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________________ (२८५) वह तो समझता है कि कष्ट सह कर मुझे सुख देने के लिए ही दूसरे लोग बने हैं और मैं दूसरों को कष्ट देकर सुख भोगने के लिए ही उत्पन्न हुआ है। ऐसा व्यक्ति दीन-दुखियों की सहायता के नाम पर कुछ खर्च भी कर देता हो, लेकिन उसका यह कार्य दया या सहयता की प्रेरणा से ही हना है ऐसा नहीं कहा जा सकता । वह प्रायः लोगों को दिखाने, यशस्वी बनने और अपने प्रति जनता को आकर्षित करके अपनी गणना दानियों में कराने के लिए ही, संचित या प्राप्त परिग्रह का एक तुच्छ अंश दे देता है । वस्तुतः उसमें दया और सहृदयता हो ही नहीं सकती। यदि उसमें दया और सहृदयता हो तो वह परिग्रह के लिए किसी को किंचित् भी कष्ट नहीं दे सकता, न अपने पास अधिक रख कर उन पदार्थों के अभाव में दूसरों को कष्ट ही पाने दे सकता है । - परिग्रह में द्रोह की प्रधानता रहती है और जहां द्रोह है, वहां प्रेम का अभाव स्वाभाविक ही है । इस प्रकार परिग्रह प्रेम का नाशक है । यह बात ऊपर के वर्णन से स्पष्ट है। सांसारिक पदार्थों का संग्रह रखने वाला-उनसे ममत्व करने वाला-सांसारिक पदार्थों को ही महत्त्व देता है, आत्मा और गुणों की तो उपेक्षा या अवहेलना ही करता है। वह सम्मान भी उसी का करता है, जिसके अधिकार में सांसारिक पदार्थ अधिक हैं । इसके विरुद्ध जिसके पास सांसारिक पदार्थों का वैसा आधिक्य नहीं है, उसका आदर करना तो दूर रहा उसकी ओर देखना भी पसन्द नहीं करता, न उसके दुःख-सुख की ही अपेक्षा करता है । चाहे वह गुणी हो अथवा
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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