर्थात् - चोरों को चोरी करने की प्रेरणा ' तस्कर प्रयोग' या 'तक्करप्पओगे ' अतिचार है । चोरों को चोरी करने की प्रेरणा करना चोरी का प्रतिचार है । फिर वह प्रेरणा चाहे उत्तेजना देकर की जावे या चोरी के कार्य में किसी प्रकार से सहायता देकर । राज्यनियमानुसार भी चोरी की प्रेरणा करने वाला चोर के ही समान दण्डनीय माना जाता है | श्रावक को इस प्रतिचार से बचने के लिये सावधान रहना उचित है । चोरों को चोरी में सहायता देकर चोरी की प्रेरणा, करने वाले लोग आजकल बहुत सुने जाते हैं । जैसे, किसी चोर को चोर जानते हुए भी राजकर्मचारियों का उस चोर को अचार ठहराना और इसी तरह चोर जानते हुए भी केवल मेहनताने के लिये वकीलों कां चोर को निर्दोष ठह राने की चेष्टा करना । ऐसा प्रकारान्तर से चोरों की सहायता करके चोरी की प्रेरणा करना है, जो चोरी के ही समान पाप है | श्रावक को इस विषय में सावधान रहने की जरूरत है, जिससे भूल से भी चोरों को चोरी में सहायता देकर चोरी करने की प्रेरणा स्वरूप यह अतिचार न हो । क्योंकि, केवल चोरी करने वाला ही चोर नहीं माना जाता किन्तु चोरी में सहायता या चोरी की प्रेरणा करने वाले भी चोर हैं । तीसरा अतिचार विरुद्धरज्जातिकम्मे या विरुद्धराज्यातिक्रम है । इस अतिचार की व्याख्या करते हुए टीकाकार लिखते हैं विरुद्धनृपोर्यद् राज्यं तस्यातिक्रमः श्रतिलङ्घनं Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) विरुराज्यातिक्रमः । अर्थात् - जो राजा लोग परस्पर विरोध रखते हैं, यानी लड़ते हैं उनके राज्य को एक दूसरे राज्य वाले विरुद्ध नृपराज्य कहते हैं । ऐसे विरुद्ध राज्य का उल्लंघन करना यानी लड़ाई के समय विरुद्ध राज्य में आना-जाना 'विरुद्धरज्जातकम्मे ' या ' विरुद्धराज्यातिक्रम' है । ऐसा करने में राजा और धर्म दोनों की मर्यादा भंग होती है । लड़ाई के समय सुव्यवस्था के लिये राज्य में आवागमन नहीं किया जाता है क्योंकि ऐसा करने से एक राज्य में दूसरे राज्य का भेद चले जाने का भय रहता है । इस लिये श्रावक को इस अतिचार से बचने की सावधानी रखनी चाहिए कई लोग इस प्रतिचार का अर्थ राजा के विरुद्ध काम करना लगाते हैं, लेकिन इस अतिचार का यह अर्थ नहीं हो सकता । यदि यह अर्थ लगाया जावे तो बहुत उलट पलट हो जावे और श्रावक को अपने अन्य व्रत पालन करने में बड़ी सुविधा हो । उदाहरणार्थ - राजा कभी यह श्राज्ञा दे कि आजकल आबकारी विभाग की आय कम हो गई है अतः सब लोग शराब पिया करें तो ऐसी दशा में "क्या श्रावक शराब पीने लगेंगे ? यदि नहीं, तो फिर ऐसी आज्ञा देने वाले राजा का विरोध करने से अतिचार कैसे हो सकता है ? बल्कि ऐसे हुक्म या ऐसे राजा का विरोध न करना पाप का भागी होना है और इसका फल प्रजा को उसी प्रकार भोगना पड़ता है, जिस प्रकार राजा श्रेणिक उस प्रज्ञा का, जिसके अनुसार साहूकारों के छः लड़के Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) स्वच्छन्द बना दिये गये थे- विरोध न करने के कारण राजगृही की प्रजा को भोगना पड़ा। यदि राजगृही की प्रजा राजा श्रेणिक की ऐसी आज्ञा का विरोध करती तो अर्जुन माली के हाथ से प्रजा के बहुत से निरपराध मनुष्य न मारे जाते । इसलिये इस अतिचार का अर्थ राजा के विरुद्ध काम करना नहीं हो सकता । हाँ, राज्य के विरुद्ध काम करना चाहे इस अतिचार का अर्थ लगा लिया जावे क्योंकि राज्य ' देश की. सुव्यवस्था का नाम है । राणा और राज्य शब्द के अर्थ में अन्तर है। राजा वह कहलाता है, जो देश की सुव्यवस्था के लिये नियत किया जावे । जिस देश में सुव्यवस्था नहीं है, वहां के लिये राजा के होते हुए भी कहा जाता है कि अमुक जगह अराजकता फैली हुई है, अर्थात् सुव्यवस्था नहीं है । यदि यह अतिचार राजा के विरुद्ध काम करने का भी मान लिया जावे, तब भी शास्त्रीय दृष्टि से राजा वही है, जिसे बहुजन समाज देश की सूव्यवस्था के लिये नियत करे । जिस राजा का बहुजन समाज विरोध करता है, परन्तु वह अपनी तलवार के जोर से राजा बना हुआ है और लोग भय के मारे उसे राजा मानते हैं, ऐसा राजा शास्त्रीय दृष्टि से राजा नहीं कहला सकता। मतलब यह है कि इस अतिचार का अर्थ राजा के विरुद्ध काम करना नहीं, किन्तु विरुद्ध राज्य का उल्लंघन करना है। चौथा अतिचार कूडतुल्लकूडमाणे या कूटतुलाकूटमान है । इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं तुला प्रतीता मान-कुडवादि कूटत्वं-न्यूनाधिकत्वं Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६) न्यूनया ददतोऽधिकया गृहृतोऽतिचार । अर्थात्-तराजू से तोल कर या नाप से नाप कर कम देना या लेना ' कूडतुल्ल कूडमाणे' या ' कूटतुला कूटमान' अतिचार है । नियत बाँट-पैमाने से कम ज्यादा वजन या नाप के बाँट पैमाने रख कर उनसे तोलना-नापना, या पूरे बांट पैमाने रख कर भी डण्डी मारना, लेन-देन वाले को धोखा देकर कम-ज्यादा नापना-तौलना, चोरी है । भूल या असावधानी से कम-ज्यादा नापना-तौलना अतिचार है । इसलिये श्रावक को इस विषय में सावधानी रखना उचित है, जिसमें प्रतिचार न हो। सुनने में आता है कि कई लोग दो तरह के बांटपैमाने रखते हैं । एक तो नियत बांट-पैमाने से कम होते हैं और दूसरे अधिक । जब किसी को वस्तु देनी होती है, तब तो उन बांट-पैमाने से तौलते-नापते हैं जो कम होते हैं और किसी से लेनी होती है, तब उन बाँट पैमाने से तोल-नाप कर लेते हैं, जो अधिक होते हैं। कई लोग पूरे बांट-पैमाने रख कर भी तौलने नापने में ऐसी चालाकी से काम लेते हैं कि दी जाने वाली वस्तु तो कम जावे और ली जाने वाली वस्तु अधिक आवे । श्रावकों को इस प्रतिचार से बचते रहने की सावधानी रखनी चाहिये । पांचवां अतिचार तप्पडिरूवगववहारे या तत्प्रतिरूपव्यवहार है । इसकी व्याख्या टीकाकार ने इस प्रकार की है- तेन अधिकृतेन प्रतिरूपकं सदृशं तत्प्रतिरूपकं Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) तस्य विविधमवहरणं व्यवहारः प्रक्षेपस्तत्प्रतिरूपको व्यवहारः, यद्यत्र घटते ब्रीह्यादि घृतादिषु पलज्जीवसादि तस्य प्रक्षेप इतियावत् तत् प्रतिरूपकेण वा वसादिना व्यवहरणं तत्प्रतिरूपकव्यवहारः । - अर्थात् -- किसी अच्छी वस्तु में उसी वस्तु के सदृश या उसमें निभने वाली हलकी वस्तु मिला कर देना ‘तप्पडिरूवगववहारे' या ' तत्प्रतिरूपव्यवहार' अतिचार है । . किसी अच्छी वस्तु में हल्की वस्तु का संमिश्रण करना, या हल्की वस्तु में थोड़ी अच्छी वस्तु मिला कर उसे अच्छी कह कर देना, या अच्छी वस्तु का नमूना दिखा कर हल्की वस्तू देना आदि कार्यों की गणना चोरी में है। असावधानी में यदि ऐसा हो जावे तो अतिचार है । आज कल, इस अतिचार को अनाचार के रूप में सेवन करने की बातें बहत सुनाई देती हैं । पैसा कमाने के लिये कई लोग अच्छी वस्तु में हल्की वस्तु का सम्मिश्रण कर देते हैं । जीरे में रेत मिलाना, रुई या कपास में पानी छिटक कर उसे अधिक वजन का बनाना, घी में खोपरे या मूगफली का तेल या वेजीटेबिल घी मिलाना, शक्कर रंग आदि में आटा या रेत मिलाना, इसी प्रकार नमूने के विरुद्ध हल्की वस्तु देकर, देशी कह कर विदेशी और पवित्र कह कर अपवित्र चीज देना आदि बातें बहुत सुनी जाती हैं । ऐसा करना चोरी है, अतः श्रावकों को सावधानी रखनी चाहिए। अन्यथा भूल में भी इन कामों के होने पर अतिचार हो जाएगा। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११) इस तीसरे व्रत को धारण करने से होने वाले लाभ और न धारण करने से होने वाली हानि का यहां दिग्दर्शन कराया गया है । मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि वह इस व्रत को धारण करे । इस व्रत को धारण करने पर जीवन नीतिमय बन जाता है । यदि संसार के सब मनुष्य इस व्रत को धारण करके पूर्ण रीति से पालन करने लगें तो अशांति सदा के लिये नष्ट हो जावे । व्रत धारण करने से पूर्ण लाभ तभी है, जब व्रत का निरतिचार पालन किया जावे । इसलिये व्रत धारण करने वाले को व्रत में अतिचार न होने देने की विशेष रूप से सावधानी रखनी चाहिए । जो लोग इस व्रत का निरतिचार पालन करते हैं, उनका सदा कल्याणं ही कल्याण है । Page #127 --------------------------------------------------------------------------  Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्यवत Page #129 --------------------------------------------------------------------------  Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य शब्द कैसे बना है और वह क्या घस्तु है ? सर्वप्रथम इस बात पर विचार करना चाहिए। हमारे आर्यधर्म के साहित्य में ब्रह्मचर्य शब्द का उल्लेख मिलता है । जिन दिनों अवशेष संसार यह भी नहीं जानता था कि वस्त्र क्या होते हैं और अन्न क्या चीज है तथा नङ्ग-धड़ङ्ग रहकर, कच्चा मांस खाकर अपना पाशविक जीवन यापन कर रहा था, उन दिनों भारत बहुत ऊंची सभ्यता का धनी था । उस समय भी उसकी अवस्था बहत उन्नत थी। यहाँ के ऋषियों ने, जो संयम, योगाभ्यास, ध्यान, मौन आदि अनुष्ठानों में लगे रहते थे, संसार में ब्रह्मचर्य नाम को प्रसिद्ध किया । ब्रह्मचर्य का महत्त्व तभी से चला आता है-जब से धर्म की पुनः प्रवृत्ति हुई । भगवान् ऋषभदेव ने धर्म में ब्रह्मचर्य को भी अग्रस्थान प्रदान किया था । साहित्य की मोर दृष्टिपात कीजिए तो विदित होगा कि अत्यन्त प्राचीन साहित्य-आचारांग सूत्र तथा ऋग्वेद में भी ब्रह्मचर्य की व्याख्या मिलती है । इस प्रकार आर्य प्रजा को अत्यन्त प्राचीन काल से ब्रह्मचर्य का ज्ञान मिल रहा है। १-बह मचर्य को शक्ति आजकल ब्रह्मचर्य शब्द का सर्वसाधारण में कुछ संकुचित-सा अर्थ समझा जाता है । पर विचार करने से मालूम Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) । होता है कि वास्तव में उसका अर्थ बहुत विस्तृत है । ब्रह्मचर्य का अर्थ बहुत उदार है अंतएव उसकी महिमा भी बहुत अधिक है । हम ब्रह्मचर्य का महिमागान नहीं कर सकते । जो विस्तृत अर्थ को लक्ष्य में रखकर ब्रह्मचारी बना है, उसे प्रखण्ड ब्रह्मचारी कहते हैं । अखंड ब्रह्मचारी का मिलना इस काल में अत्यन्त कठिन है आजकल तो अखंड ब्रह्मचारों के दर्शन भी दुर्लभ हैं । प्रखंड ब्रह्मचारी में प्रभुत शक्ति होती है । उसके लिए क्या शक्य नहीं है ? वह चाहे सो कर सकता है । प्रखंड ब्रह्मचारी अकेला सारे ब्रह्माण्ड को हिला सकता है । अखंड ब्रह्मचारी वह है जिसने अपनी समस्त इन्द्रियों को और मन को अपने अधीन बना लिया हो - जो इन्द्रियों और मन पर पूर्ण आधिपत्य रखता हो । इन्द्रियाँ जिसे फुसला नहीं सकतीं, मन जिसे विचलित नहीं कर सकता, ऐसा प्रखंड ब्रह्मचारी ब्रह्म का शीघ्र साक्षात्कार कर सकता है । अखंड ब्रह्मचारी की शक्ति अजबगजब की होती है । २ – ब्रह्मचर्य का व्यापक अर्थ परमात्मा के प्रति विश्वास स्थिर क्यों नहीं रहता ? यह प्रश्न अनेकों के मस्तिष्क में उत्पन्न होता है । इसका उत्तर ज्ञानी यह देते हैं कि आन्तरिक निर्बलता ही परमात्मा के प्रति विश्वास को स्थायी नहीं रहने देती । परमात्मा के प्रति विश्वास न होने के जो कारण हैं, उनमें से एक कारण है ब्रह्मचर्य का अभाव । जीवन में यदि ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा हुई तो निस्सन्देह ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धाभाव स्थायी रह सकता है । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) ज्ञानी जन कहते हैं-समस्त इंन्द्रियों पर अंकुश रखना और विषयभोग में इंन्द्रियों को प्रवृत्त न होने देना, पूर्ण ब्रह्मचर्य है और वीर्य की रक्षा करना अपूर्ण ब्रह्मचर्य है । आज वीर्य रक्षा तक ही ब्रह्मचर्य की सीमा स्वीकार की जाती है पर वास्तव में सब इंद्रियों और मन को विषयों की ओर प्रवृत्त न होने देना पूर्ण ब्रह्मचर्य है । केवल वीर्यरक्षा अपूर्ण ब्रह्मचर्य है । अलबत्ता अपूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना के द्वारा पूर्ण ब्रह्मचर्य तक पहुंचा जा सकता है । ३--वीर्य का दुरुपयोग देश में आज जो रोग, शोक, दरिद्रता आदि जहांतहां दृष्टिगोचर होते हैं उन सब का एक मात्र कारण वीर्यनाश है । आज बेकार वस्तु की तरह वीर्य का दुरुपयोग किया जा रहा है। लोग यह नहीं जानते कि वीर्य में कितनी अधिक शक्ति विद्यमान है । इसी कारण विषय-भोग में वीर्य का नाश किया जा रहा है । उसी में आनन्द माना जा रहा है । ऐसा करने से जब अधिक संतान उत्पन्न होती है तो घबराहट पैदा होती है । पर उनसे मैथुन त्यागते नहीं बनता । भारतीयों को इस प्रश्न पर गहरा विचार करना चाहिये । विदेशी लोग ब्रह्मचर्य की महत्ता को भले ही न समझते हों या स्वीकार न करते हों, परन्तु भारत में तो ऐसे महान् ब्रह्मचारी हो गये हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्य द्वारा महान् शक्ति लाभ कर जगत के समक्ष यह आदर्श उपस्थित कर दिया है कि ब्रह्मचर्य के प्रशस्त पथ पर चलने में ही मानव समाज का कल्याण है । ब्रह्मचर्य ही कल्याण का मार्ग है । यह समझते-बूझते हुए भी विषय-भोग में सुख मानना और Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८) जब संतान उत्पन्न हो तो उसका निरोध करने के लिये कृत्रिम उपाय काम में लाना घोर अन्याय है । वीर्य को वृथा बर्बाद करने के समान दूसरा कोई अन्याय नहीं है। हमारे अन्दर जो शांति और साहस है, वह वीर्य के ही प्रताप से है । अगर शरीर में वीर्य न हो तो मनुष्य हलन-चलन गमनागमन आदि क्रियाएं करने में भी समर्थ नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य का महत्त्व जो भाई-बहिन ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे वे संसार को अनमोल रत्न प्रदान करने में समर्थ हो सकेंगे। हनुमानजी का नाम कौन नहीं जानता ? आलंकारिक भाषा में कहा जाता है कि उन्होंने लक्ष्मणजी के लिए द्रोण पर्वत उठाया था। उसी पर्वत का एक टुकड़ा गिर पड़ा, जो गोवर्धन के नाम से प्रसिद्ध हुआ । अलंकार का प्रावरण दूर कर दीजिए और विचार कीजिए तो इस कथन में हनुमानजो की प्रचण्ड शक्ति का दिग्दर्शन आप पाएंगे । हनुमानजी में इतनी शक्ति कहां से आई ? यह महारानी अंजना और महाराज पवनजी की बारह वर्ष की अखण्ड ब्रह्मचर्य की साधना का प्रताप था । उनके ब्रह्मचर्य पालन ने संसार को एक ऐसा उपहार, ऐसा वरदान दिया, जो न केवल अपने समय में ही अद्वितीय था, वरन् आज तक भी वह अद्वितीय समझा जाता है और शक्ति की साधना के लिए उसकी पूजा भी की जाती है । ___ बहिनो ! अगर तुम्हारी हनुमान सरीखा शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न करने की साध है तो अपने पति को कामुक Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) बनाने वाले साज - सिंगार और हाव-भाव त्याग कर स्वयं ब्रह्मचर्य की साधना करो और पति को भी ब्रह्मचर्य पालन करने दो । ५- ब्रह्मचर्य ही जीवन है अपूर्ण ब्रह्मचर्य केवल वीर्यरक्षा को कहते हैं । वीर्य वह वस्तु है कि जिसके सहारे सारा शरीर टिका हुआ है । यह शरीर वीर्य से बना भी है । अतएव प्रांखें वीर्य हैं । कान वीर्य हैं । नासिका वीर्य है । हाथ पैर वीर्य हैं । सारे शरीर का निर्माण वीर्य से हुआ है, अतएव सारा शरीर वीर्य है । जिस वीर्य से सम्पूर्ण शरीर का निर्माण होता है उसकी शक्ति क्या साधारण कही जा सकती है ? किसी ने ठीक ही कहा है: मरणं बिन्दुपातेन, जीवनं बिन्दुधारणात् । ६- - अपूर्ण ब्रह्मचर्य का प्रथम नियम अपूर्ण ब्रह्मचर्य के दस नियमों में पहिला नियम भावना है। माता - पिता को ऐसी भावना लानी चाहिए कि मेरा पुत्र वीर्यवान् और जगत् का कल्याण करने वाला बने। इस प्रकार की भावना से बहुत लाभ होता है । आप लोगों को अलग-अलग तरह के स्वप्न आते होंगे । इसका कारण क्या है ? कारण यही है कि सब की भावना भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है । यह बात प्रायः सभी जानते हैं कि जैसी भावना होती है, वैसा स्वप्न आता है । इसी प्रकार संतानं के विषय में माता-पिता की भावना जैसी होती है, वैसी Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) ही सन्तान बन जाती है। जिस प्रकार भावना से स्वप्न का - निर्माण होता है, इसी प्रकार भावना से संतान के विचारों और कार्यो का निर्माण होता है । नीच विचार करने से खराब स्वप्न आता है और यही बात संतान के विषय में भी समझनी चाहिए । संतान के विषय में तुम जैसी भावना लागे, श्रागे चलकर संतान वैसी ही बन जायेगी । अतएव सन्तान के लिए और अपने लिए ब्रह्मचर्य की भावना निर तर करनी चाहिए । ७- दूसरा नियम ब्रह्मचर्य का दूसरा नियम भोजन - सम्बन्धी विवेक है । कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि जिस खानपान में आनन्द आता है, वही भोजन अच्छा है, पर यह मान्यता भ्रमपूर्ण है । ब्रह्मचारी के भोजन में और अब्रह्मचारी के भोजन में बड़ा अन्तर होता है। गीता में रजोगुणी, तमोगुणी श्रौर सतोगुणी का भोजन अलग-अलग बताया है । पर आज के लोग जिह्वा के वशवर्ती बनकर भोजन के गुलाम हो रहे हैं। यदि तुम अपनी जीभ पर भी अंकुश नहीं रख सकते तो तुम आगे किस प्रकार बढ़ सकोगे ? विद्याभ्यास और शास्त्र श्रवण का फल यही है कि बुरे कामों में प्रवृत्ति न की जाय । आजकल खान-पान के सम्बन्ध में बड़ी भयंकर भूलें हो रही हैं और हालत ऐसी जान पड़ती है मानो विद्याभ्यास का फल खानपान का भान भूल जाना ही हो । ८-- विनाश के कारण वीर्यनाश का एक कारण एक ही कमरे में, एक Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) बिछौने पर स्त्री पुरुष का शयन करना भी है । एक ही कमरे में और एक शय्या पर सोने से वीर्य स्थिर नहीं रह सकता ं । शास्त्र में जहां स्त्री और पुरुष के सोने का वर्णन मिलता है वहां ऐसा ही वर्णन मिलता है कि स्त्री और पुरुष अलग-अलग शयनागार में सोते थे । पर आज इस विषय में नियम का पालन होता नजर नहीं आता । निष्क्रिय बैठे रहना भी वीर्यनाश का एक कारण है । जो लोग अपने शरीर और मन को किसी सत्कार्य में संलग्न नहीं रखते, उन लोगों का वीर्य भी स्थिर नहीं रह सकता । यदि शरीर और मन को निष्क्रिय न रक्खा जाय तो वीर्य को हानि नहीं पहुंचती । रात्रि में देर तक जागरण करना, सूर्योदय के बाद भी सोते रहना और अश्लील साहित्य का पढ़ना, ये सब भी वीर्यनाश के कारण हैं । अश्लील चित्र देखने से और अश्लील पुस्तकें पढ़ने से भी वीर्य स्थिर नहीं रहता । आज जहां तहां अश्लील पुस्तकें पढ़ने और अश्लील चित्र देखने का प्रचार हो गया है । आजकल लोग महापुरुषों और महासतियों के जीवन चरित्र पढ़ने के बदले अश्लीलतापूर्ण पुस्तकें पढ़ने के शौकीन हो गये हैं । उन्हें यह विचार ही नहीं आता कि ऐसा करने से जीवन में कितने विकार या घुसे हैं । कहावत है कि - 'जैसा वाचन वैसा विचार ।' इस कहावत के अनुसार अश्लील पुस्तकों के पठन से लोगों के विचार भी अश्लील बनते जा रहे हैं । - नाटक-सिनेमा देखना भी वीर्यनाश का कारण है । भाजकल नाटक-सिनेमा की धूम मची हुई है। जहां देखो वहां गरीब से लेकर अमीर तक — सबको नाटक सिनेमा Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२) में फंसाने का प्रयत्न किया जा रहा है और इस प्रकार सिनेमा वीर्यनाश के साधन बन रहे हैं । 8-सिनेमा और ग्रामोफोन आजकल के सिनेमा तो नैतिकता से इतने पतित और निर्लज्जतापूर्ण होते सुने जाते हैं कि कोई भला मानुष अपने बालबच्चों के साथ उन्हें देख नहीं सकता । सिनेमा के कारण आज लाखों नवयुवक आचरणहीन बन रहे हैं । इन सिनेमाओं की बदौलत. भारतीय नारी अपनी महत्ता का विस्मरण कर भारतीय सभ्यता के मूल में कूठाराघात कर रही है । यह अत्यन्त खेद की बात है। इसी प्रकार ग्रामो. फोन को भी प्रानन्द का साधन समझा जाता है पर उसके द्वारा संस्कारों में कितनी बुराइयां घूस रही हैं, इस ओर कितने लोगों का ध्यान जाता है ?, १०–ब्रह्मचर्य साधन ब्रह्मचर्य पालने वालों को अथवा जो ब्रह्मचर्य पालना चाहते हैं उन्हें विलासपूर्ण वस्त्रों से, प्राभूषणों से, आहार से सदैव बचते रहना चाहिये । मस्तिष्क में कुविचारों का अंकुर उत्पन्न करने वाले साहित्य को हाथ भी नहीं लगाना चाहिए। जो पुस्तकें धर्म, देश-भक्ति की भावना जागृत करने वाली और चरित्र को सुधारने वाली होती हैं उनमें अंग्रेज सरकार राजनीति की गंध सूघती है और उन्हें जब्त कर लेती है । पर जो पुस्तकें ऐसा गंदा और घासलेटी साहित्य बढ़ाती हैं, प्रजा का सर्वनाश कर रही हैं, उनकी ओर से वह सर्वथा उदासीन रहती है । यह कैसी भाग्यविडम्बना है ? Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) ११--वीर्य की महिमा - स्वप्नदोष में भी वीर्य का नाश होता है। कुछ लोग कहा करते हैं कि वीर्य रक्षा से स्वप्न दोष होता है पर यह कथन भ्रमपूर्ण है । इस भ्रामक विचार का परित्याग करके स्वप्नदोष के असली कारण का पता लगाना चाहिए। फिर उस कारण से बचकर दोषनिवारण का प्रयत्न करना चाहिये । जब तुम सो रहे होओ, तब तुम्हारी जेब में से अगर कोई रत्न निकाल कर ले जाने लगे और उस समय तुम जाग उठो तो आंखों देखते क्या रत्न ले जाने दोगे ? नहीं, तो फिर स्वप्नदोष के कारण जान-बूझ कर वीर्य को नष्ट होने देना कहां तक उचित कहा जा सकता है ? १२--ब्रह्मचर्य और रसनानिग्रह ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिये, साथ ही स्वास्थ्य की रक्षा के लिये जिह्वा पर अंकुश रखने की बहुत आवश्यकता है । जिह्वा पर अंकूश न रखने से अनेक प्रकार की हानियां होती हैं । इससे विपरीत जो मनुष्य अपनी जीभ पर काबू रखता है उसे प्रायः वैद्यों और डाक्टरों के द्वार पर भटकने की आवश्यकता नहीं रहती ।। अनेक लोग ऐसे हैं जिनके लिये जीवन की अपेक्षा भोजन अधिक महत्त्व की वस्तु है । वे जीने के लिए नहीं खाते पर खाने के लिए जीते हैं । भले ही कोई सीधी तरह - इस बात को स्वीकार न करे मगर उसके भोजन-व्यवहार को देखने से यह सत्य साफ तौर से प्रगट हुए बिना नहीं रहेगा। यही कारण है कि अधिकांश लोग जीवन के शुभ-अशुभ की Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४) कसौटी पर भोजन की परख नहीं करते । वे जिह्वा को कसौटी बनाकर भोजन की अच्छाई-बुराई की जांच करते हैं । जो जीवन की दृष्टि से भोजन करता है वह स्वास्थ्यनाशक और जीवन को भ्रष्ट करने वाला भोजन कैसे कर सकता है ? कुशल मनुष्य अज्ञात व्यक्ति को सहसा अपने घर में स्थान नहीं देता । तब जिस भोजन के गुण-दोष का पता न हो उसे पेट में स्थान देना, कहां तक उचित कहा जा सकता है ? जो ऐसे भोजन को पेट में ठूस लेता है, उसके पेट को भोजन-पिटारे के सिवा और क्या कहा जा सकता है ? एक विद्वान् का कथन है कि दनिया में जितने अादमी खाने-पीने से मरते हैं, उतने खाने-पीने के अभाव में नहीं मरते । लोग पहले तो ढूंस-ठूस कर खाते हैं, फिर डाक्टर की शरण लेते हैं । आज जो आदमी जितनी अधिक चीजें अपने भोजन में समाविष्ट करता है वह उतना ही बड़ा आदमी गिना जाता है; मगर शास्त्र का आदेश यह है कि जो जितना महान् त्यागी है वह उतना ही महान् पुरुष है । शास्त्र में आनन्द श्रावक का वर्णन करते हुए कहा गया है कि बारह करोड़ स्वर्ण मोहरों का और चालीस हजार गायों का धनी होने पर भी उसने अपने खाने पीने के लिए कुछ गिनती की चीजों की ही मर्यादा कर ली थी। इस प्रकार खानपान के विषय में जो जितना संयम रखता है वह उतना ही महान् है । जिह्वासंयम से स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है । नागरिकों को जितना और जैसा भोजन मिलता है, उतना और वैसा किसानों को नहीं । फिर भी अमर दोनों की कुश्ती हो तो किसान ही विजयी होगा । यह कौन नहीं Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) जानता कि सभ्य श्रौर बड़े कहलाने वाले लोगों की अपेक्षा किसान अधिक स्वस्थ और सबल होता है । इसका एक कारण सादा और सात्विक भोजन है । इस तरह अधिक भोजन करने से स्वास्थ्य सुधरने को जगह बिगड़ता है । विकृत भोजन करने से स्वास्थ्य को हानि पहुंचती है और चरित्र को भी । इसी कारण विकृत ( विगय ) भोजन करने का शास्त्र में निषेध किया गया है । 1 ब्रह्मचर्य का भोजन के साथ घनिष्ट संबंध है । भोगी का भोजन और योगी का भोजन एक-सा नहीं हो सकता । ब्रह्मचर्य की साधना करने वालों को ऐसा और इतना ही भोजन करना चाहिए जिससे शरीर की रक्षा हो सके और जो ब्रह्मचर्य में बाधक न होकर साधक हो । अधिक गरिष्ठ तेज मसालेदार और परिमाण से अधिक भोजन सर्वथा हानिकारक है । १३ - - ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में लोगों की भ्रान्त धारणा विषय - भोग की कामना का नियन्त्ररण नही हो सकता । यह कामना अजेय है, इस प्रकार की दुर्भावना पुरुष - समाज में एक बार पैठ पाई, तो भयंकर अनर्थ होंगे और उन अनर्थों की परम्परा का सामना करना सहज नहीं होगा । यद्यपि आजकल भी अनेक लोग हैं, जिनकी यह भ्रान्त धारणा हो गई है कि मनुष्य कामभोग की वासना पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता । संभवतः वे लोग मनुष्य को काम - वासना का कीड़ा समझते हैं । पर प्राचीन आर्य - ऋषियों का अनुभव इस धारणा का विरोध करता है । कोई व्यक्ति Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) विशेष ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ रहे, यह एक बात है और यह कहना कि ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से पालन करना संभव नहीं है, दूसरी बात है । किसी व्यक्ति की असमर्थता के आधार पर किसी व्यापक सिद्धान्त का निर्माण कर बैठना, सचाई के साथ अन्याय करना है। इस प्रकार असमर्थता की ओट में विषयभोगों का प्रचार करना सर्वथा अनुचित है। आज भी संसार में ऐसे व्यक्तियों का मिलना असंभव नहीं है जो बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जन-सेवा कर रहे हैं । फिर भीष्म और भगवान् नेमिनाथ जैसे पवित्र ब्रह्मचारियों का उच्च आदर्श जिन्हें मार्ग-प्रदर्शन कर रहा हो, उन भारतवासियों के हृदय में न जाने यह भूत कैसे घुस गया है कि विषय वासना पर काबू रखना शक्य नहीं है । साधु हुए बिना ब्रह्मचर्य का पालन हो ही नहीं सकता और गृहस्थ-जीवन में ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान एकदम अशक्यानुष्ठान है !' वास्तव में यह धारणा सर्वथा भ्रमपूर्ण है । मनोबल दृढ़ होने पर पूर्ण या नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है । यही नहीं, वरन् विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए गृहस्थ जीवन में भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है । ब्रह्मचर्य पालने से किसी भी प्रकार की हानि की सम्भावना नहीं है । यही नहीं, किन्तु अनेक प्रकार के लाभ होते हैं । कहा भी है: ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । . कुछ महानुभावों ने एक नये सिद्धान्त का आविष्कार किया है । उनकी अनोखी सी समझ यह है कि ब्रह्मचर्य का Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७) पालन करने से शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। पर न तो आज तक यह सुना गया है कि ब्रह्मचर्य-पालन से किसी को किसी रोग का शिकार होना पड़ा है और न ऐसा कोई उदाहरण ही देखा गया है । हां, ठीक इससे उल्टे जो लोग विषयी होते हैं, वे ही रोगों द्वारा सताये जाते हैं। यह बात तो प्रत्यक्ष दिखाई देती है । अतएव अपने हृदय से इस भ्रान्ति को निकाल फेंको कि ब्रह्मचर्य से रोग पैदा होते हैं। ब्रह्मचर्य जोवन है । उससे शक्ति का विकास होता है । जहां शक्ति है, वहां रोगों का आक्रमण नहीं होता। अशक्त और दुर्बल पुरुष ही रोगों द्वारा सताये जाते हैं। खेद है कि लोगों के मन में यह भ्रम उत्पन्न हो गया है कि विषय भोग को इच्छा का दमन करना अशक्य है । परन्तु जैसे नेपोलियन ने असम्भव शब्द कोश में से निकाल डालने को कहा था, उसी प्रकार तुम अपने हृदय में से कामभोग की इच्छा का दमन करने की असम्भवता को निकाल बाहर करो । ऐसा करने से तुम्हारा मनोबल सुदृढ़ बनेगा और तब विषय-भोग की कामना पर विजय प्राप्त करना तनिक भी कठिन न होगा। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिविध ब्रह्मचर्य १ - ब्रहमचर्य शब्द को प्रवृत्ति का निमित्त , ब्रह्मचर्य' एक ही शब्द नहीं है, किन्तु 'ब्रह्म' शब्द में 'चर्य' कृत प्रत्ययान्त से बना हुआ संस्कृत शब्द है । ब्रह्म + चर्य = ब्रह्मचर्य । ' ब्रह्म' शब्द के वैसे तो कई अर्थ होते हैं, परन्तु यहां यह शब्द वोर्य, विद्या और आत्मा के अर्थ में है । 'चर्य' का अर्थ, रक्षण, अध्ययन तथा चिन्तन है । इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ वोर्यरक्षा, विद्याध्ययन और श्रात्म-चिन्तन है । 'ब्रह्म' का अर्थ उत्तम काम या कुशलानुष्ठान भी होता है, इसलिये ब्रह्मचर्य का अर्थ उत्तम या कुशलानुष्ठान का आचरण भी है । ब्रह्मचर्य शब्द के इन अर्थों पर दृष्टिपात करने से हम इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि जिस आचरण द्वारा आत्म-चिन्तन हो, आत्मा अपने आपको पहचान सके और अपने लिये वास्तविक सुख प्राप्त कर सके, उस आचरण का नाम 'ब्रह्मचर्य' है । इस अर्थ में ब्रह्मचर्य शब्द के ऊपर कहे हुये सभी अर्थ आ जाते हैं । " २ – ब्रहमचर्य की परिभाषा आत्मचिन्तन के लिये, इन्द्रियों और मन पर विजय पाना आवश्यक है । प्राकृतिक नियमों के अनुसार इन्द्रियां Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) मन के मन-बुद्धि के और बुद्धि - आत्मा के अधीन एवं प्रात्मा की सहायिका होनी चाहिये । ऐसा होने पर ही आत्मा अपने आपको जान सकता है, इन्द्रियां मन और बुद्धि का कर्त्तव्य, आत्मा को बलवान् तथा पुष्ट बनाना है । बलवान् आत्मा ही अपना स्वरूप जान सकता है, विद्याध्ययन में समर्थ हो सकता है और उत्तम काम तथा कुशलानुष्ठान कर सकता है । इसलिये इन्द्रियों, मन और बुद्धि का काम आत्मा को बलवान् बनाना, आत्मा के हित को दृष्टि में रखना, आत्मा का अहित करने वाले कामों से दूर रहना है । इन्द्रियों और मनका, अपने इस कर्त्तव्य पर स्थिर रहने का नाम ही ब्रह्मचर्य' है । " आत्मा का हित अपना स्वरूप जानने में है । आत्मा अपना स्वरूप तभी जान सकता है, जब उसके सहायक एवं सेवक इन्द्रियां तथा मन, उसके प्राज्ञावर्ती और शुभचिन्तक हों । विपरीतावस्था में आत्मा का अहित स्वाभाविक ही | आत्मा के सहायक तथा सेवक वे ही इंद्रियां श्रौर मन हैं, जो सुख की अभिलाषा से दुर्विषयों की ओर न दौड़ें । इन्द्रियों का सुख की अभिलाषा से दुर्विषयों की ओर दौड़ना, तथा मन का इन्द्रियानुगामी होना आत्मा के लिए अहित - कारक है । आत्मा का हित तभी है, जब न तो इन्द्रियां दुविषयों की ओर दौड़े और न इन्द्रियों के साथ ही साथ मन भी आत्मा का अशुभ चिन्तक बने । इन्द्रियों और मन का दुर्विषयों की ओर न दौड़ना, दुर्विषयों की चाह न करना और सुख की लालसा से उन्हें न भोगना ही 'ब्रह्मचर्य' है । इन्द्रियां पांच हैं - कान, प्रांख, नाक, जीभ और त्वचा । इन पाँचों इन्द्रियों के पांच विषय हैं- शब्द, रूप, गन्ध, रस Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) और स्पर्श अर्थात् सुनना, देखना, सूचना, स्वाद लेना और छूना । यद्यपि ये इन्द्रियां हैं सुनने, देखने, सूघने, स्वाद लेने और स्पर्श करने के लिये ही- इसी कारण इनका नाम ज्ञानेन्द्रियाँ भी है-लेकिन ये ज्ञानेन्द्रियां तभी होती हैं और तभी आत्मा का हित भी कर सकती हैं, जब दुविषयों में लिप्त न हों, उनके भोग में सूख न मानें और अपने आप को दुर्विषय-भोग के लिये न समझे। इसी प्रकार मन भी आत्मा का हित करने वाला तभी है, जब वह अपने पद से भ्रष्ट होकर, इन्द्रियों का अनुगामो न बन जावे और न इन्द्रियों को ही दुर्विषयों की ओर जाने दे । मन का काम इन्द्रियों को सुख देना नहीं, किन्तु आत्मा को सुख देना है और इन्द्रियों को भी उन्हीं कामों में लगाना है, जिनसे आत्मा सुखी हो । इन्द्रियों और मन का, इस कर्त्तव्य को समझ कर इस पर स्थिर रहना ही 'ब्रह्मचर्य' है । ३-गांधीजी कृत ब्रहमचर्य की परिभाषा गांधीजी ने 'ब्रह्मचर्य' के अर्थ में लिखा है" ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इंद्रियों और संपूर्ण विकारों पर पूर्ण अधिकार कर लेना । सभी इंद्रियों को तन, मन और वचन से, सब समय और सब क्षेत्रों में संयमित करने को 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं ।" ४–ब्रहमचर्य को व्यावहारिक परिभाषा यद्यपि सब इन्द्रियां और मन का दुविषयों की ओर न दौड़ने का नाम ब्रह्मचर्य है, लेकिन व्यवहार में, ब्रह्मचर्य Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) का अर्थ केवल वीर्यरक्षा' ही लिया जाता है । इस व्यावहारिक अर्थ - अर्थात् पूर्ण रूपेण वीर्यरक्षा - से भी इन्द्रियों और मन का दुर्विषयों की प्रोर न दौड़ना ही मतलब निकलेगा । पूर्णतया वीर्यरक्षा तभी हो सकती है, जब सभी इन्द्रियां और मन दुर्विषयों की ओर न दौड़ें । यदि एक भी इन्द्रिय दुर्विषय की ओर दौड़ती है- उसे चाहती है और उसमें सुख भी मानती है - तो सम्पूर्णतया वीर्यरक्षा कदापि नहीं हो सकती । इसलिये पूर्ण रीति से वीर्यरक्षा का अर्थ भी वही है, जो ऊपर कहा गया है अर्थात् सर्वप्रकार के असंयम - परित्याग - रूप इन्द्रियों और मन का संयम । " ५ - ब्रहमचर्य के तीन भेद ओर उनका संबन्ध ब्रह्मचर्य मन, वचन और शरीर से होता है, इसलिए ब्रह्मचर्य के तीन भेद होते हैं अर्थात् मानसिक - ब्रह्मचर्य, वाचिकब्रह्मचर्य और शारीरिक ब्रह्मचर्य । मन, वचन और काय इन तीनों द्वारा पालन किया गया ब्रह्मचर्य ही पूर्ण ब्रह्मचर्य है अर्थात् न मन में ही ब्रह्मचर्य की भावना हो, न वचन द्वारा ही अब्रह्मचर्य प्रगट हो औरं न शरीर द्वारा ही प्रब्रह्मचर्य की क्रिया की गई हो, इसका नाम पूर्ण ब्रह्मचर्य है । याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कायेन मनसा वाचा, सर्वावस्थासु सर्वदा । सर्वत्र मैथुनत्यागो, ब्रहमचर्य प्रचक्षते ॥ शरीर, मन और वचन से, सब अवस्थानों में सर्वदा और सर्वत्र मैथुन - त्याग को ब्रह्मचर्य कहा है । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) मैथुन में, मैथुनाङ्ग भी शामिल हैं, जिनका वर्णन आगे 'ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपाय' प्रकरण में किया जायेगा । कायिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं, जिसके सद्भाव में, शरीर द्वारा अब्रह्मचर्य की कोई क्रिया न को गई हो अर्थात् शरीर से ब्रह्मचर्य में प्रवृत्ति न हुई हो । मानसिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं जिसके सद्भाव में दुर्विषयों का चिन्तन न किया जावे, अर्थात् मन में अब्रह्मचर्य की भावना भी न हो । वाचिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं जिसके सद्भाव में अब्रह्मचर्यं सम्बन्धी वचन न कहा जाये । इन तीनों प्रकार के ब्रह्मचर्य सद्भाव को पूर्ण ब्रह्मचर्य कहते हैं । के कायिक, मानसिक कौर वाचिक ब्रह्मचर्य का परस्पर कर्त्ता, क्रिया और कर्म का सा सम्बन्ध है । पूर्ण ब्रह्मचर्य वहीं हो सकता है जहां उक्त प्रकार के तीनों ब्रह्मचर्य का सद्भाव हो । एक के अभाव में दूसरे और तीसरे का - एकदम से नहीं तो शनैः-शनैः अभाव स्वाभाविक है । सारांश यह कि इन्द्रियों का दुर्विषयों से निवृत्त होने, मन का दुर्विषयों की भावना न करने, दुर्विषयों से उदासीन रहने, मैथुनाङ्गों सहित सब प्रकार के मैथुन त्यागने और पूर्ण रीति से, वीर्यरक्षा करने एवं कायिक, वाचिक और मानसिक शक्ति को आत्मचिन्तन, आत्महित-साधन तथा श्रात्मविद्याध्ययन में लगा देने का ही नाम ' ब्रह्मचर्य' है । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाभ और माहात्म्य तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं । सूत्रकृतांग सूत्र । " " ब्रह्मचर्य ही उत्तम तप है । कैसा ब्रह्मचर्य से क्या लाभ होता है और ब्रह्मचर्य का माहात्म्य है, यह संक्षेप में नीचे बताया जाता है । शरीर और धर्म का सम्बन्ध १ आत्मा का ध्येय; संसार के जन्म-मरण से छूटकर, मोक्ष प्राप्त करना है । आत्मा इस ध्येय को तभी प्राप्त कर सकता है, जब उसे शरीर की सहायता हो - अर्थात् शरीर स्वस्थ हो । बिना शरीर के धर्म नहीं हो सकता और बिना धर्म के आत्मा अपने उक्त ध्येय तक नहीं पहुंच सकता । काव्य ग्रन्थों में कहा है शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् । कुमारसम्भव । शरीर ही सब धर्मों का प्रथम और उत्तम साधन है । , Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् ।. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का आरोग्य ही मूल साधन है। २- ब्रहमचर्य से शारीरिक स्वस्थता आत्मा को अपने ध्येय तक पहुंचने के लिये शरीर की आवश्यकता है और वह भी आरोग्यता के साथ । अस्वस्थ शरीर, धर्म-साधन में असमर्थ रहता है। ब्रहमचर्य से इस अंग की पूर्ति होती है, अर्थात् शरीर स्वस्थ रहता है, कोई रोग पास भी नहीं फटकने पाता । वैद्यक ग्रन्थों में ब्रहमचर्य से शारीरिक लाभ बताने के लिये कहा -- मृत्युव्याधिजरानाशि, पीयूषपरमौषधम् । ब्रहमचर्य महायत्नः, सत्यमेव वदाम्यहम् ॥ — मैं सत्य कहता हूँ कि मृत्यु, व्याधि और बुढ़ापे का नाश करने वाली अमृत के समान औषध ब्रहमचर्य ही है। ब्रहमचर्य, मृत्यु रोग और बुढ़ापे का नाश करने वाला महान् यत्न है ।' ३-- ब्रहमचर्य से धर्म-रक्षा तात्पर्य यह है कि वह मचर्य से शरीर स्वस्थ रहता है, जिससे धर्म का पालन होता है । इतना ही नहीं, किन्तु ब्रहमचर्य का पालन करना भी धर्म ही है । यह धर्म का Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) प्रधान अंग एवं धर्म का प्रधान रक्षक है । इसके लिये प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा है : पउमसरतलागपालिभूय, भहासगढअरगतुवभूय, महानगरपागारक बाडफलिहभूय, रज्जु-पिणद्धो व्व इंदकेऊ, विसुद्धगेणगुण संपिणद्धं, जम्मि य भग्गम्मि होइ सहसा सव्व संभग्गमहियचुणियकुल्लियपलट्टपडियखंडियपरिसडियविणासिय विणयसीलतवनियमगुणसमूहं । 'ब्रह्मचर्य, धर्म रूप पद्मसरोवर का पाल के समान रक्षक है । यह दया, क्षमा अादि गुणों का आधार-भूत एवं धर्म की शाखाओं का प्राधार-स्तम्भ है । ब्रहमचर्य, धर्म रूप महानगर का कोट है और धर्म रूप महानगर का प्रधान रक्षक-द्वार है । ब्रहमचर्य के खण्डित होने पर सभी प्रकार के धर्म, पहाड़ से गिरे हुए कच्चे घड़े के समान चूर-चूर हो जाते हैं ।' - ब्रहमचर्य, धर्म का कैसा आवश्यक अंग है, यह बताते हुए और ब्रहमचर्य की प्रशंसा करते हुए एक मुनि ने कहा है :पंच महव्वय-सुव्वयमूलं, समणमणाइल साहुसुविण्णं । वेरविरामण पज्जवसारणं सव्वसमुद्द महोदहितित्थं ॥१॥ तित्थकरेहि सुदेसिय मग्गं, नरगतिरिच्छविवज्जियंमग्गं । सव्वपवित्तसुनिम्मियसारं, सिद्धिविमाण-अवंगुयदारं।२॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवरिंदनमंसियपूइयं सव्वजगुत्तममंगलमग्गं । दुधरिसं गुणनायकमेक्कं मोक्खपहरसडिसगभूयं ॥३॥ ___ 'ब्रहमचर्य, पांच महाव्रत का मूल है अतः उत्तम व्रत है । अथवा पंच महाव्रत वाले साधुओं के उत्तम व्रतों का ब्रहमचर्य मूल है । ऐसे ही श्रावकों के सुव्रतों का भी ब्रहमचर्य मूल है । ब्रह चर्य, दोष रहित है, साधुजनों द्वारा भलीभांति पालन किया गया है, वैरानुबन्ध का अन्त करने वाला है और स्वयंभूरमण महोदधि के समान दुस्तर संसार से तरने का उपाय है । ब्रहमचर्य, तीर्थंकरों द्वारा सदुपदेशित है, उन्हीं के द्वारा इसके पालन का मार्ग बताया गया है और इसके उपदेश द्वारा नरक गति तथा तिर्यक-गति का मार्ग रोक कर सिद्ध-गति तथा विमानों के द्वार खोलने का पवित्र मार्ग बताया गया है। ___ यह ब्रहमचर्य देवेन्द्र और नरेन्द्रों से पूजित लोगों के लिए भी पूजनीय है, समस्त लोकों में सर्वोत्तम मंगल का मार्ग है। सब गुणों का अद्वितीय तथा सर्वश्रेष्ठ नायक है और मोक्ष-मार्ग का भूषण रूप है । ४--ब्रह मचर्य ही तप है मोक्ष के प्रधान साधन-तप में भी, ब्रह मचर्य को पहला स्थान है । जैन-शास्त्रों में ब्रहमचर्य सब से उत्तम तप माना गया है । इसका एक प्रमाण इस प्रकरण के Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) प्रारम्भ में दिया जा चुका है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में भी कहा है : जम्बू ! एत्तो य बंभचेरं तव नियम-नाण दंसणचरितसम्मत्तविषयमूलं यम-नियम - गुणप्पहाणजुत्तं, हिमवन्तमहंत तेयमतं पसत्थगंभीरथिमियमभं । हे जम्बू ! यह ब्रहमचर्य, उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चरित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है । जिस प्रकार सब पर्वतों में हिमालय महान् और तेजस्वी है, उसी प्रकार सब तपस्यायों में ब्रह ्मचर्य श्रेष्ठ है । अन्य ग्रन्थों में भी ब्रहमचर्य को उत्तम तप माना गया है । वेद भी ब्रहमचर्य को ही तप मानते हैं । जैसे तपो व ब्रह्मचर्यम् । ब्रहमचर्य ही तप है । गीता में भी ब्रहमचर्य को तप माना है । उसमें कहा है : -: ब्रहमचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते । अर्थात् -- ब्रह्मचर्य और अहिंसा, शरीर का उत्तम तप है । 84. इस प्रकार अन्य ग्रन्थकारों ने भी ब्रहमचर्य को उत्तम तपमाना है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) ५- ब्रहमचर्य से पारलौकिक लाभ पारलौकिक लाभ का ब्रहमचर्य एक प्रधान साधन है । ब्रहमचर्य से आत्मा परलोक सम्वन्धी सभी सुखों को प्राप्त कर सकता है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा-- प्रज्जव साहुजणाचरियं मोक्खमग्गं विसुद्ध सिद्धि गइनिलयं सासयवव्वावाहमपुणब्भवं पसत्थं सोमं सुभं सिवममक्खयकरं। जइवरसारक्खियं सुचरियं सुभासियं नवरिमुणिवरेहिं महापुरिसधीरसूरधम्मियधिइमंताण य सया विसुद्धं भव्वं भव्वजणाणुचिण्णं निस्संकियं निब्भय नित्त सं निरायासं । 'ब्रह्मचर्य ' अन्तःकरण को पवित्र एवं स्थिर रखने वाला है, साधुजनों से सेवित है, मोक्ष का मार्ग है और सिद्धगति का गृह है, शाश्वत है, बाधा-रहित है, पुनर्जन्म को नष्ट करने के कारण अपुनर्भव है, प्रशस्त है, रागादि का अभाव करने से सौम्य है, सूख-स्वरूप होने से शिव है, दुःख सुखादि द्वन्द्वों से रहित होने से अचल है अक्षय तथा अक्षत है, मुनियों द्वारा सुरक्षित एवं प्रचारित है, भव्य है, भव्यजनों द्वारा आचरित है, शङ्का-रहित है, निर्भयता का देने वाला, विशुद्ध तथा झंझटों से दूर रखने वाला एवं खेद और अभिमान को नष्ट करने वाला है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में आगे कहा है।जम्मि य पाराहियम्मि पाराहिय वयमिरणं Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) सव्वं । सोलं तवो य विणो य संजमो य खंती गुत्ती मुत्ती तहेव इहलोइय पारलोइय जसेय कित्ती य पच्चो य । ब्रहमचर्य की प्राराधना से सभी व्रत आराधित होते हैं । तप, शील, विनय, संयम, क्षमा, गुप्ति और मुक्ति सिद्ध होती हैं तथा इस लोक और परलोक में यश-कीर्ति की विजय-पताका फहराती है ।' अन्य ग्रन्थकार भी ब्रहमचर्य से परलोक सम्बन्धी लाभ बताते हुए कहते हैं : समुद्रतरणे यद्वत् उपायो नौः प्रकीर्तिता । संसारतरणे यद्वत् ब्रह्मचर्य प्रकीर्तितम् ॥ - स्मृति । समुद्र से पार जाने के लिये, जिस प्रकार नौका श्रेष्ठसाधन है, उसी प्रकार संसार. से तरने के लिए ब्रहमचर्य उत्कृष्ट साधन है। ग्रन्थकारों ने यज्ञ भी ब्रहमचर्य को ही माना है । जैसे :अथ यद्यज्ञ इत्याचक्षते ब्रह्मचर्य मेव ।। ( छान्दोग्योपनिषद् । ) 'जिसे यज्ञ कहते हैं, वह ब्रहमचर्य ही है ।' संसार-बन्धन से छूट कर, मोक्ष प्राप्ति के लिये चारित्र Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४०) धर्म बताते हुये भगवान् ने जिन पांच महाव्रतों का उपदेश. दिया है, उनमें से ब्रहमचर्य चौथा महाव्रत है। ब्रहमचर्य के बिना, चारित्र-धर्म का पूर्णरूपेण पालन नहीं हो सकता। आत्मा को संसार-बन्धन से छुड़ा कर, मोक्ष दिलाने वाले चारित्र-धर्म का, ब्रहमचर्य एक प्रधान और प्रावश्यक अंग है । ब्रहमचर्य के बिना न तो अब तक कोई मुक्त हुआ ही है, न हो ही सकता है । सिद्धात्माओं को सिद्ध गति प्राप्त कराने वाला यह वह मचर्य ही है । इस प्रकार पारलौकिक लाभ का ब्रहमचर्य एक प्रधान साधन है । ६-ब्रह्मचर्य से इहलौकिक लाभ ब्रहमचर्य से पारलौकिक ही नहीं, इहलौकिक लाभ भी है । ऊपर बताया जा चुका है कि ब्रहमचर्य से स्वास्थ्य अच्छा रहता है । स्वास्थ्य अच्छा रहने से ही इह-लौकिक कार्य सुचारु-रूप से सम्पादन हो सकते हैं । सांसारिक-जीवन में, शरीर स्वस्थ, सुन्दर, बलवान्, एवं चिरायू रहने की, विद्या की, धन की, कर्त्तव्य-दृढ़ता की और यशादि की अभिलाषाएं पूर्ण होती हैं। प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि ने ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुये कहा है - चिरायुषः स संस्थानां दृढसंहनना नराः । तेजस्विनो महावीर्या भवेयुब्रह्मचर्यतः ॥ . ब्रहमचर्य से शरीर चिरायु, सुन्दर, दृढ़-कर्तव्य तेजपूर्ण और पराक्रमी होता है । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) वैद्यक ग्रन्थों में भी कहा गया है :ब्रहमचर्यं परं ज्ञानं ब्रहमचर्यं परं बलं । ब्रहमचर्यमयो ह्यात्मा ब्रह्मचयव तिष्ठति ॥ ब्रहमचर्य ही सब से उत्तम ज्ञान है, अपरिमित बल है, यह आत्मा निश्चय रूप से ब्रहमचर्यमय है और ब्रहमचर्य से ही शरीर में ठहरा हुआ है । 1 1 इन प्रमाणों से यह बात भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि ब्रहमचर्य से शरीर सुन्दर भी रहता है, बलवान् भी रहता है, दीर्घजीवी भी होता है और यश-कीर्ति भी प्राप्त होती है । इस प्रकार ब्रहमचर्य, इहलौकिक सुखों का भी साधन है । लौकिक वैभव, विद्या, धन आदि तभी प्राप्त होते हैं, जब शरीर स्वस्थ हो और उसमें वल तथा साहस हो । ब्रहमचर्य से शरीर स्वस्थ रहता है और शरीर में बल तथा साहस भी रहता है । विद्वानों का मत है कि ब्रहमचर्य के बिना विद्या प्राप्त नहीं होती । विद्या - प्राप्ति के लिये ब्रहमचर्य का होना आवश्यक है । अथर्ववेद में कहा है : ब्रहमचर्येण विद्या । , ब्रहमचर्य से विद्या प्राप्त होती है । " विदुर नीति में कहा है : ----- विद्यार्थं ब्रहमचारी स्यात् ! 'यदि विद्या के इच्छुक हो तो ब्रहमचारी बनो । ' Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) तात्पर्य यह कि ब्रहमचर्य, लौकिक और लोकोत्तर, दोनों ही सुखों का प्रधान साधन है । इसकी पूर्ण-रूपेण प्रशंसा करना तो समुद्र को हाथों के सहारे तैरने का साहस करना है। ७ - ब्रहमचर्य पर अपवाद कुछ लोगों का कथन है कि पूर्ण ब्रहमचारी को मोक्ष या स्वर्ग प्राप्त नहीं होता क्योंकि पूर्ण ब्रहमचारी निःसंतान रहते हैं और--- अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च । 'पुत्रहीन की गति नहीं होती और स्वर्ग तो कभी भी नहीं मिलता है।' इस श्लोक से पूर्ण ब्रहमचारी को स्वर्ग-मोक्ष प्राप्ति से वंचित बताया जाता है, लेकिन इस श्लोक को खण्डन करने वाला दूसरा यह प्रमाण भी है :स्वर्गे गछन्ति ते सर्वे ये केचिद् ब्रहमचारिणः । ' जितने भी ब्रहमचारी हैं, वे सब स्वर्ग को जाते हैं।' और भी कहा है कि :अनेकानि सहस्राणि, कुमारब्रहमचारिणाम् । दिवं गतानि राजेन्द्र, अकृत्वा कुलसन्ततिम् ।। हे राजन् ! हजारों मनुष्य ऐसे हुए हैं जो आजीवन Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) नैष्ठिक ब्रहमचारी रह कर कुल-सन्तति को न बढ़ाते हुए भी. दिव्य गति को प्राप्त हुए हैं।' जैन-शास्त्रानुसार स्वर्ग-प्राप्ति कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात तो मोक्ष प्राप्त करना है । ब्रहमचर्य से संसार की सभी ऋद्धि मिल जाय, स्वर्ग का राज्य भी प्राप्त हो जाय, तब भी यदि इसके द्वारा मोक्ष प्राप्त न हो सकता होता तो जैन-शास्त्र इसे धर्म का अंग न मानते , क्योंकि जैनशास्त्र उसी वस्तु को उपयोगी और महत्त्व की मानते हैं, जिसके द्वारा मोक्ष प्राप्त हो । लेकिन उक्त प्रमाण जिन ग्रन्थों के हैं, वे ग्रन्थ स्वर्ग को ही अन्तिम ध्येय मानते हैं । फिर भी ऊपर दिये हए श्लोकों में से पहला श्लोक दूसरे श्लोक से अप्रामाणिक ठहरता है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्रह्मचर्य से हानि जहा व किपागफला मणोरमा, रसेण वण्णोण य भुज्जमाणा । ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा, एप्रोवमा कामगुणा विवागे ।। . (उत्तराध्ययन सूत्र ३२ वां अ०) " जिस प्रकार किंपाकफल वर्ण और रस से मनोरम और स्वादिष्ट होते हैं, परन्तु खाने पर मत्यू का ग्रालिंगन करना पड़ता है, उसी प्रकार काम--भोग भोगने में तो अच्छे लगते हैं, परन्तु उनका परिणाम बहुत दुःखदायी होता है। इसलिये काम-भोग को त्यागो । इन्द्रियों का दुर्विषय-लोलुप न होने और वीर्य का पूर्णरूपेण सुरक्षित रहने का नाम ही ब्रह्मचर्य है । इसके विपरीत अर्थात् इन्द्रियों का दुर्विषयलोलुप होने, दुर्विषय-भोग में सुख मानने और वीर्य खण्डित करने का नाम अब्रह्मचर्य है। अब्रह्मचर्य का दूसरा नाम मैथुन भी है, लेकिन मैथुन में मैथुनाङ्ग भी शामिल है। ग्रन्थकारों ने ब्रह्मचर्य का रूप बताने के लिये Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५) मैथुन की व्याख्या इस प्रकार की है स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षरणं गुह्यभाषणम् । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च ॥ एतन्मथुनमष्टांगं प्रवदन्ति मनीषिणः । विपरीतं ब्रह्मचर्यमेतदेवाष्टलक्षणम् ॥ " स्मरण, कीर्तन, केलि, अवलोकन, गुप्तभाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रिया-निष्पत्ति, ये मैथुन के आठ अंग हैं। इन लक्षणों से परे रहने का नाम ब्रह्मचर्य है ।" देखी या सुनी हुई स्त्रियों की याद करना, “ स्मरण नामक मैथुन का पहला अंग है । स्त्रियों की प्रशंसा करना, उनके विषय में बात-चीत करना-" कीर्तन" मैथुन का दूसरा अंग है । स्त्रियों के साथ किसी प्रकार के खेल खेलना "केलि" मैथुन का तीसरा अंग है । काम दृष्टि से किसी स्त्री को देखना, “प्रेक्षण" मैथुन का चौथा अंग है। स्त्रियों से छिप कर बातें करना " गुह्य भाषण" पांचवां अंग है। स्त्री सम्बन्धी भोग भोगने का विचार लाना “संकल्प मैथुन" का छठा अंग है । स्त्री-प्राप्ति की चेष्टा करना, "अध्यवसाय" नाम का सातवां और स्त्री सम्भोग द्वारा वीर्य नष्ट करना, "क्रियानिष्पत्ति" मैथुन का आठवां अंग है ।। ब्रह्मचर्य के विरोधी प्रब्रह्मचर्य-मैथुन के उक्त आठ अंगों में से जिस-जिस अंग की पूर्ति होती जाती है, ब्रह्मचर्य * जिस प्रकार पुरुषों के लिये स्त्री संबन्धी आठों कार्य त्याज्य हैं इसी इसी तरह स्त्रियों के लिये पुरुष संबन्धी आठों बातें त्याज्य हैं। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) उतने ही अंश में नष्ट होता जाता है और मैथुन के आठों अंगों की पूर्ति होने पर, पूर्ण रूपेण नष्ट हो जाता है । मैथुन और ब्रह्मचर्यं परस्पर विरोधी हैं, इसलिए जहां एक है, वहां दूसरा नहीं ठहर पाता । मैथुन और मैथुनाङ्ग का नाम ही ब्रह्मचर्य है । वीर्यं भी मैथुन से ही नष्ट होता है । इन्द्रियों का दुर्विषय- लोलुप होना ही मैथुन है और मैथुन ही इन्द्रियों की दुविषयलोलुपता है । १ - प्रांशिक मैथुन सेवन से हानि मैथुन के किसी भी एक ग्रंग के सेवन से अर्थात् आंशिक रूप में ब्रहमचर्य खण्डित होने से मैथुन का सर्वाङ्ग में सेवन और ब्रह्मचर्य का नाश होना स्वाभाविक है क्योंकि मैथुन के किसी भी एक अंग के सेवन से एक न एक इंद्रिय दुर्विषय - लोलुप बनेगी ही, और किसी भी एक इन्द्रिय के दुर्विषयलोलुप बन जाने पर सभी इन्द्रियां दुर्विषय - लोलुप बन जाती हैं । उदाहरण के लिये, यदि कान स्त्री शब्द में सुख मानते हैं, तो नाक उनके शरीर की गन्ध में, जीभ उनसे संभाषण करने में, नेत्र उनका रूप देखने में और त्वचा उनका स्पर्श करने में सुख मानेगी । क्योंकि - इन्द्रियाणां तु सर्वेषां यद्येकं क्षरतीन्द्रियम् । तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृतेः पादादिवोदकम् || " जिस प्रकार जल की जाने पर फिर उसमें जल नहीं ( मनुस्मृति अ० २ ) मशक में एक भी छेद हो ठहरता, उसी प्रकार सब Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) इन्द्रियों में से एक भी इन्द्रिय के विषय - लोलुप बनने पर बुद्धि नष्ट हो जाती है । 1 बुद्धि के नष्ट होने पर इन्द्रिय- संयम कहां ? स्वभावतः विषय - प्रिय इन्द्रियाँ फिर तो दुविषयों की ही ओर दौड़ती हैं । बुद्धि के नष्ट हो जाने से इन्द्रियाँ निरंकुश हो जाती हैं और फिर आत्मा को दिन-प्रतिदिन पतन की ही ओर अग्रसर करती हैं । नष्टबुद्धि इन्द्रियों के वश होकर, यह सिद्धान्त मानने लगता है : श्रसत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् । अपरस्परसंभूतं किमन्यत्काम हेतुकम् ॥ ( गीता अ० १६ ) " जगत् असत्य, निराधार और अनीश्वर है । यह यों ही बना है । काम के सिवा इस संसार के बनने का दूसरा क्या हेतु हो सकता है ?" इस सिद्धान्त को मान कर, फिर ईहन्ते कामभोगार्थ मन्यायेनार्थ संचयान् ( गीता अ० १६ ) तात्पर्य यह है कि मैथुन के किसी एक भी अंग के सेवन से अर्थात् एक भी इन्द्रिय की दुविषय- लोलुपता से ब्रह्मचर्य पूर्ण रूपेण अपना ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है और श्राधिपत्य जमा लेता है : २ -- ब्रह्मचर्य की निन्दा और उससे हानि Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) संक्षिप्त में अब्रह्मचर्य से तात्पर्य है-दुर्विषयभोग, मैथुन, या वीर्य का खण्डित करना । जैन-शास्त्रों ने ही नहीं, किन्तु अन्य ग्रन्थकारों ने भी इस अब्रह्मचर्य की लौकिक और लोकोत्तर दोनों ही दृष्टियों से बड़ी निन्दा की है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में अब्रह्मचर्य को चौथा अधर्म-द्वार मानते हुए कहा है_____ जम्बू ! अबंभं सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पत्थपिज्जं पंकपणगपासजालभूगं थोपुरिसनपुसवेदचिध, तवसंजमबंभचेरविग्धं, भेदायतणबहुपमायमूलं, कायरकापुरिससेविगं, सुयणजणवज्जरिणज्ज, उद्धृनिरयतिरियतिलोक्कपइट्ठाणं, जरामरणरोगसोगबहुलं, वधबंधविघातदुविघायं, सणचरित्तमोहस्स हेउभूयं, चिरपरिगयमणुगयं दुरंतं । " हे जम्बू ! चौथा अधर्म-द्वार अब्रह्मचर्य है । देव, असुर, मनुष्य, लोकपति आदि इस अब्रह्मचर्य-रूपी कीचड की दलदल में फंसे हुए हैं । देव, असुर, मनुष्यादि को यह जाल के समान फंसाने वाला है । पुरुषों के लिए यह नपूसकत्व का कारण है । तप, संयम ब्रह्मचर्य के लिए विघ्नरूप है, अर्थात् इन्हें नाश करने वाला है । विषय कषाय आदि प्रमादों का मूल है । इन्द्रियों के समीप जो कायर तथा कापूरुष हैं, उन लोगों द्वारा सेवित एवं सज्जनों द्वारा निन्दित वर्ण्य है । तीनों लोक में अप्रतिष्ठित एवं जरा मृत्यु रोग शोक की वृद्धि करने वाला है । बध, बन्धन, आघात Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६) तथा दर्शन-मोहनीय और चरित्र-मोहनीय कर्म का हेतु है । प्राणियों को इसका परिचय दीर्घकाल से है, इसलिए इसका अन्त करना कठिन है।" प्रश्नव्याकरण सूत्र में, आगे अब्रह्मचर्य के तीस नाम बताते हुये यह बताया गया है कि बड़ी-बड़ी ऋद्धि वाले चक्रवर्ती तथा माण्डलिक राजाओं की भी इससे अतृप्ति रही है । इसकी निन्दा करते हुए इसी सूत्र में आगे कहा है मेहुणसन्नापगिद्धा य मोहभरिया सत्थेहि हरणंति एक्कमेक्कं विसयविसउदीरएसु प्रबरे परदारेहि हम्मंति......... " मैथुन में गृद्ध ब्रह्मचर्य के अज्ञान से भरे हुए लोग परस्पर एक दूसरे की बात करते हैं । विष देकर मार डालते हैं । यदि परदारा हई तो उस स्त्री का पति जारपति की घात करता है । इस प्रकार अब्रह्मचर्य मृत्यु का कारण है। अब्रह्मचर्य से धन और स्वजन का नाश होता है एवं परदारा में गृद्ध स्त्री-मोह से परिपूर्ण घोड़े, हाथी, बैल, भैंसे, मृग आदि पशु परस्पर लड़ कर मर जाते हैं और अपनी संतान तक की घात कर डालते हैं । इसी प्रकार पशु और मनुष्य भी परस्पर युद्ध करते है । अब्रह्मचर्य के कारण मित्रों में भी वैर-भाव उत्पन्न हो जाता है । अब्रह्मचर्य से सिद्धान्त द्वारा प्ररूपित चारित्र-रूपी मूल-गुण का भेदन हो जाता है। श्रुत-चारित्र-धर्म में रत जीव भी स्त्री-संग से अपयश तथा अकीर्ति को प्राप्त होते हैं । अब्रह्मचर्य से शरीर रोगी बना रहता है और अन्त में शीघ्र ही मृत्यु के मुख से पड़ना Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५०) पड़ता है । अब्रह्मचर्य से पर-स्त्री-गमन के कारण कितने ही जीव बंधन में पड़ते हैं और मारे जाते हैं । अब्रह्मचर्य के मोह से पराभव को पाये हुये जीव इस प्रकार दुर्गति के अधिकारी बनते हैं।" प्रश्नव्याकरण सत्र में आगे यह भी बताया गया है कि अब्रह्मचर्य के कारण स्त्रियों के लिये कैसे-कैसे महान संग्राम हुए हैं। स्त्रियों के लिये होने वाले संग्रामों का वर्णन करने के पश्चात् प्रश्नव्याकरण सूत्र में लिखा है : इहलोए ताव नट्ठा परलोए य नट्ठा महया मोहतिमिसंधयारे घोरे तसथावरसुहमवादेरसु य पज्जत्तमपज्जत्त साहारणसरीरपत्तेयसरीरसु य....." " इन्द्रियों का दुर्विषय भोग रूप मैथुन, इस लोक में बन्धनकर्ता और परलोक में अनिष्टकारी है। महा मोह-रूप अन्धकार का स्थान है । त्रस, स्थावर, सूक्ष्म बादर पर्याप्त अपर्याप्त आदि पर्यायों से चतुर्गतिरूप संसार में विशेष समय तक और बारम्बार परिभ्रमरण कराने वाले मोहनीय कर्म का वर्द्धक है।" एसोसो प्रबंभस्स फलविवागो इहलोइयो परलोइनो अपसुप्रो बहुदुक्खो महन्भयत्रो बहुपयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असानो बाससहस्सेहि मुच्चती न य अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खोति । .. " इस प्रकार अब्रह्मचर्य का फल इस लोक तथा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) परलोक में अल्प सूख और महान् दुःख है । अब्रह्मचर्य महा भय का स्थान, कर्मरूपी रज से गाढ़ी तरह घिरा हुआ एवं दारुण कर्कश और बिना भोगे न छूटने वाले कर्मों को बांधने वाला है।" गीता में ब्रह्मचर्य की निम्न प्रकार से निन्दा की हैकाम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महा पाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥ धूमेनावियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ।। आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा। कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । एतविमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनाम् ।। (गीता अध्याय ३ ) " मनुष्य को पाप के रास्ते ले जाने वाले रजोगुण से उत्पन्न काम और क्रोध ही हैं । वे भूखमरे या पेट्र महापापी और शत्रु हैं । जिस प्रकार आग धुएं से ढंकी रहती है, कांच मैल से धु धला दीखता है और गर्भ का बालक झिल्ली से ढंका रहता है, उसी प्रकार सारा संसार काम से ढंका हुआ है। यानी जिसमें काम न हो-जो काम से परे हो- वह संसार से भी परे है । हे अर्जुन ! कभी तृप्त न होने वाली यह काम रूपी आग आत्मा की सदा की वैरिन Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) है । ज्ञानियों के ज्ञान को भी वह ढांक देती है । इस काम के ठहरने की जगह इन्द्रिय, मन और बुद्धि है । यह इन्हें के सहारे ज्ञान को ढांक कर मनुष्य को मोहित करता है।' त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ . (गीता अध्याय १६ ) "काम, क्रोध और लोभ, ये तीनों नरक के द्वार और आत्मा का नाश करने वाले हैं । इसलिये इन तीनों को त्याग देना चाहिये ।" इस प्रकार अब्रह्मचर्य की सबने निन्दा की है । परलोक-सम्बन्धी जो हानियां इससे होती हैं, उनका वर्णन तो किया ही गया है लेकिन इस लोक में भी इससे अनेक हानियां हैं । इससे होने वाली समस्त हानियों का वर्णन करना कठिन है। ३-अब्रह्मचर्य से हिंसा अब्रह्मचर्य या मैथुन से हिंसा का महान् पाप भी होता है । भगवती सूत्र में, गौतम स्वामी के प्रश्न करने पर, भगवान् ने फर्माया है कि " जिस प्रकार रूई से भरी हुई नली में तम लोहे की सलाई डालने से रुई का नाश होता है, उसी प्रकार कामाचार सेवन करने वाला, स्त्री-योनि के जन्तुओं का नाश करता है । ये जन्तु सन्नी पंचेन्द्रिय हैं और उनकी संख्या अधिक से अधिक नव लाख है। इन नव लाख Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) जीवों के सिवा संमूर्छिम जीवों की तो गिनती ही नहीं है । इस प्रकार एक बार के मैथुन से अनेक जीवों की हिंसा का पाप होता है । स्त्री-योनि में जीव होते हैं, इस बात को दूसरे लोग भी मानते हैं । वात्सायन काम-सूत्र का टीकाकार और रति-रहस्य का कर्ता भी स्त्री-योनि में जीव होना स्वीकार करता है । स्त्री-योनि में जीव हैं, तो मैथुन से उनका नाश होना और हिंसा का पाप लगना स्वाभाविक है। इसलिए अहिंसा-व्रत की रक्षा की दृष्टि से भी अब्रह्मचर्य त्याज्य है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रहमचर्य-व्रत विरमत बुधा योषित्संगात्सुखात् क्षणभंगुरात् कुरुत करुणामंत्रीप्रज्ञावधूजनसंगमम् । न खलु नरके हाराकान्तं घनस्तनमण्डलं शरणमथवा श्रोणीबिम्ब रणन्मणिमेखलम् ॥ भर्तृहरि 'हे बुद्धिमानो ! क्षणिक और नाशवान् स्त्री-संग के सुख को छोड़ कर मैत्री, करुणा और प्रज्ञा (ज्ञान) रूपी स्त्री का साथ करो। नरक में जब ताड़ना होगी, तब स्त्रियों के हार-भूषित स्तनमण्डल और घुघरूदार करधनी से शोभित कमर सहायता न करेंगे ।' १-ब्रह्मचर्य व्रत का अर्थ । अब्रह्मचर्य से निवृत्त होकर, ब्रह्मचर्य पालन करने की प्रतिज्ञा करने का नाम 'ब्रह्मचर्य-व्रत' है । इस प्रकार की प्रतिज्ञा पालन करने वाले को ब्रह्मचारी कहते हैं । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५) २ -ब्रह्मचर्य को व्रत रूप में क्यों स्वीकारना चाहिये ? __कहा जा सकता है कि 'प्रतिज्ञा-रूप व्रत स्वीकार किये बिना ही, यदि ब्रह्मचर्य का पालन किया जाय, तो क्या हर्ज है ? यदि कोई हानि नहीं है तो फिर ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा करने-यानी व्रत धारण करने की क्या आवश्यकता है ?' इसका उत्तर यह है कि संकल्प-हीन कार्यों की पूर्ति में सन्देह ही रहता है । संकल्प यानी व्रत या प्रतिज्ञा कर लेने पर, कार्य में होने वाली बाधाओं को सहने की शक्ति आती है, मन में दृढ़ता रहती है और 'प्रतिज्ञा से भ्रष्ट न हो जाऊँ !' इस बात का भय रहता है। इसके सिवा व्रतरूप धारण किये बिना ब्रह्मचर्य पालन से परलोक सम्बन्धी जो लाभ होना चाहिये, वह लाभ भी नहीं होता । जैनशास्त्रों में तो इस बात का प्रतिपादन है ही, लेकिन अन्य ग्रन्थों में भी यही बात कही गई है । जैसे :-- संकल्पेन बिना राजन् यत्किचित् कुरुते नरः । फलस्याप्यल्पकं तस्य धर्मस्यार्धक्षयं भवेत् ॥ पद्मपुराण । 'हे राजन् ! संकल्प के बिना जो कुछ किया जाता है, उसका फल बहुत थोड़ा होता है और उस कार्य के धर्म का आधा भाग नष्ट हो जाता है ।' किसी भी शुभ कार्य को करने के लिये संकल्प का होना अत्यावश्यक है और परलोक के लिये हितकारी नियमों के पालन का संकल्प ही व्रत कहलाता है । यद्यपि व्रत-रूप धारण किये बिना भी ब्रह्मचर्य का पालन करना बुरा नहीं Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) है-अच्छा ही है-लेकिन ब्रह्मचर्य पालन से, जो पारलौकिक लाभ प्राप्त होना चाहिये, वह लाभ ब्रह्मचर्य को व्रत-रूप स्वीकार किये बिना, पूर्णतया प्राप्त नहीं होता। इन बातों को दृष्टि में रख कर ब्रह्मचर्य को व्रत-रूप में स्वीकार करना उचित है । ब्रह्मचर्य को व्रत-रूप स्वीकार करने से किसी प्रकार की हानि नहीं है । हाँ, लाभ अवश्य हैं, जो ऊपर बताये जा चुके हैं। ३-ब्रह्मचर्य व्रत अपरिग्रह से अलग क्यों है ? भगवान् महावीर से पूर्व, बाईस तीर्थङ्करों के शासनकाल में ब्रह्मचर्य नामक व्रत अलग न था । उस समय अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ये चार ही व्रत थे। चार व्रत होने पर ब्रह्मचर्य का पालन तो होता ही था, लेकिन ब्रह्मचर्य व्रत अपरिग्रह व्रत के ही अन्तर्गत हो जाता था और परिग्रह के त्याग में स्त्री आदि का भी त्याग समझा जाता था । यद्यपि अपरिग्रह-व्रत में ब्रह्मचर्य-व्रत का भी समावेश हो जाता है और परिग्रह के त्याग में अब्रह्मचर्य का भी त्याग हो जाता है, परन्तु भगवान् महावीर ने अपने समय के एवं भविष्य के वक्र जड़ मनुष्यों को दृष्टि में रखकर, ब्रह्मचर्य व्रत का अलग ही उपदेश दिया । भगवान् पार्श्वनाथ तक चार ही व्रत थे और भगवान् महावीर ने पांच व्रतों का उपदेश दिया। इस बात को लेकर भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के मुनि श्री केशीस्वामीजी और भगवान् महावीर के शिष्य श्री गौतम स्वामीजी में चर्चा हुई, जिसका विस्तृत वर्णन श्री उत्तराध्ययन सूत्र के २३ वें अध्ययन में है । ४-ब्रह्मचर्य व्रत के दो भेद शास्त्रकारों ने सुविधा की दृष्टि से ब्रह्मचर्य-व्रत के Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) दो भेद कर दिये हैं । एक सर्वविरति ब्रह्मचर्य-व्रत और दूसरा देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत । सर्वविरति ब्रह्मचर्य-व्रत उसे कहते हैं, जिसमें जीवन भर के लिये मैथुन से निवृत्त होने, वीर्य अक्षत रखने और सभी प्रकार के काम-भोग न भोगने की प्रतिज्ञा की जावे । इतना ही नहीं, जिन कार्यों से ब्रह्मचर्य-व्रत दूषित बने, वे सभी कार्य त्याग कर नव-वाड़ों का पालन किया जाय । इस व्रत को स्वीकार करने वाला सर्वविरति-पूर्ण ब्रह्मचारी कहलाता है । ऐसा पूर्ण ब्रह्मचारी मन, वचन और काय से वैक्रिय तथा औदारिक शरीर सम्बन्धी काम-भोगों को न भोगता है, न भोगवाता है, न भोगने वाले को अच्छा ही समझता है । सर्वविरत ब्रह्मचारी अठारह प्रकार के काम-भोगों को त्याग कर ब्रह्मचर्य का पूर्णरीति से पालन करने की प्रतिज्ञा करता है । सर्वविरत ब्रह्मचर्य का अन्य ग्रन्थकारों ने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य नाम दिया है। देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत उसे कहते हैं, जिसमें स्व-स्त्री की मर्यादा रखी जाय । इस स्थान पर सर्वविरति-ब्रह्मचर्यव्रत का ही वर्णन किया जाता है। देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत का वर्णन आगे किया जाएगा । सर्वविरति ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन कौन कर सकते हैं, इसके लिये आचार्य कहते हैं : शक्यं ब्रह्मव्रतं घोरं, शूरैश्च न तु कातरैः । करिपर्याणमुद्वोढु, करिभिर्नतु रासभैः ।। ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना, शूरों के लिये ही शक्य Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८ ) है; कायरों के लिये नहीं; जैसे कि हाथी का पलान, हाथी ही उठा सकता है, गधा नहीं उठा सकता । ५-सर्वविरति ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन कौन कर सकता है? सर्वविरति ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन, संसार-त्यागी साधु ही कर सकते हैं, दूसरा नहीं कर सकता । संसार-व्यवहार में रहने वाले सभी मनुष्य, एकदम से संसार-व्यवहार नहीं छोड़ सकते; इसलिये संसार-व्यवहार में रहने वालों के लिये देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत बतलाया गया है । इस प्रकार ग्रहत्यागियों के लिये सर्व विरति ब्रह्मचर्य-व्रत है और गृहस्थियों के लिये देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत । ६-ब्रहमचर्य-व्रत स्वीकार करने से लाभ इन्द्रियाँ पाप से नहीं, पुण्य से मिली हैं । पुण्य से मिली हुई इन्द्रियों को पुण्य की ओर लगाना ही उचित है, न कि पाप की ओर । जब इन पुण्य से मिली हुई इन्द्रियों द्वारा धर्म का लाभ लिया जा सकता है, तब इनसे पाप क्यों किया जाय ? इन्द्रियों द्वारा काम-भोग भोगना, पुण्य से प्राप्त इन्द्रियों को पाप में प्रवृत्त करना है। इन्द्रियों की सार्थकता तभी है, इनके मिलने का लाभ तभी है, जब इन्हें असंयम में न लगाया जाकर, संयम में रखा जाय । इनके द्वारा दुर्विषय भोगना - इन्द्रियों का दुर्विषय में लिप्त होनाउसी प्रकार नाशकारी है, जिस प्रकार पतंग के लिये दीपक की लौ से मोह करना नाशकारी है । पतंग केवल आँखों के विषय-रूप पर मोहित होने से नष्ट हो जाता है तो जिनकी पांचों इन्द्रियां दुर्विषय-लोलुप हों, वे नष्ट क्यों न होंगे ? इन्द्रियों को दुविषयभोग में लगाने से, दुर्विषय-लोलुप Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) बनाने से - नांश अवश्यम्भावी है । इसलिये काम-भोग के दुष्परिणामों से बचने के वास्ते सर्वविरति ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार करना और पालन करना उचित है । मोक्ष की आराधना के लिये चारित्र धर्म के अन्तर्गत भगवान् ने जिन पांच महाव्रतों को बताया है, उनमें से यह सर्वविरति ब्रह्मचर्यं चौथा महाव्रत है । मोक्ष प्राप्ति के लिये ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार करना और पालन करना आवश्यक है । ब्रह्मचर्य व्रत के बिना अन्य व्रत मोक्ष के लिये पूर्णरूपेण सार्थक नहीं होते, न ब्रह्मचर्य के अभाव में अन्य व्रत, भली-भांति आराधे ही जा सकते हैं । ब्रह्मचर्य व्रत, मोक्ष के लिये कैसा उपयोगी है, यह बताते हुये एक आचार्य कहते हैं: एस धम्मे धुए नियए सासए जिणदेसिए । सिज्झा सिज्यंति चारणं सिज्झिस्संति तहापरे ॥ -- श्री उत्तराध्ययन सूत्र । यह ब्रह्मचर्य - धर्म ध्रुव, नित्य अविनाशी और जिनदेव का कहा हुआ है । इसी ब्रह्मचर्यं धर्म से सिद्ध हुए हैं, होते हैं और होंगे । सर्वविरति ब्रह्मचर्य व्रत की प्रशंसा करते हुए एक प्राचार्य कहते हैं: व्रतानां ब्रह्मचर्यं हि निर्दिष्टं गुरुकं व्रतम् । तज्जन्यपुण्य सम्भारसंयोगाद् गुरुरुच्यते ॥ 'व्रतों में ब्रह्मचर्य ही बड़ा व्रत है; इसी व्रत के योग से गुरु कहे जाते हैं ।' पुण्य Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६०) गीता में कहा है :यथा संहरते चायं, कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियारणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। जिस प्रकार कछुआ अपने सब अंगों को सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार, विषयों की ओर से इन्द्रियों को सिकोड़ लेने वाला ही स्थिरबुद्धि है। महाभारत में कहा है :सत्ये रतानां सततं, दान्तानामूर्ध्व-रेतसाम् । ब्रह्मचर्य दहेद्राजन् ! सर्व पापान्यपासितम् ॥ 'हे राजन् ! सत्य से प्रेम करने वाले ब्रह्मचारी का ब्रह्मचर्य, समस्त पापों को नष्ट करने वाला है ।' ब्रह्मचर्य की प्रशंसा में विद्वान् लोग कहते हैं : . ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां, वीर्यलाभो भवत्यपि । सुरत्वं मानवो याति, चान्ते याति परां गतिम् ॥१॥ ब्रह्मचर्य पालनीयं, देवानामपि दुर्लभम् । वीर्य सुरक्षिते यान्ति, सर्वलोकार्थसिद्धयः ॥२॥ ब्रह्मचर्य का पालन करने से वीर्य का लाभ होता है, मनुष्य भी देवता के समान दिव्य हो जाता है और ब्रह्मचर्य की साधना पूरी होने पर परमगति भी मिलती है ।।१।। ब्रह्मचर्य, देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, इसलिये इसका Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) पालन करना उचित है; वीर्य को सुरक्षित रखने से सब लोकों का अर्थ सिद्ध हो जाता है ||२|| इस प्रकार सर्वविरति ब्रह्मचर्य की सब शास्त्र और ग्रन्थों ने प्रशंसा की है । यति-धर्म का पूर्णतया पालन तभी हो सकता है, जब इस सर्वविरति ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार करके पूर्ण रीति से पाला जाय । इस ब्रह्मचर्य व्रत के बिना अन्य व्रतों को स्वीकार करना तथा उनका पालन करना भी मोक्ष के लिये पर्याप्त नहीं है । अतः मोक्षेच्छुओं को अन्य व्रतों के साथ इस व्रत को स्वीकार करना और पालन करना आवश्यक है । ** Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रहमचर्यरक्षा के उपाय जेण सुद्धचरिएणं, भवति सुबंभणो, सुसमणो, सुसाहू, स इसी, स मुणी, स संजए स एव भिक्खू जो सुद्धचरति बंभचेरं । . -प्रश्नव्याकरण सूत्र । 'ब्रह्मचर्य के शुद्धाचरण से ही, उत्तम ब्राह्मण, उत्तम श्रमण, और उत्तम साधु होता है । शुद्ध ब्रह्मचर्य को पालने वाला ही ऋषि, मुनि, संयमी और भिक्षु है ।' १- ब्रह्मचर्य-व्रत की रक्षा के दो प्रधान उपाय शास्त्रों में, ब्रह्मचर्य-व्रत की रक्षा के प्रधानतः दो उपाय बताये गये हैं । एक क्रिया-मार्ग और दूसरा ज्ञानमार्ग । क्रिया मार्ग ब्रह्मचर्य के विरोधी संस्कारों को रोकता है और इस प्रकार ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा करता है । लेकिन इस मार्ग से अब्रह्मचर्य के संस्कार निर्मूल नहीं होते । ज्ञानमार्ग अब्रह्मचर्य के संस्कारों को निर्मूल कर देता है। फिर ब्रह्मचारो को, ब्रह्मचर्य-पूर्ण जीवन स्वाभाविक एवं सरल Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) और अब्रह्मचर्यपूर्ण जीवन अस्वाभाविक एवं कठिन प्रतीत होता है । ज्ञान-मार्ग द्वारा प्राप्त रक्षण, स्वरूप-चिन्तन या प्रात्मविवेक से उत्पन्न हुआ होता है, इसलिये ऐकान्तिक और प्रात्यन्तिक है; कभी नष्ट नहीं होता । लेकिन क्रिया-मार्ग द्वारा प्राप्त रक्षण, ऐकान्तिक या आत्यन्तिक नहीं है । क्रिया में किंचित् भी ढिलाई होने से, अब्रह्मचर्य के सूक्ष्म संस्कारों का उग्ररूप होना सम्भव है । यद्यपि इन दोनों उपायों में से उत्तम उपाय ज्ञान-मर्ग है, फिर भी जिस ब्रह्मचारी ने ज्ञानमार्ग को पूरी तरह अपना लिया है, उसको क्रिया-मार्ग की उपेक्षा करना, कदापि उचित नहीं है क्योंकि क्रिया-मार्ग को त्याग देने से व्यवहार में भी धोखा हो सकता है। ब्रह्मचारी-अब्रह्मचारी की पहचान भी नहीं रहती और क्रियाशून्य ज्ञान, पूर्णतया लाभप्रद भी नहीं है । २-क्रिया-मार्ग से ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा । क्रिया-मार्ग में बाह्य नियमों का समावेश है । क्रियामार्ग द्वारा, ब्रह्मचर्य-व्रत की रक्षा के लिये, प्रश्नव्याकरण सूत्र में पांच भावनाएं बताई गई हैं, जो इस प्रकार हैं :१-केवल स्त्रियों से सम्बन्ध रखने वाली कथाओं को, स्त्रियों के सन्मुख या अन्यत्र न कहे । २-स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियां न देखे । ३ - स्त्रियों के रूप को न देखे । ४-काम-भोग बढ़ाने वाली वस्तुओं को न देखे, न कहे, न स्मरण करे । ५-कामोत्तेजक पदार्थ न खावे-पीवे । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) इस प्रकार ब्रह्मचर्य-व्रत की रक्षा के लिये भगवान् ने उत्तराध्ययन सूत्र में दस समाधिस्थान बताये हैं, जो संक्षेप में इस प्रकार है :१–वैक्रिय और औदारिक शरीर-धारिणी स्त्री, पशु और नपुंसक के संसर्ग वाले प्रासन और निवास-स्थान आदि का उपयोग नहीं करना अर्थात् संसर्ग-रहित स्थान में रहना । २-अकेली स्त्री से बात-चीत न करना, न अकेली स्त्री को कथावार्ता, व्याख्यान आदि सुनाना और न स्त्री-कथा करना । ३-स्त्रियों के साथ एक ग्रासन पर न बैठना और जिस आसन पर स्त्री बैठी हो, उस आसन पर स्त्री के उठने से दो घड़ी पश्चात् तक न बैठना । ४- स्त्रियों के मनोहर अांख, नाक आदि का तथा दूसरे अंगोपांगों का अवलोकन न करना, न उनका चिन्तन ही करना । ५-स्त्रियों के रति -प्रसंग के मोहक-शब्द, रति-कलह के शब्द, गीत की ध्वनि, हंसी की किलकिलाहट, क्रीडा के शब्द और विरह-रुदन को पर्दे के पीछे से या दीवार की आड़ से भी न सुनना । ६-पूर्व में अनुभव की हुई, आचरण की हुई या सुनी हुई रति-क्रीड़ा, काम-क्रीड़ा आदि का स्मरण भी न करना। ७-पौष्टिक खाद्य एवं पेय पदार्थों का उपयोग न करना । ८-सादा भोजन आदि भी प्रमाण से अधिक न खाना-पीना। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५) ६ - शृगार-स्नान, विलेपन, धूप, माला, विभूषा और केश . रचना आदि न करना । १०-कामोत्तेजक शब्द रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से बचना । सर्वविरति ब्रह्मचारी को ऊपर कही हई भावनाओं एवं समाधि-स्थानों के नियमों का पालन करना नितान्त आवश्यक है । ऐसा न करने से, सर्वविरति ब्रह्मचर्य व्रत में अतिचार लगता है और अतिचार लगने से व्रत दूषित हो जाता है । यहां प्रश्न होता है कि आंखों के सामने आये हए रूप को या कान में पड़े हुये शब्द को देखने-सुनने से किस प्रकार बचा जा सकता है ? क्या आंख-कान आदि को बन्द रखना चाहिए ? इसका उत्तर यह है कि सामने आये हए रूप को न देखना या कान में पड़े हुए शब्दों को न सुनना, यह वास्तव में अशक्य है। इसके लिए आंख-कान प्रादि बंद रखने की जरूरत नहीं है। किन्तु ऐसे समय में ब्रह्मचारी को, अपने में राग-द्वप न होने देना चाहिए और वस्तुस्वरूप चिन्तन करना चाहिए । ३-मनःसंयम सर्वविरति ब्रह्मचर्य-व्रत का पूर्णतया पालन तभी माना जाता है जब शरीर के साथ ही मन और वचन पर संयम रक्खा जावे । केवल शरीर से अब्रह्मचर्य का सेवन न करना, सर्वविरति ब्रह्मचर्य नहीं है, किन्तु मन वचन और काय इन तीनों से अब्रह्मचर्य का सेवन न करना चाहिए बल्कि, शरीर की अपेक्षा मन पर अधिक संयम रखने की आवश्यकता है । क्योंकि : Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः । मन ही मनुष्य के लिये पाप-बंध या मोक्ष का कारण है । बन्धाय विषयासक्तं मुक्तौ निर्विषयं मनः । 'विषयासक्त मन पाप - बन्ध का कारण है और विशुद्ध मन मोक्ष का कारण है ।' इन्द्रियां दुर्विषयों में मन को साथ लेकर ही प्रवृत्त होती हैं । यदि मन, इन्द्रियों का साथ न दे तो इन्द्रियां दुविषयों में प्रवृत्त नहीं हो सकतीं । कदाचित् इन्द्रियों को दुर्विषय में प्रवृत्त न होने दे, तब भी यदि कोई मन से दुर्वि - षयों का चिन्तन करता है तो वह अब्रह्मचर्य का पाप उसी प्रकार बांधता है जिस प्रकार, ( शास्त्र की कथा के अनुसार ) तंदुलमच्छ, प्रकट में हिंसा न करके भी हिंसा का पाप बांधता है । गीता में कहा है --- कर्मेन्द्रियाणि संयम्य, य श्रास्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा, मिथ्याचारः स उच्यते ॥ ( अध्याय ३ ) 'कर्मेन्द्रियों को रोक कर, मन से विषयों का चिन्तन करने वाला मूढात्मा, मिथ्याचारी ( पाखण्डी ) कहलाता है ।' आत्मा के विनाश का कारण बताते हुए, गीता में कहा है : Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) ध्वायतो विषयान् पुंसः, सङ्गस्तेषूजायते । संगात्सयायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ क्रोधाद्भवति संमोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। ( अध्याय २ ) 'विषयों का ध्यान करते रहने पर, विषयों से स्नेह हो जाता है और फिर उनके पाने की इच्छा - काम की उत्पत्ति होती है। इस काम से ही क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोध से अज्ञान उत्पन्न होता है, अज्ञान से स्मृति नष्ट होती है, स्मृति नष्ट होने से बुद्धि भ्रष्ट होती है और बुद्धि भ्रष्ट होने पर सत्यानाश हो जाता है ।' इस प्रकार, आत्मा के पतन का कारण, मन में विषयों का ध्यान करना - विषयों का चिन्तन करना ही ठहरता है । इसलिए ब्रह्मचारी को, मन पर संयम रखने की आवश्यकता है । मन को किसी भी समय कार्य से खाली रखना, ब्रह्मचर्य व्रत को जोखिम में डालना है । मन को जब भी कोई कार्य न होगा, वह तभी बुरे विचार करने लगेगा । बुरे विचार ही पाप के कारण हैं । संसार में कहावत है कि 'वश में किये हुए भूत को जब कोई काम नहीं बताया जाता वह भूत, उस वश करने वाले के रक्त-मांस को ही खा जाता है ।' ठीक इसी प्रकार, जब मन को कोई काम नहीं रहता तब वह हृदय के सद्विचारों का, मनुष्यों के गुणों का भक्षण Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८) करने लगता है । इसलिए मन को प्रत्येक समय में किसी न किसी सत्कार्य में लगाये रखना उचित है । ५- भोजन-संयम । ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये, अधिक भोजन करना वज्यं है । जीवन के लिए जितना भोजन आवश्यक है उससे किंचित् भी अधिक भोजन ब्रह्मचारी को न करना चाहिए। अधिक भोजन से इन्द्रियों में विकार उत्पन्न होता है, जो ब्रह्मचर्य नाशक है । ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए थोड़ा भोजन ही अच्छा है । विद्वानों का कथन है कि 'स्वल्पाहारः सुखा. वहः' अर्थात् थोड़ा भोजन सुखप्रद है। इस कथन का उल्टा यह हुआ कि अधिक भोजन दुःखप्रद है । अधिक भोजन केवल ब्रह्मचर्य के लिए नहीं, किन्तु प्रत्येक दृष्टि से हानि-प्रद ही है.। चाणक्य-नीति में कहा है : अनारोग्यमनायुष्यमस्वयं चाति भोजनम् । अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तत्परिवर्जयेत् ॥ अति भोजन से अस्वस्थता बढ़ती है, आयुर्बल क्षीण होता है, अनेक रोग पैदा होते हैं, पाप-कर्म में प्रवृत्ति होती है और लोगों में निन्दा होती है । इसलिए अधिक भोजन करना वर्जित है। __ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपाय बताते हुए प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा है : नो पाणभोयरणस्य प्रइमायाए प्राहारइत्ता । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९) 'ब्रह्मचारी प्रमाण से अधिक भोजन पानी न खावेपिये ।' ब्रह्मचारी को अधिक भोजन कदापि न करना चाहिए। इसी प्रकार वह भोजन भी न करना चाहिए जो गरिष्ठ, कामोत्तेजक शक्तिवर्द्धक और खट्टा, मीठा, चरपरा आदि स्वाद विशेष लिए हये हो । ब्रह्मचारी हल्का, थोड़ा, नीरस और रूखा भोजन ही करता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में, ब्रह्मचर्य की जो नौ गुप्तियां बताई गई हैं, उनमें से एक गुप्ति सरस भोजन न करने की ही है और वह इस प्रकार है'नो पणीयरसभोई' अर्थात् ब्रह्मचारी रसप्रणीत भोजन न करे । पुस्तकों के अनुसार बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा था कि 'एक बार हल्का पाहार करने वाला महात्मा है, दो बार सम्हल कर यानि थोड़ा २ आहार करने वाला बुद्धिमान और भाग्यवान है और इससे अधिक खाने वाला महा-मुर्ख, अभागा और पशु का भी पशु है ।' - ब्रह्मचारी को ऐसे पदार्थों का भी सेवन नहीं करना चाहिये जो मादक हों । मादक-द्रव्यों से बुद्धि नष्ट होती है और बुद्धि नष्ट होने पर समस्त दुष्कर्मों का होना सम्भव है। जैसे–चाय, गांजा, भङ्ग, अफीम, शराब, तम्बाखू, बीड़ी सिगरेट, चुरुट आदि नशा करने वाले समस्त पदार्थों की गणना मादक पदार्थों या मद में है । वैद्यक-ग्रन्थों में कहा है: बुद्धि लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारि तदुच्यते । जिन पदार्थों से बुद्धि नष्ट होती है, वे सब मादक Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७०) पदार्थ हैं । इसलिए ब्रह्मचारी को ऐसे पदार्थों के सेवन से भी हमेशा बचते रहना चाहिए । ६-अभृगार ब्रह्मचारी को शृंगार करना मना है । शृगार में स्नान, दन्तधावन, तेल-फूलेल का लगाना, अच्छे कपड़े और आभूषणादि पहनना है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा है कि: _ 'ब्रह्मचारी, स्नान और दन्त-धावन न करे । यदि पसीना हो, तब भी मैल मिश्रित पसीने से युक्त शरीर रखे, मौन रहे, निरर्थक बात-चीत न करे, केशों का लुचन करे, तथा और भी जो कष्ट हों, उन्हें क्षमा-सहित सहन करे, लाघवता धारण करे, गर्मी-सर्दी सहन करे, भूमि अथवा काष्ठ शैया पर शयन करे, भिक्षा के लिये गृहस्थों के घर में प्रवेश करने पर आहार प्राप्त हो या न हो, सम्मान हो अथवा अपमान हो, निन्दा हो या प्रशंसा हो, सभी अवस्थानों में समभाव रक्खे, मच्छर डांस आदि द्वारा प्राप्त हुए कष्टों को सहन करे, नियम, सद्गुण और विनय का आचरण करे । ऐसा करने से ब्रह्मचर्य स्थिर रहता है । इस प्रकार ब्रह्मचारी को अन्य नियमों के साथ ही स्नान दन्त-धावन आदि शृगार न करने का नियम भी बताया गया है । अन्य ग्रन्थकारों ने भी ब्रह्मचारी के लिये ऐसे ही नियम बताये हैं । जैसे : मलस्नानं सुगन्धाद्यः स्नानं दन्तविशोधनम् । न कुर्याद् ब्रह्मचारी च तपस्वी विधवा तथा ॥ –विद्यासंहिता शिवपुराण Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) मल से शुद्धि पाने के लिये या सुगन्धित द्रव्य का सेवन करके स्नान करना दातून मंजन आदि करना, ब्रह्मचारी तपस्वी और विधवा को उचित नहीं है । सुखशय्या नवं वस्त्रं, ताम्बूलं स्नानमंडनम् । दन्तकाष्ठं सुगन्धं च ब्रह्मचर्यस्य दूषणम् ॥१॥ - महाभारत शान्ति पर्व 'कोमल सुख शय्या, नवीन चमकीले भड़कीले वस्त्र. ताम्बूल, स्नान, सुश्रूषा, दांतुन और सुगन्ध का सेवन ये सब ब्रह्मचर्य के लिये दूषण हैं, इनके सेवन से ब्रह्मचर्यं दूषित हो जाता है ।' वज्र्जयेन्मधुमांसगन्धमाल्यदिवास्वप्नांजनाभ्यंजनयानोपानृच्छत्र कामक्रोध लोभमोहवाद्यवादनस्नानदन्तधावनहर्षनृत्यगीतपरिवादभयानि । - गौतम स्मृति | ब्रह्मचारी, मधु, मांस, गन्ध, फूलमाला, दिन में शयन, अंजन उबटन, सवारी, जूता, छाता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, बाजा बजाना, स्नान, दातुन, प्रसन्नता, नाच, गाना, निन्दा और भय को त्याग दे । यही बात मनुस्मृति में कही गई है । उत्तराध्ययन सूत्र में ब्रह्मचारी के लिए विशेष रूप से कहा गया है कि : Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) विभूसं परिवज्जिजा सरीरपरिमण्डनं । बंभचेरर भिक्खु सिंगारत्थं न धारए । - उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय १६ व ब्रह्मचर्य में रत साधु, शरीरमण्डन अर्थात् शरीर, नख, केश आदि का संस्कार करना और श्रृंगार-वस्त्रादि से शरीर को शोभित करना सर्वथा त्याग दे । ७- निवास ब्रह्मचारी ऐसे स्थान का सेवन कदापि न करे जहां स्त्रियों का निवास या श्रागमन हो । प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों में से एक गुप्ति इसी विषय में है, जो इस प्रकार है नो इत्थोपसुपंडगसंसत्ताणि सिंज्जासणाणि सेवित्ता भवइ । जिस स्थान पर स्त्री, पशु या नपुंसक रह्ते हों, उस स्थान पर, ब्रह्मचारी निवास न करे । स्त्री के साथ एकान्त में निवास करना भी ब्रह्मचर्य के लिये घातक है । एकान्त में रहने से कुभावनाओं के जन्म और ब्रह्मचर्य के खण्डित होने का भय रहता है | चाहे कोई कितना ही दृढ़-प्रतिज्ञ क्यों न हो, एकान्तवास ब्रह्मचर्य का घातक ही है । ८-- अध्ययन ब्रह्मचारी को ऐसी पुस्तकें भी कदापि न पढ़नी Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) चाहिए, जिनसे काम - विकार की जागृति हो; मन या इन्द्रियां दुविषयों की ओर दौड़ अथवा उनकी इच्छा करें । इस प्रकार अध्ययन भी ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा से भ्रष्ट कर देता है । ब्रह्मचारी के लिए विशेषतः धर्म-ग्रन्थों का ब्रह्मचारियों की कथाओं का और संसार की ओर से वैराग्य उत्पन्न करने वाली, संसार की नश्वरता बतलाने वाली तथा संसार एवं दुर्विषयों से घृणा उत्पन्न करने वाली पुस्तकों का अध्ययन ही लाभप्रद है । ऐसे अध्ययन से ब्रह्मचर्य की रक्षा में बहुत सहायता मिलती है । - संग ब्रह्मचारी, कामी या व्यभिचारी का संग कदापि न करे । ऐसे लोगों की संगति से, कभी न कभी ब्रह्मचर्य का नष्ट होना सम्भव है । संगति का प्रभाव पड़ता ही है । विद्वानों का कथन है : कामिनां कामिनीनाञ्च संगात्कामी भवेत्पुमान् । कामी पुरुष और भोगवती - स्त्री के साथ रहने वाला पुरुष कामी बन जाता है । इसलिये ब्रह्मचारी को ऐसी संगति से सदैव बचते रहना चाहिये; जिससे कामोत्पत्ति और ब्रह्मचर्य नष्ट होने का भय रहता है । १० - स्त्रीपरिचय ब्रह्मचारी को, स्त्रियों का परिचय न बढ़ाने देना चाहिये, न अपने पास अधिक समय तक बैठा कर वार्तालाप 1 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) ही करना चाहिये । प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य की नौ गुप्त बताते हुए कहा है -: नो इत्थीरगं सेवित्ता भवइ, न इत्थोरगं इन्दियाणि मणोहराई रम्मई आलोइत्ता निभाइत्ता भवइ । ब्रह्मचारी स्त्री - सेवन न करे, स्त्रियों के मनोहर और रमणीय अंगों का अवलोकन न करे, न प्रशंसा ही करे । स्त्रियों के देखने से भी ब्रह्मचारी के लिए बड़े-बड़े अनर्थ सम्भव हैं । शास्त्र में यह बात नहीं मिलती कि मणिरथ पहले से ही दुराचारी था। मदनरेखा पर भी उसकी कुदृष्टि उसको देखने से पूर्व न थी, किन्तु उसने जब से मरेहा को देखा, तभी से उसकी कुदृष्टि हुई । उस देखने मात्र से होने वाली कुदृष्टि का परिणाम यह हुआ कि उसने मदनरेखा के लिये अपने छोटे भाई को जिसको उसने प्राग्रहपूर्वक युवराज बनाया था - मार डाला और अन्त में स्वयं को भी मरना पड़ा । इसलिये ब्रह्मचारी को न तो स्त्रियों को देखना ही चाहिए और न उनसे परिचय ही बढ़ाना चाहिए । अन्य ग्रन्थकारों ने भी ब्रह्मचारी को स्त्रियों के साथ परिचय बढ़ाने से रोका है । जैसे : श्रविद्वांसमलं लोके विद्वासमपि वा पुनः । प्रमादात्पथं नेतुं कामक्रोधः वशानुगम् ॥ १॥ मात्रा स्वत्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ २ ॥ मनुस्मृति अ० २ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) 'मैं विद्वान् या जितेन्द्रिय हूँ, ऐसा समझकर स्त्रियों के समीप न बैठना चाहिये, क्योंकि चाहे विद्वान् हो या मूर्ख, देह धर्म से, काम-क्रोध के वशीभूत शरीर को स्त्रियां कुमार्ग पर ले जाने में समर्थ हैं । इसीलिए चाहे माता हो, बहन हो या पुत्री हो, इनके साथ भी एकान्त स्थान में न बैठें, क्योंकि इन्द्रियों का बलवान् समूह नीति - रीति से चलने वाले पुरुष को भी अपने पथ से विचलित कर देता है ।' ब्रह्मचारी को स्त्रियों से परिचय न करने का उपदेश देते हुए शास्त्र में कहा है : । हत्थपायपलिच्छिन्न कन्ननासविगपि श्रवि वासस्यं नारि बंभयारी विवज्जए । - दशवैकालिक सूत्र अ० ८ वां 'जिसके हाथ-पांव टूटे हों, नाक-कान भी कटे हुए हों और अवस्था में भी सौ वर्ष की हो, ऐसी स्त्री के साथ भी ब्रह्मचारी परिचय न करे, न उसके साथ एकान्त में रहे ।' ऐसी स्त्री भी, पुरुष के हृदय को और पुरुष भी स्त्री के हृदय को, विचलित करने में समर्थ हो सकता है; अच्छी स्त्री और अच्छे पुरुष की तो बात ही दूसरी है । ब्रह्मचारी को स्त्रियों के परिचय से बचना ही श्रेयस्कर है । पूज्य श्री उदयसागरजी महाराज भी कहा करते थे गढ़ के पासे डूंगरी, कदियक गढ़ को भंग । साधू पासे अस्तरी, यो ही बड़ो कुसंग ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) यो हो बड़ो कुसंग भंग तो शील में होसी । बैठ नारि के पास मूल की पूंजी खोसी ॥ शीलादिक आचार के पालन से मन भागा। नाथ कहे रे बालका ये जोग को रोग लागा। ११-मातृ, पुत्री और भगिनी भाव सर्वविरति ब्रह्मचर्य-व्रत के आराधक को स्त्रियों के प्रति मात, पुत्री और भगिनी भाव रखना बहुत ही हितकारी है । धर्म से किंचित् भी प्रेम करने वाले के हृदय में मां, बहन और लड़की के लिए कोई विकार-भावना नहीं होती । हां, जिन्होंने मनुष्यता को हो तिलांजलि दे दी है, जिनमें से मनुष्यत्व ही निकल गया है, उनकी तो बात ही अलग है । ऐसे लोग मां, बेटी और बहिन तो क्या, पशुओं से भी दुष्कर्म करने से नहीं चूकते । मात, पुत्री और भगिनी भाव, ब्रह्मचर्य की रक्षा का एक सर्वोत्कृष्ट साधन है। जो स्त्रियां आयु में बड़ी हैं, उनके प्रति मातृ-भाव, जो समान हैं उनके प्रति भगिनी-भाव और जो छोटी हैं, उनके प्रति पुत्री--भाव रखने से हृदय में विकार उत्पन्न नहीं होता । मातृ, पुत्री और भगिनी भाव का क्या माहात्म्य है, इसके लिये एक दृष्टान्त दिया जाता है । एक लखारा अपनी गधी पर, चूड़ियां लादे हुए चला जा रहा था । गधी धीरे धीरे चलती थी, इसलिये लखारा उसे हांकते हुए कहता जाता था,-मां चल !' 'बहन चल !' 'बेटी चल !' लखारे के इस कथन को सुन कर, मार्ग चलने Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७) वाले लोग उससे कहने लगे कि-तू कैसा मूर्ख है ! गधी को भी मां, बहन और बेटी कोई कहता है ? कहीं गधी भी मां, बहन या बेटी हो सकती है ? लोगों की बात सुनकर, लखारा कहने लगा-भाई, यद्यपि गधी होने के कारण यह मेरी मां, बहन या बेटी नहीं हो सकती, लेकिन स्त्री जाति के प्रति मां, बहन और बेटी की भावना को जन्म देने वाली तो हो सकती है न ? यदि मैं इस गधी को मात, पुत्री और भगिनी भाव से न देखूगा, तो स्त्रियों के प्रति ऐसी भावना कब रख सकूगा ? मैं लखारा हैं। स्त्रियों को चूड़ियां पहनाना मेरा काम है, इसलिये बड़े-बड़े घरों में मेरा प्रवेश है। नित्य ही, सुन्दर-सुन्दर स्त्रियों के कोमल-कोमल हाथ, चूड़ियां पहनाने के लिये, मेरे हाथों में पाया करते हैं। यदि मैं उनके प्रति मातृ, पुत्री और भगिनी भाव न रखू-किसी प्रकार की कूभावना रखू ---- तो मैं लोगों में से अपना विश्वास भी खो दू तथा व्यवसाय से भी हाथ धो बैलूं। मैं इस गधी को भी मां, बहन और बेटी के समान मान सकता है। लखारे की बात सुन कर सबको चुप हो जाना पड़ा । तात्पर्य यह है कि सब स्त्रियों के प्रति मात, भगिनी और पुत्री भाव रखने से स्त्रियों के प्रति, कुभावनाएं उत्पन्न ही नहीं होती । इस प्रकार ब्रह्मचर्य-व्रत की रक्षा होती है । १२-उपवास .. वीर्य एक ऐसी वस्तु है, जिसे बिना उपाय के शरीर में रोक रखना- पचा जाना—बहुत कठिन कार्य है । ऐसा करने के लिये उपायों की आवश्यकता है। इस प्रकार के Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) उपायों में से एक उपाय, उपवास या तपस्या भी है । जैन शास्त्रों में तप का प्रतिपादन इसलिये भी विशेष रूप है। किया गया है कि उससे ब्रह्मचर्यव्रत सुरक्षित रहता है और ब्रह्मचर्य के बाधक दोष नष्ट हो जाते हैं । श्रीउत्तराध्ययन सूत्र में आहार - त्याग करने के छः कारणों में से एक कारण यह बतलाया है कि ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये आहार छोड़ दे । इस बात का समर्थन अन्य ग्रन्थकार भी करते हैं । जैसे श्राहारान् पचति शिखी दोषान् श्राहारवजितः । श्रायुर्वेद आहार को अग्नि पचाती है और दोषों को उपवास पचाते हैं । १३- ध्यान ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये ध्यान की भी आवश्यकता है । ध्यान ब्रह्मचर्य की रक्षा का प्रधान साधन है । ब्रह्मचर्यं का वर्णन करते हुए, प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा है झाणबरकवाडसुकयमज्झप्पदिण्णफलिहं । -: ध्यान, ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा करने वाला कपाट है । मनुस्मृति में कहा है -: दह्यन्ते ध्यायमानानां धातूनां हि यथा मलाः । तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषा प्राणस्य निग्रहात् । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६) जिस प्रकार अग्नि में डालकर तपाने से धातुओं का मल भस्म हो जाता है, उसी प्रकार प्राणायाम करने से इन्द्रियों के सब दोष भस्म हो जाते हैं । १४-नियमितता। ब्रह्मचारी का जीवन अनियमित नहीं होना चाहिए। अनियमित जीवन, प्रत्येक दृष्टि से हानिप्रद है । उसके प्रत्येक कार्य, नियमित रूप से ठीक समय पर हों । कोई समय, व्यर्थ या खाली न जावे। न कोई कार्य, असमय पर ही हो । अनियमितता से बचे रहने पर ही ब्रह्मचारी स्थिर रहता है। १५-ईश्वर-प्रार्थना । ब्रह्मचारी के लिये सबसे बड़ा नियम ईश्वर-प्रार्थना है । नियमित रूप से प्रातः सायं ईश्वर की प्रार्थना ब्रह्मचर्य की रक्षा का एक अच्छा साधन है। ईश्वर-प्रार्थनादि नियमों का पालन करने से ब्रह्मचर्य के साथ ही दूसरे कार्यों की सफलता में भी सहायता मिलती है। - इन नियमों के सिवा और भी बहुत से छोटे-छोटे नियम ऐसे हैं जिनका पालन करने पर ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है और पालन न करने पर ब्रह्मचर्य दूषित हो जाता है । जैसे कि ब्रह्मचारी को प्रौढ़ना-बिछौना नरम न रखना, कड़ा रखना, मूलायम या चटक-मटक वाले वस्त्र न पहनना, स्त्रियों के चित्र न देखना और न रखना आदि । इस प्रकार के समस्त नियमों का पालन करने वाला ही अपने व्रत को निर्दोष-रूप में पाल सकता है। Kok Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रियां और ब्रह्मचर्य किन्नाप्नोति रमारूपा ब्रह्मचर्यतपस्विनी । 'उस लक्ष्मी - रूपी स्त्री के लिए कुछ भी कठिन नहीं है, जो ब्रह्मचर्य - तप की तपस्विनी है ।' कुछ लोगों का कथन है कि स्त्रियों को पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं पालना चाहिए; लेकिन जैन - शास्त्र इस कथन का समर्थक नहीं, अपितु विरोधी है । जैन शास्त्रों में ब्रह्मचर्य का जैसा उपदेश पुरुषों के लिये है, वैसा ही उपदेश स्त्रियों के लिये भी है । जैन - शास्त्रों का यह उपदेश आदर्श रहित नहीं किन्तु आदर्श सहित है । भगवान् ऋषभदेव की ब्राह्मी और सुन्दरी नाम्नी कन्याओं ने कर्म-भूमि के प्रारम्भिक युग में ही पूर्ण ब्रह्मचारिणी रहकर स्त्रियों के लिये ब्रह्मचर्य पालन करने का आदर्श रख दिया था । उन्नीसवें तीर्थङ्कर भगवान् मल्लिनाथ स्त्री ही थे । स्त्री होते हुए भी उन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया था और तीर्थङ्कर पद प्राप्त किया था । इसी प्रकार राजिमती, चन्दनबाला आदि सतियों ने भी अखन्ड ब्रह्मचर्य पालन किया है । सारांश यह कि Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) 'स्त्रियां ब्रह्मचर्य न पालें, ब्रह्मचारिणी न हों' यह बात, जैनशास्त्रों से विरुद्ध है । जैन - शास्त्र इस विषय में स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकारी बताते हैं । आयु, देश काल आदि किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं लगाते । वे कहते हैं कि चाहे स्त्री हो या पुरुष, ब्रह्मचर्य का पालन जो भी करे इससे होने वाले लाभ को वही प्राप्त कर सकता है । पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां ब्रह्मचर्य का पालन भी अधिक सुचारु रूप से कर सकती हैं । जैन- शास्त्रों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिनमें स्त्रियों ने ब्रह्मचर्यं से पतित होते हुए पुरुषों को ब्रह्मचर्य पर स्थिर किया । जैसे कि सती राजमती ने रथनेमि को और कोशा नाम्नी श्राविका ने स्थूलभद्रजी के एक गुरु-भाई को ब्रह्मचर्य से पतित होने से बचाया था । तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्यं पुरुषों ही के लिये नहीं है किन्तु स्त्रियों के लिये भी वैसा ही आवश्यक है । स्त्रियां भी पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर सकती हैं । • सर्वविरति ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना के लिये स्त्रियों को भी उन नियमों का पालन करना आवश्यक है, जो पुरुषों के लिए पिछले प्रकरण में बताये गये हैं । हां, यह अन्तर अवश्य होगा कि जहां ब्रह्मचारी के लिये स्त्रियों का साथ और उनकी प्रशंसा आदि वर्ण्य हैं, वहां ब्रह्मचारिणी को पुरुषों का साथ, उनकी कथा आदि सर्व वर्ज्य समझना Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२) चाहिए और जहां ब्रह्मचारी को स्त्रियों से बचने का नियम बताया गया है, वहां ब्रह्मचारिणी को पुरुषों से भी बचने का नियम समझना चाहिए । शेष सब नियम स्त्रियों के लिए भी वैसे ही हैं, जैसे पुरुषों के लिए हैं और जो बताये जा चुके हैं । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह। तृषा शुष्यत्यास्यं पिबति सलिलं स्वादु सुरभि, भुधार्तः सन् शालीन् कवलयति शाकादि वलितान् । प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढतरमाश्लिष्यति वधूम, प्रतीकारो ब्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ॥ -वैराग्यशतक 'जब मनुष्य का कण्ठ प्यास से सूखने लगता है तब वह शीतल, सुगन्धित और निर्मल जल पीकर तृषा के दुःख से मुक्त होता है । जब भूख सताती है तब शाकादि के साथ भोजन करके क्षधा का कष्ट मिटाता है । जब कामाग्नि प्रचण्ड होती है, तब सुन्दर-स्त्री को हृदय से लगाता है । इस प्रकार जल, भोजन और स्त्री एक-एक रोग की दवा है लेकिन लोगों ने उल्टा ही मान रखा है अर्थात् लोग इन दवाओं में भी सुख मानते हैं।' १-मनुष्य-जन्म उत्तम क्यों है ? मनुष्य-शरीर सब शरीरों से उत्तम क्यों माना जाता है, इस विषय में कहा है : Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (858) श्राहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणां धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण होना पशुभिःसमाना 'आहार, निद्रा, भय और मैथुन की दृष्टि से तो मनुष्य और पशु समान ही हैं, लेकिन मनुष्य में धर्म है, इसी से वह पशु की अपेक्षा बड़ा है । धर्महीन मनुष्य पशु के समान है ।' मनुष्य में धर्म है, इसलिए वह सब प्राणियों में उत्तम माना जाता है । लेकिन श्राहारादि में ही धर्म नहीं है । यदि आहारादि में ही धर्म होता है तो उक्त श्लोक में धर्म को श्राहारादि से भिन्न न बताया जाता । इस श्लोक में धर्म hat आहारादि से भिन्न बतलाया गया है; इसलिये यह देखना है कि धर्म क्या है, जिसके होने पर मनुष्य सब प्राणियों में उत्तम माना जाता है । इस लोक और परलोक में जिसके द्वारा उन्नति हो, उसी का नाम धर्म है । भगवान् महावीर ने धर्म के सूत्रधर्म और चारित्र-धर्म ये दो भेद बताये हैं । इनका विवेचन यहां आवश्यक नहीं है । यहां तो केवल यह बताना है कि भगवान् ने चारित्र-धर्म की आराधना के लिये जो पांच व्रत बताये हैं, उनमें से चौथा व्रत ब्रह्मचर्य है अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करना धर्म है । इसका पालन करने पर ही मनुय सब प्राणियों में उत्तम हो सकता है । भोग भोगने या श्रब्रह्मचर्य का सेवन करने के कारण मनुष्य सब प्राणियों में उत्तम नहीं कहला सकता । आत्मा जब निगोद में पड़ा था, तब इसे यह भी Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) मालूम नहीं था कि मैं जीव है । पुण्य के बढ़ने से यही आत्मा निगोद से निकल कर अनेक योनियों को भोगता हुआ, अनेक प्रकार के कष्ट सहता हुआ, इस मनुष्य-जन्म को प्राप्त कर सका है। प्रात्मा ने पूर्व भोगी हुई अनेक योनियों में दुर्विषय भोग को ही इष्ट मान रखा था, इसलिए इसने उन्हें खूब भोगा, लेकिन न तो इसे उन भोगों की ओर से तृप्ति ही हुई. न बार-बार के जन्म-मरण से मुक्ति ही हुई। उस समय तो इसको ऐसा ज्ञान न था-इसकी बुद्धि विकसित न थी; यह धर्म को जानता ही न था । लेकिन यदि मनुष्य-जन्म पाकर भी, यह पशु-योनि में भोगे जाने वाले भोगों को ही भोगे, उन्हीं में सुख माने, जन्म-मरण से मुक्त होने का उपाय न करे तो इससे अधिक भूल, अज्ञानता या मूर्खता और क्या होगी ? जो भोग पशु-शरीर में भी भोगे जा सकते हैं, उनके भोगने में इस मनष्य-शरीर को नष्ट करना कौनसी बुद्धिमानी है ? केवल चार आने में आ सकने वाली मिठाई के बदले में चिन्तामणि ऐसा रत्न दे देने की मूर्खता के समान क्षणिक, अस्थायी और हर प्रकार से हानि करने वाले दुर्विषय-भोग में, उत्कृष्ट मनुष्य-जन्म खो देने की मूर्खता से अधिक मूर्खता और क्या होगी ? मनुष्य-शरीर दुविषय-भोग के लिये नहीं है; किन्तु उन्हें त्यागने के लिये है । मनुष्य-जन्म प्राप्त होने का वास्तविक लाभ तभी है, जब विषय भोग त्याग कर ब्रह्मचर्य-रूपी तप का अनुष्ठान किया जाय । भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को उपदेश देते हुए कहा था : हे पुत्रो ! देवधारियों का यह शरीर दुःखदायी-विषय भोग के योग्य नहीं है, क्योंकि दुखदायी विषय-भोग तो Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) विष्टा खाने वाले नारकीय जीवों को भी मिल जाता है। अतएव, मैं कहता है कि यह शरीर दिव्य तप करने योग्य है, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और अनन्त ब्रह्मसुख प्राप्त होता है।' २-प्रावश्यक ब्रह्मचर्य । यद्यपि मनुष्य-जन्म की सफलता और पूर्णतया-धर्माचरण तो सर्वविरति ब्रहमचर्य के पालन में ही है, लेकिन सर्वविरति ब्रह मचर्य, जिसे चतुर्थ महाव्रत कहा गया है, वह तो गृह संसार का त्यागी ही स्वीकार कर सकता है। गृहसंसार में रहते हए, ऐसा न कर सकने वाले पुरुष स्त्री को कम से कम क्रमशः २५ और १६ वर्ष की अवस्था तक तो अखण्ड ब्रह्मचर्य पालना चाहिये । इस अवस्था तक अखण्ड ब्रह्मचर्य न पालना अपने आपको अवनति, रोग एवं मृत्यु के मुख में धकेलना है । स्मृतिकार कहते हैं :-- चतुर्थमायुषो भागमुषित्वाऽऽधं गुरोःकुले । अविलुप्तबह मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत् ॥ -मनुस्मृति । 'पूर्णायु का चौथा भाग यानि १०० वर्ष में से २५ वर्ष गुरुकुल में रह कर, अविलुप्त रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करे और फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे ।' इस प्रकार, कम से कम २५ और १६ वर्ष की अवेस्था तक तो प्रत्येक स्त्री-पुरुष को अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करना ही चाहिए । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७) ३-विवाह कौन करते हैं ? २५ और १६ वर्ष की अवस्था होने पर ही पुरुष और स्त्री इस बात के निर्णय पर पहुंचते हैं कि हम आयु भर ब्रह्मचर्य पाल सकते हैं या नहीं अर्थात् पूर्ण प्रखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार करने की शक्ति हम में है या नहीं ? जो लोग ऐसा करने में समर्थ होते हैं, वे तो पूर्ण ब्रह्मचर्य की ही आराधना करते हैं-विवाह के झंझटों में नहीं फंसते, जैसे भीष्म पितामह । लेकिन जो लोग संसार में रहते हुए पूर्ण ब्रह्मचर्य पालने में अपने आप को असमर्थ देखते हैं, वे विवाह कर लेते हैं, किन्तु दुराचार में प्रवृत्त नहीं होते । यद्यपि जैन-शास्त्रों में तो पूर्ण ब्रह्मचर्य का ही विधान पाया जाता है, विवाह विषयक विधान नहीं पाया जाता, लेकिन नीतिकारों ने पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत पालने में असमर्थ लोगों के लिए विवाह का विधान और विवाह न करके दुराचार में प्रवृत्त होने का अत्यन्त निषेध किया है। अर्थात् यह कहा गया है कि यदि विवाह नहीं करना है, तो ब्रह्मचर्य पालें, लेकिन दुराचार में प्रवृत्त न हो । जैन शास्त्रों में भी ऐसा विधान कहीं नहीं मिलता कि जो लोग सर्वविरति ब्रह्मचर्य पालने में असमर्थ है, उन्हें, विवाह न करने देकर दुराचार में प्रवृत्त होने दिया जाय । हां, जैन शास्त्रों में दुराचारप्रवृत्ति का निषेध अवश्य है । वे (विवाह न करके-या विवाह करके) पर-स्त्री-गमन करने वाले को तो दुराचारी कहते हैं, लेकिन विवाह करने वाले को दुराचारी नहीं कहते । ___जो लोग नैष्ठिक (यावज्जीवन) ब्रह्मचर्य का पालन करने में समर्थ हैं, दुर्विषयों में इन्द्रिय और मन को प्रवृत्त Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) न होने देने की शक्ति रखते हैं, उनके लिए तो विवाह न करना ही श्रेयस्कर है । लेकिन जो ऐसा करने में असमर्थ हैं और जिन्हें विवाह न करने पर दुराचार में प्रवृत्ति होने का भय है, नीतिज्ञों के समीप, ऐसे लोगों का विवाह करना, दुराचार में प्रवृत्त होने की अपेक्षा बुरा नहीं, किन्तु अच्छा माना जाता है । हां, विवाह को माना जाय दवा के रूप में । पाश्चात्य विद्वान् सन्त फ्रान्सिस कहता है कि 'कामवासना की दवा के रूप में विवाह बड़ी अच्छी वस्तु है, लेकिन वह कड़ी है; इसलिये यदि उसका व्यवहार बहुत सम्भाल कर न किया जावे तो खतरनाक भी है।' इस प्रकरण के प्रारम्भ में जो श्लोक दिया गया है, उसमें भर्तृहरि ने भी यही बात कही है । इस प्रकार विवाह, कामवासना रूपी रोग की दवा के सिवा और किसी सुख का साधन नहीं माना जा सकता और दवा लेने की आवश्यकता उन्हीं लोगों को होती है, जो रोग को और किसी उपाय से नहीं मिटा सकते । अर्थात् विवाह केवल वेही लोग करते हैं, जो कामवासना का विवेक द्वारा दमन करने में असमर्थ हैं । ४-विवाह सब के लिये आवश्यक नहीं है । कामवासना-रूपी रोग को विवेक-रूपी औषधि से दबाया जा सकता है । जिनमें इस औषधि के सद्भाव का अभाव या इसकी कमी है, अथवा पूर्ण विवेकी होते हुये भी पुण्य फलों की निर्जरा करना जिनके लिये आवश्यक है और जो निकाचित बन्ध में पड़े हये हैं, वे ही विवाह करते हैं। एक पाश्चात्य विद्वान का कथन है, कि 'कामवासना इतनी प्रबल नहीं होती कि जिसका विवेक या नैतिक बल से पूर्ण Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) तया दमन न किया जा सके । विषयेच्छा भी नींद और भूख के समान ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसकी तृप्ति अनिवार्य हो ।' तात्पर्य यह कि कामवासना का दमन विवेक द्वारा सद्ज्ञान एवं भावना के बल से किया जा सकता है, इसलिये प्रत्येक के लिये विवाह करना आवश्यक नहीं है । कदाचित् कहा जाय कि 'प्रजोत्पत्ति की दृष्टि से विवाह करना आवश्यक है । यदि सब लोग विवाह न करके ब्रह्मचारी होने लगें तो फिर संसार का ही अन्त हो जाएगा !' ऐसे लोगों को यह उत्तर दिया जाता है कि इस प्रकार की शंका निर्मूल है । अनादि होने के कारण संसार का अन्त नहीं हो सकता, न सभी लोग ब्रह्मचर्य का पालन ही कर सकते हैं । कभी थोड़ी देर के लिये ऐसा मान भी लिया जाय तब भी प्रजोत्पत्ति और संसार की तुम्हें इतनी चिन्ता क्यों ? यदि ब्रहमचर्य का पालन करने से संसार शून्य भी हो जाए तो इसमें किसी की क्या हानि है ? यदि प्रजोत्पत्ति न भी हई या संसार का अन्त भो हो गया, तब भी हर्ज क्या होगा ? तुम्हें तो केवल यह देखना चाहिये कि हमारा उद्धार, विवाह करने-प्रजा या मनुष्य-संसार बढ़ने से होता है, या ब्रहमचर्य पालन करने से ? इस विषय में गांधीजी लिखते हैं-'आदर्श ब्रह मचारी को, कामेच्छा या सन्तानेच्छा से कभी जूझना नहीं पड़ता; ऐसी इच्छा उसे होती ही नहीं ।' महाभारत के अनुसार भीष्म पितामह ने भी यही कहा था कि 'बह मचारी को संसार या संतान की इच्छा नहीं होती, न इनकी उत्पत्ति या वृद्धि के लिए वह अपने ब्रहमचर्य को ही नष्ट कर सकता है । इस प्रकार सब लोगों के लिये विवाह करना आवश्यक नहीं है, किन्तु जो पूर्ण Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९०) ब्रह चर्य का पालन करने में असमर्थ हैं अथवा जिन्हें पुण्यफल की निर्जरा करनी है, वे ही लोग विवाह करते हैं। ५-बह मचर्य न पाल सकने पर अविवाहित रहने से हानि आजकल पाश्चात्य देशों के बहत से स्त्री-पुरुषों में ऐसे विचार फैल रहे हैं कि विवाह करके स्वतन्त्रता खोने, किसी एक के होकर रहने और बालक-बालिका आदि के पालन-पोषण तथा स्त्री आदि के स्थायी व्यय में पड़ने की अपेक्षा यही अच्छा है कि थोड़ी देर के लिये किसी स्त्री या पुरुष से सम्बन्ध कर लिया जाय और कामवासना पूरी करके उसे त्याग दिया जाय । ऐसे लोग सोचते हैं कि 'विषयभोग चाहे स्व-स्त्री तथा स्व-पति से किया जाये, या परस्त्री तथा पर--पुरुष से किया जाय, रज-वीर्य नष्ट होने की दृष्टि से तो दोनों समान ही हैं । बल्कि विवाहित-जीवन में इस दृष्टि से और अधिक हानि है क्योंकि स्व-स्त्री या स्व-पति के साथ तो थोड़ी इच्छा होने पर भी दुर्विषय भोग करते हैं, लेकिन पर-स्त्री या पर-पुरुष के साथ तो दुर्विषय तभी भोगेंगे जब कामेच्छा बहुत प्रबल हो जाएगी और रोकने से न रुक सकेगी।' इस प्रकार की युक्तियों द्वारा पाश्चात्य देशों के बहुत से लोग विवाहित-जीवन की जिम्मेदारियों से बचने के लिए और स्वच्छन्द रहने के लिये ब्रहमचर्य न पाल सकने पर भी अविवाहित रहना अच्छा समझते हैं । भारत के कुछ लोग भी ऐसे ही विचारों के समर्थक हैं और पाश्चात्य लोगों की युक्तियों के साथ ही यह दलील और पेश करते हैं कि स्व-स्त्री तथा स्व-पति के साथ मैथुन करने में भी पाप Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१ ) होता है और पर- स्त्री तथा पर- पति के साथ मैथुन करने में भी पाप होता है । फिर विवाह क्यों किया जाय ? बल्कि विवाह करने से अधिक पाप होता है क्योंकि विवाह समय में भी आरम्भ - समारम्भ होता है तथा विवाह के पश्चात् भी स्त्री को भोजन, वस्त्र आदि देने में और सन्तान के पालनपोषण, विवाह आदि में आरम्भ - समारम्भ होता है । इस तरह आरम्भ समारम्भ का पाप, परम्परा पर ही बढ़ता जाता है । इसलिये पर स्त्री से मैथुन करने की अपेक्षा विवाह करने में अधिक पाप है' इत्यादि कुतर्क पैदा करते हैं । इस प्रकार के विचार वाले लोग, ब्रहमचर्य के महत्त्व से तो अनभिज्ञ हैं ही, लेकिन विवाह के महत्त्व को भी नहीं समझ पाये हैं । वे समझते हैं कि विवाह केवल दुर्विषयभोग के लिए ही है, इससे अधिक विवाह का कोई मूल्य ही नहीं है । अपनी इस समझ पर वे दरदर्शिता से विचार नहीं करते । थोड़ी देर के लिए विवाह केवल विषय-भोग के लिये ही मान लिया जाय, तब भी यदि विवाह प्रथा न होती तो संसार में अशान्ति का साम्राज्य छा जाता । मनुष्य स्वभावतः अपने ऐसे प्रेमी के प्रेम में किसी दूसरे का साझी होना नहीं सह सकता; इसलिए एक ही पुरुष को चाहने वाली अनेक स्त्रियां या एक ही स्त्री को चाहने वाले अनेक पुरुष आपस में लड़लड़ कर मर जाते हैं । आज भी सुना जाता है कि एक वेश्या के पीछे अनेक नर-हत्याएं होती हैं । यदि वही वेश्या किसी एक की होती तो सम्भवत: ऐसी हिंसा का समय न प्राता । इसी प्रकार विवाह - प्रथा न होने पर मनुष्य उस दाम्पत्य- प्रेम से सर्वथा वंचित रह जाता, जो विवाहित पति-पत्नी में हुआ करता है । विवाह की प्रथा Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२) का स्थान यदि नैमित्तिक सम्बन्ध को ही प्राप्त होता तो स्त्री-पुरुष एक दूसरे से उतने ही समय तक प्रेम करते, एकदूसरे की उतने ही समय तक पर्वाह करते, जब तक कि विषय-भोग नहीं भोगा जा चुका है या जब तक वह विषयभोग भोगने के लिये लालायित है। विषय-भोग भोग चुकने पर या इस योग्य न रहने पर, स्त्री-पुरुष एक-दूसरे की उसी प्रकार उपेक्षा करते, जिस प्रकार वेश्या की उसका जार-पति और जार-पति की वेश्या उपेक्षा करती है । विवाह प्रथा न होने पर और मनुष्य के स्वच्छन्द हो जाने पर सहानुभूति, दया और प्रेम का भी सद्भाव न रहता। स्त्री-पुरुष अपने आप को उस समय तक तो सुखी मानते रहते हैं, जब तक कि उनमें विषय-भोग भोगने की शक्ति है लेकिन इस शक्ति के न रहने पर जीवन दुःखमय, सहाराहीन एवं पश्चात्ताप-पूर्ण होता है . क्योंकि संसार में जनन-क्रिया (सन्तान प्रसव) को प्रेम, दया, सहानुभूति, अहिंसा आदि के प्रसार का ही बहुत श्रेय है । विवाह-प्रथा न होने पर सन्तान की जवाबदारी से जिस प्रकार पुरुष बचना चाहते, उसी प्रकार स्त्रियां भी बचना चाहती । परिरणामतः या तो भ्रण हत्या होती या बाल-हत्या होती या सन्तति-निरोध के कृत्रिम उपायों से काम लिया जाता और धीरे-धीरे जनन-क्रिया के साथ ही दया, प्रेम, अहिंसा, सहानुभूति आदि का भी लोप हो जाता और संसार के प्रवाह का भी। विवाह-प्रथा का स्थान, यदि स्त्री-पुरुष की स्वच्छन्दता को प्राप्त हो तो मनुष्यों का सांसारिक-जीवन नीरस एवं निरुद्देश्य हो जाय । उस समय अधिक से अधिक उद्देश्य, अच्छी स्त्री या अच्छे पुरुष से काम-भोग भोगना ही होता Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३) और इस उद्देश्य के साधक कारणों को ही प्रोत्साहन दिया जाता । अहिंसा, सत्य अस्तेय, आदि सिद्धान्त इस उद्देश्य में बाधक माने जाते । इसलिए इन्हें समूल नष्ट किया जाता, जिससे संसार में अशान्ति छा जाती और हाहाकार मच जाता । तात्पर्य यह कि यदि विवाह को केवल विषय-भोग के लिये ही माना जाये, तब भी नैमित्तिक-सम्बन्ध की प्रथा होने पर सांसारिक-जीवन शान्तिपूर्वक न बीत सकता । ६-विवाह विषय-भोग के लिये नहीं है । वास्तव में विवाह दुर्विषय-भोग के लिये नहीं है। किन्तु वह मचर्य-पालन की कमजोरी को धीरे-धीरे मिटाकर, ब्रहमचर्य-पालन की पूर्ण क्षमता प्राप्त करने के लिए ही है। यदि प्रतिक्षण बढ़ने वाली दुर्विषय-भोग की लालसा को बिना विवाह किये ही विवेक से दबाने की शक्ति हो तो विवाह करने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती । इस शक्ति के अभाव में ही विवाह किया जाता है। जिस प्रकार यदि आग न लगने दी गई, या लगने पर तत्क्षण बुझा दी गई, तब तो दूसरा उपाय नहीं किया जाता और तत्क्षण न बुझा सकने पर, बढ़ जाने पर-उसकी सीमा करके उसे बुझाने का प्रयत्न किया जाता है । इसके लिए जिस मकान में आग लगी होती है, उस मकान से दूसरे मकानों का सम्बन्ध तोड़ दिया जाता है, ताकि उनमें वह फैल न सके और इस प्रकार उसे सीमित करके फिर बुझाने का प्रयत्न किया जाता है । वह आग, जो लगने के समय ही न बुझाई जा सकी थी, इस उपाय से बुझ जाती है, बढ़ने नहीं पाती । यदि पहले ही आग न लगने दी जाती या लगने के समय Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) ही बुझा दी जाती तब तो इस सीमान्तर्गत घर की हानि न होती । लेकिन ऐसा न कर सकने पर, यदि आग को सीमित न कर दिया जाय, तो उसके द्वारा अनेक मकान भस्म हो जाते । ठीक यही दृष्टान्त विवाह के लिए भी है। यदि मनुष्य अपने में कामवासना की प्राग उत्पन्न ही न होने दे या उत्पन्न होने के समय ही उसे विवेक द्वारा बुझा सके, तब तो विवाह की आवश्यकता ही नहीं रहती ।.लेकिन न दवा सकने पर उस आग को विवाह द्वारा सीमित कर दिया जाता है और फिर उसे बुझाने की चेष्टा की जाती है। विवाह द्वारा कामेच्छा को सीमित कर देने से वह बढ़ने नहीं पाती और इस प्रकार मनुष्य असीम हानि से बच जाता है । यदि विषयेच्छा की आग उत्पन्न न होने देने या विवेक द्वारा उसे दवा सकने की क्षमता न होने पर भी उत्पन्न विषयेच्छा की पूर्ति के लिए स्वच्छन्दता से काम लिया जावे तो वह बढ़ कर भयंकर हानि पहुंचाने वाली हो जाती है । तात्पर्य यह है कि विवाह दुर्विषयेच्छा को बढ़ाने के लिए नहीं है किन्तु घटाने के लिए ही है और स्वच्छन्दता से दुर्विषय-भोग की इच्छा बढ़ती है, घटती नहीं। इसके सिवा विवाहित-जीवन बिताने में दया, अनुकम्पा आदि उन सद्गुणों का भी बहुत कुछ विकास हो सकता है, जिनका लाभ स्वच्छन्दता में नहीं हो सकता । सन्तान को पालने-पोसने की दया विवाहित-जीवन में ही की जाती है। स्वच्छन्दजीवन में तो उससे बचने के लिए सन्तान को नष्ट करने की ही इच्छा रहती है । इसलिए वह मचर्य न पाल सकने पर दुराचार-पूर्ण जीवन श्लाघ्य नहीं कहला सकता । इस विषय में गांधीजी लिखते हैं-'तद्यपि महाशय ब्यूरो अखण्ड ब्रहमचर्य को ही सर्वोत्तम मानते हैं, लेकिन सबके लिये यह Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९५) शक्य नहीं है। इसलिए वैसे लोगों के लिए विवाह बन्धन केवल आवश्यक ही नहीं वरन् कर्त्तव्य के बराबर है।' गांधीजी आगे लिखते हैं—'मनुष्य के सामाजिक जीवन का केन्द्र एक पत्नी-व्रत तथा एक पतिव्रत ही है ।' यह तभी हो सकता है, जव स्वच्छन्दता को बुरा समझा जावे और उसे विवाहबन्धन द्वारा त्यागा जावे । जो लोग पर-स्त्री-पति और स्व-स्त्री-पति के विषयभोग में समान पाप मानते हैं, वे भी गलत रास्ते पर हैं। स्व-स्त्री-पति और पर-स्त्री-पति के विषय-भोग में प्रत्येक दृष्टि से बहुत ही अन्तर है, जिसका कुछ दिग्दर्शन ऊपर कराया भी जा चूका है । इसलिए वह मचर्य के अभाव में, अविवाहित जीवन, सर्वथा निन्द्य है । विवाह पुरुष और स्त्री के आजीवन साहचर्य का नाम है । यह साहचर्य काम-वासना की दवा और ब्रहमचर्य के समीप पहंचाने का साधन है । पाश्चात्य विद्वान् व्यूरो लिखता है कि विवाह करके भी विषय-विलासमय असंयम, धार्मिक और नैतिक, दोनों ही दृष्टि से अक्षम्य अपराध है । असंयम से वैवाहिक जीवन को ठेस, पहुंचती है। सन्तानोत्पत्ति के सिवा और सभी प्रकार की काम-वासना-तृप्ति दाम्पत्य प्रेम के लिये बाधक और समाज तथा व्यक्ति के लिए हानिकारक है।' इस कथन द्वारा ब्यूरो ने, जैन-शास्त्रों के कथन को पुष्ट किया है । जैन-शास्त्र तो इसके आद्यप्रेरक ही हैं। गांधीजी भी लिखते हैं-'विवाह-बन्धन की पवित्रता को कायम रखने के लिए भोग नहीं, किन्तु आत्म-संयम ही जीवन का धर्म समझा जाना चाहिये । विवाह का उद्देश्य, दम्पती के हृदयों से विकारों को दूर करके उन्हें ईश्वर के निकट ले जाना है।' Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६ ) ७- विवाह विषयक अधिकार । विवाह रूपी श्राजीवन साहचर्य, ऐसे स्त्री-पुरुष का होता है, जो स्वभाव, गुण, आयु, बल, वैभव, कुल और सौन्दर्य आदि को दृष्टि में रखकर, एक दूसरे को पसन्द करे । स्त्री - पुरुष में से किसी एक की पसन्दगी पर विवाह नहीं होता है, किन्तु दोनों की पसन्दगी से किया हुआ विवाह ही, विवाह के अर्थ में माना जा सकता है । किसी एक की इच्छा और दूसरे की अनिच्छा पर होने वाला विवाह, विवाह नहीं है । विवाह बन्धन स्त्री और पुरुष दोनों की स्वेच्छा पर ही निर्भर है । विवाह सम्बन्ध स्थापित करने में पुरुष और स्त्री के अधिकार समान ही हैं । अर्थात् जिस प्रकार पुरुष, स्त्री को पसन्द करना चाहता है, उसी प्रकार स्त्री भी पुरुष को पसन्द करने की अधिकारिणी है। बल्कि इस विषय में स्त्रियों के अधिकार पुरुषों से भी अधिक हैं । स्त्रियां अपने लिए वर पसन्द करने को स्वयम्बर करती थी, ऐसे प्रमाण तो जैन - शास्त्र और अन्य ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर मिलते हैं, लेकिन पुरुषों ने अपने लिए स्त्री पसन्द करने को स्वयम्बर की ही तरह का कोई स्त्री - सम्मेलन किया हो, ऐसा प्रमाण कहीं नहीं मिलता । इस प्रकार पूर्वकाल में स्त्री की पसन्दगी को विशेषता दी जाती थी । फिर भी यह बात नहीं थी कि जिस पुरुष को स्त्री पसन्द करे, पुरुष के लिए उसके साथ विवाह करना आवश्यक हो । स्त्री के पसन्द करने पर भी, यदि पुरुष की इच्छा उसके साथ विवाह करने की नहीं है, तो विवाह करने से इन्कार कर देना, कोई नैतिक या Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७ ) सामाजिक अपराध नहीं माना जाता था, न अब माना जाता है । विवाह के लिए स्त्री और पुरुष दोनों ही को समान अधिकार हैं, और यह नहीं है कि पसन्द आने के कारण, पुरुष, स्त्री के साथ और स्त्री, पुरुष के साथ विवाह करने लिए नीति या समाज की ओर से बाध्य हो । विवाह तभी हो सकता है, जब स्त्री - पुरुष एक दूसरे को पसन्द करले, और एक दूसरे के साथ विवाह करने के इच्छुक हों । इस विषय में जबरदस्ती को जरा भी स्थान नहीं है । ग्रन्थकारों ने विशेषतः तीन प्रकार के विवाह बताये हैं; देव - विवाह, गन्धर्व विवाह और राक्षस विवाह । ये तीनों विवाह क्रमशः उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ माने जाते हैं । इन तीनों विवाहों की व्याख्या नीचे दी जाती है । जो विवाह वर और कन्या दोनों की पसन्दगी से हुआ हो, जिसमें वर ने कन्या के और कन्या ने वर के गुणदोष देखकर एक दूसरे ने एक दूसरे को अपने समान माना हो तथा जिस विवाह के करने से वर और कन्या के माता पिता आदि अभिभावक भी प्रसन्न हों, जो विवाह रूप, गुण, स्वभाव आदि की समानता से विधि और साक्षीपूर्वक हुआ हो और जिस विवाह में, दाम्पत्य कलह का भय न हो तथा जो विवाह, दुर्विषय-भोग की इच्छा से नहीं किन्तु पूर्णब्रहमचर्य के आदर्श तक पहुंचने के उद्देश्य से किया गया हो, उसे देव - विवाह कहते हैं । यह विवाह उत्तम माना जाता है । जिस विवाह में वर ने कन्या को और कन्या ने वर को पसन्द कर लिया हो, एक दूसरे पर मुग्ध हो गये हों, किन्तु माता - पिता आदि अभिभावक की स्वीकृति के बिना Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) ही एक ने दूसरे को स्वीकार कर लिया हो एवं जिसमें देश प्रचलित विवाह - विधि पूरी न की गई हो, उसे गन्धर्वविवाह कहते हैं। यह विवाह, देवविवाह की अपेक्षा मध्यम और राक्षस विवाह की अपेक्षा अच्छा माना जाता है । राक्षस - विवाह उसे कहते हैं, जिसमें वर और कन्या, एक दूसरे को समान रूप से न चाहते हों, किन्तु एक ही व्यक्ति दूसरे को चाहता हो, जिसमें समानता का ध्यान न रक्खा गया हो, जो किसी एक की इच्छा और दूसरे की अनिच्छापूर्वक जवरदस्ती या अभिभावक की स्वार्थ-लोलुपता से हुआ हो और जिसमें देश-प्रचलित उत्तम विवाह - विधि को ठुकराया गया हो तथा वैवाहिक नियम भंग किये गये हों । यह विवाह उक्त दोनों विवाहों से निकृष्ट माना जाता है । ८- विवाह योग्य अवस्था पहले वताया जा चुका है कि कम से कम आयु का चौथा भाग, यानि २५ र १६ वर्ष की अवस्था तक तो पुरुष - स्त्री को अखण्ड - ब्रहमचर्य का पालन करना ही चाहिये । इसके अनुसार विवाह की अवस्था २५ वर्ष और १६ वर्ष से कम नहीं ठहरती है । किसी भी ग्रन्थ में विवाह वय और सहवासवय का अलग उल्लेख नहीं पाया जाता, किन्तु विवाह और सहवास के एक ही साथ होने का प्रमाण मिलता है अर्थात् वही विवाह वय औौर वही सहवासवय । वैद्यक - ग्रन्थ कहते हैं पंचविशे ततो वर्षे पुमान् नारी तु षोडशे । समत्वाऽगतवीयाँ तो जानीयात् कुशलो भिषक् । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६) 'धीर्य और रज की अपेक्षा से २५ वर्ष का पुरुष और १६ वर्ष की स्त्री परस्पर समान हैं, इस बात को कुशल वैद्य ही जानते हैं।' इसके अनुसार विवाह की अवस्था पुरुष की २५ वर्ष और स्त्री की १६ वर्ष ठहरती है । इस अवस्था में स्त्री और पुरुष, इस बात के निर्णय पर भी पहुंच सकते हैं कि हम पूर्ण ब्रहमचर्य का पालन कर सकते हैं या नहीं ? अर्थात विवाह की अावश्यकता का अनुभव, इस अवस्था या इससे अधिक अवस्था में ही हो सकता है और जब तक आवश्यकता न जान पड़े, जब तक विवाह करना धार्मिक और नैतिक दोनों ही दृष्टियों से अपराध है । जैन-शास्त्र पूर्ण ब्रह मचर्य के प्रतिपादक हैं, इसलिए उनमें विवाह-विषयक विधि-विधान नहीं पाया जाता, लेकिन जैन-शास्त्रों में वर्णित कथानों से ही विवाह के विपय पर बहुत प्रकाश पड़ता है । जैनशास्त्रों में वर्णित कथाओं से प्रकट है कि स्त्री-पुरुष का विवाह तभी हो सकता है जब वे विद्या, कला आदि सीख चुके हों और उनके शरीर पर कामवासना का प्रभाव पड़ने लगा हो । औषपातिक सूत्र में कहा है: __नवंगसुत्तपडिवोहिए, अट्ठारस देसीभासाविसारए गोयरती, गंधव्वरणट्टकुसले, हयजोही, गयजोही, रहजोही, बाहुजोही, बाहुपमद्दी, विद्यालचारी, साहस्सीए अलं भोगसमत्थे या वि भवई। 'जिसके नव ग्रंग (२ कान, २ अांख, २ नाक, १ जीभ, १ त्वचा और १ मन काम-भोग के लिए) जागृत हुए हैं Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) अपने २ विषय को ग्रहण करने की इच्छा उत्पन्न हो गई है, जो अठारह देश की भाषाओं में विशारद है, गाने में, रति-क्रीडा में, गन्धर्व-कला में और नाटयकला में कुशल है, अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रणयुद्ध, बाहुयुद्ध साहसी एवं निपुण और काम-भोग भोगने में समर्थ हो गया है (उसका विवाह हुआ।)' इस पाठ से पुरुष की विवाह योग्य अवस्था पर बहुत अधिक प्रकाश पड़ता है । भगवती सूत्र में भी विवाह का वर्णन करते हये पति-पत्नी की समानता किन बातों में देखी जाती थी, यह बताया गया है । उसमें कहा है: सरिसयारणं सरित्तयारणं सरिव्वयारणं सरिसखावनरूपज़ोव्वण-गुणोववेयाणं सरिसयारणं कुलेहितो प्रामिल्लियाणं ___'समान योग्यता वाली, समान त्वचा वाली, समान आयु वाली, समान लावण्य रूप यौवन और गुण वाली समान कुल की (कन्या के साथ विवाह हुआ ।)' इसके अनुसार, विवाह समान युवावस्था में ही हो सकता है । यद्यपि उक्त प्रमाण में समान आयू भी बतलाई गई है, लेकिन उसके साथ ही, समान यौवन भी कहा गया है और ऊपर वैद्यक ग्रन्थ का हवाला देकर यह भी बताया जा चुका है कि २५ वर्ष की अवस्था का पुरुष तथा १६ वर्ष की अवस्था की स्त्री समान हैं । स्थानांग सूत्र की टीका में भी कहा गया है: पूर्णषोडशवर्षा स्त्री पूर्णविशेन संगता । शुद्ध गर्भाशये मार्गे रक्त शुक्रेनिलं हृदि ॥ . Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) वीर्यवन्तं सुतं सूते ततो न्यूनाब्दयोः पुनः । रोग्यल्पायुरधन्यो वा गर्भो भवति नैव वा ॥ ५ वां स्थान, २ रा उ । 