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( २८७ ) यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः । स एव वक्ता स च दर्शनीयः
सर्वे गुणाः कांचनमाधयन्ति ।
अर्थात्-जिनके पास धन है वह आदमी कुलवान् न होने पर भी कुलीन माना जाता है, बुद्धिहीन होने पर भी बुद्धिमान् माना जाता है, शास्त्रज्ञ न होने पर भी शास्त्रज्ञ माना जाता है, गुणवान् न होने पर भी गुणवान् माना जाता है, वक्ता न होने पर भी वक्ता माना जाता है और दर्शनीय न होने पर भी दर्शनीय समझा जाता है । इससे सिद्ध होता है कि सारे गुण धन में ही समझे जाते हैं।
परिग्रही में अभिमान भी बहुत होता है । वह स्वयं को बड़ा सिद्ध करने – स्वयं का अधिकार जताने के लिए दूसरे का अपमान करने में भी संकोच नहीं करता ।
परिग्रही व्यक्ति से प्रायः धर्म कार्य नहीं हो सकते । जो जितना अधिक परिग्रही है, वह धर्म से उतना ही अधिक दूर है । वह लोगों को दिखाने, स्वयं को धार्मिक सिद्ध करने आदि उद्देश्य से चाहे धर्म-कार्य करता हो और उनमें भाग भी लेता हो, परन्तु वस्तुतः उसमें पूर्ण धार्मिकता नहीं हो सकती । यह प्रायः समस्त धर्मकार्य सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति या उनकी रक्षा की कामना से ही करता है, निष्काम होकर नहीं करता । पहले तो ऐसा व्यक्ति स्थिर चित्त से धर्माराधन या ईश्वर-भजन कर ही नहीं सकता,