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( २८६ ) दुःखी हो । उसमें गुणी के प्रति प्रमोद भावना और दुःखी के प्रति करुणा भावना नहीं होती।
परिग्रह के लिए आत्मा की भी अवहेलना की जाती है और उससे भी द्रोह किया जाता है । आत्मा को बड़ा नहीं समझा जाता, किन्तु परिग्रह को ही बड़ा समझा जाता है, आत्मा का आदर नहीं किया जाता किन्तु परिग्रह का ही आदर किया जाता है । जहां परिग्रह है वहां आलस्यअकर्मण्यता भी है । दूसरे के श्रम का लाभ लूटने और स्वयं का जीवन आलस्य एवं विलास में बिताने की ही भावना रहती है तथा इसी प्रकार का प्रयत्न किया जाता है ।
परिग्रही व्यक्ति स्वयं को ही सब से अधिक गुणवान् समझता है। फिर चाहे उसमें दुर्गुण ही क्यों न हों । एक कवि के कथनानुसार तो परिग्रही में जरा भी गुण नहीं होता । यह कवि कहता है
नाणवोपि गुणा लोके दोषा शैलेन्द्रसन्निभाः । भवन्त्यत्र न सन्देहः संगमासाद्य देहिनाम् ॥
अर्थात्- परिग्रही में निस्सन्देह जरा भी गुण नहीं होता और दोष सुमेरु की तरह के बड़े-बड़े होते हैं।
इसके अनुसार परिग्रही में दोष ही दोष होते हैं, गुण जरा भी नहीं होता। फिर भी वह समझता यही है कि जो कुछ हूँ मैं ही हूँ । समस्त गुण मुझ में ही हैं । ऐसे लोगों का व्यवहार देख कर ही किसी कवि ने कहा है- .