'जिसकी अवस्था १६ बर्ष की हो चुकी है, ऐसी स्त्री और जिसकी अवस्था २० वर्ष की हो चुकी है, ऐसे पुरुष से मिलने पर और रक्त, वीर्य वाय, गर्भाशय-मार्ग तथा हृदय शुद्धि होने पर, वीर्यवान पुत्र उत्पन्न करती है । इससे कम अवस्था वाली स्त्री यदि कम अवस्था वाले पुरुष से संगम करे तो रोगी. अल्पायुषी तथा आलसी सन्तान उत्पन्न करती है या गर्भाधान ही नहीं होता।' यद्यपि यह कहने वाले टीकाकार ने पुरुष की अवस्था २० वर्ष की ही बताई है, लेकिन स्त्री की अवस्था तो १६ वर्ष ही कही है । अर्थात् जितने भी प्रमाण दिये गये हैं, उन सब से स्त्री की विवाह योग्य अवस्था १६ वर्ष से अधिक ही ठहरती है; कम नहीं । इस प्रकार पुरुष का विवाह २० या २५ वर्ष और स्त्री का विवाह १६ वर्ष की या इससे अधिक अवस्था में ही हो सकता है, कम अवस्था में नहीं । कम अवस्था में विवाह होने पर क्या हानि होती है, यह वात आगे बताई गई है । -विवाह की संख्या प्रकृति पर दृष्टिपात करने से यह बात स्पष्ट है कि एक पुरुष एक ही स्त्री के साथ और एक स्त्री एक ही पुरुष के साथ विवाह कर सकती है, अधिक के साथ नहीं । यद्यपि जैन-शास्त्रों में और अन्य ग्रन्थों में अधिक विवाह की बातें Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) बहुत मिलती हैं, लेकिन अधिक स्त्रियों के साथ विवाह करना, उस समय की संस्कृति थी और उस समय के पुरुष, अधिक स्त्रियों का होना एक विशेषता और सौभाग्य की बात मानते थे। उस समय की स्त्रियां भी विशेषतः ऐसे ही पुरुष को पसन्द करती थीं, जो वैभवशाली, यशस्वी, और सुन्दर हो । ऐसे पुरुष के कितनी ही स्त्रियां क्यों न हों, उस समय की स्त्रियां, इस बात की अपेक्षा नहीं करती थीं। उस समय की संस्कृति कुछ भी रही हो और अधिक स्त्रियों के साथ विवाह कहने का कुछ भी कारण क्यों न रहा हो, लेकिन आजकल ऐसा करना, उचित नहीं कहला सकता । किसी भी व्यक्ति को, आजकल यह अधिकार नहीं है कि किसी भी वस्तु का उपभोग परिमाण से अधिक करे। इसके अनुसार किसी पूरुप को अधिक स्त्रियों से और किसी स्त्री को अधिक पुरुषों से विवाह करना उचित नहीं है । वैद्यक ग्रन्थों पर दृष्टि देने से भी यह ज्ञात होता है कि एक पुरुष की काम-वासना तृप्त करने के लिए एक स्त्री और एक स्त्री की काम-वासना तृप्त करने के लिये एक पुरुष पर्याप्त है । न एक पुरुष अधिक स्त्रियों की काम-वासना शान्त कर सकता है, न एक स्त्री अधिक पुरुषों की। इसके अनुसार भी एक पुरुष का अधिक स्त्रियों से और एक स्त्री का अधिक पुरुषों से विवाह होना अनुचित है । १०-पति-पली पर उत्तरदायित्व । विवाहित-जीवन सुखपूर्वक निभाने की जिम्मेदारी स्त्री और पुरुष दोनों पर समान रूप से है । हाँ, इसके लिए एक दूसरे का सहायक अवश्य है । फिर भी किसी ऐसे कार्य Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) में जिसका दुष्प्रभाव अपने आप पर ही नहीं, किन्तु भावी सन्तान या दूसरे लोगों पर भी पड़ता है, उसमें सहायता करना, नैतिक, सामाजिक और धार्मिक, तीनों ही दृष्टियों से अपराध है । उदाहरण के लिए सन्तान के बालक होने (पर्याप्त प्राय की न होने) पर भी, पूरुष का स्त्री को और स्त्री का पुरुष को प्रसन्न करने के लिए - उसकी इच्छा पूरी करने के लिए-मैथुन में प्रवृत्त होना । ऐसा करने से एक छोटे बालक की माता गर्भवती हो सकती है, जिससे उस छोटे बालक का विकास मारा जाता है, उसे रोग घेर लेते हैं और गर्भ का बालक भी पुष्ट नहीं होता किन्तु क्षीण दशा में पहुंचता जाता है। इस प्रकार दोनों ही बालकों का जीवन कष्टमय हो जाता है । इसलिए ऐसे कार्यों में दम्पती का एक दूसरे की सहायता करना भी अपराध ही है । * * Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राधुनिक विवाह। विवाह कब, किस अवस्था में और किन नियमों के साथ होता है, यह थोड़े में बताया जा चुका है। अब यह देखना है कि आजकल की विवाह-प्रथा क्या है, विवाह के नियमादि का पालन किस प्रकार किया जाता है और यदि उन नियमों की अवहेलना की जाती है तो क्या हानि होती है ? यह देखने के लिये इस प्रकरण को बाल-विवाह और बेजोड़ विवाह, इन दो भागों में विभक्त करके क्रमशः दोनों पर विचार किया जाता है। १-बाल-विवाह पूर्व प्रकरण में यह बताया जा चुका है कि पुरुष और स्त्री की विवाह-योग्य कम से कम अवस्था २० या २५ और १६ वर्ष है । इसके साथ ही यह भी बताया गया है कि पुरुष और स्त्री किस योग्य हों, तब विवाह होता है । अाधुनिक समय के विवाहों में पूर्व-वरिणत विवाह-नियमों की अवहेलना की जाती है। यहापि पुरुष-स्त्री, विवाह-बन्धन में तभी बंध सकते हैं, जब वे आजीवन ब्रह्मचर्य पालने की अपनी अशक्तता का अनुभव कर लें, लेकिन आज के विवाहों में ऐसे अनुभव के लिए समय ही नहीं आने दिया जाता । जैनसमाज में ही नहीं, किन्तु भारत के अधिकांश लोगों में Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) पुरुष-स्त्री, युवक-युवती होने के बदले, बालक-बालिका का हो विवाह किया जाता है। अधिकांश बालक-बालिका के माता-पिता अपने बच्चों का विवाह ऐसी अवस्था में कर देते हैं, जबकि वे बच्चे विवाह की आवश्यकता, उसकी जबरदस्ती और उसका भार समझने के लिये अयोग्य ही नहीं, किन्तु इस ओर से अनभिज्ञ ही होते हैं । यद्यपि बालकबालिकाओं की वह अवस्था, खेलने-कूदने योग्य है, लेकिन उनके माता-पिता उन बच्चों के अन्य-अन्य खेल-कूद देखने के साथ ही साथ, विवाह का खेल देखने की लालसा से अपने दूधमुहे बच्चे के जीवन का सर्वनाश कर देते हैं । ___ अभागे भारत में, ऐसे-ऐसे बालक-बालिकाओं के विवाह सुने जाते हैं, जिनकी अवस्था एक वर्ष से भी कम होती है । अपने बालक या वालिका को दूल्हे या दुल्हिन के रूप में देखने को लालायित मां-बाप, अपनी जवाबदारी और सन्तान की भावी उन्नति सब को बाल-विवाह की अग्नि में भस्म कर देते हैं । अपने क्षणिक सुख के लिए अपने अबोध बालकों को भोग की धधकती हुई ज्वाला में भस्म होने के लिए छोड़ देते हैं और अपनी संन्तान को उसमें जलते देख कर भी आप खड़े खड़े हंसते तथा यह अवसर देखने को मिला, इसके लिए अपना अहोभाग्य मानते हैं । आज के अधिकांश लोगों को यह भी पता नहीं है कि हमारा विवाह कब, किस प्रकार और किस विधि से हना था; तथा विवाह के समय हमें कौनसी प्रतिज्ञाएं करनी पड़ो थीं। उन्हें पता भी कहां से हो ? वे जाने भी तो कैसे ? उनका विवाह तो तब हुआ होगा, जब वे मां की गोद में बैठकर दूध पीया करते होंगे, नंगे शरीर बच्चों के Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) साथ खेला करते होंगे और विवाह तथा वधू किस जानवर का नाम है, अपनी बुद्धि से यह भी न जानते होंगे । उन्हें घोड़े पर और मण्डप के नीचे उसी प्रकार बैठा दिया गया होगा, जिस प्रकार मन्दिरों में मूर्तियाँ बैठा दी जाती हैं । जब ब्राह्मण लोग, पति-पत्नी के परस्पर के वचनों का पाठ कर रहे होंगे, तब वे नाई और नाईन की गोदी में सो रहे होंगे । जब उन्हें भांवरें दिलाई जाती होंगी - यानी फेरे दिये जाते होंगे-तब वे अपने पैरों से नहीं, किन्तु नाई या नाइन के पैरों से चलते रहे होंगे । ऐसी दशा में वे विवाह की बातें जानें और बता तो कहां से ? , एक सज्जन कहते थे कि मुझे एक विवाह में सम्मिलित होने का मौका मिला । उस विवाह में पति और पत्नी दोनों ही अल्पवयस्क थे। रात के समय जब कि विवाह हो रहा था-कन्या मण्डप में ही सो गई। लग्न के समय, कन्या को मां ने जगाते हुए कहा कि वेटी ! उठ, तेरा लग्न करें। लड़की की अवस्था ऐसी थी कि वह 'लग्न' शब्द को ही न जानती थी । मां के जगाने पर लड़की ने मां से कहा कि-मुझे तो नींद आती है, तू अपना ही लग्न करले! यह कहकर लड़की फिर सो गई और अन्त में उसका विवाह निद्रावस्था में ही हया । विचारने की बात है कि जो बालक-बालिका लग्न या विवाह का नाम भी नहीं जानते, उनका विवाह कर देने पर, वे विवाह सम्बन्धी नियमों का पालन किस प्रकार कर सकेंगे ? उन्हें जब अपने विवाह का ही पता नहीं है, तब वे विवाह विषयक प्रतिज्ञानों को क्या जाने और उनका पालन कैसे करें ? सच्ची बात तो यह है कि इस प्रकार Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७) की अबोध अवस्था में होने वाले विवाह को विवाह कहना ही अन्याय है ! जमाई या बहू के शौकीन मां-बाप और मालताल के चट्ट बाराती, बालक और बालिका रूपी छोटे छोटे बछड़ों को सांसारिक जीवन की गाड़ी में जोत कर आप उस गाड़ी पर सवार हो जाते हैं । अर्थात् सांसारिक जीवन का बोझ उन पर बलात् डाल देते हैं। अपनी स्वार्थ-भावना के वश होकर वे लोग नीति की (बालक-विवाह-विरोधी) वातों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, उनका उपहास करते हैं और उन्हें पददलित कर डालते हैं। यद्यपि वे यह सब कुछ करते हैं अच्छा समझकर, हर्ष तथा प्रसन्नता के लिए और अपनी सन्तान को सुखी बनाने के लिए, लेकिन वास्तव में ऐसे लोग जिस बाल-विवाह को अच्छा समझते हैं, वे कभी-कभी बहुत ही बुरा, जिसे हर्ष का कारण समझते हैं, वही शोक का कारण और जिसे सन्तान को सुखी बनाने का साधन मानते हैं, वही सन्तान को दुःखी बनाने का उपाय भी हो जाता है । कुछ लोग इस बात को समझते भी होंगे, लेकिन सामाजिक नियमों से विवश होकर या देखा-देखी बालविवाह के घोर पातकमय कार्य में प्रवृत्त होते हैं और सामाजिक नियम तथा अनुकरण करने वाले स्वभाव के लट्ट से बुद्धि को विवाह करने तक के वास्ते-दूर खदेड़ पाते हैं । नाती-पोते द्वारा अपने जीवन को सुखी मानने वाले लोग अपनी सन्तान का बाल्यावस्था में विवाह करके ही सन्तोष नहीं करते, किन्तु विवाह के समय ही-या कुछ ही दिन पश्चात अबोध पति-पत्नी को, उनका उज्ज्वल और सुखमय भविष्य, काला और दुःखमय बनाने के लिए, एक Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) कोठरी में भी बन्द कर देते हैं । उन बाल-बालिका में प्रारम्भ से ही ऐसे संस्कार डाले जाते हैं, जिनके कारण वे अयोग्य अवस्था में ही मैथुन से स्नेह करने लगते हैं । इस प्रकार के संस्कारों में यदि कुछ कमी रह जाती है तो उसकी पूर्ति, विवाह समय के गीतों से पूरी हो जाती है और वे बालक-बालिका अपने माता-पिता की पोते-पोती विषयक लालसा पूरी करने के लिए दुर्विषय-भोग के अथाह सागर में अशक्त होते हुए भी कूद पड़ते हैं । २-धार्मिक दृष्टि से बाल-विवाह कुछ लोगों ने वाल-विवाह की पुष्टि के लिए, धर्म की भी ओट ले रखी है और बालविवाह न करना, धार्मिक दृष्टि से अपराध बतलाया जाता है । लेकिन जो लोग, बालविवाह को धामिक रूप देते हैं, उन्हीं ग्रन्थों में लिखा है अज्ञातपतिमर्यादामज्ञातपतिसेवनाम् । नोद्वाहयेत्पिता बालामज्ञातधर्मशासनाम् ।। –हेमाद्रि । 'पिता, ऐसी कम अवस्था वाली कन्या का विवाह कदापि न करे, जो पति की मर्यादा, पति की सेवा और धर्मशासन को न जानती हो ।' इसके सिवा आवश्यक ब्रह्मचर्य के विषय में मनुस्मृति का जो प्रमाण दिया गया है, उससे भी बाल विवाह का निषेध ही होता है । बाल-विवाह न करने को धार्मिक अपराध बताने वाले लोग, 'अष्टवर्षा भवेद् गौरी' आदि का जो Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६) एक पाठ प्रमाण-रूप बताते हैं, मनुस्मृति और हेमाद्रि के उक्त प्रमाणों से बाल-विवाह का विधान करने वाला वह पाठ प्रक्षिप्त ठहरता है । जान पड़ता है कि यह पाठ उस समय बनाया गया है जब भारत में मुसलमानों का जोर था और वे लोग स्त्रियों और विशेषतः अविवाहित युवतियों का बलात् अपहरण करते थे । मुसलमानों से स्त्रियों की रक्षा करने के लिए ही, सम्भवतः यह पाठ बनाया गया था; क्योंकि मुसलमान लोग विवाहित स्त्रियों की अपेक्षा अविवाहितस्त्रियों का अपहरण अधिक करते थे। इसलिये विवाह हो जाने पर स्त्रियां इस भय से बहुत कुछ मुक्त समझी जाती थीं। यद्यपि मुसलमानी काल में बाल-विवाह की प्रथा प्रचलित अवश्य हो गई थी, लेकिन अाजकल की भाँति, अल्पवयस्क पति-पत्नी को विवाह-समय में ही सहवास नहीं कराया जाता था । किन्तु सहवास का समय विवाह-समय से भिन्न होता था । आज मूसलमान काल की सी स्थिति न होने पर भी बाल-विवाह प्रचलित है और सहवास की भी कोई निश्चित अवस्था नहीं है । तात्पर्य यह है कि बाल-विवाह किसी भी धर्म के शास्त्रों में उचित या आवश्यक नहीं बताया गया है। किन्तु ऐसे विवाहों का निषेध ही किया गया है । ३-बाल-विवाह से हानि वाल-विवाह द्वारा प्राचीन विवाह-नियम भंग करने वालों को प्रकृति-दत्त दण्ड भी भोगना पड़ता है । प्रकृति अपने नियम भंग करने वाले के साथ किचित् भी नर्मी का व्यवहार नहीं करती, किन्तु दण्ड देती है । अतः अब यह देखते Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) हैं कि बाल-विवाह के कारण प्रकृति द्वारा कौनसा दण्ड मिलता है यानी बाल विवाह से क्या क्या हानि होती है। युवावस्था से पूर्व, स्त्री-पुरुष का रज - वीर्य अपरिपक्व रहता है । बाल-विवाह और समय से पूर्व दाम्पत्य सहवास से अपरिपक्व रज- वीर्य नष्ट होता है । अपरिपक्व रज- वीर्य नष्ट होने से शरीर की रस से लेकर मज्जा तक सभी धातुयें शिथिल हो जाती हैं; जिससे शारीरिक विकास रुक जाता है । सौन्दर्य, प्रसन्नता और अंगों की शक्ति घट जाती है । आयुर्बल भी कम हो जाता है । रोग-शोक घेरे रहते हैं । असमय में ही दांत गिर जाते हैं, बाल पकने लगते हैं तथा प्रांखों की ज्योति क्षीण हो जाती है । थोड़े ही दिनों में पुरुष नपुंसक और स्त्री स्त्रीत्व-रहित हो जाती है । इस प्रकार पति-पत्नी का जीवन दुःखमय हो जाता है । - ऊनषोडशवर्षायाम अप्राप्तः पंचविशतिम | यद्याधते पुमान् गर्भं कुक्षिस्थः स विपद्यते || जातो वा न चिरञ्जीवेज्जीवेद्वा दुर्बलेन्द्रियः । तस्मादत्यन्तबालायां गर्भाधानं न कारयेत् ॥ सुश्रुत 'यदि सोलह वर्ष से कम अवस्था वाली स्त्री में, २५ वर्ष से कम अवस्था वाला पुरुष गर्भाधान करे तो वह गर्भ उदर में ही नाश को प्राप्त होता है । यदि उस गर्भ से सन्तान उत्पन्न भी हुई तो जीवित नहीं रहती है और जीवित भी रही तो अत्यन्त दुर्बल ग्रंग वाली होती है । इसलिये कम आयु वाली स्त्री में कभी गर्भाधान न करना चाहिए ।' Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११) इस प्रकार सन्तानोत्पत्ति के लिए भी बाल-विवाह घातक ही है । इंगलैंड में मनुष्यों की औसत आयु ५१ और बाल-मरण प्रतिसहस्र ७५ है; लेकिन भारत के मनुष्यों की औसत आयु केवल २३ वर्ष और बाल-मरण प्रतिसहस्र १६४ है । इस महान् अन्तर का कारण यही है कि इंगलैंड में बाल-विवाह की घातक प्रथा नहीं है लेकिन भारत में इस प्रथा ने अधिकांश लोगों के हृदय में अपना घर बना लिया है । पौत्रादि के इच्छुक लोग अपने बालक-बालिका का विवाह करते तो हैं-पोते पोती के सूख की अभिलाषा से लेकिन असमय में उत्पन्न सन्तान मृत्यू के मुख में जाकर ऐसे लोगों को और विलाप करने के लिये छोड़ जाती है, अपने माता-पिता को अशक्त बना जाती है तथा इस प्रकार से उन्हें अपने दुष्कृत्यों का दण्ड दे जाती है। इङ्गलैंड की अपेक्षा भारत के लोगों की औसत आयु कम होने का कारण बाल-विवाह द्वारा होने वाले रोग और असमय के वीर्य-पात से होने वाली कमजोरी है । इसी घातक-प्रथा के कारण अनेक स्त्रियां प्रसवकाल में ही परलोक को प्रस्थान कर जाती हैं, या सदा के लिए रोग-ग्रस्त हो जाती हैं और फिर रोगी सन्तान उत्पन्न करके भावी सन्तति के लिए कांटे बिछा जाती हैं । ___ बाल-विवाह के विषय में गांधीजी लिखते हैं कि हिन्दुस्तान को छोड़कर और किसी भी देश में बचपन से ही विवाह की बातें बालकों को नहीं सुनाई जातीं। यहां तो माता-पिता की एक ही अभिलाषा रहती है कि लड़के का विवाह कर देना । इससे असमय में ही बुद्धि और शरीर का ह्रास होता है । हम लोगों का जन्म भी प्रायः बचपन Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) के ब्याहे माता-पिता से हुआ है । हमें ऐसा लोकमत बनाने. की जरूरत है कि जिसमें बाल-विवाह असम्भव हो जाये । हमारी अस्थिरता, कठिन और अविरल श्रम से अनिच्छा, शारीरिक अयोग्यता, शान से शुरू किये गये हमारे कामों का बैठ जाना और मौलिकता का अभाव आदि आदि के मूल में मुख्यतः हमारा अत्यधिक वीर्यनाश हो है। गांधीजी आगे लिखते हैं कि 'जो मां-बाप अपने बच्चों की सगाई बचपन में ही कर देते हैं, वे उन बच्चों को बेचकर घातक बनते हैं । अपने बच्चों का लाभ देखने के बदले, वे अपना ही अन्धस्वार्थ देखते हैं। उन्हें तो आप बड़ा बनना है, अपनी जाति-बिरादरी में नाम कमाना है, लड़के का ब्याह करके तमाशा देखना है। लड़के का हित देखें तो उसका पढ़ना लिखना देखें, उसका जतन करें, उसका शरीर बनावें । घर गृहस्थी की खटखट में डाल देने से बढ़कर उसका दूसरा कौनसा वड़ा अहित हो सकता है ?' यदि यह कहा जावे कि धार्मिकता की दृष्टि से विवाह तो बचपन में कर दिया जाता है, लेकिन सहवास नहीं होता है; तो पहले यह कथन सर्वथा नहीं तो वहुत अंश में गलत है क्योंकि प्रायः विवाह समय में ही सहवास होना सुना जाता है । कदाचित् उस समय सहवास न होता हो, तो फिर बचपन में विवाह किस दृष्टि से किया जाता है ? ऐसे विवाह का विधान तो किसी भी धर्म के शास्त्र नहीं करते और ऐसे विवाह प्रत्यक्ष ही हानिप्रद हैं । बचपन में ब्याहे गये पति-पत्नी की अवस्था में विशेष अन्तर नहीं होता । जिस समय कन्या युवती मानी जाती है, उस समय उसका पति युवावस्था में पदार्पण भी नहीं कर पाता। बहू युवती Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ) है, इस लोक-लाज के भय से, माता-पिता की दृष्टि में, ग्रपने अल्पवयस्क पुत्र के लिए स्त्री सहवास श्रावश्यक हो जाता है । इस प्रकार उस हानि से बचा नहीं जा सकता, जो वाल विवाह से होती है । इसके सिवा बचपन में विवाहे गये पति-पत्नी आगे चलकर कैसे-कैसे स्वभाव के होंगे, उनके रूप, गुण, शारीरिक विकास, शक्ति आदि में कैसी विषमता होगी, इसे कोई नहीं जान सकता । पति-पत्नी में विषमता होने से उनका जीवन भी क्लेशमय ही बीतता है । वाल- 1 बचपन में विवाह होने से विधवाओं की भी संख्या बढ़ती है । समाज में एक-एक, दो-दो और चार-चार वर्ष की अवस्था वाली वाल- विधवाएं दिखाई देना, -विवाह का ही कटुफल है | चेचक आदि बीमारी से वालक- पति की तो मृत्यु हो जाती है और बालिका -पत्नी वैधव्य भोगने के लिए रह जाती है । जिस पति से उस अबोध वालिका ने कोई सुख नहीं पाया है, हृदय में जिसकी स्मृति का कोई साधन नहीं है, जिसके नाम पर वैधव्य भोगने का कोई कारण नहीं है । उस पति के नाम पर, एक वालिका से वैधव्य पालन कराने का कारण बाल विवाह ही है । ऐसी बाल- विधवा अपनी वैधव्यावस्था किस सहारे से व्यतीत कर सकेगी, यह देखने की आवश्यकता भी लोग नहीं समझते ! तात्पर्य यह है कि सहवास न होने पर भी बालविवाह हानिप्रद ही है । विवाह हो जाने पर बालक पतिपत्नी, ज्ञान और विद्या से भी बहुत कुछ पिछड़े रह जाते हैं तथा एक दूसरे के स्मरण से वीर्य में दोष पैदा हो जाता है । इसलिए बाल विवाह त्याज्य है । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४) ४-बेजोड़-निवाह बेजोड-विवाह भी पूर्व की विवाह-प्रथा और आज की विवाह-प्रथा में भिन्नता बताता है । यद्यपि विवाह में वर और कन्या की पूर्व-वणित समानता देखना आवश्यक है, लेकिन आज के अधिकांश विवाहों में इस बात का ध्यान बहुत कम रक्खा जाता है । आज के बेजोड़-विवाहों को देखकर यदि यह कहा जावे कि वर या कन्या के साथ नहीं, किन्तु धन-वैभव या कूल के साथ विवाह होता है तो कोई अत्युक्ति न होगी । यद्यपि संसार में प्रत्येक प्राणी अपनी समानता वाले को ही अधिक पसन्द करता है और विवाह के लिये तो यह बात विशेष ध्यान में रखने योग्य है, लेकिन आजकल के बहत से विवाह-ऊंट और .बैल की जोड़ी-जैसे होते हैं । ऐसे विवाह विशेषतः धन या कुल के कारण ही होते हैं अर्थात् या तो धन के लोभ से बेजोड़-विवाह किया जाता है या कूल के लोभ से । बेजोड़-विवाह में धन का लोभ दो प्रकार का होता है । एक तो यह कि लड़के या लड़की की ससुराल धनवान होगी, इसलिए बड़ी अवस्था वाली कन्या के साथ छोटी अवस्था वाले लड़के का या छोटी अवस्था वाली कन्या के साथ बड़ी अवस्था वाले पुरुष का विवाह कर दिया जाता है । दूसरे कन्या या वर के बदले में द्रव्य प्राप्त होगा, इसलिए भी ऐसे विवाह कर दिये जाते हैं। इसी प्रकार कुल के लिए भी बेजोड़-विवाह किए जाते हैं; अर्थात् हमारी लड़की या हमारे लड़के की ससुराल इस प्रकार की घरानेदार या कुलवान होगी, इसलिए भी बेंजोड़-विवाह किये जाते हैं। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१५ ) कई माता-पिता, लोभ के वश होकर अपनी सन्तान का हिताहित नहीं देखते और उसका विवाह ऐसे वर या ऐसी कन्या के साथ कर देते हैं । कई माता-पिता अपनी अबोध कन्या को वृद्ध तक के गले मढ़ देते हैं। विशेषतः वे धन के लिए ही ऐसा करते हैं, यानी कन्या के बदले में द्रव्य लेने के लिए । द्रव्य-लालसा के आगे वे इस बात को विचारने की भी आवश्यकता नहीं समझते कि इन दोनों में परस्पर मेल रहेगा या नहीं तथा हमारी कन्या, कितने दिन सुहागिन रह सकेगी ? उन्हें तो केवल द्रव्य से काम रहता है, उनकी तरफ से कन्या की चाहे कैसी ही दुर्दशा क्यों न हो ! विवाह और पत्नी के इच्छुक वृद्ध भी यह नहीं देखते कि मैं इस तरुणी के योग्य हूँ या नहीं और यह तरुणी मुझे पसन्द है या महीं ! विद्वानों का कथन है वृद्धस्य तरुणी विषम् । -सूक्ति । _ 'वृद्ध के लिए तरुणी विष के समान है ।' इसका उल्टा यह होगा कि तरुणी को वृद्ध विष के समान लगता है । जब पति-पत्नी एक दूसरे को विष के समान बूरे लगते हों तब उनका जीवन सुखमय कैसे बीत सकता है ? लेकिन इस बात पर न तो धन-लोभी मातापिता ही विचार करते हैं, न स्त्री-लोभी वृद्ध और न भोजनलोभी बराती या पंच । केवल धन के बल से एक वृद्ध उस तरुणी पर अधिकार कर लेता है, जिसका अधिकारी एक युवक हो सकता था और इसी प्रकार माता-पिता की धन Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६) लोलुपता से एक तरुणी को अपना वह जीवन वृद्ध के हवाले कर देना पड़ता है, जिस जीवन को वह किसी युवक के साथ रहकर बिताने की अभिलाषा रखती थी। एक वृद्ध अमीर की स्त्री का देहान्त हो गया। अमीर के दोस्तों ने उस से दूसरा विवाह करने के लिए कहा। अमीर ने उत्तर दिया कि मैं किसी बूढ़ी स्त्री के साथ विवाह नहीं कर सकता, मुझे बढ़ी स्त्री पसन्द नहीं। दोस्तों ने उत्तर दिया, आपको बूढ़ी स्त्री के साथ विवाह करने के लिए कौन कहता है ? - आप तरुणी के साथ विवाह कीजिये । हम आपके लिए तरुणी की तलाश कर देंगे । दोस्तों की बात सुनकर वृद्ध अमीर ने कहा कि जब मुझ बूढ़े को बूढी स्त्री पसन्द नहीं है, तो क्या वह तरुण स्त्री मुझ बूढ़े को पसन्द करेगी ? यदि नहीं, तो फिर जवरदस्ती से क्या लाभ ! अमीर की बात सुनकर दोस्तों को शर्मिन्दा होना पड़ा और उन्होंने अमीर के विवाह की बात छोड़ दी। ५-बेजोड़ विवाह वृद्ध पुरुष के साथ तरुण स्त्री के विवाह के समान ही धन या कुल के लोभ से बालक पुरुष के साथ तरुणी या तरुण पुरुष के साथ बालिका भी विवाह दी जाती है। ये समस्त विवाह बेजोड़ हैं । ऐसे विवाह समाज में भयंकर हानि फैलाने वाले, भावी सन्तति का जीवन दुःखप्रद बनाने वाले और पारलौकिक-जीवन को कंटकाकीर्ण करने वाले हैं । । बेजोड़-विवाह से होने वाली समस्त हानियों का वर्णन करना शक्ति से परे की बात है, फिर भी संक्षेप में कुछ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७) हानियां बताई जाती हैं । बेजोड़ विवाह से कुल की हानि होती है । विधवाओं की संख्या बढ़ती है, जिसमें व्यभिचारवृद्धि के साथ ही आत्महत्या, भ्र ण-हत्या आदि होती रहती हैं और अन्त में अनेक विधवाएं वेश्या बन कर अपना जीवन घृणित रीति से बिताने लगती हैं । समाज में स्त्रियों की कमी होने से कई युवक अविवाहित रह जाते हैं और दुराचारी बन जाते हैं । बेजोड़ पति-पत्नी से उत्पन्न सन्तान भी अशक्त, अल्पायुषी और दुर्गुणी होती है । जैन-शास्त्रों में ऐसा एक भी प्रमाण नहीं मिलता, जो बेजोड़ विवाह का पोषक हो । अन्य ग्रन्थों में भी बेजोड़ विवाह का निषेध ही किया गया है । जैसे: कन्या यच्छति वृद्धाय नीचाय धनलिप्सया । कुरूपाय कुशीलाय स प्रेतो जायते नरः ।। स्कन्दपुराण । 'जो पिता अपनी कन्या-वृद्ध, नीच, घन के लोभी, कुरूप और कुशील पुरुष को देता है वह प्रेत-योनि में जन्म लेता है। इसी प्रकार कन्या-विक्रय के विषय में कहा है:अल्पेनापि हि शुल्केन पिता कन्यां ददाति यः । रौरवे बहु वर्षारिण पुरीषं मूत्रमश्नुते ॥ आपस्तम्ब स्मृति । 'कन्या देकर बदले में थोड़ा भी धन लेने वाला पिता Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) बहुत वर्ष तक रौरव नरक में निवास करके विष्टारहता है ।' -मूत्र खाता आधुनिक अनमेल विवाह प्रथा की और भी बहुत समालोचना की जा सकती है लेकिन विस्तार भय से ऐसा नहीं किया गया । यहां तो संक्षेप्त में केवल यह बताया गया है कि आजकल की विवाह प्रथा पहले की विवाह - प्रथा से बिल्कुल भिन्न है और इस भिन्नता से अनेक हानियां हैं। ६ - विवाह में अपव्यय अधिकांश आधुनिक विवाहों में अपव्यय भी सीमातीत होता है । ग्रातिशबाजी, रण्डी, बाजे, बारात और ज्ञातिभोजनादि में इतना अधिक द्रव्य उड़ाया जाता है कि जितने द्रव्य से सैकड़ों-हजारों लोग वर्षों तक पल सकते है । धनिक लोग विवाह के अपव्यय द्वारा गरीबों के जीवन-मार्ग में कांटे बिछा देते हैं । धनिकों के ग्राडम्वर - पूर्ण विवाह को आदर्श मानकर अनेक गरीब भी कर्ज लेकर विवाह का आडम्बर करते हैं और धनिकों द्वारा स्थापित इस ग्रादर्श की कृपा से अपने जीवन को चिरकाल के लिए दुःखी बना लेते हैं । विवाह के अपव्यय में धन की ही हानि नहीं होती, किन्तु कभी कभी जन की भी हानि हो जाती है । बहुत से लोग खाने-पीने की अनियमितता से बीमार होकर मर जाते हैं और बहुत से प्रातिशबाजी की अग्नि में झुलस कर विवाह की भेंट हो जाते हैं । कई युवक विवाह में आई हुई वेश्याओं के हो शिकार बन जाते हैं । इस प्रकार आजकल की विवाह पद्धति द्वारा अपना ही सर्वनाश नहीं किया जाता, किन्तु दूसरों के सर्वनाश का भी कारण उत्पन्न कर दिया जाता है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१९ ) ७- एक प्रश्न श्राजकल समाज के सम्मुख विधवा-विवाह का जो प्रश्न उपस्थित है, उसके मूल कारण बाल-विवाह, बेजोड़ - विवाह और विवाह की खर्चीली पद्धति ही हैं । बाल-विवाह एवं बेजोड़ - विवाह के कारण एक ओर तो विधवाओं की संख्या बढ़ जाती है और दूसरी ओर बहुत से पुरुष अविवाहित ही रह जाते हैं । इसी प्रकार विवाह की खर्चीली पद्धति के कारण भी अनेक गरीब परन्तु योग्य युवक भी अविवाहित रह जाते हैं क्योंकि उनके पास वैवाहिक आडम्बर करने को द्रव्य नहीं होता । यदि बाल-विवाह और बेजोड़ विवाह बन्द हो जावें, विवाहों में अधिक खर्च न हुआ करे, तो विधवाओं और अविवाहित पुरुषों की बढ़ी हुई संख्या न रहने पर सम्भवतः विधवाविवाह का प्रश्न आप ही हल हो जाय । सारांश यह कि पूर्व समय में विवाह तब किया जाता था, जब पति-पत्नी सर्वविरति - ब्रह्मचर्य पालने में अपने को असमर्थ मानते थे, अर्थात् विवाह कोई आवश्यक कार्य नहीं समझा जाता था; लेकिन आजकल विवाह एक आवश्यक कार्य माना जाता है । जीवन की सफलता विवाह में ही समझी जाती है । जब तक लड़के लड़की का विवाह न हो जाये, तब तक वे दुर्भागी समझे जाते हैं । इसी कारण आवश्यकता और अनुभव के बिना ही विवाह कर दिया जाता है और वह भी बेजोड़ तथा हजारों लाखों रुपये व्यय करके धूमधाम के साथ । पूर्व समय की विवाह प्रथा समाज दुराचार से बचाती थी समाज का हित साधन में शान्ति रखती थी, समाज को और अच्छी सन्तान उत्पन्न करके Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) - करती थी । आजकल की विवाह प्रथा इसके विपरीत कार्य करती है । बोल - विवाह, बेजोड़ -विवाह और विवाह की खर्चीली पद्धति, समाज में प्रशान्ति उत्पन्न करती है, लोगों को दुराचार में प्रवृत्त करती है और रुग्ण एवं अल्पायुषी सन्तान द्वारा समाज का अहित करती है । -समाधान वैवाहिक विषय के वर्णन पर से कोई यह कह सकता है कि साधुओं को इन सांसारिक बातों से क्या मतलब और वे ऐसी बातों के विषय में उपदेश क्यों दें ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि इन सांसारिक वातों से साधु लोग परे हैं लेकिन साधुओं का धार्मिक जीवन नीति- पूर्ण संसार पर ही अवलम्बित है । यदि संसार में सर्वत्र अनीति छा जाये तो धार्मिक जीवन के लिए स्थान भी नहीं रह सकता । इसी दृष्टिकोण से विवाह की विधि बताने के लिए ही शास्त्रों की कथा में विवाह बन्धन में जुड़ने वाले स्त्री-पुरुष की समानता आदि का वर्णन किया है । यह बात दूसरी है कि उनमें बाल-विवाह, असमय के सहवास ग्रादि का निषेध नहीं है । लेकिन उस समय इस प्रकार की कुप्रथाएं थीं ही नहीं, इसलिए इस प्रकार के उपदेश की भी आवश्यकता न थी । अन्यथा पूर्ण ब्रह्मचर्य का ही विधान करने वाले होने पर भी जैन - शास्त्र ऐसे अपूर्ण नहीं हैं कि उनमें सांसारिक जीवन की विधि पर कथाओं द्वारा प्रकाश न डाला गया हो । 'सरियावया, सरीसतया' आदि पाठ इसी बात के द्योतक हैं कि विवाह समान युवावस्था में ही होता था । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत मातृवत्परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्ठवत् । आत्मवत्सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति ।। 'जो मनुष्य पराई स्त्री को माता के समान जानता है, पराये धन को मिट्टी के ढेले के समान मानता है और सब प्राणियों को अपने ही समान देखता है, वही यथार्थ देखने वाला है ।' १-विवाहित जीवन में ब्रह्मचर्य ऊपर यह तो कहा जा चुका है कि जो पुरुप या स्त्री पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करने में समर्थ हैं, उन्हें विवाह न करना चाहिए और जो ऐसा करने में असमर्थ हैं, उनके लिए विवाह करना अनुचित भी नहीं माना जाता । अब देखना यह है कि विवाह करके भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है या नहीं ? और किया जा सकता है तो किस रूप में ? प्रत्येक बात का ऊचे से ऊंचा और नीचे से नीचा प्रादर्श रहता ही है । मनुष्यमात्र से एक ही आदर्श की ओर चलने की प्राशा करना उचित नहीं है, क्योंकि सब लोगों में समान बुद्धि, शक्ति, साहस, धैर्य आदि नहीं होते । इस Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२) बात को दृष्टि में रखकर ही जैन-शास्त्रों ने ब्रह्मचर्य का भी ऊंचे से ऊंचा और नीचे से नीचा ऐसे दोनों ही प्रकार के आदर्श बताये हैं । ब्रह्मचर्य के सबसे ऊंचे आदर्श का नाम, सर्वविरति ब्रह्मचर्य है और उससे नीचे आदर्श का नाम देशविरति ब्रह्मचर्य है, देशविरति ब्रह्मचर्य अर्थात् आंशिक ब्रह्मचर्य । विवाहित पुरुष-स्त्री भी देश विरति ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन भली भांति कर सकते हैं । बल्कि देशविरति ब्रह्मचर्य को स्वीकार करना, धार्मिक एवं नैतिक-दृष्टि से प्रत्येक पुरुष स्त्री का कर्तव्य है । देशविरति ब्रह्मचर्य को स्वीकार करने से विवाहित स्त्री-पुरुष के सांसारिक कामों में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती क्योंकि सर्वविरति ब्रह्मचर्य में मैथुनाङ्गों सहित सब प्रकार के मैथुन का मन, वचन और काय से करने, कराने और अनुमोदन करने का त्याग लिया जाता है । लेकिन देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत का आदर्श, इससे बहुत नीचा है । देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत स्वीकार करने वाला जो प्रतिज्ञा करता है, वह इस प्रकार होती है: सदारसंतोसिए अवसेसं मेहुणं पचक्खामि जावजीवाए (देवदेवीसम्बन्धी) दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा, मनुष्यमनुष्यणी एवं तियंचतियंचणी सम्बन्धी एकविहं एगविहेणं न करेमि कायसा इस प्रतिज्ञा के अनुसार देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत स्वीकार करने वाले पुरुष या स्त्री के लिए सांसारिक काम न Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३) रुकने योग्य बहुत गुंजायश रह जाती है। इसलिए विवाहित पुरुष-स्त्री को देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत स्वीकार करना एवं पालन करना चाहिये । पुरुष और स्त्री के भेद से देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत का नाम स्वदार-संतोष-व्रत और स्वपतिसन्तोष-व्रत है । इन दोनों की अलग-अलग व्याख्या की जाती है। २-स्वदार-संतोष जिस ब्रह्मचर्य-व्रत में स्वदार का आगार रक्खा जाता है, उसे स्वदारसंतोष-व्रत कहते हैं । इस व्रत को स्वीकार करने में उन सभी स्त्रियों से मैथुन करने का त्याग करना पड़ता है जो स्व की नहीं हैं । जो स्त्री स्व (खुद) की कहलाती है उसके सिवा अन्य सभी स्त्रियां परदार हैं और यह व्रत स्वीकार करने में ऐसी सभी स्त्रियों से मैथुन-सेवन का त्याग किया जाता है । इस प्रकार गृहस्थ. पुरुप जिस देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत को स्वीकार करते हैं, उसका नाम स्वदारसंतोष-व्रत है और इस व्रत को स्वीकार करने में परदार का विरमण (त्याग) किया जाता है । .३-लाभ। स्वदार संतोष-व्रत का बहुत माहात्म्य है । शास्त्रकारों का कथन है कि इस व्रत को स्वीकार करने वाले पुरुष की कामेच्छा सीमित हो जाती है, जिससे वह असीम कामेच्छा के पाप से बच जाता है । पर-स्त्री-सेवन का त्याग करने वाले पुरुष का चित्त, परस्त्री की ओर जाता ही नहीं, Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) जिससे उसके द्वारा परस्त्री-सेवन का पाप नहीं होता। दुराचारी की अपेक्षा उसका शरीर बलवान, मेधावी और दीर्घायुषी होता है और सन्तान भी ऐसी ही होती है । अन्य ग्रन्थकारों ने भी इस व्रत का वहत माहात्म्य बताया है। पुराणों के रचयिता व्यासजी कहते हैं स्वदारे यस्य सन्तोषः परदारनिवर्तनम् । अपवादोऽपि नो यस्य तस्य तीर्थफलं गृहे ॥ ___-व्यास स्मृति । 'स्वदार में सन्तोष करने और पराई स्त्री से निवर्त्तने वाला पुरुष निन्दा से बच जाता है, उसका किसी प्रकार अपवाद नहीं होता तथा घर में ही उसे तीर्थ का फल मिल जाता है।' स्वदार-संतोप व्रत स्वीकार करने से दाम्पत्य-प्रेम में भी वृद्धि होती है । पति-पत्नी में कलह नहीं होता । लोक में निन्दा नहीं होती, किन्तु विश्वासपात्र माना जाता है । धन, वैभव, बल, बुद्धि, यश, कीर्ति, निर्भयता और सद्गुण सुरक्षित रहते हैं । परलोक में भी वह उन दुःखों से बचा रहता है, जो परदार-गामी को प्राप्त होते हैं। जैन सिद्धान्त कहते हैं, ऐसा पुरुष राज्य-भण्डार में, अन्त.पुर में, साहुकार के भण्डार में और अन्यत्र कहीं जावे तो भी उसकी अप्रतोति नहीं होती। ४-परदार-गमन स्वदार-सन्तोष व्रत रहित यानी परदार-गामी पुरुष, Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५) दुराचारी कहलाता है और वह अपनी स्त्री को भी सन्तुष्ट रखने में असमर्थ रहता है । ऐसे पुरुष का विश्वास, न स्व. स्त्री ही करती है, न परस्त्री ही । स्व-पत्नी से सदा कलह बना रहता है । घर दू खमय हो जाता है । सन्तान या तो होती ही नहीं और होती भी है तो रुग्ण, अल्पायुषी और दुराचारिणी क्योंकि माता-पिता के सद्गुण-दुर्गुण का प्रभाव सन्तान पर पड़ता ही है । परदार-गामी पुरुष की लोक में अत्यन्त निंदा होती है । कोई उसका विश्वास नहीं करता। सब लोग यहां तक कि अपनी स्त्री भी, उसे घणा की दृष्टि से देखती है । उसका जीवन, कलंकित, दूषित एवं पापपूर्ण रहता है । परस्त्री की इच्छा रखने वाले पुरुष की संचित कीर्ति भी नष्ट हो जाती है । यश उसके पास भी नहीं फट कता । धनवैभव उसे त्याग देते है । बल, सौन्दर्य, साहस और धैर्य का उस में प्रभाव-सा हो जाता है । वह दुर्गुणों और पातकों का घर बन जाता है । उसमें से सद्गुण निकल जाते हैं । भय, क्रोध, रोग, शोक, अपमान, दीनता आदि समस्त दुःख उसे घेर लेते हैं । कभी-कभी तो मृत्यु का भी प्रालिंगन करना पड़ता है । परदारगामी का मन सदैव कलुषित बना ही रहता है, जिससे नीति और धर्म से निषिद्ध कार्य भी सदा करता ही रहता है। इस प्रकार उसका इहलौकिक जीवन भी दु:खमय बन जाता है और परलोक में भी उसे नरक की घोर से घोर वेदना सहनी पड़ती है । पर-स्त्री सेवन की बुराइयां बताते हुए गांधीजी लिखते हैं कि 'जहां पर-स्त्री गमन न हो, वहां पर प्रतिशत पचास डाक्टर बेकार हो जावेंगे । पर-स्त्री गमन से होने वाले Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६) रोगों की दवाइयां भी ऐसी जहरीली होती हैं कि यदि उन. दवाइयों से एक रोग का नाश मालुम होने लगता हैं, तो दूसरे रोग घर कर लेते हैं और पीढ़ी दरपीढ़ी चल निकलते हैं। गांधीजी के कथन का अभिप्राय यह है कि पर-स्त्री सेवन से रोग और अशक्तता का ऐसा आधिक्य हो जाता है कि जिसका फल भावी सन्तति को भी भोगना पड़ता है । वे आगे कहते हैं कि 'मनुष्य के सामाजिक जीवन का केन्द्र, एक-पत्नीव्रत ही है।' इसलिए स्वदार सन्तोष व्रत स्वीकार करके पर-स्त्री का त्याग करना ही लाभप्रद है। अन्य ग्रन्थकार भी कहते हैं - दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः । दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च ।। नहीदृशमनायुष्यं लोके किञ्जन दृष्यते । यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम् ॥ __ मनुस्मृति । 'दुराचारी पुरुष लोक में निन्दित होता है । सदा दुःखी, रोगग्रस्त और अल्पायुषी होता है । इस संसार में पुरुष का आयुर्बल क्षीण करने वाला ऐसा कोई भी कार्य नहीं है, जैसा कि पराई स्त्री के साथ रमण करना है।' . परदार-गमन से केवल आयुर्बल ही क्षीण नहीं होता किन्तु बल, साहस, धन-वैभव आदि भी नष्ट हो जाते हैं । कैसा भी बलवान हो, कैसा भी वैभवशाली हो और कैसा Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) भी साहसी हो, लेकिन यदि उसमें पर- स्त्री चाहने का रोग है, तो उसका समस्त बल, वैभव और साहस, गर्म तवे पर गिरी हुई जल की बूंद के समान नष्ट हो जाते हैं । पराई स्त्री की इच्छा करने वाला, अपनी ही हानि नहीं करता, किन्तु अपने कुल परिवार और मित्रों की भी हानि करता है । राजा रावण में बल की कमी नहीं थी, वैभव भी खूब था और साहस भी पर्याप्त था, लेकिन वह सदाचारी स्वदार-सन्तोषी न था, इसलिए उसका बल, वैभव तथा साहस किसी काम न आया और परिवार नष्ट हो गया । यही बात मणिरथ पद्मोत्तर आदि के लिए भी है । इनमें भी यदि सदाचार का अभाव न होता तो इनके नष्ट होने का भी कोई ऐसा निन्द्य कारण न था । बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में लिखा है कि जो अविचारी पर - स्त्री की अभिलाषा करता है, उसे चार फल मिलते हैं - ( १ ) अपशय, (२) निद्रानाशक चिन्ता, (३) दण्ड और ( ४ ) नरक । इस प्रकार अन्य ग्रन्थों ने भी परदार- गमन की निन्दा ही की है । ५ – परदार- गमन, मांस और मदिरा के त्याज्य है । समान ही आजकल के पुरुषों में शायद ऐसे पुरुष तो अधिक निकलेंगे जो मांस-मदिरा के त्यागी हों, लेकिन परदार- त्यागी पुरुष सम्भवतः बहुत कम निकलेंगे । मांस-मदिरा के त्यागी और परदार- भोगी पुरुष, सम्भवतः परदार को मांस-मदिरा की अपेक्षा ग्राह्य समझते हैं, लेकिन वास्तव में मांस-मदिरा की अपेक्षा परदार ग्राह्य नहीं है, किन्तु मांस-मदिरा के समान त्याज्य है । मांस-मदिरा की तरह परदार- सेवन भी Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) बुद्धि, धन, सौन्दर्य, दया, सहानुभूति और धर्म का नाशक एवं हिंसादि पापों में प्रवृत्त करने वाला है । ऐसा होते हुए भी बहुत से लोग इस पाप से माँस-मदिरा के पाप की तरह नहीं बचते । उपासक दशाङ्ग-सूत्र के ८ वें अध्ययन में महाशतक श्रावक का वर्णन आया है । महाशतक की स्त्री रेवती मांसभक्षिणी थी किन्तु महाशतक पर. ही अनुरक्त थी । इस कारण महाशतक ने यह विचारा होगा कि यदि मैं इसे त्याग दूंगा तो सम्भव है कि यह व्यभिचार का भयंकर पाप करने लगे । जान पड़ता है कि इसी विचार से महाशतक श्रावक ने मांस-भक्षिणी रेवती का त्याग. नहीं किया हो। इससे यह सिद्ध हुआ कि महाशतक की दृष्टि में व्यभिचार आदि मांस-भक्षण से अधिक नहीं, तो उसके समान ही पाप था । ६-पत्नी को सदाचारिणी रखने के लिये स्वयं सदाचारी बनो। बहुत से पुरुष, अपनी स्त्री से तो पतिव्रत पालन कराना चाहते हैं, उसे पर-पुरुष-गामिनी नहीं देखना चाहते, लेकिन अपने आपको परदार-गमन के लिए स्वतन्त्र समझते हैं । ऐसे लोग जान-बूझ कर बबूल बोते हैं और आम खाने की इच्छा रखते हैं। किसी नियम का पालन दूसरे से तभी कराया जा सकता है, जब स्वयं भी उसका पालन करे । जब तक स्वयं द्वारा किसी नियम का पालन न किया जावे, तब तक दूसरे से उस नियम का पालन कराने में सफलता Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६) नहीं मिल.सकती । यह बात दूसरी है कि परदारगामी पुरुष की स्त्री अपना धर्म विचार कर स्वयं ही सदाचारिणी रहे, लेकिन परदारगामी पुरुष को सैद्धान्तिक-रूप में यह अधिकार नहीं रहता कि यह अपनी स्त्री को सदाचारिणी रहने के लिए बाध्य कर सके । यह अधिकार उसे तभी हो सकता है, जब वह भी सदाचार का पालन करता हो । बल्कि स्त्रियों को पर-पुरुष-गामिनी बनाने वाले, परदार-गामी पुरुष ही हैं । ज्यादातर स्त्री स्वयं ही पर-पुरुष-गामिनी नहीं होतो, किन्तु परदारगामी-पुरुष ही अपने लिए किसी स्त्री को पर-पुरुष-गामिनी बनाता है अतः अपनी स्त्री को पतिव्रता, सदाचारिणी और पतिपरायणा रखने के लिए भी स्वदार-सन्तोष-व्रत स्वीकार करके पालन करना चाहिये । ७-स्व-स्त्री सेवन की मर्यादा यद्यपि इस व्रत में स्व-स्त्री का आगार रहता है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि स्व-स्त्री से भी मथुन करने में स्वच्छन्दता से काम लिया जावे क्योंकि इस व्रत का नाम, स्वदार सन्तोष है । स्वदार-रमण नाम नहीं है । यदि स्वदार-रमण नाम होता तब तो स्व-स्त्री के सेवन में स्वच्छन्दता को स्थान हो सकता था, लेकिन स्वदार-सन्तोष नाम में स्वच्छन्दता को स्थान ही नहीं रहता। इसलिए आगार होने पर भी, स्वदार-सेवन में नीतिकारों की बताई हुई मर्यादा का पालन करना आवश्यक है। नीतिकारों का कथन है: सन्तानार्थञ्च मथुनम् । 'मैथुन का विधान सन्तान उत्पन्न करने के लिए ही है।' Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ). वैद्यक मतानुसार, रजोदर्शन से पूर्व स्त्री-पुरुष का संसर्ग सन्तानोत्पत्ति के लिए निरर्थक है और ऋतु स्नान के सिवा अन्य समय में किये गये मैथुन से वीर्य वृथा जाता है । इसलिये ग्रन्थकारों ने कहा है- रजोदर्शन से पहले स्त्रीसंसर्ग न करें । इस प्रकार ऋतु स्नान से पूर्व, स्त्री - सेवन का भी निषेध किया गया है । ऋतु स्नान से पूर्व स्त्री-सेवन द्वारा वीर्य को वृथा नाश करने वाले के लिए ग्रन्थकार कहते हैं: ――― व्यर्थीकारेण शुक्रस्य ब्रह्महत्यामवाप्नुयात् । - निर्णयसिन्धु । वीर्य को वृथा खोने से ब्रह्महत्या का पाप होता है । इस प्रकार स्वच्छन्दता से अपनी स्त्री का सेवन करने का भी निषेध किया गया है । वैद्यक मतानुसार, स्व- स्त्री के साथ भी अति मैथुन करने से शारीरिक शक्ति क्षीण होती है, वीर्य पतला पड़ता है, सन्तान दुर्बल, अल्पायुषी और दुर्गुणी होती है । अति मैथुन करने वाला अच्छे कार्य नहीं कर सकता । ऐसा पुरुष यदि कभी अपनी स्त्री से अलग रहे, तो उसमें व्यभिचार दोष का प्रा जाना बहुत सम्भव है क्योंकि वह अपनी मैथुनेच्छा को रोकने में असमर्थ हो जाता है, इसलिए दुराचार में पड़ना आश्चर्य की बात नहीं । अति मैथुन से आंखों की ज्योति क्षीण हो जाती है, दांत गिर जाते हैं और शरीर से दुर्गन्ध आने लगती है । अति मैथुन के कारण क्षय, प्रमेह, स्वप्नदोष, नपुंसकता आदि रोग उत्पन्नं होते हैं और आयुर्बल कम होता है । वैद्यक ग्रन्थों में कहा है: --- Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१) प्रतिस्त्रीसम्प्रयोगाद् रक्षेदात्मानमात्मवान् । क्रीड़ायामपि मेधावी हितार्थी परिवर्जयेत् ॥