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________________ ( २८८) उसका चित्त सदा अस्थिर चिन्ताग्रस्त एवं भयग्रस्त रहता है, इस कारण उससे धर्माराधन या ईश्वर-भजन होना कठिन है । इस पर भी यदि वह ऐसा करता है तो प्राप्त प्रदार्थ की कुशलक्षेम अथवा अप्राप्त पदार्थ की प्राप्ति के लिए ही और यदि कभी उसकी कामना के विपरीत कार्य हुआ तो उस दशा में वह धर्माराधन या ईश्वर-भजन करना त्याग ही नहीं देता किन्तु धर्म और ईश्वर पर अविश्वास भी करने लगता है । उसका सिद्धान्त क्या होता है, इसके लिए भर्तृहरि कहते हैं- जातिर्यातु रसातलं गुणगणस्तस्याप्यधो गच्छता च्छीलं शैलतटात्पतत्वभिजनः सन्दह्यतां वह्निना । शौर्ये वैरिणि वज्रमाशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः केवलं येनकेन विना गुणस्तृणलवप्रायः समस्ता इमे ।। अर्थात्- चाहे जाति रसातल को चली जावे, समस्त गुण रसातल से भी नीचे चले जावें, शील पहाड़ से गिरकर नष्ट हो जावे और वैरिन शूरता पर शीघ्र ही वज्र आ पड़े तो कोई हर्ज नहीं, हमारा धन नष्ट न हो, हमें तो केवल धन चाहिये क्योंकि धन के बिना मनुष्य के सारे ही गुण तिनके के समान व्यर्थ हैं । .. परिग्रह के लिए धर्म और ईश्वर के प्रति विद्रोह भी किया जाता है और धर्म के स्थान पर अनीश्वरवाद की स्थापना की जाती है । परिग्रह के लिए ही छल-कपट और अन्याय अत्याचार को धर्म का रूप दिया जाता है । कुगुरु.और कुदेव को परिग्रह के लिए ही माना जाता है । परिग्रह के लिए
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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