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( २८४ ) तथा अशांति उत्पन्न करने वाले हैं ।
परिग्रही के दोष
परिग्रही में दूसरे के प्रति सदा ही ईा का भाव बना रहता है। वह यही सोचता रहता है कि अमुक आदमी गिर जावे और मैं उससे बड़ा हो जाऊं, वह व्यक्ति मेरी समानता का न हो जावे, उसको अमूक वस्तु क्यों मिल गई
आदि । इस प्रकार वह दूसरों का अहित ही चाहता है । वह किसी प्रकार अप्राप्त पदार्थ को पाकर उससे भी तभी सुख मानता है, जब तक उसे वैसा पदार्थ दूसरों के पास नहीं दिख पड़ता । दूसरों के पास वैसा पदार्थ देख कर, उसके हृदय में ईर्ष्या होती है और उसे अपने पास के पदार्थ में सुख नहीं जान पड़ता । वह सोचता है कि इसमें क्या है ऐसा तो उस अमुक के पास भी है ।
__ परिग्रह निर्दयता भी लाता है । हृदय को कठोर बनाता है । जो जितना परिग्रही है वह उतना ही निर्दय और कठोर-हृदय है । यदि उसमें निर्दयता और कठोरता न हो, तो वह - लोगों को दुःखी देख कर भी- अपने पास पदार्थ-संग्रह नहीं रख सकता । इसी प्रकार परिग्रही व्यक्ति अपने किंचित् कष्ट को तो महान् दुःख समझता है, लेकिन दूसरे के महान् दुःख की उसे कुछ भी परवाह नहीं होती । दूसरा कोई दुःखी है तो रहे, परिग्रही तो यही चाहता है कि मेरे काम में कोई बाधा न आवे । मेरे लिए दूसरे को कैसा कष्ट होता है, मेरे व्यवहार से दूसरे को कैसी व्यथा होती है इन बातों की ओर उसका ध्यान भी नहीं जाता।