१॥ शूल-कास-ज्वर-श्वासकार्य-पांड्वामयक्षयाः। अतिव्यवायाज्जायन्ते रोगाश्चाक्षेपकादयः ॥२॥ 'अति स्त्री-प्रसङ्ग से अपने को बचाये रहना, सावधान रहना मनुष्य को उचित है। अपना भला चाहने वाले बुद्धिमान् पुरुषों के लिए क्रीड़ा में भी अति प्रसङ्ग वर्ण्य है । अति मैथुन से शूल, खांसी, ज्वर, श्वास, दुर्बलता, पीलिया, क्षय आदि व्याधियां उत्पन्न होती हैं ।' - तात्पर्य यह है कि अपनी स्त्री से भी अति मैथुन वयं है । अति मैथुन के साथ ही नीतिकारों ने असमय के मैथुन का भी निषेध किया है । दिन का समय, रात का पहला और अन्तिम पहर तथा स्त्री गर्भवती हो वह समय मैथुन के लिए निषिद्ध है । दिन में तथा रात के पहिले और अन्तिम पहर में स्वस्त्री से किया गया मैथुन भी शरीर सम्बन्धी वे ही ह नियां करने वाला होता है, जो हानियां परस्त्री-गमन से होती हैं । इसी प्रकार गर्भवती स्त्री से मैथुन करने से गर्भ के बालक पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है । कभी-कभी तो माता-पिता की इस कुचेष्टा से गर्भ में हो बालक की मृत्यु हो जाती है । यदि बालक जन्मा भी तो वह बचपन .से ही अब्रह्मचर्य की कुचेष्टायें करने लगता है और अन्त में महाभयंकर परिणाम को प्राप्त होता है । गर्भवती स्त्री से मैथुन करने पर वह स्त्री भी रोग-ग्रस्त हो जाती है तथा प्रसूति रोगादि से मर भी जाती है। गर्भवती से मैथुन करने Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) के कार्य को यदि मनुष्य-हत्या के समान पाप कहा जावे तब भी कोई अत्युक्ति न होगी। गर्भवती स्व-स्त्री के समान उस स्वस्त्री से भी मैथुन करना वर्ण्य है, जिसका बालक छोटा हो । छोटे बालक की मां के साथ ऋतुकाल में मैथुन करना भी वैद्यक और नीति के अनुसार हानिप्रद है । ऐसी स्त्री के साथ मैथुन करने से और उस स्त्री के गर्भवती हो जाने से उस छोटे बालक का विकास रुक जाता है और गर्भ का बालक भी कमजोर, रुग्ण एवं अल्पायुषी होता है । इसलिए छोटे बच्चे वाली स्व-स्त्री से भी मैथुन करना त्याज्य है । ८-इस समय के स्वदार-सन्तोषी वर्तमान समय के परदार-त्यागी और स्वदार-सन्तोषी पुरुषों में सम्भवतः ऐसे पुरुष तो गिनती के ही निकलेंगे जो स्व-स्त्री सेवन में नीतिकारों की बताई हुई मर्यादाओं का पालन करते हों । लोगों के मुह से एक-दो या चार-छ: दिनों के लिए मैथुन का त्याग कराने की बात सुनकर समाज की पतनावस्था पर दया आती है । उनके इस त्याग लेने की बात से यह स्पष्ट है कि ऐसा कोई ही दिन जाता होगा जिस दिन वे मैथुन से बचे रहते हों । यद्यपि नीतिकारों ने ऋतुकाल के सिवा अन्य समय में स्त्री-गमन का निषेध किया है और इस बात का समर्थन वैद्यक-ग्रन्थ भी करते हैं तथा प्राकृतिक रचना पर दृष्टिपात करने से भी यही प्रकट है, फिर भी लोग इस मर्यादा की अवहेलना करते हैं । ऐसे लोगों को मनुष्य कहने का कारण केवल उनकी शारीरिक रचना के सिवा और कुछ नहीं रहता क्योंकि जिन नियमों Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) का पालन बुद्धिहीन पशु भी करते हैं, उन नियमों का पालन यदि बुद्धि-सम्पन्न मनुष्य न करे तो फिर उसमें पशुओं की अपेक्षा शारीरिक रचना के सिवा कौनसी विशेषता रही ? पशु भी प्रायः ऋतुकाल के सिवा अन्य समय में मैथुन नहीं करता । यदि मनुष्य होकर भी इस नियम की अवहेलना करता है, तो इससे अधिक पतन की बात और क्या होगी? स्वदार-सन्तोष-व्रत का पूर्णतया पालन तभी समझना चाहिये, जब परस्त्री को त्यागने के साथ ही स्व-स्त्री के सेवन में भी अनियमितता न की जावे यानी सन्तोष से काम लिया जावे । 8-एक पत्नी -व्रत स्वदार-सन्तोष-व्रत की विशेषता तब है, जब मौजूदा पत्नी के सिवाय अन्य का त्याग कर दिया जाय, जैसा कि आनन्द श्रावक ने अपनी शिवानन्दा स्त्री का ही आगार रखा था । व्रत धारण करने के पश्चात् और विवाह करने की इच्छा न रखी जावे । पुरुषों ने अपने प्रभुत्व से बहुविवाह या एक स्त्री के मरने पर दूसरा विवाह करने का अधिकार बढ़ा लिया है और वर्तमान समय में एक पत्नी के मरने के बाद दूसरी पत्नी करने यानि दूसरा तीसरा विवाह करने की प्रथा चल पड़ी है । इससे ऐसा करना कठिन जान पड़ता है, अन्यथा प्राकृतिक रचना पर ध्यान देने एवं न्याय दृष्टि से विचारने पर यह बात स्पष्ट है कि इस विषय में पुरुष को स्त्री से अधिक अधिकार नहीं है । चरितानुवाद के सूत्रों में ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिखाई पड़ता, जो श्रावक की विद्यमान पत्नी मरने पर या विद्यमान कायम रहते हुए भी सकारण दूसरा विवाह किया हो अर्थात् जिस प्रकार स्त्रियां Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४) एक-पतिव्रत का पालन करती हैं, उसी प्रकार पुरुषों को भी एक-पत्नी-व्रत का पालन करना उचित है और जिस प्रकार विधवा होने पर भी स्त्रियां दूसरे पुरुष के साथ विवाह नहीं करतीं, उसी प्रकार पुरुष को भी विधुर होने पर दूसरी स्त्री के साथ विवाह करना उचित नहीं । अतः विधवाओं की तरह विधुर को भी ब्रह्मचर्य पालना चाहिये। १०-स्वपतिसन्तोष । कोकिलानां स्वरों रूपं नारीरूपं पतिव्रतम् । . चाणक्य नीति । 'कोयल का रूप उसका स्वर है और स्त्री का रूप उसका पतिव्रत है ।' सर्वविरति ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार करने में असमर्थ ऐसी विवाह करने वाली स्त्रियों को विवाह करने के पश्चात् भी स्वपति-सन्तोष-व्रत स्वीकार एवं पालन करना चाहिए । स्वपतिसन्तोषव्रत स्वीकार करने वाली स्त्रियां देशविरति ब्रह्मचारिणी कहलाती हैं और व्यवहार तथा अन्य ग्रन्थकारों की दृष्टि में ऐसी स्त्रियां ब्रह्मचारिणी सतियां भी कहलाती हैं। जैसे - या नारी पतिभक्ता स्यात्सा सदा ब्रह्मचारिणी । सूक्ति । 'जो स्त्री पतिभक्ता है - दूसरे पुरुष से अनुराग नहीं रखती, वह सदा ब्रह्मचारिणी कहलाती है।' . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५) 'स्वपतिसन्तोषव्रत स्वीकार एवं पालन करने से स्त्रियों को बे ही लाभ होते हैं, जो लाभ पुरुषों को स्वदारसन्तोषव्रत से होते हैं । संसारावस्था में स्त्रियों के लिए स्वपतिसन्तोष-व्रत के समान और कोई कार्य इस लोक तथा परलोक में हितसाधक नहीं है । दूसरे कार्य किसी एक ही लोक का हित साधने में समर्थ हो सकते हैं. लेकिन स्वपतिसन्तोष-व्रत से दोनों ही लोक सुधरते हैं । अन्य ग्रन्थकार भी कहते हैं पति या नाभिचरति मनोवाग्देहसंयता । सा भर्तृलोकानाप्नोति सद्भिःसाध्वीति चोच्यते ॥ मनुस्मृति। 'जो स्त्री मन, वाणी तथा शरीर से व्यभिचार नहीं करती है, पर-पुरुष को नहीं चाहती है, वह इस लोक में सती साध्वी कही जाती है और मरने पर स्वर्ग और परम्परा से मोक्ष को प्राप्त होती है।' ११-व्यभिचार-निन्दा । स्वपतिसन्तोषव्रत स्वीकार करने वाली स्त्री के लिए इस लोक तथा परलोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं है । पतिव्रता-स्त्री की सेवा-सहायता के लिए देवता भी तत्पर रहा करते हैं । शास्त्रों में सीता, द्रौपदी और सुभद्रा आदि सतियों का वर्णन उनके सतीत्व के कारण ही आया है एवं अग्नि का शीतल होना भी उनके पतिव्रत का ही प्रभाव है । इसके विपरीत जो स्त्रियां व्यभिचारिणी हैं, उनके लिए इस लोक Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६) और परलोक में वे ही हानियां हैं, जो व्यभिचारी पुरुष के लिए बताई गई हैं । अन्य ग्रन्थकारों ने भी कहा हैव्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम् । शृगालयोनि चाप्नोति पापरोगैश्च पोड्यते ॥ मनुस्मृति। स्वपति-संतोषव्रत पालन करने के लिए स्त्रियों को भी उन नियमों का पालन करना आवश्यक है, जो नियम स्वदारसंतोषव्रत लेने वाले पुरुषों के लिए बताये हैं । बल्कि धर्म-सहायिका होने के कारण स्त्रियों पर अपने पति को पत्नी व्रत पर स्थिर रखने एवं नियमों का पालन कराने की जिम्मेदारी और आ पड़ती है । स्वपतिसंतोष-व्रत की आराधिका स्त्री ऐसे कोई कार्य नहीं करती, जिनके करने से उसके या उसके पति के व्रत में दोष लगता हो या व्रत से संबन्ध रखने वाले नियम भंग होते हों । १२-व्रत-रक्षा के उपाय । देशविरति ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए उन नियमों को आदर्श मान कर यथासम्भव उनका अनुसरण करना उचित है, जो नियम सर्वविरति ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए बताये गये हैं । यह बात दूसरी है कि देशविरति ब्रह्मचर्य स्वीकार करने वाले लोग ग्रहस्थ होते हैं । इसलिए समुचित रूप में उन नियमों का पालन न कर सकें, लेकिन आंशिक रूप में तो अवश्य पालन कर सकते हैं । उदाहरण के लिए सर्वविरति ब्रह्मचारी की तरह देशविरति ब्रह्मचारी उस मकान में Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) जिसमें स्त्री, पशु रहते हों न रहने का नियम नहीं पाल सकता, लेकिन स्त्री-पुरुष अलग-अलग कमरों में रहने या एक शय्या पर शयन न करने के नियम का पालन कर सकते हैं । इसी प्रकार देशविरति ब्रह्मचारी यदि स्त्री-मात्र को न देखने, उससे बातचीत हंसी-मजाक आदि न करने का नियम नहीं पाल सकता तो पर-स्त्री के लिए तो इस नियम को पाल ही सकता है। सारांश यह कि देशविरति ब्रह्मचारी को सर्वथा नहीं तो आंशिक रूप में जितने भी पाल सकें, उन नियमों का पालन . करना उचित है, जो नियम सर्वविरति ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणी के लिए बताये गये हैं। *.* Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-व्रत के अतिचार व्याख्या . शास्त्र में प्रत्येक व्रत की चार मर्यादाएं बतलाई गई है; अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार ओर अनाचार । व्रत को उल्लंघन करने का संकल्प करना अतिक्रम है । इस संकल्प को पूरा करने के लिए सामग्री जुटाना व्यतिक्रम है । व्रत को उल्लंघन करने के संकल्प को कार्यरूप में परिणत करने के लिए तैयार हो जाना अतिचार है और व्रत का उल्लंघन करने के संकल्प को पूरा कर डालना यानी व्रत को तोड़ डालना अनाचार है । यद्यपि व्रत में दूषण तो अतिक्रम और व्यतिक्रम से भी लगता है, लेकिन मानव-स्वभाव को दृष्टि में रख कर व्यवहार में अतिक्रम और व्यतिक्रम से व्रत दूषित नहीं माना जाता, किन्तु अतिचार से व्रत दूषित माना जाता है और अनाचार से तो व्रत नष्ट ही हो जाता है । इसलिए प्रत्येक व्रत के अतिचारों को जान कर उनसे बचना आव. श्तक है। देशविरति ब्रह्मचर्य व्रत के भगवान् महावीर ने पांच अतिचार बताये हैं, जो इस प्रकार हैं Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६) सदारसंतोसिए पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तंजहा-इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिगहियागमणे अनंगकीडा, परविवाहकरणे कामभोगतिव्वाभिलासे । ___" स्वदारसन्तोष-व्रत के पांच अतिचार जानने योग्य हैं, लेकिन आचरण योग्य नही हैं । वे अतिचार ये हैंइत्वरपरिगृहीता गमन, अपरिगृहीता गमन, अनंग क्रीड़ा, पर विवाह करण, कामभोग में तीव्र अभिलाषा । पहिला अतिचार । देशविरति ब्रह्मचर्य-व्रत का पहिला अतिचार, इत्वरपरिग्रहीता गमन है । बहुत लोग स्वदारसन्तोषव्रत लेकर भी यह गुजाइश निकालने लगते हैं कि हमने स्वदार का आगार रखा है, अतः यदि किसी स्त्री को कुछ समय के लिये रुपये पैसे देकर -- या बिना दिये हो- अपनी बना ली जावे और उसके साथ स्वदारका सा व्यवहार किया जावे, तो इससे स्वदारसंतोष-व्रत में कोई दूषण नहीं पाता । यद्यपि स्वदारसन्तोष-व्रत में, केवल स्वदार- यानी जिसके साथ, देश और समाज प्रचलित रीति से विवाह हना है, उसी का आगार रहता है, फिर भी कई लोग उक्त प्रकार की गुंजाइश निकालने लगते हैं । लेकिन इस प्रकार की गुंजाइश निकाल कर जो अपनी नहीं है, उस स्त्री को थोड़े समय के लिए अपनी बना कर, उसके साथ मैथुन करने के लिए तैयार हो जाना अतिचार है । ऐसा करना जब तक अतिचार के रूप में है, तब तक तो व्रत में दूषण ही लगता है- व्रत नष्ट नहीं होता, लेकिन इस प्रकार का कार्य अनाचार के रूप में होने Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४०) पर यानी मैथुन क्रिया रूप में हो जाने पर व्रत नष्ट हो जाता है । इस अतिचार का दूसरा अर्थ यह भी है कि अपनी स्त्री भी जो अल्पवयस्का है, भोग योग्य नहीं है, ऐसी स्त्री से सम्भोग करना अनाचार तो नहीं, किन्तु अतिचार अवश्य है । कारण ऐसा कार्य बलात् किया जाता है। बाल-विवाह से ऐसा होता है। दूसरा अतिचार दूसरा अतिचार अपरिगृहीता गमन है । परदार से निवर्तने वाले बहत से लोग, परदार-त्याग का यह अर्थ लगाते हैं कि जो स्त्री दूसरे की है, जिसका स्वामी कोई दूसरा पुरुष है, उस स्त्री से मैथुन करने का हमने त्याग लिया है, लेकिन जो स्त्री किसी दूसरे की है ही नहीं, जिसका कोई नियत पति ही नहीं है-जैसे वेश्या- या जिसका विवाह ही नहीं हुआ या विवाह तो हुआ है, लेकिन अब वह पतिविहीना है-जैसे विधवा या परित्यक्ता-ऐसी स्त्री के साथ मैथुन करने से लिये हुए त्याग में कोई दूषण नहीं होता । यद्यपि पर-स्त्री के त्याग में उन सभी स्त्रियों का त्याग हो जाता है, जो अपनी नहीं हैं, फिर भी कई लोग इस प्रकार गुजाइश निकालने लगते हैं। लेकिन इस प्रकार की गुंजाइश निकाल कर, जो स्त्री अपनी नहीं है, उस स्त्री से मैथुन करने के लिए तैयार हो जाना, त्याग की प्रतिज्ञा को दूषित करना है। अतिचार की सीमा तक-यानी मैथुन करने की तैयारी तक-तो त्याग की प्रतिज्ञा दूषित ही होती है, लेकिन अतिचार की सीमा का उल्लंघन होते ही-अनाचार होने परलिया हुआ व्रत नष्ट हो जाता है। इस अतिचार का दूसरा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४१) अर्थ यह है कि जिस कन्या के साथ सम्बन्ध तो हो गया है, परन्तु पंच-साक्षी से विवाह नहीं हुआ है, ऐसी स्त्री (कन्या) के सम्भोग करना अतिचार है, क्योंकि अपनी होते हुए भी वह अपरिगृहीता है । वेश्या-गमन से हानि कई लोग कहते हैं कि वेश्या तो किसी की स्त्री नहीं है, इस कारण वेश्या-सम्भोग से व्रत नष्ट नहीं होता। ऐसा कहने और समझने वाले लोग, लिए हुए व्रत और त्याग के रहस्य से ही अनभिज्ञ हैं। स्वदारसन्तोषव्रत और परदारविरमण, स्त्री-भोग की लालसा को सीमित करने, शनैः शनैः कम करने के लिए हैं । लेकिन वेश्या-सम्भोग, पर-स्त्री सम्भोग से भी अधिक हानिप्रद है । वेश्या-सम्भोग से दुर्विषय-लालसा में ऐसी भयंकर वृद्धि होती है कि जिसका वर्णन करना शक्ति से परे की बात है । वेश्यागामी पुरुष दुविषय-लालसा में वृद्धि होने के कारण वेश्या के पीछे अपना सब कुछ खो बैठता है । वेश्या के पीछे, बड़े-बड़े धनियों को-अपना धन-वैभव खोकर भीख मांगनी पड़ी है। बड़े-बड़े परिवार वाले, वेश्या के कारण निःसहाय हो जाते हैं । बड़े-बड़े बलवान, वेश्या-संग से बलहीन हो जाते हैं । इतना होने पर भी जिस वेश्या के पीछे यह सब होता है, वह वेश्या किसी भी पुरुष की नहीं होती। वेश्यागामी पुरुष इस लोक में निन्दित और परलोक में दण्डित होता है । बड़े अनुभव के पश्चात् भर्तृहरि कहते हैं वेश्याऽसौ मदनज्वाला रूपेन्धनसमेधिता । कामिभिर्गत्र हूयन्ते यौवनानि धनानि च । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२ ) ८" 'वेश्या कामाग्नि की ज्वाला होती है जो रूप-ईन्धन से सजी रहती है, कामी लोग इस रूप ईन्धन से सजी हुई वेश्या नाम्नी कामाग्नि की ज्वाला में अपने यौवन और धन की आहुति देते हैं ।" तात्पर्य यह कि वेश्या - गमन भयंकर पाप है । वेश्यागामी पुरुष का अन्तःकरण इतना कलुषित हो जाता है कि वह अपने कुटुम्ब की स्त्रियों पर कुदृष्टि डालने में तथा मनुष्य हत्या एवं आत्म हत्या करने में भी नहीं हिचकिचाता । तीसरा प्रतिचार तीसरा अतिचार अनंगक्रीड़ा है । काम सेवन के लिए प्राकृतिक जो ग्रंग हैं, उनके सिवा शेष सब यंग, काम सेवन के लिए अनंग हैं, जो अंग काम सेवन के लिए अनंग हैं, उनसे काम क्रीड़ा करना, ग्रनंग-कीड़ा कहलाती है । जैसेगुदा-मैथुन, हस्त मैथुन, मुख-मैथुन कर्ण-मैथुन, कुचमर्दन, चुम्बन आदि । इन सब मैथुनों की विशेष व्याख्या न करके इतना ही कहा जाता है कि स्व- स्त्री से भी ऐसा मैथुन करने से व्रत में दूषण लगता है । इसलिये व्रतधारी को इस अतिचार से बचना चाहिये । चौथा प्रतिचार चौथा प्रतिचार पर विवाह करण है | आनन्द श्रावक की तरह अपनी स्त्री का नाम लेकर स्वदार सन्तोष-व्रत स्वीकार करने वाला केवल अपनी उसी स्त्री पर सन्तोष करने की प्रतिज्ञा करता है, जो प्रतिज्ञा करने के समय Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ) मौजूद है और जिसके साथ देश और समाज में प्रचलित रीति से विवाह हो चुका है । ऐसा होने पर भी कई लोग यह गुजाइश निकालने लगते हैं कि हमने स्व-स्त्रीसन्तोष-व्रत लिया है । इसलिए यदि किसी अविवाहित स्त्री से विवाह करके उसे अपनी ही बना लें तो कोई हर्ज नहीं । ऐसा करने से हमारे व्रत में दूषण न लगेगा । वास्तव में ऐसा करना प्रतिज्ञा-विरुद्ध है । जब तक यह कार्य अतिचार की सीमा तक है, तब तक तो व्रत में दूषण ही लगता है, लेकिन अनाचार के रूप में होने पर व्रत नष्ट हो जाता है। यह बात दूसरी है कि कोई अपनी इच्छानुसार व्रत ले, लेकिन आनन्द की तरह स्वदारसन्तोष-व्रत लेने पर पुनः विवाह करने का अधिकार नहीं रहता । इस व्याख्या के विषय में आचार्य हरिभद्रसूरि जी कृत 'धर्मविन्दु' प्रमाण है । इस अतिचार का एक अर्थ, दूसरे का विवाह करनाकराना भी है । बहुत लोग धर्म या पुण्य समझ कर, दूसरे लोगों का विवाह करने-कराने लगते हैं, लेकिन व्रतधारी के लिए ऐसा करना निषिद्ध है । ऐसा करने से उसका व्रत दूषित होता है। पांचवां अतिचार पांचवां अतिचार काम-भोग की तीव्र अभिलाषा है। स्वदारसन्तोष- व्रत, काम-भोग की अभिलाषा को मन्द करने के लिए ही लिया जाता है और इसीलिये इसके नाम में 'सन्तोष' शब्द लगा हुआ है। ऐसा होते हुए भी कई लोग काम-भोग की अभिलाषा को तीव्र करने की चेष्टा करते Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४) हैं, यानी वाजीकरण आदि औषधियों का सेवन करते हैं, या , कामोद्दीपन की चेष्टा करते हैं और समझते हैं कि इसमें हमारे व्रत को कोई हानि नहीं पहुंचती । लेकिन ऐसा करने से स्वदार के सेवन में सन्तोष नहीं रहता, किन्तु असन्तोष बढ़ जाता है। इसलिए व्रतधारी को काम-भोग की अभिलाषा तीव्र करने का उपाय न करना चाहिए । ऐसा न करने से व्रत में अतिचार होता है और व्रत दूषित हो जाता है। इन अतिचारों को जान कर इनसे बचना, देशविरति ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक है । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार पूर्ण ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल शारीरिक संयम ही नहीं है किन्तु सभी इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार और मन, वचन, काय द्वारा कामभाव से सर्वथा मुक्ति है । पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन असम्भव या अस्वाभाविक नहीं है, किन्तु सम्भव और स्वाभाविक है । यद्यपि पूर्ण ब्रहमचर्य का सर्वांश में पालन तो गृहत्यागी साधु ही कर सकते हैं, लेकिन आंशिकरूप में गृहस्थ भी पाल सकता है और शरीर के विकास के लिए ब्रहमचर्य का पालन करना आवश्यक भी है । इसके लिए दृढ़ता की आवश्यकता अवश्य है । जिसमें दृढ़ता नहीं है, जो इन्द्रियों के किंचित् प्रकोप के सामने ही झुक जाता है, वह ब्रहमचर्य का पालन नहीं कर सकता क्योंकि इन्द्रियों के सामने थोड़ा भी झुक जाने पर इन्द्रियों का बल बढ़ता जाता है, वे अपना आधिपत्य जमाती जाती हैं और फिर ब्रहमचर्य से ही दूर नहीं फेंक देतीं, किन्तु दुराचार के गड्ढे में ही डाल देती हैं। जिस प्रकार अह मचर्य स्वाभाविक है, उसी प्रकार विषय-भोग अस्वाभाविक भी है, जिसकी इच्छा होना प्रायः बुरे तौर पर किये गये लालन-पालन का फल है । गांधीजी के शब्दों में, 'माताएं और दूसरे सम्बन्धी अबोध बच्चों को यह सिखलाना धार्मिक-कर्त्तव्य-सामान बैठते हैं कि इतनी Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) उम्र होने पर तुम्हारा विवाह होगा। बच्चे के भोजन और कपड़े भी बच्चे को उत्तेजित करते हैं । बच्चों को सैकड़ों तरह की गर्म और उत्तेजक चीजें खाने को देते हैं, अपने अन्ध- प्रेम में, उनकी शक्ति की कोई परवाह नहीं करते । इस प्रकार माता - पिता स्वयं विकारों के सागर में डूब कर अपने लड़कों के लिए बे- लगाम स्वच्छन्दता के प्रादर्श बन जाते हैं ।' गांधीजी का यह कथन, अधिकांश में ठीक है। और इस प्रकार का पालन-पोषण ही विपयेच्छा उत्पन्न करने का कारण है । दुर्विषय-भोग उसी प्रकार अस्वाभाविक और बहुम मचर्य उसी प्रकार स्वाभाविक है, जिस प्रकार असत्य, ग्रस्वाभाविक और सत्य स्वाभाविक है । यदि किसी वालक के सामने असत्य का वातावरण न ग्राने दिया जावे तो वह बालक 'असत्य' किसे कहते हैं, यह भी न जानेगा, न असत्य का उपयोग ही करेगा । ठीक इसी प्रकार, यदि किसी वालक के सामने दुर्विषय भोग सम्बन्धी कोई बात न की जावे, काम-भोग का कोई ग्राचरण न किया जावे, तो सम्भवतः उसमें उस प्रकार की दुर्विषयेच्छा उत्पन्न ही न होगी, जैसी कि इससे विपरीतावस्था में उत्पन्न हो सकती है | बच्चों के सामने किसी कुकृत्य को यह समझ कर करना कि वे बच्चे क्या जानें, भूल है | बच्चों पर प्रत्येक अच्छी या बुरी बात का स्थायी प्रभाव पड़ता है । इनके हृदयरूपी कोरे चित्रपट पर प्रत्येक बात इस प्रकार अंकित हो जाती है, जो मिटाने से मिट नहीं सकती । वास्तव में यह समझना ही भूल है कि हमारे किसी कार्य को दूसरा नहीं देखता या हमारे कार्य का अच्छा-बुरा प्रभाव दूसरे पर नहीं पड़ सकता गुप्त से " Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) गुप्त कार्य और विचारों का प्रभाव भी इतना गहरा और इतनी दूर तक पड़ता है कि जिसका अनुमान लगाना भी कठिन है । यद्यपि पूर्ण ब्रह्मचर्य के आदर्श तक सभी लोग नहीं पहुंच सकते, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के सामने इस आदर्श का होना आवश्यक है । जिसकी मानसिक आंखों के सामने यह आदर्श नहीं है, वह पतित से भी पतित हो जाता है । वह दुविषय वासना की लगाम को काबू में नहीं रखता, किन्तु उसका गुलाम हो जाता है । . पूर्ण ब्रह्मचर्य से नीचा आदर्श, एक पत्नीव्रत और एक पतिव्रत है । जो लोग पूर्ण ब्रहमचर्य के प्रादर्श की ओर सहसा गति करने में अपने आपको असमर्थ देखते हैं- मार्ग में पतित होने का भय है- उनके लिए यह दूसरा नीचे से नीचा आदर्श है. । यह आदर्श कमजोर लोगों के लिए पूर्ण ब्रह मचर्य तक पहुंचने के मार्ग में - एक विश्रान्तिस्थल है । इससे नीचा कोई प्रादर्श नहीं है, न इससे नीची अवस्था वाला ब्रहमचर्य के मार्ग का पथिक ही माना जा सकता है। विवाह दुर्विषयेच्छा मिटाने की दवा है, न कि दुर्विषयेच्छा की तृप्ति का साधन । दुर्विषयेच्छा की तृप्ति तो कभी हो ही नहीं सकती । उसकी तृप्ति के लिए जैसे-जैसे उपाय किया जायेगा, वह वैसे ही वैसे बढ़ती जायेगी । दुर्विषयेच्छा पूर्ति की प्रत्येक चेष्टा, दुविषयों का अधिकाधिक गुलाम बनाती है । विशेषतः विवाह करने का कारण सन्तानोत्पत्ति की Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) अभिलाषा है अतः इस अभिलाषा के पूरी हो जाने पर दूविषय भोग का त्याग कर देना ही उचित है । इसी प्रकार बढ़ती हुई सन्तान को रोकने के लिए भी मैथुन का ही त्याग करना चाहिये, कृत्रिम उपायों का अवलम्बन लेना ठीक नहीं । सन्तति-निरोध के कृत्रिम उपाय, अनीति और पापाचार को बढ़ाने वाले तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानि देशविरति-ब्रह मचर्यव्रत की रक्षा के लिए स्त्री को पुरुष की और पुरुप को स्त्री की सहायता करना उचित एवं आवश्यक है । यदि किसी समय पुरुष में व्रत या उसकी मर्यादा भंग करने की बुरी इच्छा हो तो पत्नी का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक सम्भव उपाय से अपने पति को ऐसा करने से बचावे । इसी प्रकार यदि किसी समय स्त्री में ऐसी कुभावना हो तो पति का भी यही कर्तव्य है। इस प्रकार एक दूसरे की सहायता एवं एक दूसरे को सावधान करते रहने से पति-पत्नी दोनों का व्रत निर्मल पलेगा और वे कभी पूर्ण ब्रहमचर्य के आदर्श तक पहुंच कर अपना कल्याण कर सकेंगे। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रहपरिमाण व्रत Page #265 --------------------------------------------------------------------------  Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश दुःख का मूल कारण तृष्णा है । चिउंटी से लगा कर चक्रवर्ती पर्यन्त सभी जीव तृष्णा के पीछे-पीछे दौड़ लगा रहे हैं । खेद की बात यह है कि उस दौड़ का कहीं अन्त नहीं है, कहीं विराम नहीं है, तृष्णा की मंजिल कभी तय हो नहीं पाती । उसका तय होना संभव भी नहीं है, क्योंकि लक्ष्य स्थिर नहीं है । पहले निश्चिय किये हुये लक्ष्य पर पहुंचने को हुए कि लक्ष्य बदल कर आगे बढ़ जाता है । इस प्रकार संसार में दौड़-धूप मची रहती है । मनुष्य पहले विवाह करके सुख की प्राकांक्षा करता है - विवाह कर लेना उसका लक्ष्य होता है । परन्तु विवाह होते ही सन्तान की प्रभिलाषा उत्पन्न हो जाती है । कदाचित् सन्तान हो गई तब भी तृष्णा का अन्त कहां ? वह और आगे बढ़ती हैसंतान के विवाह की इच्छा पैदा करती है । इसके बाद मनुष्य को पौत्र चाहिए, प्रपौत्र चाहिए और न जाने क्याक्या चाहिए । इस चाहिए के चंगुल में फंस कर मनुष्य बेतहाशा भाग-दौड़ लगा रहा है । कभी किसी क्षण शांति नहीं, संतोष नहीं और निराकुलता नहीं । भला इस दौड़धूप में सुख कैसे मिल सकता है ? यह संसार की व्याकुलता का कारण है । इसी तृष्णा से दुःख, शोक और संताप की उत्पत्ति होती है । --- Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) ज्ञानीजन तृष्णा के पीछे नहीं दौड़ते । उन्होंने समझ लिया है कि अगर कोई अपनी परछाई पकड़ सकता है तो तृष्णा की पूर्ति कर सकता है । मगर अपनी परछाई के पीछे कोई कितना हो दौड़े वह आगे-आगे दौडती रहेगी, पकड़ में नहीं आवेगी । इसी प्रकार तृष्णा की पूर्ति के लिए कोई कितना ही उपाय करे मगर वह पूरी नहीं होगी। ज्यों-ज्यों परछाई के पीछे दौड़ने का प्रयत्न किया जाता है, त्यों-त्यों वह आगे बढ़ती जाती है । मगर मनुष्य जब उससे विमुख हो जाता है, तब वह लौट कर उसका पीछा करने लगती है । इस प्रकार परछाई के पीछे दौड़ कर अपनी शक्ति का नाश करना व्यर्थ है और तृष्णा की पूर्ति करने के लिए मुसीबत उठाना भी वृथा है। ज्ञानीजन भलीभांति जानते हैं कि माया का मालिक होना एक बात है और गुलाम होना दूसरी बात है । माया का गुलाम माया के लिए झूठ बोल सकता है, मगर माया का मालिक ऐसा नहीं करेगा । अगर न्याय नीति के अनसार माया रहे तो वह उसे रखेगा, अगर वह अन्याय के साथ रहना चाहेगी तो उसे निकाल बाहर करेगा । यही बात अन्य सांसारिक सुख-सामग्री के सम्बन्ध में समझनी चाहिए । ज्ञानी पुरुषों ने तृष्णातुर और धनलोलुपजनों को चेतावनी देते हुए कहा है : तुम समझते हो हमने तिजोरी में धन को कैद कर लिया है, परन्तु धन समझता है कि हमने इतने बड़े धनी को अपना पहरेदार मुकर्रर कर लिया है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३ ) तुम अपनी कृपणता के कारण धन का व्यय नहीं कर सकते पर धन तुम्हारे प्राणों का भी व्यय कर सकता है ! तुम धन को चाहे जितना प्रेम करो, प्राणों से भी अधिक उसकी रक्षा करो, उसके लिये भले ही जान दे दो, लेकिन धन अन्त में तुम्हारा नहीं रहेगा - नहीं रहेगा । वह दूसरों का बन जायगा । तुम धन का त्याग न करोगे तो धन तुम्हारा त्याग कर देगा । यह सत्य इतना स्पष्ट और ध्रुव है कि इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में विवेकवान् होते हुए भी इतने पामर क्यों बने जा रहे हो ? तुम्हीं त्याग की पहल क्यों नहीं करते ? क्यों स्वत्व के धागे को तोड़ कर फेंक नहीं देते ? स्वत्व को त्याग देने का अर्थ यह नहीं है कि तुम उसे फैंक दो । इसका अर्थ यही है कि उसे सार्वजनिक कामों में लगाओ । अगर आप लोग भी अपनी सम्पत्ति से पाप न करके, उसके ट्रस्टीभर बने रहो तो क्या उस सम्पत्ति को कुछ दाग लग जायगा ? हां, उस अवस्था में अपने भोग-विलास के लिए उसका दुरुपयोग न कर सकोगे । लेकिन बहुत लोगों की तो ट्रस्टी बनने की भावना ही नहीं होती । क्या श्रावक की जिन्दगी ऐसी होती है कि वह धन के कीचड़ में फंसा रहे और उससे आत्मा को मलीन बना डाले ? उसे परोपकार में न लगावे ? क्या श्रावक को धर्म पर विश्वास नहीं है ? बैंक पर विश्वास करके उसमें लाखों रुपया जमा करा देने वालों को धर्म रूपी बैंक पर क्या विश्वास नहीं है ? मैं श्रापका धन नहीं चाहता । मेरे पास जो कुछ था Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) उसका त्याग कर देना मैंने अपना सौभाग्य समझा है । उससे मुझे शांति और सुख मिला है। ऐसा करके मैंने निराकुलता का आनन्द अनुभव किया है । तुम्हें जो त्याग का उपदेश करता हूँ तो इसीलिए कि तुम सुखशांति का इसी उपाय से लाभ कर सकोगे । सम्यग्दृष्टि का लक्ष्य यही है कि वह अपनी सम्पत्ति परोपकार के लिए समझे और आप उससे अलहदा रहता हुआ अपने को उसका ट्रस्टी अनुभव करे । मित्रो ! आप लोगों के पास जो द्रव्य है उसे अगर परोपकार में, सार्वजनिक हित में और दीन-दुखियों को साता पहुंचाने में न लगाया तो याद रखना, इसका व्याज चुकाना भी कठिन हो जायेगा । ऐसे द्रव्य के स्वामी बन कर आप फूले न समाते होंगे कि चलो हमारा द्रव्य बढ़ गया है, मगर शास्त्र कहता है और अनुभव उसका समर्थन करता है कि द्रव्य के साथ क्लेश बढ़ा है । जब श्राप बैंक से ऋण रूप में रुपया लेते हैं तो उसे चुकाने की कितनी चिन्ता रहती है । उतनी ही चिन्ता पुण्य रूपी बैंक से प्राप्त द्रव्य को चुकाने की क्यों नहीं करते ? समझ रखो, यह सम्पत्ति तुम्हारी नहीं है । इसे परोपकार के अर्थ अर्पण कर दो । याद रखो कि यह दूसरे की जोखिम मेरे पास धरोहर है । अगर इसे अपने पास रख छोडूंगा तो यह तो यहीं रह जायगी, लेकिन इसका वदला चुकाना मेरे लिए बहुत भारी पड़ जायगा । ❤ कनक और कामिनी की लोलुपता ने संसार को नरक बना डाला है । आजकल मुद्रा देवी ने सोने, चांदी, तांबे आदि के सिक्कों ने कितनी अशांति फैला रखी है । तुम लोग रात-दिन पैसे के लिए दौड़-धूप करते रहते हो मगर Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५५) पैसे का संग्रह करके भी सुख की सांस नहीं ले सकते । पैसे के लिए आपस में लड़ाई-झगड़े होते हैं, हजारों मनुष्यों का खून बहाया जाता है। इसका बाहरी कारण कुछ भी बताया जाय, परन्तु असली कारण तो द्रव्य के संग्रह की भावना ही है । इतिहास स्पष्ट बतला रहा है कि जब से मानव-समाज में संग्रह-परायणता जागी है तब से संसार की दयनीय दशा आरम्भ हुई है । धन व्यावहारिक कार्यों का एक साधन है । धन से व्यवहारोपयोगी वस्तुएं प्राप्त की जा सकती हैं । परन्तु आज तो लोगों ने इस साधन को साध्य समझ लिया है और वे इसकी प्राप्ति में सारा जीवन व्यय कर रहे हैं । तुम इस बात का विचार करो कि धन तुम्हारे लिए है या तुम धन के लिए हो ? कहने को तुम कह दोगे कि हम धन के लिए नहीं है, धन हमारे लिए है । परन्तु क्या व्यवहार में भी यही बात है ? . सर्वप्रथम तुम अपने को समझो । विचार करो कि तुम कौन हो ? तत्पश्चात् इस बात को सोचो कि धन किसके लिए है ? तुम रक्त, मांस या हड्डी नहीं हो । ये सब चीजें शरीर के साथ ही भस्म होने वाली हैं। अतएव धन रक्त-मांस आदि के नहीं, आत्मा के लिए है । इस बात को भलीभांति समझ कर प्रात्मा को धन का गुलाम मत बनाओ । जो सत्य को समझ लेगा, वह धन का दास नहीं बनेगा, स्वामी बनेगा । वह धन को साध्य नहीं, साधन-मात्र समझेगा । वह धन के लिए जीवन बर्बाद नहीं करेगा किन्तु जीवन के उत्कर्षसाधन में धन को भी निमित्त बनाएगा । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) अगर तुम्हें प्रतीति है कि धन तुम्हारे लिए है, धन के लिए तुम नहीं हो, तो धन के लिए कभी पाप तो नहीं करते ? असत्य भाषण करना, विश्वासघात करना, पिता-पुत्र के बीच क्लेश होना, यह सब किसलिए है ? इन सब बुराइयों का मूल कौन है ? धन के लिए संसार में घोर क्लेश हो रहे हैं, पापाचरण हो रहे हैं । इससे स्पष्ट मालूम होता है कि लोगों ने धन को साधन नहीं, साध्य मान लिया है और वह प्रात्मा से भी अधिक आत्मीय बन गया है। लोगों के इस भ्रम के कारण ही संसार में दुःख व्याप रहा है. । धन को साधन मान कर लोकहित के कार्यों में व्यय करना, धन का सदुपयोग है । . . धन के सद्व्यय के लिए हृदय में उदारता चाहिए । जहां हृदय में उदारता नहीं, वहां धन का सद्व्यय नहीं हो सकता । धन के प्रति हृदय में ममता रहती है, उसका त्याग करने में ही आत्मा का कल्याण है । वित्तण ताणं न लभे पमत्त ' प्रमादी पुरुष धन से त्राण-रक्षण नहीं पा सकता । धन किसी को मौत से नहीं बचा सकता । वह दुःखों का सर्जन करता है। ... धन को साधन मान कर, उसके प्रति निर्मम बनना, उसे आत्मा को न ग्रसने देना, इतनी महत्त्व की बात है कि उसके बिना जीवन का अभ्युदय सिद्ध नहीं हो सकता । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) 'यह मेरा है, वह तेरा है, मुझे यह करना है, यह नहीं करना है' इस प्रकार की घटना संसार में अनवरत रूप से दिन रात चलती रहती है । जीवन छोटा है, काम बहुत है । ऐसी अवस्था में कोई भी व्यक्ति अपना काम पूरा नहीं कर सकता । किसी व्यक्ति ने अपनी इच्छानुसार संसार के सब काम कर लिए हों और वह कृतकृत्य हो गया हो, ऐसा आज तक कभी हुआ नहीं, हो सकता भी नहीं । मैंने अमुक कार्य किया है और अमुक कार्य करूंगा, इस प्रकार की लालसा जीव के साथ सदैव चिपटी रहती है । यह लालसा कभी पूरी नहीं हो सकती । कंठ के आभूषण तैयार हुए न हुए कि हाथ के आभूषणों की चर्चा होती है । हाथ के आभूषण तैयार होते ही पैर के आभूषणों की आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार लालसा का कहीं अन्त नहीं । चांदी के बन गये तो सोने के आभूषणों की कमी रहती है । यदि भाग्यवश सोने के भी बन गये तो हीरामाणिक के आभूषणों की इच्छा बलवती हो उठती है । इस प्रकार तृष्णा आकाश के समान असीम है । इस तृष्णा को सीमित कर लेना ही परिग्रह - परिमाणव्रत है । परिग्रह की व्युत्पत्ति करते हुए शास्त्रकारों ने कहा है - ' परिग्रहणं परिग्रहः ।' अर्थात् जिसे ग्रहण किया जाय, वह ' परिग्रह' है । ग्रहरण उसे ही किया जाता है, जिससे ममत्व है । जिससे किसी प्रकार का ममत्व नहीं है, उस वस्तु को ग्रहण नहीं किया जाता, न पास ही रखा जाता है । इस प्रकार जिसको ममत्व भाव से ग्रहण किया जाता है, वही 'परिग्रह' है । परिग्रह का अर्थ ममत्व भाव है, इसलिए जिनसे Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८) ममत्व-भाव है, वे समस्त वस्तुएं परिग्रह में हैं । जिसके प्रति ममत्व-भाव होने से जन्म-मरण की वृद्धि होती है, जो आत्मा को उन्नत होने से रोकता है और जो मोक्ष में बाधक है वही पदार्थ परिग्रह है । फिर चाहे वह पदार्थ जड़ हो, चेतन हो, रूपी हो, अरूपी हो और समस्त लोक जितना बड़ा हो अथवा परमारण जैसा छोटा हो । जो क्रोध मान माया लोभ का उत्पादक है, वही परिग्रह है । शास्त्रकारों का कथन है कि ज्ञान संसार-बन्धन से मुक्त करने वाला है, लेकिन यदि उसके कारण किंचित् भी अभिमान उत्पन्न हुआ है, तो वह ज्ञान भी परिग्रह है । धर्म-पालन के लिए शरीर का होना आवश्यक है, परन्तु यदि शरीर पर थोडा भी ममत्व है, तो शरीर परिग्रह है। इस प्रकार जिसके प्रति ममत्व. भाव है, जिससे काम, क्रोध, लोभ या मोह का जन्म हुअा है, वह परिग्रह है परिग्रह आत्मा के लिए वह बन्धन है, जिससे प्रात्मा पुनः पुनः जन्म-मरण करता है । परिग्रह आत्मा के लिए बोझ है, जो आत्मा को उन्नत नहीं होने देता और मोक्ष की ओर नहीं जाने देता । १-- परिग्रह के भेद शास्त्रकारों ने परिग्रह के ‘बाह्य' और 'आभ्यन्तर' ऐसे दो भेद किये हैं । उन्होंने आभ्यन्तर परिग्रह में मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय आदि को माना है । जिनकी उत्पत्ति मुख्यतः मन से है और जिनका निवासस्थान भी मन ही है, अर्थात् जो मन अथवा हृदय से ही सम्बन्ध रखते हैं और विचार रूप हैं, उन सबकी गणना आभ्यन्तर परिग्रह में है । बाह्य परिग्रह के भी दो भेद किये गये हैं- 'जड़' और Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) ' चेतन । जड़ में वे समस्त पदार्थ श्रा जाते हैं, जिनमें जान नहीं है, जो निर्जीव हैं । जैसे - वस्त्र, पात्र, चांदी, सोना, सिक्का, मकान आदि । चेतन में मनुष्य, पशु-पक्षी, पृथ्वी, वृक्ष आदि समस्त सजीव पदार्थों का ग्रहण हो जाता है । यह संसार, जड़ और चेतन के संयोग से ही है । संसार में जो कुछ भी दिखाई देता है, वह या तो जड़ है या चेतन है । इसलिए जड़ और चेतन भेद में संसार के समस्त पदार्थ आ जाते हैं । भगवती सूत्र में गौतम स्वामी के प्रश्न करने पर भगवान् ने कर्म, शरीर और भण्डोपकरण ये तीनों परिग्रह बताये हैं । ये तीनों परिग्रह भी बाह्य और आभ्यन्तर भेदों में आ जाते हैं । इसलिए इनके विषय में पृथक् कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रहती । भगवान् ने ये तीन परिग्रह संभवतः साधु के लिए बताये हैं अर्थात् इस दृष्टि से बताये हैं कि साधु के भी ये तीन परिग्रह लगे हुए हैं और जब तक साधु इन तीनों से नहीं निवर्तता तब तक उसे मोक्ष नहीं मिल सकता । जो भी हो, यहां तो परिग्रह के भेद बताने हैं । इस भेद-वर्णन का यह अर्थ नहीं है कि पदार्थ ही परिग्रह है । पदार्थ परिग्रह नहीं है, किन्तु उसके प्रति जो ममत्व भाव है वह ममत्व - भाव ही परिग्रह है और इस कारण जिस पदार्थ के प्रति ममत्व-भाव है, औपचारिक नय से वह पदार्थ भी परिग्रह माना जाता है क्योंकि ममत्वभाव पदार्थ पर ही होता है, इसलिए ममत्व - भाव होने पर ही पदार्थ ' परिग्रह' है, लेकिन उस समय तक कोई भी पदार्थ परिग्रह रूप नहीं है, जब तक कि स्वयं में उसके Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६०) प्रति ममत्व-भाव नहीं है । पदार्थ के प्रति ममत्व-भाव होने, पर ही पदार्थ परिग्रह होता है । संसार में अनेक प्राणी हैं । सब प्राणियों की रुचि एक-समान नहीं किन्तु अलग-अलग होती है । एक ही योनि के प्राणियों की रुचि में भिन्नता रहती है, तब अनेक योनियों के प्राणियों की रुचि में भिन्नता होना स्वाभाविक ही है। इसलिए समस्त प्राणियों को किसी एक ही पदार्थ से ममत्व नहीं, किन्तु किसी प्राणी को किसी पदार्थ से ममत्व होता है और किसी को किसी पदार्थ से । यह बात दूसरी है कि एक ही पदार्थ से अनेक प्राणी ममत्व करते हों, परन्तु सब प्राणियों का ममत्व किसी एक ही पदार्थ तक सीमित नहीं रहता । अपनी-अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न एक या अनेक पदार्थों से ममत्व होता है । जिस वस्तु से नरक के जीव ममत्व करते हैं, स्वर्ग के जीव उससे भिन्न या विपरीत वस्तु से ममत्व करते हैं । यही बातें अन्य योनि के जीवों के लिए भी हैं । किस योनि के जीवों को किन पदार्थों से ममत्व होता है, सब प्राणियों के विषय में यह बताना कठिन भी है और अनावश्यक भी है। यहां जो कुछ कहा जा रहा है, वह मनुष्यों के लिए ही है । अतः केवल मनुष्यों के विषय में इस बात का विचार किया जाता है कि मनुष्य को किन-किन पदार्थों से ममत्व होता है । २-प्राभ्यन्तर परिग्रह मनुष्य, बाह्य परिग्रह-युक्त भी होता है, औरं आम्यन्तर परिग्रह-युक्त भी । अर्थात् उसको मिथ्यात्व अविरति Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१) प्रमाद कषाय आदि आभ्यन्तर विचार रूप पदार्थों से भी ममत्व होता है और बाह्य दृश्यमान-जड़ तथा चेतन पदार्थों से भी । आभ्यन्तर परिग्रह के अन्तर्गत कहे गये मिथ्यात्व अविरति कषाय आदि का स्वरूप शास्त्रों में विस्तृत रीति से बताया गया है । यदि इनके स्वरूप और भेदोपभेद का पूर्ण विवरण यहां दिया जाय तो विषय बहुत बढ़ जायेगा। इसलिए इस विषय का वर्णन संक्षेप में ही किया जाता है। मिथ्यात्व -जिस मोहनीय कर्म के उदय होने पर आत्मा, आत्मभाव को विस्मृत कर परभाव यानी पौद्गलिक भाव में ही रमण करे, या प्रकट में तत्त्वों की यथार्थ व्याख्या करके भी हृदय में विपरीत विचार रखे, वीतराग के वाक्यों को न्यूनाधिक रूप में श्रद्धे और अनेकान्त-स्यादवादमय सिद्धान्त को एकान्तवाद का रूप दे, वह मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व भी परिग्रह है । तीन वेद- आत्मा अपने स्वरूप को भूल कर जिस विकृत अवस्था के प्रवाह में बहे और स्त्रीत्व, पुरुषत्व या नपुंसकता को वेदे, उस अवस्था का नाम वेद है । यह तीन प्रकार का वेद भी आभ्यन्तर परिग्रह में है । छः नोकषाय- हास्यादिक छः अवस्थाएं भी आभ्यन्तर परिग्रह में हैं। किसी के संयोग वियोग का या पौद्गलिक लाभ हानि से कौतूहल पैदा होना, हास्य कहलाता है । किसी शुभ पदार्थ के संयोग से हर्ष या अशुभ पदार्थ के संयोग से विषाद करना, रति, अरति कहलाता है। किसी अप्रिय पदार्थ को देख कर डरना, भय कहलाता है । किसी प्रिय पदार्थ के वियोग से दुःखित होना शोक कहलाता है । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) प्रतिकूल तथा अरुचिकर पदार्थ से घृणा होना दुगु'छा (जुगुप्सा) कहलाता है । ये छह भी आभ्यन्तर परिग्रह में हैं। चार कषाय- क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय भी आभ्यन्तर परिग्रह में हैं । ३- बाह्य परिग्रह - बाह्य परिग्रह के प्रधानतः जड़ और चेतन ऐसे दो भेद हैं । सुविधा की दृष्टि से शास्त्रकारों ने बाह्य परिग्रह के दो भेदों को छः भागों में विभक्त कर दिया है । उनका कथन है कि जितना भी बाह्य परिग्रह है अर्थात् दृश्यमान जगत् के जिन पदार्थों से आत्मा को ममत्व होता है उन सब पदार्थों को छः श्रेणियों में बांटा जा सकता है । वे छः श्रेणी इस प्रकार हैं धन-धान्य, क्षेत्र, वास्तु, द्विपद और चौपद । इन छः श्रेणियों में प्रायः समस्त पदार्थ आ जाते हैं । यदि चाहो, तो इन छः भेदों को भी कनक और कामिनी इन दो भेदों में लाया जा सकता है । जड़ और चेतन पदार्थों में से किन्हीं उन दो पदार्थों को, जिनके प्रति सबसे अधिक ममत्व होता है, पकड़ लेने से दूसरे समस्त पदार्थ भी उनके अन्तर्गत आ जायेंगे । विचार करने पर मालूम होगा कि मनुष्य को वाह्य पदार्थों में सबसे अधिक ममत्व कनक और कामिनी से होता है । कनक अर्थात् सोना - के अन्तर्गत समस्त जड पदार्थ आ जाते हैं क्योंकि बाह्य पदार्थों में मनुष्य को इन दोनों से अधिक किसी पदार्थ से ममत्व नहीं होता । उत्तराध्ययन सूत्र में गौतम स्वामी को उपदेश देते हुए भगवान् महावीर ने भी कहा है Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३ ) चिच्चारणं धरणं च भारियं, पव्वइयो हि सि अणगारियं । मा वंतं पुणो वि प्राविए, समयं गोयम मा पमायए । अर्थात्-हे गौतम, जिस धन और स्त्री को त्याग कर, अनगार हुआ है, उसके जाल में पुनः मत पड़ना और इस ओर समय मात्र का भी प्रमाद मत करना । परिग्रह के आभ्यान्तर और बाह्य भेदों का वर्णन संक्षेप में किया जा चूका । अब आगे जो वर्णन किया जा रहा है, वह विशेषतः बाह्य परिग्रह को लक्ष्य बना कर । व्यवहार में बाह्य परिग्रह की ही प्रधानता है, लेकिन बाह्य परिग्रह पूर्णतः विद्यमान है, तब तक प्राणी परिग्रह का रूप भी सुनना-समझना नहीं चाहता और न यही मानता है कि परिग्रह त्याज्य है । जब पाभ्यन्तर परिग्रह का थोड़ा भी जोर कम होगा, कम से कम मिथ्यात्व रूप परिग्रह भी दूर होगा, तभी प्राणी यह सुन सकता है कि अमुक वस्तु, विचार या कार्य परिग्रह हैं और फिर चारित्र मोहनीय का जितने अंश में क्षय उपशम या क्षियोपशम हुआ होगा उतने अंश में परिग्रह को त्याग भी सकेगा । यह समस्त वर्णन भी उन्हीं के लिये उपयोगी हो सकता है, जो आभ्यन्तर परिग्रह में कम से कम मिथ्यात्व रूप परिग्रह से निवृत्त हो चुके हों । ऐसे ही लोगों को यह बताना है कि आत्मा पर परिग्रह का कैसा बोझ है। यह बात यद्यपि बताई जा रही है बाह्य परिग्रह के नाम पर, लेकिन बाह्य परिग्रह और आभ्यतर परिग्रह का परस्पर अत्यधिक सम्बन्ध है । इसलिए बाह्य परिग्रह विषयक वर्णन के साथ आभ्यन्तर परिग्रह का वर्णन भी आप ही आ जाएगा। बाह्य परिग्रह के भेदोपभेद Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६४) का विशेष वर्णन प्रसंगवश आगे होगा ही, फिर भी प्रश्नव्याकरण सूत्र में परिग्रह को वृक्ष का रूप देकर जो कुछ कहा गया है, यहां उसका वर्णन करना उचित होगा । प्रश्नव्याकरण सूत्र में परिग्रह को वृक्ष का रूप देकर कहा है कि इस परिग्रह रूपी वृक्ष की जड़ तृष्णा है। मणि, हीरे, जवाहरात आदि सब प्रकार के रत्न तथा अन्य मूल्य. वान् पदार्थ सोना, चांदी आदि द्रव्य, स्त्री, परिजन, दासदासी आदि द्विपद, घोड़ा, हाथी, बैल, भैंस, ऊंट, गधे, भेड, बकरी आदि चतुष्पद, रथ, गाड़ी, पालकी प्रभृति वाहन, अन्न आदि भोज्य पदार्थ, पानी आदि पेय पदार्थ, वस्त्र, बर्तन, सुगन्धित-द्रव्य और घर, खेत, पर्वत, खदान, ग्राम, नगर आदि पृथ्वी की इच्छा-मूर्छा इस परिग्रह रूपी वृक्ष की जड़ हैं । प्राप्त वस्तु की रक्षा चाहना और अप्राप्त वस्तु की कामना करना परिग्रह वृक्ष का मूल है । क्रोध, मान, माया, लोभ इसके स्कन्ध हैं । प्राप्त की रक्षा अप्राप्त की इच्छा से की गई अनेक प्रकार की चिन्ताएं इस वृक्ष की डालियाँ हैं। इन्द्रियों के काम-भोग इस वृक्ष के पत्ते, फूल तथा फल हैं। अनेक प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक क्लेश इस वक्ष का कम्पन है । इस प्रकार परिग्रह एक वृक्ष के समान है । यह तो कहा ही जा चुका है कि ममत्व का नाम ही परिग्रह है । ममत्व रूपी परिग्रह की जड़ इच्छा और मूर्छा है । वस्तु के प्रति जो ममत्व-भाव होता है, वह एक तो इच्छा रूप होता है और दूसरा मूर्छा रूप । 'इच्छा' 'कामना' 'तृष्णा' या 'लोभ' कुछ भेद के साथ पर्यायवाची शब्द हैं । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) इसी प्रकार ' मूर्छा' 'गृद्धि' 'आसक्ति' 'मोह' और 'ममत्व' भी कुछ भेद के साथ पर्यायवाची शब्द हैं । जो वस्तु अप्राप्त है, उसकी चाह होना, उसके न मिलने पर दुःखित और मिलने पर प्रसन्न होना, इच्छा, तृष्णा या कामना है और जो वस्तु प्राप्त है, उसकी रक्षा चाहना, उसकी रक्षा का प्रयत्न करना, उसकी रक्षा के लिए चिन्तित रहना, उसकी कोई हानि न हो, उसे कोई ले न जावे या वह वस्तु चली न जावे, इस प्रकार का भय होना, उस वस्तु में अनुरक्त रहना, उसमें अपना जीवन मानना और उसके जाने पर दुःख करना, यह मुर्छा है । इस प्रकार की इच्छा या मुर्छा का नाम ही ममत्व है और जिस वस्तु के प्रति ममत्व है, वही परिग्रह है । तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता श्री उमा स्वामी ने कहा हैं मूर्छा परिग्रहः अर्थात् – मूर्छा ही परिग्रह है । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छा-मूर्जा कामानां हृदये वासः संसार इति कीर्तितः । . तेषां सर्वात्मना नाशो मोक्ष उक्तो मनीषिभिः । अर्थात्- बुद्धिमान लोग कहते हैं कि हृदय में कामनाओं का निवास ही 'संसार' (जन्म-मरण) है और समस्त कामनाओं का नाश ही 'मोक्ष' (जन्म-मरण से छूटना) है । ___ पहले कहा जा चुका है कि ममत्व ही परिग्रह है । वह ममत्व इच्छा तथा मूर्छा रूप होता है। इस प्रकार इच्छा या मूर्छा का नाम ही ममत्व या परिग्रह है । इसलिये अब यह देखते हैं कि इच्छा और मूर्छा का जन्म कैसे होता है तथा इनका स्वरूप कैसा है ? संसार में जन्म लेने वाले प्राणी कर्मलिप्त होते हैं । यदि कर्मलिप्त न हों तो संसार में जन्म ही न लेना पड़े । यह बात दूसरी है कि कोई जीव कर्मों से कम लिप्त है और कोई अधिक लिप्त है । लेकिन जो संसार में जन्मा है वह कर्मलिप्त अवश्य है। कर्मलित होने के कारण आत्मा अपने स्वरूप को नही जानता । जानता भी है तो विश्वास या दृढ़ता नहीं रखता । आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है । यह Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७) ‘सत् ' अर्थात् सदा रहने वाला 'चिद् ' अर्थात् चैतन्य रूप है, फिर भी कर्मलित होने के कारण अपने में रहा हया सुख नहीं देखता, स्वयं में जो सुख है उस पर विश्वास नहीं करता, लेकिन चाहता है सुख ही । इसलिये जिस प्रकार स्वयं की नाभि में ही सुगन्ध देने वाली कस्तूरी होने पर भी, मृग घास-फूस को सूघ-सूघ कर उसमें सुगन्ध खोजता है, उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं में रहे हुए सुख को भूल कर दृश्यमान जगत् में सुख मानने लगता है। दृश्यमान जगत् में सुख है, यह समझ कर आत्मा बुद्धि को और बुद्धि मन को प्रेरित करती है, तथा मन उस सुख को प्राप्त करने के लिए चंचल हो उठता है । इस प्रकार मन में सांसारिक पदार्थों की इच्छा उत्पन्न होती है। अर्थात् बाह्य जगत् में सुख मानने से मन में चंचलता आती है और मन की ऐसी चंचलता से इच्छा का जन्म होता है। मन विशेषतः इन्द्रियानुगामी होता है । यह इन्द्रियों के साथ जाना अधिक पसन्द करता है । रुकावट न होने पर मन इन्द्रियों के प्रिय मार्ग पर ही चलता है और इन्द्रिय अपने विषयों में ही सुख मानती है । यद्यपि विषयों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियां ज्ञानेन्द्रिय कहलाती हैं, उनका काम पदार्थों का ज्ञान कराना है, लेकिन जब बुद्धि मन के आधीन हो जाती है और मन इन्द्रियों का अनुगामी बन जाता है, इन्द्रियों के साथ हो जाता है, तब इन्द्रियाँ स्वेच्छाचारिणी बन जाती हैं तथा विषयों में सुख मान कर उनकी ओर दौड़ने लगती हैं । इस प्रकार कर्मलिप्त होने के कारण प्रात्मा सुख चाहता हुया भी बुद्धि पर शासन नहीं कर सकता । बुद्धि से उसे अच्छी सम्मति नहीं मिलती, किन्तु Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६८) मन की इच्छानुसार सम्मति मिलती है और मन इन्द्रियानु- . गामी हो जाता है, इसलिए वह इन्द्रियों की रुचि के अनुसार ही इच्छा करता है । इस तरह इन्द्रिय, मन और बुद्धि के अधीन होकर आत्मा इन्द्रियग्राह्य विषयों में ही सुख मानने लगता है और मन को ऐसे ही सूखों की इच्छा करने के लिए-ऐसे ही सुख प्राप्त करने के लिए - बुद्धि द्वारा प्रेरित करता है । इस प्रकार सांसारिक पदार्थों की इच्छा का जन्म होता है। ___मनुष्यों को जिन सांसारिक पदार्थों की इच्छा होती है, वे पदार्थ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श या इनमें में किसी एक विषय का पोषण करने वाले ही होते हैं । ऐसा कोई ही पदार्थ होगा, जिसके प्रति इच्छा तो है लेकिन वह पदार्थ शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श इन पांचों, या इनमें से किसी एक का पोषक नहीं है । प्रायः प्रत्येक पदार्थ की इच्छा, इन्द्रियों और मन की विषयलोलुपता से ही होती है । इस प्रकार विचार करने से इस निर्णय पर आना होता है कि मन की चंचलता और इंद्रियों की स्वच्छन्दता से इच्छा का जन्म होता है । इच्छा के साथ ही मुर्छा का जन्म होता है । इच्छा और मूर्छा का अविनाभावी सम्बन्ध है । जैसे धुएं के साथ आग का सम्बन्ध है --जहां धुआं है वहां आग भी है-उसी प्रकार जहां इच्छा है, वहां मूर्छा भी है और जहां मूर्छा है, वहां इच्छा तो है ही । जीव जब संसार में जन्मता है, तब पूर्व जन्म के संस्कार होने के कारण सांसारिक पदार्थों की इच्छा भी साथ ही Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६) जन्मती है । फिर जैसे-जैसे अवस्था बढ़ती जाती है, मन में चंचलता आती जाती है, पदार्थ -जगत का परिचय होता जाता है, पूर्व संस्कार विकसित होते जाते हैं और कल्पनाशक्ति की वृद्धि होती जाती है, वैसे ही वैसे इच्छा की भी वृद्धि होती जाती है । अवस्था, मन, पदार्थों का परिचय और कल्पनाशक्ति की वृद्धि के साथ ही इच्छा की भी वृद्धि होती जाती है और होते-होते इच्छा का ऐसा रूप हो जाता है. जिसके लिए शास्त्र में कहा इच्छा हु आगाससमा अन्तिया । अर्थात्-जैसे आकाश का अन्त नहीं है, उसी प्रकार इच्छा का भी अन्त नहीं है । मनुष्य जब जन्मता है, तब उसकी इच्छा माता के दूध तक ही सीमित रहती है, अधिक नहीं होती । फिर वह जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, उसकी इच्छा भी बढ़ती जाती है । जो मनुष्य बचपन में केवल माता के दूध की ही इच्छा करता था, वह कुछ बड़ा होकर खाद्य पदाथों, खेल-सामग्री या ऐसी ही दूसरी चीजों की इच्छा करने लगता है । जब और बड़ा होता है, तब कपड़े-लत्ते और खाद्य तथा खेल सामग्री के लिए पैसे आदि की इच्छा करता है। फिर स्त्री पुत्र पौत्र धन-दौलत प्रभृति की इच्छा करता है। इस प्रकार वह जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है और सांसारिक पदार्थों को अधिक-अधिक जानता जाता है, उसकी इच्छा भी बढ़ती जाती है। मनुष्य विशेषतः इहलौकिक और पारलौकिक पदार्थों Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७०) की इच्छा करता है लेकिन उसकी इच्छा इहलौकिक और पारलौकिक देखे सुने हुए पदार्थों तक ही सीमित नहीं रहती, किन्तु जिन पदाथों को कभी देखा सुना नहीं है, उन-उन पदार्थों की भी कल्पना करता है और उनकी भी इच्छा करता है । इस प्रकार इच्छा अनन्त ही रहती है, उसका अन्त ही नहीं आता । अर्थात् यह नहीं होता कि अब इच्छा नहीं । बुढ़ापा आने पर तो इच्छा बहुत ही बढ़ जाती है । उस समय वह कैसी होती है, इसके लिए एक कवि कहता है वलिभिमुखमाकातं पलितैरंकितं शिरः । गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णका तरुणायते ।। अर्थात्-बुढ़ापे के कारण मुह पर सल पड़ गये हैं, सिर के बाल पक कर सफेद हो गये हैं और शरीर के सव अग शिथिल हो गये हैं लेकिन तृष्णा तो जवान हो गई है, पहले से भी बढ़ गई है। तात्पर्य यह कि मनुष्य के साथ ही इच्छा का भी जन्म होता है, लेकिन मनुष्य की आयु तो क्षीण होती जाती है और इच्छा वृद्धि पाती जाती है। अवस्था के कारण तृष्णा की वृद्धि तो अवश्य होती है, परन्तु उसमें न्यूनता नहीं पाती। इच्छानुसार पदार्थों की प्राप्ति भी इच्छा को घटाने में समर्थ नहीं है । पदार्थों का मिलना भी इच्छा की वृद्धि का ही कारण होता है । संसार में ऐसा एक भी व्यक्ति न होगा, जिसकी इच्छा, इच्छानुसार पदार्थ मिलने से नष्ट हो गई हो । ऐसा होता ही नहीं है । हाँ, पदार्थों के मिलने से Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७१) इच्छा की वृद्धि अवश्य होती है । इच्छा की जैसे-जैसे पूर्ति होती जाती है, वैसे ही वैसे वह तीव्र गति से बढ़ती जाती है । जो मनुष्य कभी पेट भरने के लिए रूखी सूखी रोटी और ठंड से बचने के लिए फटे मोटे कपड़े की इच्छा करता है, वही इनके प्राप्त हो जाने पर स्वादिष्ट भोजन और सुन्दर वस्त्रों की इच्छा करता है । जब ये भी प्राप्त हो जाते हैं, तब थोड़े से धन की इच्छा करता है और साथ साथ स्त्री, सुन्दर भवन तथा भोगविलास की सामग्री भी चाहता है । इन सबके मिल जाने पर पुत्र, पौत्र आदि की, फिर थोड़ी-सी भूमि की, थोड़े से अधिकार की, फिर राज्य की, साम्राज्य की, समस्त पृथ्वी की और स्वर्गादि की इच्छा करता है । एक कवि ने कहा ही है परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसृतयेस पश्चात्संपूर्णः कलयति धरित्री तृणसमाम् । अतश्चानकान्त्याद् गुरुलघुतयार्थेषु धनिनामवस्था वस्तूनि प्रथयति च संकोचयति च ॥ अर्थात्-जब मनुष्य दरिद्री होता है, तब तो एक पस जौ की भूसी को ही इच्छा करता है, पर जब धनवान हो जाता है, तब सारी पृथ्वी को भी तण समान मानता है । इस प्रकार मनुष्य की अवस्था विशेष ही वस्तु के विषय में भिन्नता पैदा करती है। इस प्रकार. जब तक कोई वस्तु प्राप्त नहीं है, तब तक तो मनुष्य को उस अप्राप्त वस्तु की इच्छा होती है, लेकिन जब वह अप्राप्त वस्तु प्राप्त हो जाती है, तब उससे भी आगे Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) की अप्राप्त वस्तु की इच्छा करता है । जैसे-जैसे पदार्थ प्रा होते जाते हैं, वैसे ही वैसे उनसे आगे के बढ़िया पदार्थों की इच्छा होती है । इस तरह संसार की सामग्रियों का अन्त तो आ सकता है, लेकिन इच्छा का अन्त नहीं आता । इच्छा की तरह मूर्छा भी मनुष्य के साथ ही जन्मती और उत्तरोत्तर वृद्धि पाती है । बचपन में मनुष्य माता और माता के दूध से ही ममत्व करता है । फिर खेलने के पदार्थ और खाद्य पदार्थ से भी । इसी प्रकार अवस्था के बढ़ने से जैसी तृष्णा बढ़ती है, उसी प्रकार मूर्छा भी बढ़ती जाती है । मूर्छा भी शान्त नहीं होती । वृद्धत्व के कारण भी मूर्छा के अस्तित्व में ग्रन्तर नहीं पड़ता बल्कि वृद्धत्व मूर्छा की वृद्धि करता है | बचपन श्रौर जवानी में किसी पदार्थ के प्रति जितनी मूर्छा होती है, उससे कई गुना अधिक मूर्छा बुढ़ापे में हो जाती है । बचपन या जवानी में कोई व्यक्ति प्राप्त पदार्थ के व्यय में जिस प्रकार की उदारता रखता है वृद्धावस्था आने पर प्राय: वैसी उदारता नहीं रहती । वृद्धावस्था आने पर उसे पहले की तरह पदार्थ को अपने से दूर करने में दुःख होता हैं और यदि विवश होकर उसे पदार्थ त्यागना पड़ता है, अथवा उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे पदार्थ छूट जाता है, तो उसको उस समय - बचपन या जवानी में उक्त कारण से जो दुःख हो सकता है उससे कई गुना अधिक होता है । इस प्रकार अवस्था के कारण मूर्छा की वृद्धि तो अवश्य होती है पर उसमें न्यूनता नहीं आती । अधिक पदार्थों की प्राप्ति भी मूर्छा को न्यून नहीं करती, किन्तु वृद्धि ही करती है । ग्राज जिसके पास केवल चार पैसे हैं, उसकी मूर्छा उन चार पैसों में ही रहती है, लेकिन Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७३ ) आगे यदि उसे विशाल राज्य प्राप्त हो जावे, तो वह राज्य में मूर्छित रहने लगता है । फिर उसको यह विचार नहीं होता कि मेरे पास तो केवल चार ही पैसे थे, अतः मैं इस राज्य पर मूर्छा क्यों करू ? वह उसमें मूर्छित रहता है और आगे उसे यदि विशाल साम्राज्य प्राप्त हो जावे तो उस व्यक्ति में उस साम्राज्य के प्रति भी मूर्छा रहेगी । यहां यह विचार करना भी आवश्यक है कि इच्छा और मूर्छा का अन्त क्यों नहीं होता ? इच्छा और मूर्छा का अन्त न होने का कारण यह है कि श्रात्मा सुख का इच्छुक है । वह सुख प्राप्ति के लिए ही सांसारिक पदार्थों की इच्छा और उनसे मूर्छा करता है, लेकिन सांसारिक पदार्थों में सुख है ही नहीं । सुख तो स्वयं प्रात्मा में ही है, ग्रज्ञान अथवा भ्रमवश उसको न देख कर आत्मा बाह्य पदार्थों में सुख मानता है । इसलिए सुख की इच्छा से आत्मा जिसे पकड़ता है, सुख उससे आगे के पदार्थों में दिखाई देता है । जैसे मृगतृष्णा को देख कर मृग जल की आशा से दौड़ जाता है, लेकिन उसको जल और आगे ही ग्रागे जाता हुआ जान पड़ता है, इसलिये वह आगे दौड़ कर जाता है । इस प्रकार मृगतृष्णा में जल की खोज करता हुआ वह दौड़ता - दौड़ता मर जाता है, परन्तु उसे मृगतृष्णा से जल नहीं मिलता । इसी प्रकार आत्मा पहले किसी एक पदार्थ में सुख देखता है, लेकिन जब वह पदार्थ प्राप्त हो जाता है, तब उस पदार्थ में उसे सुख नहीं जान पड़ता किन्तु प्राप्त पदार्थ में सुख जान पड़ने लगता है । इसलिए उस प्राप्त पदार्थ की इच्छा करता है इस प्रकार सुख की इच्छा से वह Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४) अधिकाधिक आगे के पदार्थों की इच्छा करता जाता है, परन्तु उसे किसी भी पदार्थ में सुख नहीं मिलता । फिर भी प्रात्मा को भ्रम यही रहता है, कि सुख इन पदार्थों में ही है । इस भ्रम के कारण वह पदार्थों की इच्छा करता ही जाता है। यहां तक कि पदार्थों का अन्त तो आ जाता है, परन्तु इच्छा का अन्त नहीं आता और जब इच्छा का अन्त नहीं आता, तब मूर्छा का अन्त कैसे आ सकता है ? इस प्रकार जब तक आत्मा स्वयं में रहें हुए सुख को नहीं देखता, किन्तु बाह्य पदार्थों में सुख मानता है, तब तक इच्छा और मूर्छा का भी अन्त नहीं हो सकता । इच्छा से मूर्छा का और मूर्छा से संग्रहबुद्धि का जन्म होता है । इच्छित पदार्थ के मिलने पर, उससे मूर्छा होती है और जिनके प्रति मूर्छा है, उनको त्यागा नहीं जा सकता। इसलिए उनका संग्रह करता है । यद्यपि पदार्थ की इच्छा सुख-प्राप्ति के लिए ही होती है और इच्छित पदार्थ के मिल जाने पर उसमें सुख नहीं जान पड़ता-- किन्तु दूसरे अप्राप्त पदार्थ में सुख जान पड़ने लगता है फिर भी प्रात्मा प्राप्त पदार्थ को छोड़ना नहीं चाहता । उस प्राप्त पदार्थ से उसे ममत्व हो जाता है, इसलिए ऐसे पदार्थों का संग्रह करता जाता है । इस प्रकार इच्छा से मूर्छा का और मूर्छा से संग्रहबुद्धि का जन्म होता है । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह से हानि कलहकल भविन्ध्यः क्रोधगृध्रश्मशानम् । व्यसन भुजगरन्ध्र द्वेष दस्युप्रदोषः || सुकृतवन दवाग्निर्माद्द' वांभोदवायुनयनलिनतुषारोऽत्यर्थमर्थानुरागः ॥ अर्थात् - अर्थानुराग ( ममत्व ) कलह रूपी बालहाथी को क्रीड़ा करने के लिये विन्ध्याचल के समान है । जिस प्रकार हाथी का बच्चा वन (पर्वत) में क्रीड़ा करता है, उसी प्रकार जहां परिग्रह है, वहां कलह क्रीड़ा करता है । कलह का स्थान परिग्रह ही है । क्रोध रूपी गिद्ध के लिये परिग्रह श्मशान तुल्य है । जैसे गिद्ध को श्मशान प्रिय होता हैवहां उसे भोजन मिलता है- उसी प्रकार क्रोध का स्थान परिग्रह है। जहां परिग्रह है, वहां क्रोध भी अवश्य है, अथवा क्रोध वहीं रहता है, जहां परिग्रह है । परिग्रह, दुर्व्यसन रूपी सांप के लिए बांबी के समान है । जहां परिग्रह है, वहां सभी प्रकार के दुर्व्यसन हैं । जैसे सन्ध्या होने पर चोर डाकुओं का जोर चलता है, उसी प्रकार परिग्रह होने पर द्वेष का भी जोर चलता है । द्वेष वहीं रहता है, जहां परिग्रह है । सुकृत रूपी वन के लिये परिग्रह अग्नि के समान Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) है । जैसे आग जंगल को जला देती है, उसी प्रकार परिग्रह सुकृत को नष्ट कर देता है । जिस प्रकार बादलों का दुश्मन पवन है, उसी प्रकार मदुता का दुश्मन परिग्रह है । जैसे हवा पाने पर बादल नहीं ठहर सकते, उसी प्रकार जहां परिग्रह है वहां मृदुता नहीं रह सकती । न्याय को तो परिग्रह उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस तरह कमलवन को पाला नष्ट कर देता है । तात्पर्य यह कि परिग्रह, कलह क्रोध दुर्व्यसन तथा द्वेष का. पोषक और सुकृत, मृदुता तथा न्याय का नाशक है । परिग्रह द्वारा होने वाली हानि का यह स्थूल रूप बताया गया है । परिग्रह समस्त दुःखों का कारण है । परि. ग्रह से व्यक्ति की भी हानि होती है, समाज की भी । यह प्राध्यात्मिक हानि का कारण है और शारीरिक हानि का भी । इसके द्वारा क्या-क्या हानि होती है, यह संक्षेप में बताया जाता है। (१) संग्रहबुद्धि का फल _इस मुर्छा रूप ममत्व से संग्रह बद्धि का जन्म होता है । इच्छा मूर्छा होने पर किसी पदार्थ की ओर से सन्तोष नहीं होता ।। चाहे जितनी सम्पत्ति हो, चाहे जैसा राज्य हो और चाहे जितनी स्त्रियां हों, फिर भी यही इच्छा रहती है कि मैं और संग्रह करू । इस प्रकार की संग्रहबुद्धि ने ही संसार में दु.ख फैला रखा है। संसार में जितने भी दुःखी हैं, वे सब संग्रह बुद्धि के प्रताप से ही। वैज्ञानिकों का कथन है कि जीवन के लिए आवश्यक समस्त पदार्थ प्रकृति इस परिमारग में उत्पन्न करती है कि जिससे सबकी आवश्यकता Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) की पूर्ति हो सके। ऐसा होते हुए भी संसार में नङ्ग भूखे लोग दिखाई देने का कारण लोगों की बढ़ी हुई संग्रह बुद्धिही है । कुछ लोग अपने पास आवश्यकता से अधिक पदार्थ संग्रह कर रखते हैं और दूसरे लोगों को उन पदार्थों के उपयोग से बंचित रखते हैं । इसी कारण लोगों को भूखा, नंगा रहना पड़ता है । एक ओर तो कुछ लोग अपने यहां अत्यधिक अन्न जमा रखते हैं, जो सड़ जाता है और दूसरी ओर कुछ लोग अन्न के बिना हाहाकार करते रहते हैं । एक ओर पेटियों में भरे हुए वस्त्र सड़ रहे हैं, उन्हें कीड़े खा रहे हैं और दूसरी ओर लोग जाड़े से मर रहे हैं । एक ओर कुछ लोग बड़े-बड़े मकानों में ताले डाले रखते हैं और दूसरी ओर कुछ लोगों के पास वर्षा, शीत, ताप से बचने तक को स्थान नहीं है । एक ओर कुछ लोगों के पास इतनी ज्यादा भूमि है कि जिसमें कृषि करना उनके लिए बहुत ही कठिन है और दूसरी ओर कुछ लोगों को जमीन का इतना टुकड़ा भी नहीं मिलता जिसको जोत- बोकर वे अपना पेट पाल सकें । कुछ लोगों के पास रुपये पैसे का इतना अधिक संग्रह है कि जिसे जमीन में गाड़ रखा है, या उन्हें जिसकी आव श्यकता ही नहीं है और दूसरी ओर कुछ लोग रत्ती - रत्ती सोना-चांदी या पैसे - पैसे के लिए तरसते हैं । इस प्रकार संसार में जो वैषम्य दिखाई दे रहा है, यह संग्रह बुद्धि के कारण ही । जिसकी आवश्यकता नहीं है, उसको अपने पास संग्रह कर रखने और उसके अभाव में दूसरों को कष्ट पाने देने से ही बोल्शेविज्म का जन्म हुआ है । इस प्रकार का वैषम्य रूस में बहुत ज्यादा फैल गया था । अन्त में पीड़ित लोगों Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८ ) ने क्रान्ति कर दी, जिससे वहां के उन लोगों को बहुत कष्ट भोगना पड़ा, जिन्होंने अपने पास आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह कर रखा था । लोग पदार्थों का संग्रह इच्छा मूर्छा के वश होकर तो करते ही हैं, लेकिन उनमें प्रधानतः बिना श्रम किये ही सांसारिक सुख भोगने और इस प्रकार स्वयं को बड़ा सिद्ध करने तथा इच्छा के कारण उत्पन्न अभिमान का पोषण करने की भावना भी रहती है । इस भावना से प्रेरित होकर वे संसार के अधिक से अधिक पदार्थों पर अपना आधिपत्य करने का प्रयत्न करते हैं और जिन लोगों को पदार्थों की श्रावश्यकता है - उन पदार्थों के बिना जिन्हें कष्ट है - उन लोगों से बदला लेकर फिर उन्हें वे पदार्थ देते हैं । भूमिकर और सूद अथवा साम्राज्यवाद और पूंजीवाद इस भावना का परिणाम है । २ - मुद्रा का दुष्परिणाम लोगों में उसी पदार्थ को संग्रह करने, उसी पदार्थ को अधिक मात्रा में अपने अधिकार में करने की भावना रहती है, जिसके द्वारा अन्य समस्त पदार्थ सरलता से प्राप्त हो सकें । आजकल ऐसा पदार्थ स्वर्ण - मुद्रा या रजत मुद्रा माना जाता है । जिस समय मुद्रा का प्रचलन नहीं था, उस समय के लोगों में – आज के लोगों की तरह संग्रह बुद्धि भी नहीं होती थी । न उस समय संसार में आज का सा वैषम्य, आज की सी बेकारी और आज का सा दुःख ही होता था । जब विनिमय - मुद्रा के अधीन नहीं था, तब अन्य वस्तुनों का ही परस्पर विनिमय होता था । उदाहरण के लिए उस Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) समय किसी को वस्त्र की आवश्यकता हुई और उसके यहां अन्न है, तो वह अन्न देकर वस्त्र ले आता था । किसी के यहां नमक है और उसे घी की आवश्यकता है, तो वह नमक देकर घी ले आता था । इस प्रकार वस्तु से वस्तु का विनिमय होता था । मुद्रा से वस्तु का विनिमय होना तो दूर रहा, किसी समय मुद्रा का प्रचलन ही न था। ऐसे समय में यदि कोई पदार्थों का संग्रह रखता भी तो कहां तक । अन्न, वस्त्र या ऐसे ही दूसरे पदार्थ किसी निर्धारित समय तक ही रह सकते हैं । अधिक समय होने पर बिगड़ जायेंगे । इसलिए लोग ऐसे पदार्थों को अधिक दिनों तक नहीं रख सकते थे । लेकिन जब से मुद्रा का प्रचलन हुआ है, तब से संग्रह की कोई सीमा ही नहीं रही । विनिमय मुद्रा के अधीन रहा और मुद्रा ऐसी धातु से बनी है, जो सैकड़ों हजारों वर्ष तक भी न सड़ती है, न घूलती है । इसलिए लोग मुद्राओं का संग्रह अधिक रखते हैं, जिससे पदार्थों का विनिमय रुक जाता है और लोगों को कष्ट का सामना करना पड़ता है । जब कृषि प्रादि द्वारा उत्पन्न पदार्थों का परस्पर विनिमय होता था, तब. लोग अधिक संग्रह भी नहीं रखते थे और पदार्थ खराब हो जायेंगे, यह समझ कर उदारता से भी काम लेते थे । परन्तु जब से विनिमय स्वर्ण, रजत आदि धातु के अधीन हुआ है, तब से संग्रह की भी सीमा नहीं रही और उदारता का भी आधिक्य नहीं रहा। आज की विनिमय पद्धति के लिए कहा तो यह जाता है कि मुद्रा (सिक्के) से विनिमय में सुविधा हो गई है, परन्तु विचार करने पर मालम होगा कि कृषि और गोपालन द्वारा उत्पन्न पदार्थों का विनिमय खनिज पदार्थों के अधीन हो - जाने से संसार महा दुःखी हो गया है । जब विनिमय Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८०) मुद्रा के अधीन नहीं था, तब कृषक लोग भूमिकर में उसो वस्तु का कोई भाग देते थे, जो उन्हें कृषि द्वारा प्राप्त होतो थी । ऐसा कर (महसूल) चक्रवर्ती तो उपज का बीसवां भाग लेते थे, वासुदेव दशमांश और साधारण राजा षष्ठांश लेते थे । इससे अधिक कर नहीं लिया जाता था । लेकिन आजकल कृषि से तो अन्न या दूसरे पदार्थ उत्पन्न होते हैं, और भूमिकर मुद्रा के रूप में लिया जाता है। इससे कृषकों को अन्नादि सस्ते भाव में भी बेच देना पड़ता है । इसके सिवाय कृषि में कुछ उत्पन्न हो या न हो, अथवा कम उत्पन्न हो, फिर भी भूमिकर (लगान) तो प्रायः बराबर ही देना होता है । इस प्रकार जव से सिक्के का निर्माण और प्रच. लन हुआ है, जनता अधिक दुःखी हुई है । सिक्के के कारण व्यापारी भी थोडी ही देर में धनवान बन जाता है और थोड़ी ही देर में दिवाला निकाल देता है। यह सिक्के का ही प्रताप है । इस प्रकार सिक्के के निर्माण और उसकी वृद्धि ने आपत्तियों की भी वृद्धि की है। इसलिए किसी एक बादशाह ने अपने राज्य में भारी-भारी (वजनदार) सिक्का चलाया था । उसका कहना था कि सिक्का जितना भी कम हो उतना ही अच्छा है । दुःखों का मूल-परिग्रह सांसारिक पदार्थों मे आत्मा को कभी भी सुख नहीं मिलता क्योंकि सांसारिक पदार्थों में सुख है ही नहीं । इसलिए उनसे चाहे जितना ममत्व किया जावे- उनका चाहे जितना संग्रह किया जावे – उनसे सदा दुःख ही होता है । संसार के प्राप्त पदार्थ भी दुःख देते हैं और जो प्राप्त नहीं Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) हैं, वे भी दुःख देते है । जो प्राप्त है, उन्हें प्राप्त करने में भी दुःख उठाना पड़ा है, उनके प्राप्त हो जाने पर भी दुःख हो है और उनके जाने पर भी दुःख ही होता है । जिसके पास जितने अधिक पदार्थ हैं, उसको उतनी ही अधिक चिन्ता है, उतना ही भय है और उतनी ही अधिक अशांति है । उदाहरण के लिए एक आदमी के पास कुछ ही रुपये हैं और दूसरे के पास बहुत रुपये हैं । जिसके पास कुछ ही रुपये हैं उसे भी चिन्ता और भय तो रहेगा, परन्तु जिसके पास अधिक रुपये हैं, उसे चिन्ता भी अधिक रहेगी और भय भी अधिक रहेगा । उसको उस धन की रक्षा के लिए मकान, तिजोरी, ताले और पहरेदार भी रखने पड़ेंगे । यह सब होने पर भी चिन्ता तो बनी ही रहेगी । यह भय सदा ही रहेगा कि कोई मेरा धन न ले जावे । रात को सुख से नींद भी न आयेगी और नौकर चाकर स्त्री, पुत्र पर भी सन्देह रहेगा तथा उनकी ओर का भय भी रहेगा । इसी प्रकार संसार की जितनी भी आपत्तियां हैं, सब परिग्रह के कारण ही हैं । चोर, डाकू और प्राग - पानी आदि का भय परिग्रही को ही होता है । राजकोप आदि आपत्तियां भी परिग्रही पर ही आती हैं । किसी कवि ने कहा ही है संन्यस्त सर्वसंगेभ्यो गुरुभ्योऽप्यतिशंक्यते । धनिभिर्धनरक्षार्थं रात्रावपि न सुप्यते ॥ १ ॥ सुतस्वजनभूपालदुष्टचौरा रिविड्वरात् । बन्धु मित्रकलत्रेभ्यो धनिभिः शंक्यते भृशं ॥ २ ॥ स्वजातीयैरपि प्राणी सद्योऽभिद्यते धनी । यथात्र सामिषः पक्षी पक्षिभिर्वद्धमण्डलैः ॥ ३॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२ ) अर्थात् - धनवान् ( परिग्रही ) पुरुष धन की रक्षा के लिए रात को सोता भी नहीं है और पुत्र, स्वजन, राजा, दुष्ट, चोर, बैरी, बन्धु, स्त्री, मित्र अथवा परचक्र आदि से, यहां तक कि जो समस्त परिग्रह के त्यागी हैं उन गुरु से भी शंकित ही रहता है । उसको सभी की ओर से सन्देह रहता है क्योंकि धनवान् यानी परिग्रही अपनी ही जाति के मनुष्यों द्वारा उसी प्रकार दु:खित भी किया जाता है, जिस प्रकार मांसभक्षी पक्षियों द्वारा वह पक्षी दुःखित किया जाता है, जिसके पास मांस का टुकड़ा है । परिग्रह प्राप्त होने से पहले भी दुःख देता है प्राप्त होकर भी दुःख देता है और छूट कर भी दुःख देता है । हां, यह अन्तर अवश्य है कि बड़े परिग्रह के साथ बड़ा दुःख लगा है और छोटे के साथ छोटा दुःखं है लेकिन परिग्रह के साथ दुःख अवश्य है । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति को फूलों की माला की इच्छा हुई और दूसरे व्यक्ति को मोतियों की माला की इच्छा हुई । फूल की माला थोड़े ही कष्ट से प्राप्त भी हो जायेगी, उसकी रक्षा की चिन्ता भी थोड़ी ही करनी पड़ेगी, उसके जाने का भय भी थोड़ा ही रहेगा और उसके जाने या नष्ट होने पर दुःख भी थोड़ा ही होगा । परन्तु मोती की माला अधिक कष्ट से प्राप्त होगी, उसकी रक्षा की चिन्ता भी अधिक करनी पड़ेगी, उसके जाने का भय भी अधिक रहेगा और यदि उसे चोर ले जावे, कोई छीन ले, या वह खो जावे, तो दुःख भी बहुत होगा । इस प्रकार थोड़े दुःख और अधिक दुःख का अन्तर तो अवश्य है, लेकिन परिग्रह के साथ दुःख अवश्य लगा हुआ है । इसीलिए किसी कवि ने कहा है Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८३) अर्थानामर्जने दुःखं अजितानाञ्च रक्षणे।। आये दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थः दुःखभाजनम् ॥ __ अर्थात्- परिग्रह के उपार्जन में दुःख है और उपाजित के रक्षण में भी दुःख है। इसलिए दुःख के पात्र परिग्रह को धिक्कार है । एक और कवि भी कहता है दुःखमेव . धनव्यालविषविध्वस्तचेतसां । अर्जने रक्षणे नाशे पुंसां तस्य परिक्षये ।। अर्थात्- धन रूपी सर्प के विष से जिनका चित्त खराब हो गया है उन लोगों को सदा दुःख ही होता है । उन्हें धनोपार्जन में भी दुःख होता है, रक्षा करने में भी दुःख होता है और धन के नाश अथवा व्यय में भी दुःख होता है । पदार्थों के पाने से पहले प्रात्मा को शांति और स्वतन्त्रता प्राप्त रहती है, पदार्थ मिलने पर वह चली जाती है। उससे बन्धन में भी पड़ जाना होता है । उदाहरण के लिए किसी पैदल जाते हए को घोड़ा मिल गया । घोड़ा पाकर वह आदमी कुछ देर के लिए चाहे ऐसा समझे कि मुझको शांति मिली है और मैं स्वतन्त्र हुआ हूँ परन्तु वास्तव में घोड़ा पाकर वह दुःखी तथा परतन्त्र हुआ है । अब उसे घोड़े की चिन्ता ने और प्रा घेरा । वह पैदल चाहे जहां और जब जा सकता था, घोड़ा लिए हुए वहां और उस समय नहीं जा सकता । इसी प्रकार संसार के अन्य समस्त पदार्थों के लिए भी समझ लेना चाहिए । संसार के समस्त पदार्थ, स्वतन्त्रता का हरण करने वाले, परतन्त्र बनाने वाले Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) तथा अशांति उत्पन्न करने वाले हैं । परिग्रही के दोष परिग्रही में दूसरे के प्रति सदा ही ईा का भाव बना रहता है। वह यही सोचता रहता है कि अमुक आदमी गिर जावे और मैं उससे बड़ा हो जाऊं, वह व्यक्ति मेरी समानता का न हो जावे, उसको अमूक वस्तु क्यों मिल गई आदि । इस प्रकार वह दूसरों का अहित ही चाहता है । वह किसी प्रकार अप्राप्त पदार्थ को पाकर उससे भी तभी सुख मानता है, जब तक उसे वैसा पदार्थ दूसरों के पास नहीं दिख पड़ता । दूसरों के पास वैसा पदार्थ देख कर, उसके हृदय में ईर्ष्या होती है और उसे अपने पास के पदार्थ में सुख नहीं जान पड़ता । वह सोचता है कि इसमें क्या है ऐसा तो उस अमुक के पास भी है । __ परिग्रह निर्दयता भी लाता है । हृदय को कठोर बनाता है । जो जितना परिग्रही है वह उतना ही निर्दय और कठोर-हृदय है । यदि उसमें निर्दयता और कठोरता न हो, तो वह - लोगों को दुःखी देख कर भी- अपने पास पदार्थ-संग्रह नहीं रख सकता । इसी प्रकार परिग्रही व्यक्ति अपने किंचित् कष्ट को तो महान् दुःख समझता है, लेकिन दूसरे के महान् दुःख की उसे कुछ भी परवाह नहीं होती । दूसरा कोई दुःखी है तो रहे, परिग्रही तो यही चाहता है कि मेरे काम में कोई बाधा न आवे । मेरे लिए दूसरे को कैसा कष्ट होता है, मेरे व्यवहार से दूसरे को कैसी व्यथा होती है इन बातों की ओर उसका ध्यान भी नहीं जाता। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८५) वह तो समझता है कि कष्ट सह कर मुझे सुख देने के लिए ही दूसरे लोग बने हैं और मैं दूसरों को कष्ट देकर सुख भोगने के लिए ही उत्पन्न हुआ है। ऐसा व्यक्ति दीन-दुखियों की सहायता के नाम पर कुछ खर्च भी कर देता हो, लेकिन उसका यह कार्य दया या सहयता की प्रेरणा से ही हना है ऐसा नहीं कहा जा सकता । वह प्रायः लोगों को दिखाने, यशस्वी बनने और अपने प्रति जनता को आकर्षित करके अपनी गणना दानियों में कराने के लिए ही, संचित या प्राप्त परिग्रह का एक तुच्छ अंश दे देता है । वस्तुतः उसमें दया और सहृदयता हो ही नहीं सकती। यदि उसमें दया और सहृदयता हो तो वह परिग्रह के लिए किसी को किंचित् भी कष्ट नहीं दे सकता, न अपने पास अधिक रख कर उन पदार्थों के अभाव में दूसरों को कष्ट ही पाने दे सकता है । - परिग्रह में द्रोह की प्रधानता रहती है और जहां द्रोह है, वहां प्रेम का अभाव स्वाभाविक ही है । इस प्रकार परिग्रह प्रेम का नाशक है । यह बात ऊपर के वर्णन से स्पष्ट है। सांसारिक पदार्थों का संग्रह रखने वाला-उनसे ममत्व करने वाला-सांसारिक पदार्थों को ही महत्त्व देता है, आत्मा और गुणों की तो उपेक्षा या अवहेलना ही करता है। वह सम्मान भी उसी का करता है, जिसके अधिकार में सांसारिक पदार्थ अधिक हैं । इसके विरुद्ध जिसके पास सांसारिक पदार्थों का वैसा आधिक्य नहीं है, उसका आदर करना तो दूर रहा उसकी ओर देखना भी पसन्द नहीं करता, न उसके दुःख-सुख की ही अपेक्षा करता है । चाहे वह गुणी हो अथवा Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) दुःखी हो । उसमें गुणी के प्रति प्रमोद भावना और दुःखी के प्रति करुणा भावना नहीं होती। परिग्रह के लिए आत्मा की भी अवहेलना की जाती है और उससे भी द्रोह किया जाता है । आत्मा को बड़ा नहीं समझा जाता, किन्तु परिग्रह को ही बड़ा समझा जाता है, आत्मा का आदर नहीं किया जाता किन्तु परिग्रह का ही आदर किया जाता है । जहां परिग्रह है वहां आलस्यअकर्मण्यता भी है । दूसरे के श्रम का लाभ लूटने और स्वयं का जीवन आलस्य एवं विलास में बिताने की ही भावना रहती है तथा इसी प्रकार का प्रयत्न किया जाता है । परिग्रही व्यक्ति स्वयं को ही सब से अधिक गुणवान् समझता है। फिर चाहे उसमें दुर्गुण ही क्यों न हों । एक कवि के कथनानुसार तो परिग्रही में जरा भी गुण नहीं होता । यह कवि कहता है नाणवोपि गुणा लोके दोषा शैलेन्द्रसन्निभाः । भवन्त्यत्र न सन्देहः संगमासाद्य देहिनाम् ॥ अर्थात्- परिग्रही में निस्सन्देह जरा भी गुण नहीं होता और दोष सुमेरु की तरह के बड़े-बड़े होते हैं। इसके अनुसार परिग्रही में दोष ही दोष होते हैं, गुण जरा भी नहीं होता। फिर भी वह समझता यही है कि जो कुछ हूँ मैं ही हूँ । समस्त गुण मुझ में ही हैं । ऐसे लोगों का व्यवहार देख कर ही किसी कवि ने कहा है- . Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८७ ) यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः । स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः कांचनमाधयन्ति । अर्थात्-जिनके पास धन है वह आदमी कुलवान् न होने पर भी कुलीन माना जाता है, बुद्धिहीन होने पर भी बुद्धिमान् माना जाता है, शास्त्रज्ञ न होने पर भी शास्त्रज्ञ माना जाता है, गुणवान् न होने पर भी गुणवान् माना जाता है, वक्ता न होने पर भी वक्ता माना जाता है और दर्शनीय न होने पर भी दर्शनीय समझा जाता है । इससे सिद्ध होता है कि सारे गुण धन में ही समझे जाते हैं। परिग्रही में अभिमान भी बहुत होता है । वह स्वयं को बड़ा सिद्ध करने – स्वयं का अधिकार जताने के लिए दूसरे का अपमान करने में भी संकोच नहीं करता । परिग्रही व्यक्ति से प्रायः धर्म कार्य नहीं हो सकते । जो जितना अधिक परिग्रही है, वह धर्म से उतना ही अधिक दूर है । वह लोगों को दिखाने, स्वयं को धार्मिक सिद्ध करने आदि उद्देश्य से चाहे धर्म-कार्य करता हो और उनमें भाग भी लेता हो, परन्तु वस्तुतः उसमें पूर्ण धार्मिकता नहीं हो सकती । यह प्रायः समस्त धर्मकार्य सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति या उनकी रक्षा की कामना से ही करता है, निष्काम होकर नहीं करता । पहले तो ऐसा व्यक्ति स्थिर चित्त से धर्माराधन या ईश्वर-भजन कर ही नहीं सकता, Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८८) उसका चित्त सदा अस्थिर चिन्ताग्रस्त एवं भयग्रस्त रहता है, इस कारण उससे धर्माराधन या ईश्वर-भजन होना कठिन है । इस पर भी यदि वह ऐसा करता है तो प्राप्त प्रदार्थ की कुशलक्षेम अथवा अप्राप्त पदार्थ की प्राप्ति के लिए ही और यदि कभी उसकी कामना के विपरीत कार्य हुआ तो उस दशा में वह धर्माराधन या ईश्वर-भजन करना त्याग ही नहीं देता किन्तु धर्म और ईश्वर पर अविश्वास भी करने लगता है । उसका सिद्धान्त क्या होता है, इसके लिए भर्तृहरि कहते हैं- जातिर्यातु रसातलं गुणगणस्तस्याप्यधो गच्छता च्छीलं शैलतटात्पतत्वभिजनः सन्दह्यतां वह्निना । शौर्ये वैरिणि वज्रमाशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः केवलं येनकेन विना गुणस्तृणलवप्रायः समस्ता इमे ।। अर्थात्- चाहे जाति रसातल को चली जावे, समस्त गुण रसातल से भी नीचे चले जावें, शील पहाड़ से गिरकर नष्ट हो जावे और वैरिन शूरता पर शीघ्र ही वज्र आ पड़े तो कोई हर्ज नहीं, हमारा धन नष्ट न हो, हमें तो केवल धन चाहिये क्योंकि धन के बिना मनुष्य के सारे ही गुण तिनके के समान व्यर्थ हैं । .. परिग्रह के लिए धर्म और ईश्वर के प्रति विद्रोह भी किया जाता है और धर्म के स्थान पर अनीश्वरवाद की स्थापना की जाती है । परिग्रह के लिए ही छल-कपट और अन्याय अत्याचार को धर्म का रूप दिया जाता है । कुगुरु.और कुदेव को परिग्रह के लिए ही माना जाता है । परिग्रह के लिए Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८१) ही धर्म की मर्यादा उल्लंघन की जाती है और ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार किया जाता है। धर्म और ईश्वर विरोधी समस्त कार्य परिग्रह के कारण ही होते हैं । परिग्रह के लिए ही दुर्व्यसनों का सेवन किया-कराया जाता है । मांसभक्षण, मदिरापान, जुआ, निन्दा चुगली आदि सब दुर्व्यसन परिग्रह के कारण ही सेवन किये जाते हैं या कराये जाते हैं । छल कपट और अन्याय अत्याचार भी परिग्रह के लिए ही होता है । परिग्रह के लिए ही विश्वासघात का भयंकर पाप किया जाता है और परिग्रह के लिए ही न्यायाधीश कहलाने वालों द्वारा अन्याय किया जाता है । परिग्रह के लिए प्रकृति से भी विरोध किया जाता है । उसका सौन्दर्य नष्ट किया जाता है । जनता को प्रकृति दत्त लाभों से वंचित रखा जाता है । जंगल काट डाले जाते हैं, नदियों का पानी रोक दिया जाता है या बांट दिया जाता है तथा भूमि और पहाड़ों की खोद डाला जाता है । इस प्रकार प्राकृतिक सौन्दर्य और मनुष्य के लिए आवश्यक प्राकृतिक सुविधा भी नष्ट कर दी जाती है और उसके स्थान पर कृत्रिमता का पोषण किया जाता है । ____ यह नियम है कि जो जिसका ध्यान करता है वह वैसा ही बन जाता है । प्रात्मा चेतन है और संसार के समस्त पदार्थ जड़ हैं । जब चेतन प्रात्मा जड़ पदार्थों का ही ध्यान करता रहेगा तब उसमें भी जड़ता आना सम्भव है। इसके सिवा जड़ दृश्य पदार्थों का ध्यान करने से आत्मा Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) द्रष्टा को यानी स्वयं को भूल जाता है । वह विचार भी नहीं करता कि मैं द्रष्टा, दृश्य में कैसे भूल रहा हूँ ? ' अज्ञान में पड़ा हुआ आत्मा, सांसारिक पदार्थों से ममत्व करके उनका संग्रह तो करता है, लेकिन आत्मा को सांसारिक पदार्थों से ममत्व करने और उनका संग्रह करने का अधिकार है या नहीं, यह एक विचारणीय बात है । सांसारिक पदार्थ आत्मा के तद्रूप भी नहीं हैं वे प्रात्मा का साथ भी छोड़ देते हैं- आत्मा के साथ या पास रहते भी नहीं हैं-फिर आत्मा किसी वस्तु को अधिकारपूर्वक अपनी कैसे कह सकता है और उनका संग्रह क्यों करता है ? वस्तुतः आत्मा का सांसारिक पदार्थों पर कोई अधिकार नहीं है । फिर भी अज्ञान के कारण आत्मा उनका संग्रह करता है, उनसे ममत्व रखता है और इस प्रकार स्वयं की हानि ही करता है। पापमूल परिग्रह परिग्रह पाप-बन्ध का कारण है । यह अन्तिम और प्रधान प्रास्रवद्धार है, प्रथम के चार प्रास्रवद्वारों का रक्षक एवं पोषक है । प्रथम के चार आस्रवों की उत्पत्ति इसी से है। यह समस्त पापों का कारण है । भगवती सूत्र के दूसरे शतक में गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा है कि इच्छा मुर्छा और गुद्धि ( अर्थात् परिग्रह ) से क्रोध, माया, लोभ का अविनाभावी सम्बन्ध है । जहां इच्छा मूर्छा है, वहां क्रोध मान, माया, लोभ भी हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, पापानुबन्ध चौकड़ी है । जहां क्रोध, मान, माया, लोभ हैं, वहां सभी पाप हैं और जहां परिग्रह है, वहां क्रोध, मान, Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१) माया, लोभ हैं। इस प्रकार परिग्रह समस्त पापों का केन्द्र है । सब पाप परिग्रह से ही उत्पन्न होते हैं । प्रश्नव्याकरण सूत्र में भी कहा है कि परिग्रह के लिए लोग हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, अच्छी वस्तु में बुरी वस्तु मिलाते हैं, परदारगमन तथा परदारहरण करते हैं, क्षधा, तृष्णा आदि कष्ट स्वयं भी सहते हैं और दूसरे को भी ऐसे कष्ट में डालते हैं, कलह करते हैं, दूसरे का बुरा चाहते हैं, दूसरे के लिए अपशब्द कहते हैं, दूसरे का अपमान करते हैं तथा स्वयं भी अपमानित होते हैं, सदैव चिन्तित रहते हैं और बहुतों का हृदय दुःखाते हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ का उत्पादक परिग्रह ही है। इस प्रकार शास्त्रकारों ने समस्त पापों का कारण परिग्रह ही बताया है । अनुभव से भी यह स्पष्ट है कि संसार में जितने भी पाप हैं वे सब परिग्रह के ही कारण हैं और परिग्रह के लिए ही किये जाते हैं । ऐसा कोई भी पापकर्म न होगा जो परिग्रह के कारण न किया गया हो। लोग इच्छा और मूर्छा के वश होकर ही प्रत्येक पाप करते हैं। जिसमें या जहां इच्छा-मूर्छा · नहीं है, उसमें या वहां किसी भी प्रकार का पाप नहीं है । ___संसार में जितनी भी हिंसा होती है, वह परिग्रह के लिए ही । परिग्रह के वास्ते ही लोग हिंसा करते हैं । शब्द रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के साधन राज्य, धन और स्त्री के लिए ही युद्ध हुए हैं और होते हैं । राम और रावण का युद्ध परिग्रह के लिए ही हुआ था । परिग्रह के लिए ही मणिरथ ने अपने भाई युगबाहु को मार डाला था * । - यहां स्त्री की इच्छा भी परिग्रह से ही मानी गई है । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) परिग्रह के लिए ही औरंगजेब ने अपने भाइयों की हत्या की थी । कोणिक और चेड़ा का शास्त्र - - प्रसिद्ध युद्ध भी परिग्रह के लिए ही हुआ था । इसी प्रकार और भी संकड़ों हजारों उदाहरण ऐसे हैं, जिनसे यह सिद्ध है कि परिग्रह के लिए ही मनुष्य - मनुष्य की हत्या करता है और अपने पुत्र, पिता, भाई, माता, मामा, स्त्री, पति आदि को मृत्यु के हवाले कर देता है । अभी कुछ ही वर्ष पूर्व यूरोप में जो युद्ध हुआ था और जिसमें लाखों करोड़ों मनुष्य भौत के घाट उतरे थे, वह भी परिग्रह के लिए ही हुआ था । मनुष्यों की हत्या करने में सैनिकों को किसी प्रकार का संकोच न हो, इसी विचार से राजा लोग सैनिकों को वास्तविक धर्म - शिक्षा से वंचित रखते हैं और यह शिक्षा देते दिलाते हैं कि युद्ध करके मनुष्यों को मारना ही धर्म है । यह सब परिग्रह के लिए ही किया जाता है । परिग्रह के लिए ही सैनिक लोग राजाओं की - मनुष्यों को मारने जैसी - वीभत्स आज्ञा का पालन करना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझते हैं । परिग्रह के लिए ही युद्ध जैसे महान् पाप को धर्म का रूप दिया जाता है । यह तो उस हिंसा की बात हुई जिसका करना 'वीरता ' माना जाता है, जो समाज में घृणा की दृष्टि से नहीं देखी जाती और समाज भी जिसकी निन्दा नहीं करता किन्तु जिस हिंसा के करने वाले को 'वीर' उपाधि से विभूषित करता है । अब उस हिंसा की बात करते हैं जो राज्य द्वारा अपराध मानी जाती है और समाज में भी निन्दित समभी जाती है । चोर डाकू पारदारिक आदि लोग भी परिग्रह के लिये ही जनहिंसा करते हैं । परिग्रह के लिये ही मनुष्य अपनी ही तरह के मनुष्य को बात की बात में कत्ल कर Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) stant है, किसी भी प्रकार का संकोच नहीं करता । अधिक कहां तक कहा जावे, संसार में जिनको स्वजन कहा जाता है, परिग्रह के लिये उनकी भी हत्या कर डाली जाती है और आत्म हत्या का घोर पाप भी परिग्रह के लिये ही किया जाता है । परिग्रह के लिये स्वयं के शरीर से भी द्रोह किया जाता है । जो व्यवहार शरीर के लिये असह्य है, जिस व्यवहार से शरीर की क्षति होती है, परिग्रह के लिए शरीर के प्रति भी वही व्यवहार किया जाता है और जिस व्यवहार से शरीर सुखी रहता है, पुष्ट तथा सशक्त रहता है. आयु की वृद्धि होती है, उस व्यवहार से शरीर को वंचित रखा जाता है । जैसे अधिक गरिष्ठ और प्रकृति - विरुद्ध भोजन, मैथुन आदि कार्य तथा नशा शरीर के लिए हानिप्रद हैं लेकिन परिग्रह के लिए ऐसे हानिप्रद कार्य भी किये जाते हैं और सत्य तथा सादा भोजन, सीमित श्रम आदि शरीर के लिए लाभप्रद हैं, फिर भी इनसे शरीर को वंचित रखा जाता है अर्थात् मिथ्या' आहार-विहार द्वारा शरीर के साथ द्रोह किया जाता है और वह परिग्रह के लिए ही । शरीर से आगे चलिए । जन्म देने वाले माता-पिता, प्रिय माने जाने वाले भाई-बहिन, मित्र, सम्बन्धी, स्त्री-पुत्र आदि परिजन के विषय में विचार करने पर मालूम होगा कि परिग्रह के लिए इन सब से अथवा इनमें से प्रत्येक के साधं द्रोह किया जाता है । मनुष्य पर माता-पिता के अनन्त उपकार हैं, परन्तु परिग्रह के लिए उनका भी अपकार किया जाता है । इस बात को सिद्ध करने के लिए बहुत उदा Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) हरण दिये जा सकते हैं, लेकिन थोड़े ही उदाहरणों से काम चल सकता है, इसलिए कंस, कोणिक और औरंगजेब के उदाहरण देना ही प्रर्याप्त हैं। कंस ने अपने पिता उग्रसेन को परिग्रह के लिए ही कारागार में डाल दिया था । कोणिक ने परिग्रह के लिए ही अपने पिता श्रेणिक को पीजरे में बन्द कर दिया था और परिग्रह के लिए ही औरंगजेब ने अपने बूढ़े बाप शाहजहां को आगरे के किले में बन्द करके भूखों-प्यासों मारा था। इसी प्रकार अनेक नर-पिशाचों ने परिग्रह के लिये अपनी जन्मदात्री माता की भी हत्या कर डाली है; उसे भी कष्ट दिया है । योरप के किसी राजा या सेनापति ने अपनी माता को भी मौत के घाट उतार दिया था। परिग्रह के लिए माता-पिता द्वारा सन्तान का द्रोह किये जाने के उदाहरण भी बहुत मिलेंगे । परिग्रह के लिए ही पुत्र-पुत्री में भेद भाव समझा जाता है और एक को शुभ तथा दूसरे को अशुभ बताया जाता है । परिग्रह के लिए ही सन्तान को दूसरे के हाथ बेचा जाता है और उसके सुख-दुःख की चिन्ता नहीं की जाती। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की माता ने परिग्रह के लिए ही * अपने पुत्र ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को लाक्षा-गृह में जलाने का प्रयत्न किया था । परिग्रह के लिए भाई से द्रोह करने के उदाहरण तो सबसे ज्यादा हैं । कौरव-पांडव भाई-भाई ही थे, लेकिन परिग्रह के लिए आपस में लड़ मरे । औरंगजेब ने अपने भाई दारा, शूजा और मुराद को परिग्रह के लिए ही मार डाला था और परिग्रह के लिए ही भरत चक्रवर्ती ने अपने * भोगों में मूर्छा परिग्रह ही है । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (२६५) १८ भाइयों की स्वाधीनता छीनने का प्रयत्न किया था । परिग्रह के लिये बहिन का भाई द्वारा और भाई का बहिन द्वारा द्रोह किये जाने के उदाहरण भी बहुत हैं। इसी प्रकार मित्रद्रोह भी परिग्रह के लिये होता है । परिग्रह के लिये ही पति द्वारा पत्नी का और पत्नी द्वारा पति का द्रोह किया जाता है । सूरिकान्ता रानी ने अपने पति परदेशी राजा की हत्या परिग्रह के लिये ही की थी । आज भी ऐसे बहुत उदाहरण देखने-सुनने में आते हैं । समाज का द्रोह भी परिग्रह के लिये ही किया जाता है । परिग्रह के लिये ही ऐसे काम किये जाते हैं, जिनसे समाज का अहित होता है। परिग्रह के कारण जाति मोर देश से भी द्रोह किया जाता है । आज तक जितने भी देशद्रोही हए हैं, उन सब ने परिग्रह के लिये ही देशद्रोह किया था। आज भी लोग देशद्रोह करते हैं वे परिग्रह के लिये ही । परिग्रह के लिये ही वे कार्य किये जाते हैं, जिनसे देश का अहित होता है । . राजा प्रजा-रक्षक माना जाता है, लेकिन परिग्रह के लिये वह भी प्रजाद्रोही बन जाता है। परिग्रह के लिये ही वह ऐसे-ऐसे नियमोपनियम बनाता है, ऐसे-ऐसे कर लगाता है, जो प्रजा को कष्ट में डालते हैं । .. तात्पर्य यह कि संसार में जितनी भी जनहिंसा होती हैं वह परिग्रह के लिए ही । इच्छा-मूर्छा से प्रभावित व्यक्ति को जनहिंसा करने में धर्म-अधर्म या पाप-पुण्य का विचार नहीं होता, न यही विचार होता है कि ये मेरे सम्बन्धी Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६ ) अथवा मित्र हैं, मैं इनकी हिंसा कैसे करू? . यह जन-हिंसा की बात हुई । अब पशु-पक्षी आदि की हिंसा पर विचार किया जाता है । पशु-पक्षियों की हिंसा भी परिग्रह के लिए ही होती है । दीन मूक और किसी की कोई हानि न करने वाले पशु-पक्षियों को भी मनुष्य इच्छा-मूर्छा की प्रेरणा से ही मारता है । शिकार द्वारा, कत्लखानों में अथवा अन्य प्रकार से पशु-पक्षियों की जो हिंसा होती है, वह सब परिग्रह के लिए ही । चर्म, रक्त, केश, दांत, चर्बी, मांस अथवा अन्य किसी अवयव के लिए ही पशु या पक्षी को मारा जाता है । यदि इनमें से किसी की चाह न हो, तो पशु-पक्षियों को मारने का कोई कारण ही नहीं है । जो कोई भी पशु-पक्षियों की हिंसा करता है, वह या तो उस पशु-पक्षी के अंगोपांग दूसरे को बेच कर बदले में और कुछ लेता है अथवा स्वयं ही उनको उपयोग में लेता है। दोनों में से किसी भी लिये हो, फिर भी यह तो स्पष्ट है कि परिग्रह के लिए ही पशुत्रों और पक्षियों की हिंसा की जाती है और परिग्रह के लिए ही दूसरे जीवों की भी हिंसा की जाती है । बन्ध, बध आदि हिंसा के अंग रूप पाप भी परिग्रह के लिए ही होते हैं । इस प्रकार परिग्रह के लिए ही हिंसा का पाप होता है । छोटे या बड़े किसी भी जीव की हिंसा ऐसी न होगी, जो परिग्रह के लिए न की गई हो । आरम्भादि द्वारा होने वाली हिंसा भी परिग्रह के लिए ही होती है और महारम्भ द्वारा होने वाली हिंसा तो विशेषतः परिग्रह के लिये ही होती है । मिलों और कारखानों से जो काम होता है, वह Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७) काम इनके बिना भी हो सकता था और उस दशा में अनेकों को रोटो भी मिल सकती थी परन्तु बढ़ी हुई. इच्छा-मूर्छा वाले लोग, मिल और कारखाने स्थापित करके. उन कामों को करते हैं, जिनसे बहुतों को होने वाला लाभ एक या कुछ व्यक्ति को ही हो । यद्यपि ऐसा करने से जनता में कंगाली फैलती है, सार्वजनिक कला नष्ट होती है और महारम्भ होता है, लेकिन परिग्रह के लिए इन सब बातों की अपेक्षा नहीं की जाती। . . - अब झूठ के विषय में विचार करते हैं । झूठ का पाप भी परिग्रह के लिए ही किया जाता है । चाहे सूक्ष्म हो या स्थूल, उसका उपयोग परिग्रह के लिए ही होता है । परिग्रह के लिए ही शास्त्रों का पाठ और अर्थ बदला जाता है और शास्त्रों में तात्त्विक परिवर्तन किया जाता है। परिग्रह के लिए वास्तविकता को छिपा कर कृत्रिमता से काम लिया जाता है । परिग्रह के लिए ही झूठी गवाही दी जाती है, कम तोला-नापा जाता है, वस्तु में सम्मिश्रण किया जाता है और सत्य को दबाया जाता है । परिग्रह के लिए ही अच्छी कन्या को बुरी और बुरी कन्या को अच्छी, अच्छे लड़के को बुरा और बुरे लड़के को अच्छा बताया जाता है। परिग्रह के लिए ही ६० के बदले ४५ की और १४ के बदले १८ वर्ष की अवस्था. बताई जाती है । इस प्रकार झूठ सम्बन्धी समस्त पाप भी परिग्रह के लिए ही किया जाता है। चोरी का पाप भी परिग्रह के लिए ही होता है । ऐसी एक भी चोरी न होगी जो परिग्रह के लिए न की गई हो । इसी प्रकार मैथुन भी परिग्रह के लिए ही होता है । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) इस प्रकार चारों वे पाप, जो परिग्रह से पहले के चार आस्रवद्वार माने जाते हैं, परिग्रह के लिए ही सम्पन्न होते हैं । यदि परिग्रह का पाप न हो तो ऊपर कहे गये चारों पाप भी नहीं हो सकते । सारांश यह कि संसार के समस्त पाप-कार्य और संसार के समस्त अनर्थ परिग्रह के लिए ही होते हैं । परिग्रह सब पापों का मूल और सब अनर्थों की खान है । परिग्रह से होने वाले अथवा परिग्रह के लिए होने वाले पाप और अनर्थ का पूर्णतया वर्णन बहुत ही कठिन है, इसलिए इतना कह कर ही सन्तोष किया जाता है । • Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह व्रत परिग्रह से निवर्तने के लिए जो व्रत स्वीकार किया जाता है उसका नाम ' अपरिग्रह व्रत ' है । इस व्रत को स्वीकार करने से इहलौकिक लाभ भी है और पारलोकिक लाभ भी । इस व्रत को स्वीकार करने पर ग्रात्मा समस्त पापों से निवृत्त हो जाता है । वह रागद्वेष-रहित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है और इस प्रकार जन्म-मरण के कष्ट से छूट जाता है । जन्म-मरण का मूल हेतु राग-द्वेष ही है । ग्रपरिग्रह होने पर राग-द्वेष मिट जाता है, इसलिए फिर जन्म-मरण नहीं करना पड़ता । अपरिग्रह व्रत स्वीकार करने पर, अनन्तानुवन्धी चौकड़ी, अप्रत्याख्यानी चौकड़ी और प्रत्याख्यानी चौकड़ी का निरोध हो जाता है । इससे जन्ममरण और नरकादि के दुःख से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । परिग्रह के कारण आत्मा जन्म-मरण के जिस बन्धन में है, परतन्त्रता की जिस जंजीर से जकड़ा हुआ है, परिग्रह व्रत स्वीकार कर लेने पर उस बन्धन और परतन्त्रता से भी छूट जाता है । अपरिग्रह - व्रत स्वीकार करने पर ही पूर्णतया धर्माराधन हो सकता है और तभी कामना रहित तथा शुद्ध रीति से परमात्मा का भजन भी किया जा सकता है । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) परिग्रह से सर्वथा विरत होने के लिए पहले आभ्यन्तर परिग्रह से विरत होने की आवश्यकता है । जब तक आभ्यन्तर परिग्रह है, तब तक बाह्य परिग्रह से विरत होने का विचार तक नहीं हो सकता । बल्कि आभ्यन्तर परिग्रह का प्राधिक्य होने पर मनुष्य किसी वस्तु, बात या विचार को परिग्रह रूप मान ही नहीं सकता जिसकी गणना परिग्रह में है । ' यह परिग्रह है' ऐसा विचार तभी हो सकता है, जब आभ्यन्तर परिग्रह का जोर कम हुआ होगा । इसलिए सर्वप्रथम आभ्यन्तर परिग्रह से निवृत्त होने की आवश्यकता है । आभ्यन्तर परिग्रह से आत्मा जितने ग्रंश में निवृत्त होता जाएगा, उतने ही अंशों में बाह्य परिग्रह से भी और जब आभ्यन्तर परिग्रह से बिलकुल विरत हो जायेगा, तब बाह्य परिग्रह भी न रहेगा । निर्ग्रन्थ- प्रवचन सुनने का लाभ परिग्रह का त्याग और अपरिग्रह - व्रत का स्वीकार ही है, जिसके स्वीकार किये बिना निर्ग्रन्थ-प्रवचन का पालन नहीं हो सकता और जब तक निर्ग्रन्थ-प्रवचन का पूर्णतया पालन नहीं किया जाता, तब तक जन्म-मरण से नहीं छूटा जा सकता । इस दृष्टि से भी परिग्रह त्याग कर अपरिग्रह व्रत स्वीकार करना आवश्यक है । शास्त्र का कथन है कि जब तक इन्द्रिय-भोग के पदार्थ न छूटें तब तक जन्म-मरण भी नहीं छूट सकता । इन्द्रिय-भोग के पदार्थों के प्रति जब तक किंचित् भी ममत्व है, तब तक जन्म-मरण भी है और जिन्हें इन्द्रियां प्रिय मानती हैं, उन पदार्थों का ममत्व ही परिग्रह है । संसार - Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्र से निकलने की इच्छा रखने वाले के लिए यह आवश्यक है कि इन्द्रिय द्वारा भोग्य पदार्थ रूप परिग्रह का त्याग करके अपरिग्रह-व्रत स्वीकार करे । इस प्रकार अपरिग्रह-व्रत को स्वीकार तथा उसका पालन करने से पारलौकिक लाभ, जन्म-मरण से छूटना और मोक्ष प्राप्त करना है । अपरिग्रह-व्रत स्वीकार करने पर जन्म-मरण का भय भी छूट जाता है और किसी प्रकार का कष्ट भी नहीं रहता है । इस व्रत को स्वीकार करने से इहलौकिक लाभ भी बहुत हैं । जो इस व्रत को स्वीकार करता है, उसकी ओर से संसार के समस्त प्राणी निर्भय हो जाते हैं और व्रत स्वीकार करने वाला भी सब तरह से निर्भय हो जाता है। फिर उसको किसी भी अोर से किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता । उसको न तो राज-भय रहता है, न चोर-भय रहता है, न अग्नि रोग आदि किसी अन्य प्रकार का ही भय रहता है । उसके प्रति संसार के समस्त जीव विश्वास करते हैं और वह भी सबका विश्वास करता है तथा सब जीवों के प्रति समदृष्टि रखता है एवं सभी को अपना मित्र मानता है । उसके हृदय में शत्रु और मित्र का भेद नहीं रह जाता । लोगों में वह आदर का पात्र माना जाता है। उसके समीप किसी प्रकार की चिन्ता तो रहती ही नहीं है । संसार का ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जो कभी न छूटे । छोड़ने की इच्छा न रहने पर भी संसार के पदार्थ तो छूटते ही हैं । लेकिन यदि संसार के पदार्थों को इच्छा-पूर्वक छोड़ा जायगा तो दुःख भी न होगा तथा प्रशंसा भी होगी और Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२) इच्छापूर्वक न छोड़ने पर संसार के पदार्थ छूटेंगे तो अवश्य ही, परन्तु उस दशा में हृदय को अत्यन्त खेद होगा तथा लोगों में निन्दा भी होगी। .. सांसारिक पदार्थों को स्वयं त्यागने से एक लाभ और भी है । भावी सन्तति भी सांसारिक पदार्थों का विश्वास न करेगी किन्तु उन्हें त्याज्य मानेगी। इस प्रकार सांसारिक पदार्थों को स्वयं ही त्यागने से भावी सन्तान को भी लाभ होगा। सांसारिक पदार्थों से आत्मा का कोई स्थायी सम्बन्ध नहीं है और ये छूटने वाले हैं, वह जान कर ही धन्ना, शालिभद्र और भृगू पुरोहित आदि ने अपनी विशाल सम्पत्ति त्याग दी थी । पूर्व के अनेक मुनि महात्माओं एवं महापुरुषों ने संसार के किसी पदार्थ से इसी कारण ममत्व नहीं किया और बड़ी सम्पत्ति, बड़ा परिवार तथा विशाल राज्य भी तुणवत् त्याग दिया । वे जानते थे कि हम ध्र व (आत्मा) की उपेक्षा करके अध्र व (पदार्थ) लेने जायेंगे, तो जो अध्र व हैं वे तो छूटेंगे ही, साथ ही ध्रुव आत्मा की भी हानि होगी। वे इस बात को समझ चुके थे कि इन्द्रियों को सुखदायक जान पड़ने वाले सांसारिक पदार्थ, इन्द्रियों की अपेक्षा तुच्छ हैं । इन्द्रियों में जो शक्ति है, वह सांसारिक पदार्थों से बहुत बढ़कर है । इसलिए इन्द्रियों को सांसारिक पदार्थ के भोगोपभोग में डाल कर उन की शक्ति का दुरुपयोग करना, उसे नष्ट करना अनुचित है और इन्द्रियों से बढ़ कर मन है । इसलिए इन्द्रियों के पीछे मन की शक्ति नष्ट करना भी मूर्खता है । जिन पदार्थों में इन्द्रियां सुख मानती हैं, उन पदार्थों को चाहना और मन को इन्द्रियानुगामी बनाना Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०३ ) हानिप्रद है । इन्द्रिय और मन से बड़ा आत्मा है । इसलिए इन्द्रिय और मन को आत्मा के अधीन रख कर इनके द्वारा के ही कार्य करने चाहिये जिनसे आत्मा का हित हो । यह जानने के कारण ही उन्होंने पदार्थों से ममत्व नहीं किया, किन्तु प्राप्त पदार्थों को त्याग कर अपरिग्रह व्रत स्वीकार किया । परिग्रह में सुख मानना भारी अज्ञान है । जो परिग्रह में सुख मानता है वह परिग्रह को कदापि नहीं त्याग सकता । परिग्रह को सर्वथा या आंशिक रूप से वही त्याग सकता है, जो उसे दुःख का कारण जानता है और रानी कमलावती की तरह बन्धन रूप मानता है । भृगु पुरोहित द्वारा त्यक्त धन जब राजा इक्षुकार के यहां आ रहा था, तब राजा इक्षुकार की रानी कमलावती ने अपने पति से कहा था कि आप यह क्या कर रहे हैं ? आप दूसरे द्वारा त्यागे गये धन को अपना कर, वमन की हुई वस्तु को खाने के समान कार्य क्यों कर रहे हैं ? आप यदि यह कहते हों कि ऐसा विचारा जावे तो फिर धन कहां से आयेगा और यह साज शृङ्गार तथा ठाठ-बाट कैसे निभेगा, तो इसके उत्तर में मैं यही कहती है कि मैं इस समस्त साज शृङ्गार और ठाठ-बाट को बन्धन रूप ही मानती हूँ । नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा संताण छिन्ना चरिस्सामि मोरगं । श्रचिणा shaणा उज्जुकड़ा निरामिसा परिग्गहारंभ नियत्त दोसा || Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४) अर्थात्- हे महाराजा, जिस प्रकार पीजरे में पक्षी आनन्द नहीं मानता, उसी प्रकार मैं भी इस राज-सम्पदा में , आनन्द नहीं मानती । किन्तु जिस प्रकार सोने का बना हो अथवा लोहे का बना हो, पक्षी के लिए पीजरा बन्धन रूप ही है, उस पीजरे से मुक्त होने पर ही पक्षी स्वयं को सुखी मानता है, परन्तु विवश होकर परतन्त्रता का दुःख भोगता है, उसी प्रकार मैं भी इस राज्यवैभव को अपने लिए बन्धन रूप ही समझती हूँ । मैं यह मानती हूँ कि चाहे महान् सम्पत्ति हो या अल्प दोनों ही. बन्धन रूप हैं। बल्कि जिसके पास जितनी अधिक सम्पत्ति है, वह उतने ही अधिक बन्धन में है। इसलिए अब मैं प्रारम्भ-परिग्रह त्याग कर, विषय कषाय रूप मांस से रहित होकर और स्नेह जाल को तोड़ कर संयम लूगी तथा सरल कृत्य करती हुई स्वतन्त्र पक्षी की तरह विचरण करूंगी। इसी प्रकार रानी कमलावती ने परिग्रह को बन्धन तथा दुःख का कारण माना और परिग्रह को त्याग कर अपने पति सहित संयम स्वीकार कर लिया। रानी कमलावती की ही तरह जो व्यक्ति परिग्रह को बन्धन मानता है, वही परिग्रह को त्याग सकता है । जो परिग्रह को सुख का कारण समझता है, वह उसे कदापि नहीं त्याग सकता । अब यह देखते हैं कि अपरिग्रह-व्रत का पालन कब हो सकता है ? कोई भी व्यक्ति अपरिग्रही तभी बन सकता है, जब वह अपने में से इच्छा को बिलकूल ही निकाल दे, उसमें किसी पदार्थ की लालसा रहे ही नहीं। जब तक किसी भी पदार्थ लालगा है, तब तक कोई भी व्यक्ति अपरिग्रही Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०५) नहीं हो सकता। जिसमें लालसा है-उसके पास कोई स्थूल पदार्थ न हो तब भी वह परिग्रही ही है। हृदय में पदार्थों की लालसा बनी हुई है, लेकिन पदार्थों के प्राप्त न होने से जो स्वयं को अपरिग्रही कहता या समझता है, वह अपरिग्रही नहीं है किन्तु परिग्रही ही है । दशवैकालिक सूत्र के दूसरे अध्ययन में कहा है कि पदार्थ की लालसा तो है, परन्तु पदार्थ के न मिलने से वह त्यागी बना हुआ है और पदार्थ को भोग नहीं सकता है वह त्यागी नहीं है, किन्तु भोगी ही है । भगवती सत्र में भी गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा कि सेठ और दरिद्री को अव्रत की क्रिया बराबर ही लगती है । सेठ के पास बहुत पदार्थ हैं और दरिद्री के पास कुछ भी नहीं है, फिर भी दोनों को समान रूप से अव्रत क्रिया लगने का कारण यही है कि दरिद्री के पास पदार्थ तो नहीं हैं लेकिन उसमें पदार्थ की लालसा है । इसी कारण दोनों को समान अव्रत की क्रिया लगती है। मतलब यह कि अपरिग्रही होने के लिए लालसा मिटाने और सन्तोष करने की आवश्यकता है । लालसा की उत्पत्ति का कारण इन्द्रियों की काम-भोग में प्रवृत्ति होगी, अथवा ऐसा करना चाहेंगे तब संसार के पदार्थों की लालसा भी होगी । मन की चंचलता के कारण ही इन्द्रियां विषयों की ओर दौडती हैं । यदि मन चंचल न हो, किन्तु स्थिर हो और वह इन्द्रियों का साथ न दे तो इन्द्रियां विषय भोग की ओर न दौड़ें । मन की चंचलता के कारण ही, इन्द्रियां विषय-भोग की ओर दौड़ती हैं और फिर लालसा होती है। मन की चंचलता का कारण ज्ञान का अभाव है । इन्द्रियां कौन हैं, उनका प्रात्मा से क्या सम्बन्ध है और संसार के Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६) पदार्थों का रूप कैसा है, आदि बातें न जानने के कारण हो मन में चंचलता रहती है। इसलिए अपरिग्रह-व्रत स्वीकार करने एवं उसका पालन करने के लिए सबसे पहले संसार के पदार्थों का रूप और स्वभाव समझ कर मन को स्थिर करने, इन्द्रियों को बहिर्मुखी एवं भोगलोलुप न होने देने और सांसारिक पदार्थों की ओर से निस्पृह तथा निर्मम रहने की आवश्यकता है । शरीरादि जो पदार्थ प्राप्त हैं और जिनको त्यागा नहीं जा सकता उनकी ओर से तो निर्ममत्व रहे और जो पदार्थ अप्राप्त हैं उनकी ओर से निस्पृह रहे । शरीर की ओर से भी किस प्रकार निर्ममत्व रहे, इसके लिए उत्तराध्ययन सूत्र के १६ वें अध्ययन में कहा है : वासीचंदनकप्पो व असणे अणसणे तहा । अर्थात्-- शरीर पर चाहे चंदन का लेप किया जावे अथवा शरीर को वसूले से छीला जावे दोनों अवस्थाओं में सुख-दुःख न मान कर प्रसन्न ही रहे और जो ऐसा करता है, उसके प्रति राग-द्वष भी न आने दे । इसी प्रकार मानापमान में भी समभाव ही रखे । इस प्रकार संतुष्ट, निस्पृह और निर्ममत्व रहने पर ही अपरिग्रह-व्रत का पालन हो सकता है । अपरिग्रह-व्रत स्वीकार और पालन करने वाले निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं । निर्ग्रन्थ का अर्थ है किसी प्रकार की ग्रन्थिगांठ या बन्धन में न रहना । परिग्रह बन्धन है । जो. इस बन्धन को तोड़ देता है, वह निर्ग्रन्थ और मोक्ष का पथिक है । मोक्ष प्राप्ति के लिए शास्त्र में जो पांच महाव्रत बताए Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०७ ) गये हैं उनका पालन निर्ग्रन्थ ही कर सकता है और पंच महाव्रतों का पालन करने वाला ही निर्ग्रन्थ है । यद्यपि पंच महाव्रत में अपरिग्रह भी एक महाव्रत है, लेकिन यह प्रथम के चार महाव्रतों से महाव्रत सबसे बड़ा दुष्कर और पूर्ण सम्बन्ध रखने वाला है । जो इस महाव्रत का पालन करता है, वही इससे पहले के चार महाव्रतों का पालन कर सकता है ओर जो प्रथम के चार महाव्रतों का पालन करता है, वही इस महाव्रत का भी पालन कर सकता है पांचों महाव्रत परस्पर अत्यधिक घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं । यदि विचार किया जाय तो प्रथम के चार महाव्रत इस पांचवें महाव्रत में ही आ जाते हैं बल्कि ब्रह्मचर्य नाम का चौथा महाव्रत तो भगवान् पार्श्वनाथ के समय तक अपरिग्रह व्रत में ही माना जाता था, जिसे भगवान् महावीर ने अलग करके चार महाव्रतों के बदले पांच महाव्रत बताये हैं । अपरिग्रह - व्रत स्वीकार करने वाले सब प्रकार की इच्छा भी त्याग देते हैं और शरीरादि जिन ग्रावश्यक पदार्थों को वे नहीं त्याग सके हैं, उनके प्रति भी मूर्छा नहीं रखते । इच्छा और मूर्छा, उनके समीप होती ही नहीं हैं । वे अपने शरीर अथवा धर्मोपकरण के प्रति भी ममत्वहीन ही रहते. हैं । न स्वयं के पास ही कोई पदार्थ रखते हैं, न दूसरे के पास ही । यदि रखते हैं तो केवल वे ही धर्मोपकरण रखते हैं, जिन्हें रखने के लिये शास्त्र में प्राज्ञा दी गई है । उनके सिवा कोई भी पदार्थ नहीं रखते । यहां ये प्रश्न होते हैं शास्त्रादि क्यों रखते हैं ? नहीं ? इसी प्रकार वस्त्र है ? जब तक वस्त्र हैं तब कि निर्ग्रन्थ साधु धर्मोपकरण तथा क्या उनकी गणना परिग्रह में रखने की भी क्या आवश्यकता तक कैसे कहा जा सकता है कि Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०८) 'परिग्रह नहीं है ' ? और जब परिग्रह है, तब निर्ग्रन्थ कैसे हुए और मोक्ष कैसे जा सकते हैं ? जो निर्ग्रन्थ हैं, उन्हें तो दिगम्बर रहना चाहिये और अपने पास वस्त्र या धर्मोपकरण आदि कुछ भी न रखने चाहिएं । इन प्रश्नों का समाधान करने के लिए पहले कही हुई इस बात को दुहरा देना आवश्यक है कि पदार्थ का नाम परिग्रह नहीं, किन्तु उन पर ममत्व का नाम परिग्रह है । साधु लोग जो वस्त्र, पात्र और धर्मोपकरण रखते हैं, उन्हें वे परिग्रह - व्रत बताने वाले भगवान् तीर्थंकर की प्रज्ञा से ही रखते हैं, उनकी आज्ञा के विरुद्ध नहीं रखते । भगवान् तीर्थंकर ने साधक के लिए जिन वस्तुनों का त्यागना कठिन और रखना आवश्यक समझा, उन वस्तुओंों के रखने का विधान कर दिया और मर्यादा बना दी कि साधु इतने वस्त्र, इतने पात्र और अमुक-अमुक धर्मोपकरण ही रख सकता है, जो इससे अधिक लम्बे-चौड़े या भारी न हों और मर्या - दानुसार रखे गये वस्त्र, पात्र आदि में भी ममत्वभाव न हो । इस प्रकार भगवान् ने जिनके रखने का विधान किया है वे ही वस्त्र, पात्रादि रखे जा सकते हैं, दूसरे या अधिक नहीं रखे जा सकते । यदि कोई उस मर्यादा से अधिक रखता है अथवा मर्यादानुसार रख कर करता है, तो वह अवश्य ही परिग्रही माना जायेगा | भगवान् त्रिकालदर्शी थे । वे जानते थे कि यदि मैं इस प्रकार का विधान न करूंगा और मर्यादा न बांध दूंगा तो आगे जाकर बहुत अनर्थ होगा तथा अपरिग्रही रहने के नाम पर वह कार्यवाही होगी, जैसी कार्यवाही परिग्रही ही कर सकता है । इसलिये भगवान् ने कुछ वस्त्र, पात्र रखना सामान्यतः भी उनसे ममत्व 1 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( ३०६) आवश्यक बता दिया है और जिन धर्मोपकरणों का रखना आवश्यक बताया है आगे चल कर, उच्च दशा में, वे भी त्याज्य बताये हैं । अपरिग्रह-व्रत स्वीकार करने के पश्चात् भी मर्यादानुसार जिन वस्त्रों का रखना आवश्यक है, उच्च दशा में पहुंचने पर उन सबको भी क्रमशः त्यागने का भग. वान् ने विधान किया है । . भगवती सूत्र में व्यूत्सर्ग का वर्णन पाया है। व्यूत्सर्ग का अर्थ त्याग है । मन, वचन और काय द्वारा बुरे कामों को त्याग देना व्यत्सर्ग है । व्यूत्सर्ग के बाह्य और आभ्यन्तर ऐसे दो भेद बताये गये हैं । ये दोनों भेद द्रव्य और भाव व्युत्सर्ग के नाम से भी कहे जाते हैं । द्रव्य व्यूत्सर्ग के चार भेद हैं और भाव व्युत्सर्ग के तीन भेद हैं । द्रव्य व्युत्सर्ग के शरीरोत्सर्ग, गणोत्सर्ग, उपधि व्यूत्सर्ग और भात-पानी व्युत्सर्ग ये चार भेद हैं । भाव व्यूत्सर्ग के कषाय-व्युत्सर्ग, संसार व्युत्सर्ग और कर्म व्यूत्सर्ग, ये तीन भेद हैं । मोक्ष तो भाव व्युत्सर्ग से ही होता है, लेकिन भाव व्युत्सर्ग के लिए द्रव्यव्यूत्सर्ग का होना आवश्यक है । द्रव्यव्यूत्सर्ग के बिना भाव व्यूत्सर्ग तक नहीं पहुंच सकता। यहां व्यूत्सर्ग विषयक समस्त बातों का वर्णन आवश्यक नहीं है, यहां तो केवल यह बताना है कि मुनि के लिए, आगे चल कर शरीर, गण ( गच्छ सम्प्रदाय), उपधि (वस्त्र, पात्र, धर्मोपकरणादि) और भात, पानी, ये सब भी त्याज्य हैं । जब तक साधना का प्रारम्भ है, तभी तक इनका रखना आवश्यक है और जैसे-जैसे आगे बढ़ता जावे, वैसे ये भी त्याज्य हैं । आगे चल कर शरीर गच्छ उपाधि और भोजन - पानी को भी त्याग दे । इस प्रकार उच्च दशा में पहुंचे हुओं के लिए तो शरीर, वस्त्र, Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१० ) उपधि, भण्डोपकरण आदि सभी वस्तु त्याज्य हैवह तो जिनकल्पी ही रहता है - लेकिन जब तक ऐसी क्षमता नहीं है, तब तक के लिए भगवान् ने वस्त्र, पात्र आदि की मर्यादा बता दी है और उस मर्यादानुसार वस्त्र, पात्र आदि रखने का विधान कर दिया है । यदि भगवान् इस प्रकार का विधि-विधान न करते तो आज के साधुओं को केवल कठिनाई ही न होती, किन्तु उनके द्वारा ऐसे कार्य होते, शरीररक्षा आदि के लिए वे ऐसे काम करते जो वस्त्र, पात्रादि रखने के कार्यों से भी बढ़ कर होते । , । उच्च भगवान् ने मुनि के लिए मर्यादानुसार वस्त्र रखने का विधान किया है और वे मर्यादानुसार वस्त्र रखते भी हैं, फिर भी वे नग्न भावी ही हैं, क्योंकि उन्हें वस्त्रों से न तो ममत्व ही होता है, न वे अधिक वस्त्र हो रखते हैं । इसलिए वस्त्र होने पर भी वे भाव में नग्न भावी - अर्थात् नग्न ही माने जाते हैं दशा में पहुंचने पर वे उन थोड़े से वस्त्रों को भी त्याग सकते हैं, लेकिन इससे पहले ही वस्त्र त्याग देना व्यावहारिक दृष्टि से भी उचित नहीं है । शरीर और गरण का व्युत्सर्ग पहले बताया है और उपधि का व्युत्सर्ग उसके पश्चात् है । जब शरीर पर बिलकुल ममत्व न रखे और सम्प्रदाय से भी किसी प्रकार का संबन्ध न रखे, किन्तु असंग रहता हो अर्थात् वन में या गुफाओं में निवास करता हो, तभी उपधि का व्युत्सर्ग कर सकता है । शरीर से तो ममत्व हो, शरीर की रक्षा का प्रयत्न तो करता हो, लेकिन गच्छ को छोड़ बैठे अथवा शरीर से भी ममत्व है और गच्छ में भी है, चेला-वेलनी अनुयायी आदि बनाते रहते हैं और वस्त्र, पात्र आदि उपधि छोड़ बैठे तो वह वैसा Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३११) ही कार्य होगा जैसा कार्य पगड़ी पहने और धोती त्याग देने का हो सकता है। तात्पर्य यह कि शास्त्र में जिनकी आज्ञा दी गई है, उन वस्त्र पात्रादि धर्मोपकरणों को रखने के कारण निर्ग्रन्थ लोग परिग्रही नहीं कहे जा सकते । निर्ग्रन्थ होने पर भी किसी को कब परिग्रही कहा जा सकता है और निर्ग्रन्थ भी किस प्रकार परिग्रही हो जाता है, यह बात थोड़े में बताई जाती है । . बहत से लोग अपरिग्रह-व्रत स्वीकार कर और संसार के स्थूल पदार्थों का ममत्व त्याग कर भी, फिर परिग्रह में पड़ जाते हैं । वे स्थूल पदार्थों का ममत्व तो छोड़ देते हैं लेकिन उनके हृदय में मान-बड़ाई आदि की चाल बनी रहती है, अथवा बढ़ जाती है । कहावत भी है - कंचन तजिबो सरल है, सरल तिरिया को नेह । मान बड़ाई इर्षा, दुर्लभ तजिबो येह ॥ अर्थात् - कनक - कामिनी को छोड़ना कठिन नहीं है, लेकिन मान-बड़ाई की चाह और ईा को त्यागना बहुत ही कठिन है। संसार में कनक ( सोना ) त्यागना बहुत ही कठिन माना जाता है । यद्यपि सोना खाने या शीत, ताप, वर्षा से बचने के काम का पदार्थ नहीं है, न उसमें गन्ध ही है फिर भी वह बहुत मोहक पदार्थ है और इसका एकमात्र कारण यही है कि आज विनिमय (लेनदेन या बदला-बदली) सोने Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१२ ) के आश्रित हैं । सोना पास हो तो संसार की सभी वस्तु चीजें प्राप्त हो सकती हैं तथा सोना ऐसी धातु है कि चाहे हजारों वर्ष तक पृथ्वी में दबी रहे, तब भी न सड़ती है, न गलती है, न खराब होती है । यही कारण है कि लोगों को सोने से बहुत ममत्व होता है तथा सोने का त्याग कठिन माना जाता है । जो सोने का त्याग कर देता है, उसने जैसे सोने द्वारा प्राप्त होने वाले संसार के सब पदार्थों का त्याग कर दिया है और संसार के किसी भी पदार्थ से ममत्व करता है, वह सोने से कदापि ममत्व नहीं त्याग सकता । सांसारिक लोग सोने में विशेषता देख कर ही उससे ममत्व करते हैं और इसी से सोना, मोहक माना जाता है । सोने के पश्चान् स्त्री मोहिनी मानी जाती है । कोई-कोई ऐसे भी होते हैं कि जो सोने से तो ममत्व त्याग देते हैं लेकिन उनसे स्त्री का ममत्व त्यागना बहत. कठिन होता है । कदाचित् कोई सोने और स्त्री से ममत्व त्याग भी दे, इनको छोड़ भी दे, लेकिन तुलसीदास जी के कथनानुसार मान बड़ाई तथा ईर्ष्या का छोड़ना बहुत कठिन होता है और जब तक इनका सद्भाव है, तब तक " परिग्रह छूटा है" ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि एक तो ममत्व का नाम ही परिग्रह है, दूसरे जहां मान-बड़ाई की चाह और ईर्ष्या है, वहां सभी पाप सम्भव हैं । अपरिग्रह-व्रत स्वीकार करने वाले कई साधु मानबड़ाई की चाह में पड़ जाते हैं और इस कारण दूसरे से ईर्ष्या करने लग जाते हैं । मान-बड़ाई की चाह से वे लोग ऐसे-ऐसे कार्य कर डालते हैं, जिनका वर्णन करना कठिन एवं आपत्तिजनक है । इसलिए इतना ही कहा जाता है कि Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३ ) अपरिग्रह-व्रत का पालन करने के लिए मान-बड़ाई की चाह को हृदय से निकाल देना आवश्यक है । यदि इस प्रकार की चाह बनी हुई है तो फिर अपरिग्रह-व्रत भी नहीं है । यहां आजकल के साधुनों की कुछ समालोचना करना अप्रासांगिक न होगा । आजकल के बहुत से साधु अथवा साध्वी और सब कुछ तो त्याग देते हैं, लेकिन शिष्य-शिष्या की इच्छा-मूर्छा तो उन्हें दबा ही डालती है । शिष्य-शिष्या की इच्छा-मुर्छा. की प्रेरणा से उनके द्वारा ऐसे-ऐसे कृत्य भी हो जाते हैं कि जैसे कार्य सन्तान की इच्छा-मूर्छा वाले गृहस्थ से भी न होते होंगे । यद्यपि शिष्य-शिष्या की इच्छामूर्छा रखने वाले साधु-साध्वी प्रकट में यह अवश्य कहते हैं कि हम धर्म या सम्प्रदाय की वृद्धि के लिए ऐसा करते हैं, परन्तु विचार करने पर ज्ञात होगा कि शिष्य-शिष्या की इच्छा-वाले साधु-साध्वी में और सन्तान की मूर्छा वाले गृहस्थ स्त्री-पुरुष में क्या अन्तर रहा ? इच्छा-मूर्छा की दृष्टि से तो दोनों समान ही ठहरते हैं और धर्मवृद्धि का कहना तो एक बहाना-मात्र है। हां कोई-कोई महात्मा ऐसे भी हैं जो धर्म-वृद्धि के लिए ही शिष्य-शिष्या बनाते हैं, लेकिन उनमें शिष्य-शिष्या की इच्छा-मूर्छा नहीं होती । शिष्य-शिष्या की ही तरह, कई साधु-साध्वियों के लिए सम्प्रदाय और उसकी रूढ़ि परम्परा भी परिग्रह रूप हो जाती है । यह मेरी सम्प्रदाय या परम्परा है, इसलिए चाहे यह सम्प्रदाय या परम्परा ठीक न भी हो, तब भी मैं इसकी वृद्धि ही करूंगा, इसकी रक्षा का ही प्रयत्न करूंगा, कहीं . किसी के द्वारा मेरी सम्प्रदाय की कोई क्षति न हो जावे, Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४) मुझे अपनी रूढ़ि परम्परा न त्यागनी पड़े आदि प्रकार की चिन्ता और ऐसा भय भी परिग्रह रूप ही है । इसी प्रकार विद्या सूत्रज्ञान आदि भी कभी-कभी परिग्रह रूप हो जाते हैं । मैं इतने सूत्रों का जानकार हूँ, मैं अमुक-अमुक विद्या जानता हूँ आदि अहंभाव, विद्या और सूत्रज्ञान को भी परिग्रह रूप बना देता है । - कुछ साधुओं को समाज के धन की भी चिन्ता रहती है । मेरे अनुयायियों का धन खर्च होता है, इस विचार से कई साधु चिन्तित रहते हैं और अनुयायियों के धन की रक्षा का प्रयत्न करते हैं । यह भी एक परिग्रह ही है । यदि इसको परिग्रह न कहा जायेगा तो कुटुम्ब का वृद्ध आदमी अपने कुटुम्ब के द्रव्य की रक्षा की जो चिन्ता करता है- जो प्रयत्न करता है-वह भी परिग्रह न कहा जायेगा । कुछ साधुओं को अपनी प्रसिद्धि की बहुत इच्छा रहती है । इसके लिए वे स्वयं ही अथवा अनधिकारियों या अनु. यायियों द्वारा कोई उपाधि प्राप्त करके अपने नाम के साथ उपाधि लगा लेते हैं, लेख और पुस्तकें दूसरों से लिखवा कर अपने नाम से प्रकाशित करवाते हैं, सामाजिक कार्यों में भी भाग लेते हैं, अथवा ऐसे ही अन्य कार्य भी करते हैं। लेकिन वस्तुतः प्रसिद्धि की इच्छा भी परिग्रह ही है । जब तक इस प्रकार का भी परिग्रह है, तब तक अपरिग्रह-व्रत का पूर्णतया पालन हो ही नहीं सकता । अपरिग्रह-व्रत का पालन तो तभी हो सकता है, जब हृदय में किसी भी प्रकार की चाह न रहे, किसी भी वस्तु से ममत्व न हो, किसी भी प्रकार की चिंता न हो, न किसी भी तरह का भय ही रहे, किन्तु निस्पृह, Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१५ ) ममत्व तथा चिन्ता भय रहित रहे । साथ ही भगवान् की प्राज्ञा से जो वस्त्र - पात्र एवं उपधि रखता है, जिस सम्प्रदाय ( गच्छ ) में रह कर धर्म-साधन करता है और जिस शरीर में आत्मा बस रहा है, उसके लिए भी यह भावना करता रहे कि मैं इन सब से भी ममत्व न रखूंगा तथा वह दिन कब होगा, जब मैं जीवन के लिए आवश्यक माना जाने वाला अन्न पानी भी त्याग दूंगा और जीवन-मुक्त हो जाऊंगा । जो इस प्रकार रहता है, वही अपरिग्रह - व्रत का पालन करने वाला है । इस व्रत को जिसने स्वीकार किया है, उसके हृदय में संयोग-वियोग का सुख - दुःख तो होना ही न चाहिए, न स्वर्गादि के सुखों की अभिलाषा ही होनी चाहिए । - * Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छा परिमारण व्रत परिग्रह का रूप और उससे होने वाली हानि का वर्णन किया जा चुका है । साथ ही अपरिग्रह व्रत का रूप भी बताया जा चुका है । सर्वथा प्रात्मकल्याण की इच्छा रखने वाले के लिए तो अपरिग्रही बनना और किसी भी सांसारिक पदार्थ के प्रति इच्छा - मूर्छा न रखना ही आवश्यक है लेकिन जो लोग संसार व्यवहार में बैठे हुए हैं, वे भी क्रमशः मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकें, इसलिए भगवान् ने ऐसे लोगों के वास्ते इच्छा परिमारण व्रत बताया है । संसारव्यवहार में रहने वाले लोगों के लिए सांसारिक पदार्थों का सर्वथा त्याग होना कठिन है । उनसे इच्छा और मूर्छा का बिलकुल अभाव नहीं हो सकता, न वे सांसारिक पदार्थों से असंग ही रह सकते हैं । संसार - व्यवहार में रहने के कारण उनके लिए सांसारिक पदार्थों का संग्रह और सांसारिक पदार्थों के प्रति इच्छा - मूर्छा का होना भी स्वाभाविक समझा जाता है। संसार में कहावत भी है कि 'साधु के पास कौड़ी हो तो कोड़ी का, गृहस्थ के पास कौड़ी न हो तो वह कौड़ी का' । एक कवि भी कहता है -- माता निन्दति नाभिनन्दति पिता भ्राता न संभाषते । भृत्यः कुप्यति नानुगच्छति सुतः कान्ता च नालिंगते ।। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७ ) श्रर्थप्रार्थनशंकया न कुरुतेऽप्यालापामात्रं सुहृद । तस्मादर्थमुपार्जयस्व च सखे ! ह्यर्थस्य सर्वे वशाः || अर्थात् धन न होने पर माता निन्दा करती है, पिता आदर नहीं करता, भाई बोलते नहीं हैं, स्त्री स्पर्श नहीं करती और 'यह कुछ मांगने न लगे इस भय से मित्र लोग कोई बात भी नहीं करते । इसलिए हे मित्र, धन कमाओ । सब लोग धन के ही वश हैं । इस प्रकार जैसे संसार - व्यवहार से निकले हुए साधु के लिए किसी भी सांसारिक पदार्थ का रखना निन्द्य समझा जाता है, उसी प्रकार सांसारिक लोग उस संसार-व्यवहार में रहे हुए की निन्दा - अवहेलना करते हैं, जो सांसारिक पदार्थों से हीन है । जो संसार - व्यवहार में है उसके लिए सांसारिक पदार्थों का संग्रह आवश्यक माना जाता है और दूसरी ओर धर्मशास्त्र सांसारिक पदार्थों को त्याज्य बतलाते हैं । ऐसी दशा में गृहस्थों के लिए ऐसा कौन - सा मार्ग रह जाता है, जिसको अपनाने पर वे संसार-व्यवहार में हीन दृष्टि से भी न देखे जावें और धार्मिक दृष्टि से भी पतित न समझे जावें ? इस बात को दृष्टि में रख कर ही भगवान् ने इच्छा - परिमाण व्रत बताया है । भगवान् जानते थे कि गृहस्थ लोग इच्छा का सर्वथा त्याग नहीं कर सकते और जिस दिन वे इच्छा का सर्वथा त्याग कर देगें, उस दिन से संसार-व्यवहार में रहना भी त्याग देंगे या संथारा कर लेंगे । लेकिन संसार व्यवहार में रहते हुए इच्छा का सर्वथा निरोध कठिन है । ऐसी दशा में यदि उन्हें भी अपरिग्रह व्रत ही बताया जायेगा तो उनसे अपरिग्रह व्रत का पालन Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८ ) भी न होगा और दूसरी ओर उनके द्वारा अनेक अनर्थ भी होंगे तथा उन्हें कठिनाई भी उठानी होगी । इसलिए जब तक उनमें संसार-व्यवहार से सर्वथा निकलने की क्षमता न हो, उनमें पूर्ण सन्तोष और पूर्ण धैर्य न हो, तब तक उन्हें अपरिग्रह व्रत को स्वीकार करने को कहना उन पर ऐसा बोझ डालना है जिसे वे उठा नहीं सकते । इस प्रकार के विचारों से भगवान् ने गृहस्थों के लिए इच्छा परिमारण व्रत बताया है । इच्छा परिमाण व्रत का अर्थ हैं, सांसारिक पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाली इच्छा को सीमित करना । यह निश्चय करना कि मैं इतने पदार्थों से अधिक की इच्छा नहीं करूंगा । इस प्रकार की जो प्रतिज्ञा की जाती है उसका नाम 'इच्छा परिमाण व्रत' है । अपरिग्रह व्रत को स्वीकार करने के लिए संसार के समस्त पदार्थों से विरमण करना होता है, संसार के समस्त पदार्थ त्यागने होते हैं, अपरिग्रही होना होता है । लेकिन इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने के लिए संसार के समस्त पदार्थ नहीं त्यागने पड़ते । हां, वे पदार्थ तो अवश्य त्यागने होते हैं जिनकी गणना महान् परिग्रह में है । इच्छापरिमाण व्रत स्वीकार करने वाले को इस बात की प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि मैं इन पदार्थों से अधिक पदार्थ अपने अधिकार में न रखूंगा और न इन पदार्थों के सिवा किसी पदार्थ की इच्छा ही करूंगा । इस प्रकार प्रांशिक रूप से परिग्रह का विरमण करके महान् परिग्रही न होने के लिए जो प्रतिज्ञा की जाती है उसका नाम इच्छा परिमाण व्रत है । इस व्रत को स्वीकार करने के लिए पदार्थों की मर्यादा की जाती है । कुछ पदार्थों के सिवा शेष पदार्थों की ओर से Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... (३१६) । अपनी इच्छा को रोक लेना ही इच्छा परिमाण व्रत है। अब देखना है कि इस व्रत को स्वीकार करने वाला किन-किन पदार्थों के विषय में मर्यादा करता है। इसके लिए शास्त्रकारों ने परिग्रह के दो भेद कर दिये हैं-सचित्त परिग्रह और अचित्त परिग्रह । सचित्त परिग्रह उस सांसारिक पदार्थ या पदार्थों का नाम है जिसके भीतर जान है । जैसे मनुष्य पशु-पक्षी पृथ्वी वनस्पति आदि । इसमें कुटुम्ब के लोग, दास-दासी, हाथी घोड़े गाय बैल, भैंस आदि पशु कीर मोर चकोर आदि पक्षी, किसी और प्रकार के जीव, भूमि नदी तालाब वृक्ष अन्न आदि वे सभी प्रकार की वस्तुएं आ जाती हैं, जिन में जीव है । जो पदार्थ इस भेद में आने से शेष रह जाते हैं, यानी जो जानदार नहीं हैं उनकी गणना अचित्त परिग्रह में है । सोना चांदी वस्त्र पात्र औषध भेषज घर हाट नोहरा बरतन आदि समस्त पदार्थ जो निर्जीव हैं, अचित्त परिग्रह में हैं । ... संसार में जितने भी पदार्थ हैं, वे या तो सचित्त हैं या अचित्त हैं। इन दोनों भेदों में सभी पदार्थ आ जाते हैं। इसलिए इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने वाला संसार के समस्त पदार्थों के विषय में यह नियम करता है कि मैं अमुक पदार्थ इस परिमाण से अधिक अपने अधिकार में न रखूगा अथवा अमुक पदार्थ अपने अधिकार में रखूगा ही नहीं और इस परिमाण से अधिक की इच्छा भी न करूंगा। जन साधारण की सुविधा के लिए शास्त्रकारों ने सचित्त और अचित्त परिग्रह को नव भागों में विभक्त कर दिया है । वे नव भेद, 'नव प्रकार का परिग्रह' नाम से Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२० ) ) विख्यात हैं । उनके नाम ये हैंभूमि) (२) वस्तु ( निवास योग्य (चांदी) (४) सुवर्ण (सोना) ( ५ ) ढले हुए सिक्के अथवा घt गुड़, शक्कर (६) धान्य (गेहूँ चावल तिल आदि दो पांव हों, जैसे मनुष्य और पक्षी ) चार पांव हों जैसे हाथी घोड़े गाय बैल भैंस बकरी आदि ) और (8) कुप्य ( वस्त्र पात्र औषध वासन आदि) । इन नव भेदों में सचित्त और अचित्त अथवा जड़ और चेतन अथवा स्थावर और जंगम वे सभी पदार्थ प्रा जाते हैं जिनसे मनुष्य को ममत्व होता है अथवा मनुष्य जिनकी इच्छा करता है । क्षेत्र से मतलब उत्पादक खुली भूमि से है । इसलिए क्षेत्र में खेत बाग पहाड़ खदान चरागाह जंगल आदि समस्त भूमि आ जाती है । यह व्रत स्वीकार करने वाले को क्षेत्र के विषय में मर्यादा करनी चाहिए कि मैं इतनी भूमि - खेत बाग पहाड़ या गोचरभूमि आदि से अधिक अपने अधिकार में भी नहीं रखूंगा, न इससे अधिक की इच्छा करूंगा । ( १ ) क्षेत्र (खेत आदि स्थान ) (३) हिरण्य धन ( सोने चांदी के आदि मूल्यवान पदार्थ ) (७) द्विपद ( जिनके ( 5 ) चौपद जिनके दूसरा भेद वास्तु है । वास्तु का अर्थ है, गृह । जमीन के भीतर या ऊपर या भीतर - ऊपर बने हुए घरों के विषय में भी परिमाण करना कि मैं इतने गृह जो इतने से अधिक लम्बे चौड़े और ऊंचे न होंगे तथा जिनका मूल्य इतने से अधिक न होगा - से अधिक गृह अपने अधिकार में न रखूंगा और न अधिक की इच्छा ही करूंगा । धन से मतलब सिक्का और अन्य मूल्यवान् वस्तुएं मरिण माणिक गुड़ घी शक्कर आदि हैं । इनके विषय में भी परिमारण करना कि मैं ये सब या इनमें अमुक अमुक वस्तु इतने परिमाण और Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतने मूल्य से अधिक की न रखूगा, न इच्छा ही करूंगा । धान्य से मतलब अन्नादि है; जैसे धान चावल गेहूँ चना तुवर तिल आदि । इन सब के लिए भी मर्यादा करना कि मैं धान्य में से अमक धान्य इतने परिमाण से या इतने मूल्य से अधिक का अपने अधिकार में न रखूगा, न इतने से अधिक की इच्छा ही करूंगा । हिरण्य से मतलब चांदी है। चांदी के विषय में भी यह परिमारण करना कि मैं चांदी अथवा चांदी की वस्तुएं इतने परिमारण से अधिक न रखगा, न अधिक की इच्छा ही करूगा । इसी प्रकार सोने के विषय में भी परिमाण करना कि इस परिमाण से अधिक सोना या सोने से बनी हुई वस्तुएं न रखूगा, न अधिक की इच्छा ही करूगा । इन सबकी तरह द्विपद की भी मर्यादा करना । द्विपद में अपनी स्त्री, अपने पुत्र और अन्य सम्बन्धी भी आ जाते हैं तथा दास-दासी नौकर चाकर आदि भी आ जाते हैं । साथ ही मयूर हंस कीर मोर चकोर आदि पक्षी भी आ जाते हैं। मतलब यह कि जिनके दो पांव हैं, उन मनुष्यों अथवा पक्षियों के विषय में भी यह मर्यादा करना कि मैं इतने से अधिक न रखूगा, न अधिक की इच्छा ही करूंगा। इसी प्रकार चतुष्पद के लिए भी परिमारण करना । चतुष्पद से मतलब उन जीवों से है, जिनके चार पांव होते हैं और जो पशु कहलाते हैं । पशुओं के विषय में भी यह मर्यादा करना कि इतने हाथी घोड़े ऊट गाय बैल भैंस खच्चर गधे भेड़ बकरी हरिण सिंह आदि से अधिक न तो रखूगा और न अधिक की इच्छा ही करूंगा । इन आठ भेदों में आने से जो पदार्थ शेष रह जाते Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२ ) हैं, उनकी गणना कुप्य में है । जिनकी इच्छा होती है या हो सकती है और जो गृहस्थी में काम आते हैं या आ सकते हैं, उन सब पदार्थों का भी परिमाण करना । कुप्य का अर्थ साधारणतया गृहस्थी का फैलाव ( घर बाखरा अर्थात् घर में जो छोटी बड़ी चीजें होती हैं) किया जाता है । इसलिए इसका परिमाण करना कि मैं इतने से अधिक का बाखरा न रखूंगा, न इतने से अधिक की इच्छा ही करूंगा । इस प्रकार समस्तं वस्तुनों के विषय में यह मर्यादा करना कि मैं इतने परिमाण से अधिक कोई वस्तु न तो अपने अधिकार में रखूंगा, न इतने से अधिक की इच्छा ही करूंगा, इच्छा - परिमाण या परिग्रह - परिमाण व्रत कहलाता है । जो परिग्रह से सर्वथा निवृत्त नहीं हो सकते, उन गृहस्थों को यह व्रत तो स्वीकार करना ही चाहिए । इस व्रत को स्वीकार करने से उनके गृहस्थ - जीवन में किसी प्रकार की कठिनाई भी नहीं आती और अनन्त इच्छा भी नहीं रहती । इस व्रत को स्वीकार करने वाला, महा परि ग्रही नहीं कहलाता, किन्तु अल्प परिग्रही कहलाता है । इस कारण यह व्रत स्वीकार करने वाले की गणना धार्मिक लोगों में होती है । वह व्यक्ति धर्मात्मा बन जाता है । ऐसा व्यक्ति महान् पाप से बच कर मोक्ष मार्ग का पथिक होता है । यों तो परिग्रह से सर्वथा मुक्त होना ही श्रेयस्कर है, भगवान् महावीर का उपदेश भी यही है, लेकिन जो लोग परिग्रह का सर्वथा त्याग नहीं कर सकते, फिर भी भगवान् के उपदेश पर विश्वास रख कर कुछ भी त्याग करते हैं, उनको भी लाभ होता है । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२३ ) जहां तक हो सके वहां तक तो भगवान् महावीर के उपदेशानुसार समस्त पदार्थो को त्याग कर अपरिग्रही होना ही अच्छा है । आत्मा का पूर्ण कल्याण तो इसी में है । फिर भी यदि परिग्रह को सर्वथा नहीं त्याग सकते, तो महापरिग्रही तो न रहो । महा परिग्रह तो त्याग दो ! ऐसा करने वाला, साधु नहीं तो श्रावक तो होगा ही और मोक्ष का पथिक भी कहलायेगा । सांसारिक पदार्थ रूपी टुकड़ों से जितना भी ममत्व है, प्रत्येक दृष्टि से उतनी ही हानि भी है । सांसारिक पदार्थ, मोक्ष के अनन्त सुख से तो वंचित रखते ही हैं, साथ ही उनके कारण इस लोक में भी अनेक प्रकार की चिन्ता, अनेक प्रकार के दुःख और सब प्रकार के पाप होते हैं । इसलिए सांसारिक पदार्थों को जितना भी त्यागा जा सके, त्यागना चाहिए । इच्छा परिमारण व्रत को, तीन कररण, तीन योगों में से जिस तरह भी इच्छा हो, स्वीकार किया जा सकता है और द्रव्य क्षेत्र काल भाव की भी जैसी चाहे, वैसी मर्यादा की जा सकती है । फिर भी यह व्रत इच्छा को मर्यादित करने का है और इच्छा का उद्गम स्थल मन है । इसलिए इस व्रत को एक करण, तीन योग से स्वीकार करना ही ठीक है । इस प्रकार द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के विषय में भी मर्यादा करनी चाहिए कि मैं द्रव्य से अमुक वस्तु के सिवा अधिक इच्छा न करूंगा, न इनके सिवा और वस्तु अपने अधिकार में ही रखूंगा । क्षेत्र से, अमुक क्षेत्र से बाहर की कोई वस्तु मर्यादा में ही रखूंगा । काल के विषय में भी मर्यादा करना कि मैं इतने दिन, मास, वर्ष या जीवन भर इन-इन चीजों से अधिक की न तो इच्छा ही करूंगा, न Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२४ ) अपने अधिकार में ही रखूगा । इसी प्रकार भाव की. भी मर्यादा करना उचित है । __ जो परिग्रह को दुख तथा बन्धन का कारण मानता है, वही परिग्रह को त्याग सकता है। लेकिन जो ऐसा मानता तो है फिर भी स्वयं को सम्पूर्ण परिग्रह त्यागने में असमर्थ देखता है, वह इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करता है । जो परिग्रह को दुःख तथा बन्धन का कारण मान कर इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करता है, वह विस्तीर्ण मर्यादा नहीं रखता, किन्तु संकुचित मर्यादा रखता है क्योंकि उसका ध्येय परिग्रह को सर्वथा त्यागना होता है और इस ध्येय तक तभी पहुंचा जा सकता है जबकि ममत्व को अधिक से अधिक घटाया जाय । इच्छा परिमारण व्रत का उद्देश्य ममत्व को घटाना है इसलिए मर्यादा अधिक से अधिक संकुचित रखनी चाहिए। विस्तीर्ण मर्यादा रखना ठीक नहीं । मर्यादा जितनी संकुचित होगी, दुःख और संसार-भ्रमण भी उतना ही संकुचित हो जायेगा तथा मर्यादा जितनी विस्तीर्ण होगी, दुःख और जन्म-मरण भी उतना अधिक रहेगा। इसलिए यथाशक्ति मर्यादा को अधिक से अधिक संकुचित रखना चाहिए और ऐसा करने के लिए यह ध्यान में रखना चाहिए कि अधिक परिग्रह अधिक दुःख का कारण है तथा अल्प परिग्रह अल्प दुःख का कारण है । लेकिन परिग्रह है दुःख का ही कारण और इससे जो जितना निवृत्त होता है, उतना ही वह दुःखमुक्त होता है । इस व्रत को स्वीकार करने में सांसारिक पदार्थों का Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२५ ) जितना भी त्याग किया जा सके, मर्यादा जितनी कम की जा सके और इच्छा को जितना घटाया जा सके, उतना ही अच्छा है । यह न हो कि सीमा पहले ही बहुत बढ़ा कर रखी जावे । उदाहरण के लिए पास में सम्पत्ति तो केवल पांच ही रुपये हैं और व्रत में लाख रुपये की मर्यादा करता है । यद्यपि लाख रुपये से अधिक की इच्छा का त्याग तो अच्छा ही है, फिर भी ऐसा करने से लाख रुपयों की चाह रहती ही है । इसलिए ऐसा करना वर्तमान में तृष्णा को रोकना नहीं है । किन्तु यही कहा जा सकता है कि वर्तमान में तो तृष्णा बढ़ी हुई है, परन्तु तृष्णा को सीमित करने का इच्छुक अवश्य है । इस प्रकार का व्रत विशेष प्रशनीय और प्रशस्त नहीं कहा जा सकता । प्रशंसनीय और प्रशस्त तो वही व्रत है, जिसमें इच्छा को इतना सीमित किया जावे, जिससे अधिक सीमित करने पर गार्हस्थ्य जीवन निभ ही नहीं सकता । इस व्रत से यथेष्ट लाभ उठाने के लिए आवश्यक है प्रत्येक पदार्थ की मर्यादा करना और जहां तक हो सके मर्यादा की सीमा बहुत संकुचित रखना । हो सके तो जो पदार्थ पास हैं, उनमें से भी कुछ त्याग कर फिर मर्यादा करना चाहिए । ऐसा न हो सके, तो जो पदार्थ पास हैं उनसे अधिक की मर्यादा न करना । पास तो बहुत कम है। और मर्यादा बहुत अधिक की करे, यह ठीक नहीं है । इस विषय में, आनन्दादि श्रावक का व्रत स्वीकार करना आदर्श स्वरूप है । आनंद श्रावक ने उतनी ही सम्पत्ति की मर्यादा की, जितनी उसके पास थी । उससे अधिक की मर्यादा नहीं की थी । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने से इहलौकिक और पारलौकिक अनेक लाभ हैं । इच्छा या तृष्णा का कभी अन्त नहीं आता । जैसे आग में घी डालने से आग और प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार पदार्थों के मिलने से इच्छा और बढ़ती ही जाती है, कम नहीं होती । इस प्रकार की बढ़ी हुई इच्छा के कारण मनुष्य का जीवन भारभूत एवं कष्टप्रद बन जाता है । ऐसा आदमी न तो शान्ति से खापी या सो सकता है, न ईश्वर - भजनादि आत्म-कल्याण के कार्य ही कर सकता है । उसको प्रत्येक समय अपनी बढ़ी हुई इच्छा की पूर्ति की ही चिन्ता रहती है । कोई भी समय ऐसा नहीं होता कि जब उसे शान्ति मिले । उसके पास कितनी भी सम्पत्ति हो जाय, उसको संसार के समस्त पदार्थ मिल जावें, तब भी प्रशान्ति बनी ही रहती है । इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार कर लेने पर, इस प्रकार की अशान्ति मिट जाती है और गार्हस्थ्य जीवन महान् दुःखमय नहीं रहता, अपितु सुखमय हो जाता है । परिग्रह समस्त दुःख और जन्ममरण का कारण है । उन दुःखों से बचने और जन्ममरण से छूटने के लिए ही अपरिग्रह व्रत या परिग्रह - परिमाण व्रत स्वीकार किया जाता है । अपरिग्रह व्रत का पालन करने वाला जन्म मरण से प्रायः सर्वथा छूट जाता है । वह न तो फिर जन्मता ही है, न मरता ही है और न उसे किसी प्रकार का कष्ट ही होता है । यदि उसने अपनी इच्छा का सर्वथा निरोध कर लिया है और पूर्वोपात्त कर्म क्षय कर दिये हैं तब तो उसी भव में मुक्त हो जाता है, अन्यथा एक या दो भव में मुक्त हो जाता है । जो परिग्रह का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता, फिर भी Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२७ ) यदि उसने किसी अंश में परिग्रह का त्याग किया है और इच्छा को कम कर लिया है, तो उतने अंश में वह भी कष्ट से छूट जाता है, नीच गति में जन्म लेने से बच जाता है तथा मोक्ष मार्ग का पथिक हो जाता है। जिसने परिग्रह का परिमाण कर लिया है, सांसारिक पदार्थों को सर्वथा न त्याग सकने पर भी उनमें लिप्त नहीं रहता, किन्तु जल में कमल की तरह अलिप्त रहता है, वह कभी-कभी तो भाव चारित्र पाकर उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है और कभीकभी सात आठ भव के अन्तर से मुक्त होता है । उसको अव्रत की क्रिया नहीं लगती, इस कारण वह नरक तिर्यक् गति में नहीं जाता। ___ मोक्ष प्राप्ति अप्राप्ति का कारण सांसारिक पदार्थों का पास में होना या न होना नहीं है, किन्तु ममत्व का होना या न होना ही है । इसलिए चाहे परिग्रह का सर्वथा त्याग न हो, केवल इच्छा परिमारण व्रत ही लिया गया हो, फिर भी यदि शेष परिग्रह में जल में कमल की तरह अलिप्त रहता है, तो वह उसी भव में मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। इसके विरुद्ध चाहे अपरिग्रह व्रत स्वीकार भी किया हो, पर इच्छा-मूर्छा न मिटी हो, तो वह संसार में पुनः पुनः जन्म-मरण करता है और नरक तिर्यक् गति में भी जाता है। पहले यह बताया जा चुका है कि इच्छा अनन्त है, उसका अन्त नहीं है। जिसमें ऐसी इच्छा विद्यमान है, उसके परिग्रह का भी अन्त नहीं है । ऐसा व्यक्ति महान् परिग्रही है । उसे महान् परिग्रह की ही क्रिया लगती है । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८ ) उसके पास परिग्रह सम्बन्धी पूर्ण पाप विद्यमान है । इच्छा परिमाण व्रत द्वारा, ऐसे महान् परिग्रह से निकला जाता है । जब इच्छा की सीमा कर दी गई, उसका अन्त मालूम हो गया, तब महान् परिग्रह भी नहीं रहा । फिर तो जितने अंश में इच्छा शेष है, उतने ही अंश में परिग्रह भी शेष रहा है और शेष अंश से परे के परिग्रह से निवृत्त हो जाता है । इस कारण फिर परिग्रह की पूर्ण क्रिया नहीं लगती, किन्तु जितने अंश में परिग्रह रहा है, उसी की क्रिया लगती है । इच्छा की सीमा हो जाने पर महान् परिग्रह नहीं रहता किन्तु सीमित अर्थात् अल्प परिग्रह ही रहता है । इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने वाला, ग्रप्राप्त वस्तु के लिए चिन्ता नहीं करता, न इस कारण उसे दुःख ही होता है । भले उसके जानने में नूतन नूतन पदार्थ ग्रावें, फिर भी वह उन पदार्थों की इच्छा नहीं करता, उनको प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता, न उनके मिलने पर दुःख ही करता है । यदि व्रत में रखी हुई मर्यादा के बाहर का कोई पदार्थ उसे बिना इच्छा या श्रम के भी प्राप्त होता हो, तो उसको भी वह स्वीकार नहीं करता । इस प्रकार वह किसी वस्तु की इच्छा से दुःखी नहीं रहता, किन्तु इस ओर से सर्वथा दुःखरहित हो जाता है । साथ ही यह व्रत स्वीकार करने वाला व्यक्ति त्याग से बचे हुए पदार्थों के प्रति ऐसा ममत्वभाव नहीं रखता कि जिसके कारण उन पदार्थों के छूटने पर दुःख हो । वह सांसारिक पदार्थों का आधार उसी प्रकार लेता है, जिस प्रकार पक्षी वृक्ष का सहारा लेता है । वृक्ष का सहारा बन्दर भी लेता है और पक्षी भी लेता है, लेकिन दोनों के सहारा लेने में अन्तर होता है । वृक्ष Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) पर बैठा होने पर भी पक्षी वृक्ष के सहारे नहीं रहता किंतु अपने पंखों के सहारे रहता है। परन्तु बन्दर के लिए-यदि वह वृक्ष पर बैठा हो-वृक्ष ही आधार है । इस कारण वृक्ष के गिरने पर पक्षी को कष्ट नहीं हो सकता, वह अपने पंखों की सहायता से उड़ जायेगा, लेकिन बन्दर उसी वृक्ष के नीचे दब सकता है। ___ इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने वाले और न करने वाले में भी ऐसा ही अन्तर होता है। इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने वाला सांसारिक पदार्थों से ऐसा ममत्व नहीं करता, उनका इस प्रकार सहारा नहीं लेता, जैसा सहारा बन्दर वृक्ष का. लेता है । सांसारिक पदार्थों के छूटने पर उसे किंचित् भी दुःख नहीं होता । वह सांसारिक पदार्थों का उपयोग उसी तरह करता है, जिस प्रकार पक्षी वृक्ष का उपयोग करता । इस व्रत को न अपनाने पर अप्राप्त वस्तु के कारण भी दुःख होता है और प्राप्त वस्तू. के कारण भी। अप्राप्त वस्तु के लिए मनुष्य सदा तरसता रहता है, चिन्तित तथा दुःखी रहता है और प्राप्त वस्तु की रक्षा के लिए चिन्तित एवं भयभीत रहता है । इस बात का भय बना ही रहता है कि यह वस्तु मुझ से कोई छीन न ले, या छूट न जावे। परिग्रह परिमाण व्रत स्वीकार करने पर इस प्रकार की अधिकांश चिन्ता तथा अधिकांश दुःख मिट जाता है । वह व्यक्ति वस्तु की रक्षा की ओर से चिन्तत भी नहीं रहता तथा वस्तु के जाने से दु.खी भी नहीं होता । वह जानता है कि वस्तु का यह स्वभाव ही है। जब तक मेरे पुण्य का Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३० ) जोर है, तभी तक वस्तु मेरे पास रह सकती है । उस दशा में इसे कोई नहीं ले जा सकता और पुण्य का जोर हटने पर वस्तु मेरे पास नहीं रह सकती । चाहे मैं लाखों प्रयत्न या दुःख करू, समय आने पर वस्तु चली ही जाती है । फिर मैं चिन्ता या दुःख क्यों करू ? इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने वाले को मरण के समय भी दुःख नहीं होता । इच्छा का परिमाण न करने वाले महा-परिग्रही को मरण समय में भी घोर कष्ट होता है-'हाय ! मेरी प्रिय सम्पत्ति आज छूट रही है । इस दुःख के कारण उसके प्राण शान्ति से नहीं निकलते, किन्तु बड़े कष्ट से निकलते हैं। जिसने भारत को बड़ी बूरी तरह लूटा था, वह महमूद गजनवी जब मरने लगा, तब उसने अपनी सारी सम्पत्ति अपने सामने मंगवाई और उस सम्पत्ति को देख देख कर वह रोने लगा। उसके रोने का वास्तविक कारण क्या था, यह निश्चय-पूर्वक तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु हो सकता है कि वह सम्पत्ति छूटने के दुःख से रोया हो । महापरिग्रही को ऐसा दुःख होता ही है । उसे मरते समय आर्तरौद्र ध्यान आता है, जो दुर्गति का कारण है । इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने वाला इससे बचा रहता है। श्रावक के लिए परिग्रह परिमाण व्रत स्वीकार करना आवश्यक है । वह जब तक अपनी इच्छा को सीमित नहीं कर लेता, तब तक निर्ग्रन्थ प्रवचन पर प्रगाढ़ आन्तरिक रुचि नहीं ला सकता और महापरिग्रही है। उस में निग्रन्थ धर्म का लेश भी नहीं हो सकता । निर्ग्रन्थ धर्म का पात्र Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३१ ) बनने के लिए इच्छा-परिमाण व्रत स्वीकार करना प्रावश्यक है। इच्छा-परिमाण व्रत स्वीकार कर लेने पर धर्म-कार्य में भी मन लगता है । मन में वैसी चंचलता और अस्थिरता नहीं रहती, जैसी चंचलता और अस्थिरता अनन्त इच्छा वाले में रहती है । जिसने अपनी इच्छा को जितना अधिक संकोच लिया है, उसका मन धर्म-कार्य में उतना ही अधिक लगता है। वह निष्काम भाव से धर्म-कार्य करता है, धर्म-कार्य के बदले में चाहता कुछ नहीं है। इसके लिए पूनिया श्रावक की कथा प्रसिद्ध ही है, जो केवल बारह आने की पूँजी से व्यापार व्यवसाय करता था और जिसकी सामायिक की प्रशंसा स्वयं महावीर भगवान् ने की थी। __इच्छा का परिमारण करके भी, यथाशक्ति उन पदार्थों से निर्ममत्व ही रहना चाहिए, जो पदार्थ मर्यादा में रखे गये हैं । मर्यादा में रखे गये पदार्थों में वृद्धि न होनी चाहिये । यदि मर्यादा में रहे हए पदार्थों में वृद्धि न रही, उनसे निर्ममत्व रहे, तो पदार्थों का सर्वथा त्याग न कर सकने पर भी वह व्यक्ति एक प्रकार से अपरिग्रही के समान ही माना जायेगा और उसको बहुत अंश में लाभ भी वैसा ही होगा। भरत चक्रवर्ती छः खण्ड पृथ्वी के स्वामी थे। लेकिन वे उस राज्य-सम्पदा के प्रति निर्ममत्व रहते थे, इस कारण उन्हें कांच-महल में ही केवलज्ञान हो गया । नेमीराज के पास समस्त राज्य-सम्पदा विद्यमान थी और वे राज्य भी करते थे, फिर भी 'राजर्षि' कहे जाते थे । इसका कारण यही था कि वे राज्य में मूछित नहीं रहते थे । नेमीराज की ही तरह Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२ ) राजा जनक के विषय में भी प्रसिद्ध है । कहा जाता है कि उनके पास शुकदेवजी ज्ञान सीखने के लिए गये । उन्होंने जनक के द्वार पर जाकर अपने आने की सूचना राजा के पास भेजी, जिसके उत्तर में राजा ने उन्हें द्वार पर ही ठहरे रहने का कहलाया । शुकदेव जी तीन दिन तक जनक के द्वार पर ही ठहरे रहे । चौथे दिन जनक ने उन्हें अपने पास बुलाया । राजा जनक के सन्मुख जाकर शुकदेव जी ने देखा कि राजा अच्छे सिंहासन पर बैठा है और उस पर चंवर छत्र हो रहा है । शुकदेवजी सोचने लगे कि पिता ने मुझे इसके पास क्या सीखने भेजा हैं ? यह माया में फंसा हुआ राजा मुझको क्या ज्ञान देगा ? शुकदेवजी इस प्रकार सोच ही रहे थे, इतने ही में राजा के पास खबर आई कि नगर में आग लग गई है । फिर खबर आई कि आग महल तक आ गई है । तीसरी है और नगर जल रहा द्वार घेर लिया है । बार खबर आई कि आग ने महल का राजा जनक इन सब खबरों को सुनकर किंचित् भी नहीं घबराये, किन्तु वैसे ही प्रसन्न बने रहे ; लेकिन शुकदेवजी चिन्तित हो गये । राजा ने उनसे पूछा कि नगर या महल में आग लगने से आपको चिन्ता क्यों हो गई ? शुकदेवजी ने उत्तर दिया कि मेरा दण्ड और कमण्डल द्वार पर ही रखा है, मुझे उन्हीं की चिन्ता है कि कहीं वे न जल जावें । राजा ने उत्तर दिया कि मुझको महल और नगर जलने की भी चिन्ता नहीं है, न दुःख ही है और आपको दण्ड और कमण्डल की चिन्ता हो गई ! इस अन्तर का क्या कारण है ? यही कि में राज्य करता हुआ और नगर तथा महल में रहता हुआ भी इनसे निर्ममत्व रहता है, इनको अपना नहीं मानता और आप दण्ड- कमण्डल को अपना ' मानते Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३३ ) हैं। आपको आपके पिता ने मेरे पास यही ज्ञान लेने के लिये भेजा है कि जिस प्रकार मैं निर्ममत्व रहता हूँ, उसी प्रकार निर्ममत्व रहो । संसार के किसी भी पदार्थ को अपना मत समझो, न किसी पदार्थ से अपना स्थायी सम्बन्ध मानो, किन्तु यह मानो कि आत्मा अजर अमर तथा अविनाशी है और संसार के समरत पदार्थ हैं नाशवान । इसलिए प्रात्मा का सांसारिक पदार्थों से कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है । शास्त्र में नमीराज विषयक वर्णन भी ऐसा ही है । नमीराज को जब संसार की असारता का ज्ञान हो गया था और वे विरक्त हो गये थे, उस समय उनकी परीक्षा करने के लिए इन्द्र ने ब्राह्मण का वेश बनाकर उनसे कहा था कि वह देखो, तुम्हारी मिथिलामगरी जल रही है । तब नमीराज ने उत्तर दिया था सुहं वसामो जीवामो जेसि मे नत्थि किंचरणं । मिहिलाए डज्झमारणीए न मे डज्झइ किंचरणं ॥ अर्थात् - मैं सुख से रहता हूँ और सुखपूर्वक ही जीवित हूँ; महल और मिथिलानगरी से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। मिथिलानगरी के जलने से मेरा कुछ भी नहीं जलता है । तात्पर्य यह कि मर्यादा में रहे हुए पदार्थों से भी ममत्व न करना, किन्तु निर्ममत्व रहना। उनकी प्राप्ति से प्रसन्न न होना, न उनके वियोग से दुःख करना । निर्ममत्व रहने साथ ही कृपण भी न रहना । चाहे कृपण हो या उदार, सांसारिक पदार्थ निश्चय ही छूटते हैं; Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३४ ) लेकिन उस समय में जैसा दु:ख कृपण को होता है, वैसा उदार को नहीं होता। श्रावक अपने व्रत की मर्यादा में जो द्रव्य शेष रखता है, उसे केवल अपने ही सुख के लिए नहीं समझता, उसे अपना ही नहीं मान बैठता । यह नहीं करता कि दूसरे आदमी चाहे उस वस्तु के लिए कष्ट पाते रहें और श्रावक उस वस्तु को दबाये बैठा रहे । श्रावक अपनी मर्यादा में जो धन धान्यादि रखता है, उससे स्वयं भी सांसारिक कार्य चलाता है और दूसरों की भी सहायता करता है। उसके पास जो धन-धान्य होता है, उसे वह आवश्यकता के समय जनता के हित में व्यय कर देता है, दुष्कालादि के समय उसके द्वारा लोगों की रक्षा करता है, लोगों की सहायता करता है। जो धन मर्यादा में रखा है, उसे पकड़ कर बैठ जाना व्यावहारिक दृष्टि से भी अनुचित है अर्थात् उसे जमीन में गाड़ देना या तिजोरी में बन्द करके रख छोड़ना ठीक नहीं । जब सम्पत्ति एक या कई जगह केन्द्रित होकर रुक जाती है, व्यवहार में नहीं आती, तब साधारण जनता को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इसलिए 'यह सम्पत्ति तो हमारी मर्यादा में ही है' ऐसा समझ कर सम्पत्ति को व्यवहार से वंचित रखना, जनता को कष्ट में डालना है। भारत में गेंद के खेल की जो प्रथा है, उससे एक शिक्षा भी मिलती है । गेंद होता तो है किसी एक व्यक्ति का ही, परन्तु उससे खेलते अनेक आदमी हैं। अनेक आदमी मिलकर, परस्पर उसका आदान प्रदान करते हैं । कोई एक आदमी Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३५ ) गेंद को लेकर नहीं बैठ जाता और यदि कोई ऐसा करे तो उसके साथी गरण उसे दंड देने तथा उससे गेंद छीनने का प्रयत्न करते हैं । गेंद के इस खेल से धन-धान्यादि सम्पत्ति के विषय में भी यह शिक्षा मिलती है कि इन सब को अपना ही न मान बैठो, किन्तु जैसे गेंद से अनेकों को खेलने का लाभ दिया जाता है, उसी तरह सम्पत्ति का लाभ भी सब को दो । फिर चाहे वह सम्पत्ति तुम्हारे ही अधिकार की क्यों न हो, लेकिन उसे पकड़ कर मत बैठ जाओ । यदि तुम सम्पत्ति को अपनी ही मान कर दबा बैठोगे तो लोग तुम से वह सम्पत्ति छीनने का प्रयत्न करेंगे तथा तुम्हारे पास न रहने देंगे और यदि गेंद की तरह सम्पत्ति का भी आदान प्रदान करते रहोगे तो जिस प्रकार फेंका हुआ गेंद लौट कर फेंकने वाले के ही पास आता है, उसी तरह दूसरे को देते रहने पर - यानी त्याग करने ही पर - सम्पत्ति भी लौट लौट कर त्यागने वाले के ही पास आयेगी । सम्पत्ति के लिए झगड़ा भी तभी होता है, जब कोई उसे अपनी मान कर पकड़ बैठता है । जहां किसी वस्तु को अपना नहीं माना जाता, वहां किसी प्रकार का झगड़ा भी नहीं होता । प्रति जिस तरह मर्यादा में रखी हुई प्राप्त वस्तु के कृपरणता अथवा ममत्व न रखना उसी तरह मर्यादा में रखी हुई अप्राप्त वस्तु की कामना भी न करना; किन्तु निष्काम रहना । कामना से वस्तु प्राप्त भी नहीं होती और यदि प्राप्त हुई भी तो उससे आध्यात्मिक तथा मानसिक हानि होती है । वस्तु की कमी वहीं है, जहां कामना है जहां कामना नहीं है, वहां वस्तु की भी कमी नहीं है । कामना न होने पर वस्तु छाया की तरह पीछे दौड़ती है, Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) और कामना होने पर दूर भागती है । जैसे कोई आदमी छाया को पकड़ने के लिए छाया की ओर दौड़े तो छाया. आगे की ओर भागेगी, लेकिन यदि वह छाया को पकड़ने की इच्छा न करे, छाया की ओर पीठ दे दे तो वह छाया उस आदमी के पीछे दौड़ेगी । इसी प्रकार वस्तु की चाह करके उसके प्रति उपेक्षा बुद्धि रखे तो वस्तु दौड़ कर पास आयेगी और यदि वस्तु की चाह करके उसके पीछे दौड़े तो वस्तु दूर भागेगी । इसलिए मर्यादा में होने पर भी अप्राप्त वस्तु को कामना न करना, किन्तु निष्काम और मर्यादा पर स्थिर रहना । मर्यादा पर स्थिर रहने से सम्पत्ति स्वयं ही दौड़ कर पायेगी । तुलसी-कृत रामायण में कहा हैजिमि सरिता सागर मंह जाही, यद्यपि तिन्हैं कामना नाहीं। तिमि धनसम्पति बिनहिं बुलाये,धर्मशील पंह जाहिं सुभाये।। ____ अर्थात् - जिस प्रकार समुद्र को जल की कामना न होने पर भी सब नदियां समुद्र में ही जाती हैं, उसी प्रकार धन सम्पत्ति भी धर्मशील व्यक्ति के पास बिना बुलाये ही स्वभावतः जाती है । तात्पर्य यह कि मर्यादा में रही हई परन्तु अप्राप्त वस्तु की कामना न करना, न उसके लिए धर्म की सीमा का उल्लंघन ही करना चाहिए । यह व्रत स्वीकार करने वाला उन कार्यों को कभी नहीं करता, जिनका शास्त्र में निषेध किया गया है। शास्त्र' में श्रावक के लिए वयं पन्द्रह कर्मादानों में जो कार्य बताये गये हैं, इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने वाले उन कामों Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३३७ ) को नहीं करते । जिसने इच्छा की सीमा नहीं की है, वह कृत्याकृत्य का विचार नहीं रखता । उसका उद्देश्य तो केवल यह रहता है कि मेरी इच्छानुसार पदार्थ मिलें; फिर इसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े। लेकिन जिसने इस व्रत को स्वीकार किया है, वह कृत्याकृत्य का ध्यान रखता है पौर अकृत्य कार्य कदापि नहीं करता । मतलब यह कि यह व्रत स्वीकार करने वाला अनेक अंशों में सुखी तथा पाप से बचा रहता है और उसके द्वारा धर्म-कार्य एवं शुभ-कार्य भी होते हैं। अशुभ कार्यों से प्रायः वह अलग हो जाता है । अपरिग्रह व्रत या इच्छा परिमाण व्रत का पालन वही कर सकता है, जो समस्त पदार्थों को तात्त्विक दृष्टि से देखता है, जिसने सादगी स्वीकार की है और लालसा को मिटा दिया है या कम कर दिया है । इच्छा परिमाण व्रत का पालन करने के लिए सादगी का होना आवश्यक है । जिसमें सादगी होगी, वही इच्छा-परिमाण-व्रत का पालन कर सकता है । सादगी न होने पर वस्तु की चाह होगी ही और इस कारण कभी न कभी व्रत भी भंग हो जायेगा । सादगी, अनशनादि तप से भी कठिन है। बहुत से लोग अनशन तप तो कर डालते हैं, लेकिन उनके लिए सादगी स्वीकार करना कठिन जान पड़ता है। परन्तु जब तक सादगी नहीं है, तब तक न तो अपरिग्रह व्रत का ही पालन हो सकता है, न परिग्रह-परिमाण व्रत का ही । इस व्रत का पालन तभी हो सकता है, जब अपनी आवश्यकताओं को बिल्कुल घटा दिया जावे । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८ ) सादगी की ही तरह सरलता का होना भी आवश्यक है । जिसमें सरलता नहीं है, वह भी व्रत का पालन नहीं कर सकता । ऐसा व्यक्ति, अपनी बुद्धि का उपयोग व्रत में गली निकालने में ही करता है । वह आदमी व्रत में भी कपट चलाता है । व्रत स्वीकार करके फिर उसमें कपट चलाने या गली निकालने से व्रत का महत्त्व नष्ट हो जाता है । बहुत से लोग व्रत लेते समय यह सोचते हैं कि हम जितनी मर्यादा कर रहे हैं, हमको उतना ही मिलना कुठिन है तो अधिक तो मिल ही कैसे सकता है ! इस तरह सोच करके पहले ही जो पास है उससे - बहुत अधिक की मर्यादा करते हैं, परन्तु योगायोग से जब मर्यादा इतना धन हो जाता है और उससे भी बढ़ने लगता है, तब व्रत में कपट चलाने लगते हैं । ऐसे लोग उस समय अपनी बढ़ी हुई सम्पत्ति को सन्तान या स्त्री के नाम पर कर देते हैं, उनके विवाहादि खर्च खाते में अमानत कर लेते हैं और फिर भी यह समझते हैं कि हमारे व्रत में कोई दूषण नहीं लगा । लेकिन वस्तुतः ऐसा करना, व्रत में कपट चलाना और व्रत को भंग करना है क्योंकि व्रत लेते समय इस प्रकार की मर्यादा नहीं की थी । सच्चा व्रतधारी, अपने व्रत से बाहर की कोई भी वस्तु अपने पास न रखेगा, फिर चाहे वह कैसी भी हो और किसी भी तरह से क्यों न मिलती हो । अररणक श्रावक को एक देव ने मिट्टी के गोले में बन्द करके दो जोड़ कुण्डल दिये थे । यदि अरणक चाहता तो कह सकता था कि ये Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) कुण्डल तो देवप्रदत्त हैं, इसलिए व्रत मर्यादा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है और ऐसा कहकर वह कुण्डलों को रख सकता था; लेकिन अरणक व्रत स्वीकार करने के उद्देश्य को और व्रत स्वीकार करते समय रखे गये अपने अधिकार की मर्यादा को अच्छी तरह जानता था तथा उस पर दृढ़ था, उसका उल्लंघन नहीं करना चाहता था । इसलिए उसने उन कुण्डलों को अपने पास नहीं रखा किन्तु दूसरों को दे दिया क्योंकि उसने व्रत में देव-प्रदत्त वस्तु लेने की मर्यादा नहीं रखी थी । इसी प्रकार जब स्त्री और बच्चों की सम्पत्ति अलग करने की मर्यादा नहीं रखी है, तब सम्पत्ति के बढ़ने पर बढ़ी हुई सम्पत्ति उनके नाम करके अपना व्रत सुरक्षित समझना अथवा बढ़ी हुई सम्पत्ति को न त्यागने के लिए और कोई उपाय निकालना, यह व्रत में कपट चलाना तथा धर्म को भी ठगना है। __ आनन्द श्रावक ने भगवान् के पास व्रत स्वीकार करते हुए यह मर्यादा की थी कि मैं बारह करोड़ सौनैया, चालीस हजार गायें और पांच सौ हल की भूमि से अधिक न रखूगा । यह मर्यादा करके वह अकर्मण्य बन कर नहीं बैठा था, किन्तु चौदह वर्ष तक-जब तक कि उसने ग्यारह प्रतिमाएं स्वीकार नहीं की-बार-बार व्यापार कृषि आदि में उद्योग करता रहा था । उसके चार करोड़ सौनया व्यापार में लगे हुए थे, पांच सौ हल की खेती होती थी और चालीस हजार गायें थीं। इन तीनों द्वारा एक ही वर्ष में सम्पत्ति की अत्यधिक वृद्धि हो सकती थी और हुई भी होगी, फिर भी यह उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उसने वह बढ़ी हुई सम्पत्ति स्त्री पुत्र की बता कर अपने पास ही रख ली अथवा स्त्री पुत्र को दे Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४० ) दी अथवा अपनी सम्पत्ति का कोई भाग देकर स्त्री पुत्र को अलग कर दिया । यदि वह ऐसा करता तो अवश्य ही उसका व्रत भंग हो जाता क्योंकि उसने अपने व्रत में इस . प्रकार की मर्यादा नहीं रखी थी। अब यह प्रश्न होता है कि फिर वह अपनी बढ़ी हुई सम्पत्ति का क्या करता था ? चालीस हजार गायों के बच्चे भी बहुत होंगे, पांच सौ हल से अन्नादि भी बहुत होगा और चार करोड़ सौनया के व्यापार से भी बहत लाभ होता होगा । आनन्द श्रावक व्यय से बचे हुए उस धन का क्या उपयोग करता था, जिससे उसका व्रत भंग नहीं हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि आनन्द अपनी बढ़ी हई सम्पत्ति का क्या उपयोग करता था, इसका शास्त्र में कोई स्पष्ट वर्णन तो नहीं है, लेकिन शास्त्र में यह वर्णन तो है ही कि आनन्द श्रावक श्रमरण माहण को प्रतिलाभित करता हुमा विचरता था । श्रमरण का अर्थ साधु है और माहण का अर्थ ब्राह्मण या श्रावक है । आनन्द, श्रमण और माहण को उनके योग्य दान देता था । इसके सिवा शास्त्र में तंगिया नगरी आदि स्थानों के श्रावकों का वर्णन करते हए कहा गया है. कि उन श्रावकों के द्वार दान देने के लिए सदा ही खुले रहते थे। उनके यहां से कोई निराश नहीं जाता था। इस वर्णन के आधार पर यही कहा जा सकता है कि आनन्द श्रावक दानी था । इस कारण उसकी सम्पत्ति मर्यादा से अधिक नहीं होने पाती थी। इसके साथ यह भी कहा जा सकता है कि आनन्द श्रावक जो कृषि वाणिज्य आदि Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४१ ) करता था, उसके द्वारा या तो वह पहले ही कम लाभ लेता था, अथवा लाभ का अधिकांश ...अपने कार्यकर्ताओं को दे देता था। आज यदि कोई आदमी ऐसी दूकान खोले, जिसमें केवल वस्तु की लागत और दूकान आदि खर्च लेकर ही वस्तु का क्रय-विक्रय किया जाता हो, मुनाफा न लिया जाता हो, अथवा बहुत कम मुनाफा लिया जाता हो, तो जनता ऐसे दुकानदार को बहुत आदर की दृष्टि से देखे, उसे प्रामाणिक माने और उसकी तथा उसके धर्म की काफी प्रशंसा भी करे। हो सकता है, आनन्द भी ऐसा वाणिज्य करता हो। जो कुछ भी हो, यह स्पष्ट है कि आनन्द के यहां कृषि, गोपालन और वाणिज्य होता था, फिर भी उसने अपनी सम्पत्ति मर्यादा से अधिक नहीं होने दी थी । तात्पर्य यह है कि व्रत लेने के पश्चात् व्रत में कयट चलाना और किसी प्रकार का मार्ग निकालना अनुचित है। जिस भावुकता और सरलता से व्रत लिया है, वह भावुकता और सरलता अन्त तक रखनी चाहिए । जो इस रीति से व्रत का पालन करता है, उसी का व्रत निर्दोष, प्रशस्त एवं प्रशंसनीय है। - सम्पत्ति के लिए जीवन मत हारो। जीवन को सम्पत्ति के लिए मत समझो । सम्पत्ति पर जीवन न्यौछावर मत करो। सम्पत्ति के लिए धर्म को धता मत बताओ, किन्तुं यह विचार रखो कि हम धन को बड़ा न मानेंगे और दोनों में से किसी एक के जाने का समय आने पर, धन Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२) चाहे जावे, लेकिन धर्म को कदापि न जाने देंगे । धर्म-रहित सम्पत्ति, नरक का कारण है । ऐसी सम्पत्ति, दुर्गति में ही ले जाती है । इसलिए धर्मरहित धन को अपने यहां कदापि न रहने दो। जीवन को संसार में फंसाने के लिए, दारैषणा, पुत्रषणा और धनैषणा जाल रूप. हैं । जो इस जाल से बचा रहता है, उसी का कल्याण होता है । * * Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिचार इच्छा-परिमाण-व्रत के पांच अतिचार बताये गये हैं। ये पांचों अतिचार जानने योग्य हैं, आचरण योग्य नहीं हैं। व्रत की मर्यादा चार प्रकार से टूटती है, अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार से । अतिक्रम, व्यतिक्रम तथा अतिचार में व्रत का आंशिक भंग होता है और अनाचार में व्रत पूरी तरह टूट जाता है । अतिचार, व्रत का बड़ा दूषण है, इसलिए खास तौर से इससे बचना चाहिए। ऐसा करने पर ही व्रत दूषण-रहित रह सकता है। इच्छा परिमाण व्रत के पांच. अतिचार ये हैं-क्षेत्र वास्तु परिमाणातिक्रम, हिरण्य सुवर्ण परिमाणातिक्रम, धनधान्य परिमाणातिक्रम, द्विपद चतुष्पद परिमाणातिक्रम और कुप्य परिमाणातिक्रम । खेतादि भूमि और गृहादि के विषय में की गई मर्यादा का आंशिक उल्लंघन करना क्षेत्रवास्तु परिमाणातिक्रम अतिचार है । यदि मर्यादा को पूर्णतया विचारपूर्वक तोड़ दिया जावे, तब तो वह अनाचार ही है, उससे व्रत बिलकुल ही टूटता है, लेकिन व्रत की अपेक्षा रखते हुए भी भूल या असावधानी से ऐसा कार्य हो जावे जो व्रत की मर्यादा में Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४४ ) नहीं है और जिसके करने से व्रत कुछ अंश में भंग हो जाता है, तो यह अतिचार है । क्षेत्र वास्तु परिमाणातिक्रम अतिचार का अर्थ, खेतादि खुली भूमि और गृहादि आच्छादित भूमि के विषय में की गई मर्यादा का पूर्णत: नहीं किन्तु प्रांशिक उल्लंघन करना है । जैसे किसी व्यक्ति ने चार से अधिक खेत न रखने की मर्यादा की । मर्यादाकाल में उसे और खेत मिले । व्रत न टूटे इस विचार से उसने उन फिर मिले हुए खेतों को पहले के चार खेतों में ही मिला लिया । बीच की मेड़ (पाल) तोड़ दी और फिर मिले हुए खेतों को पहले के खेतों में मिला कर संख्या नहीं बढ़ने दी, तो यह अतिचार है क्योंकि मर्यादा करने के समय उसने और खेतों को मिला कर प्रस्तुत खेतों को बढ़ाने का आगार महीं रखा था । इसी प्रकार गृह के विषय में भी विचार रखना । मर्यादा में जिस घर को रखा है, उस घर को लंबाई चौड़ाई अथवा मूल्य में बढ़ाना भी अतिचार है । हिरण्य सुवर्ण परिमाणातिक्रम अतिचार का अर्थ, चांदी सोना या चांदी सोने की चीजों के विषय में की गई मर्यादा का प्रांशिक उल्लंघन करना है । कोई व्रत की उपेक्षा तो नहीं करता है, व्रत की तो रक्षा ही करना चाहता है, फिर भी असावधानी से या समझ की कमी के कारण ऐसे कार्य करता है, जिससे व्रत का आंशिक उल्लंघन होता है और व्रत में दूषरण लगता है, तो यह हिरण्य सुवर्ण परिमाणातिक्रम पतिचार है । जैसे, मर्यादा करने के पश्चात् सोना चांदी या चांदी की कोई वस्तु मिली । उस समय यह सोचे कि Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४५ ) मुझे यह रखना नहीं कल्पता, इसलिए दूसरे के पास रख दूँ और ऐसा सोच कर मर्यादा से बाहर की वस्तु दूसरे के पास रख दे, यह हिरण्य सुवर्ण परिमाणातिक्रम प्रतिचार है । तीसरा प्रतिचार, धनधान्यादि परिमाणातिक्रम है । धन और धान्य के अन्तर्गत बताई गई वस्तुनों के विषय में की गई मर्यादा का आंशिक उल्लंघन, धनधान्य परिमाणातिक्रम अतिचार है । जैसे, किसी ने अनाज घी गुड़ या रुपये पैसे के विषय में कोई मर्यादा की । मर्यादाकाल में उसे मर्यादा के बाहर की कोई वस्तु मिली । उस समय यह सोचे कि यदि मैं इस वस्तु को अभी अपने अधिकार में रखूंगा तो मेरा व्रत भंग हो जायेगा; इसलिए मर्यादाकाल के वास्ते यह वस्तु दूसरे के पास रख दूं अथवा मेरे पास जो वस्तुएं हैं, उनके समाप्त होने या कम होने तक यह वस्तु दूसरे के पास रख दूं । फिर जब मर्यादाकाल समाप्त हो जायेगा या मर्यादा में रखी हुई वस्तु में न्यूनता आयेगी, तब इस वस्तु को लेकर अपने अधिकार में कर लूंगा । इस प्रकार व्रत की अपेक्षा रखते हुए भी ऐसे कार्य करना, जिससे व्रत में दूषण लगता है, धनधान्य परिमाणातिक्रम अतिचार है । चौथा द्विपद-चतुष्पद परिमाणातिक्रम अतिचार है । जितने द्विपद या चतुष्पद रखने का आगार है, उतने से अधिक मिलने पर व्रत टूटने के भय से अधिक मिले हुए को अपने पास न रखे, किन्तु दूसरे के पास रख दे और सोचे कि मर्यादाकाल समाप्त होने पर या मर्यादित द्विपद चौपद में कमी होने पर मैं इसे दूसरे से ले लूंगा तो यह द्विपद चतुष्पद परिमारणातिक्रम अतिचार है । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६ ) पांचवां कुप्य परिमाणातिक्रम अतिचार है । व्रत के आगार में घर की जो वस्तुएं रखी हैं, उन वस्तुनों से बाहर की वस्तुओं का मर्यादाकाल समाप्त होने पर मर्यादा में रखी हुई वस्तुओं में न्यूनता आने पर वापस लेने के विचार से दूसरे के पास रखे तो यह कुप्य परिमाणातिक्रम प्रतिचार है । प्रतिचारों की व्याख्या यह भी होती है कि ज्ञात न होने पर स्वयं के अधिकार में मर्यादा से अधिक पदार्थों का हो जाना । पदार्थ तो मर्यादा से अधिक हो गये हैं, लेकिन स्वयं को यह पता नहीं है कि मेरे अधिकार में मर्यादा से अधिक पदार्थ हैं, किन्तु स्वयं यह समझता है कि जो पदार्थ मेरे अधिकार में हैं वे मर्यादा में ही हैं तो यह अतिचार है यानी अनजान में मर्यादा से अधिक पदार्थों का अपने अधिकार में होना यह अतिचार है । जब तक इस बात का पता नहीं है कि मेरे अधिकार में मर्यादा से अधिक पदार्थ हैं, तब तक तो उन पदार्थों का अधिकार में होना अतिचार ही है, लेकिन पता होने पर भी मर्यादा से अधिक पदार्थों का अपने अधिकार में ही रखना, अनाचार है और अनाचार होने पर व्रत भंग हो जाता है । संक्षेप में यह पांचों प्रतिचारों का स्वरूप हुआ । जो व्यक्ति इनसे बचकर व्रत का पालन करता है, उसी का व्रत दूषण रहित है, वही व्रत लेने का उद्देश्य पूरा करता है और वहो आराधक तथा आत्मकल्याण करने वाला है । में Page #362 -------------------------------------------------------------------------- _