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________________ ( २८३) अर्थानामर्जने दुःखं अजितानाञ्च रक्षणे।। आये दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थः दुःखभाजनम् ॥ __ अर्थात्- परिग्रह के उपार्जन में दुःख है और उपाजित के रक्षण में भी दुःख है। इसलिए दुःख के पात्र परिग्रह को धिक्कार है । एक और कवि भी कहता है दुःखमेव . धनव्यालविषविध्वस्तचेतसां । अर्जने रक्षणे नाशे पुंसां तस्य परिक्षये ।। अर्थात्- धन रूपी सर्प के विष से जिनका चित्त खराब हो गया है उन लोगों को सदा दुःख ही होता है । उन्हें धनोपार्जन में भी दुःख होता है, रक्षा करने में भी दुःख होता है और धन के नाश अथवा व्यय में भी दुःख होता है । पदार्थों के पाने से पहले प्रात्मा को शांति और स्वतन्त्रता प्राप्त रहती है, पदार्थ मिलने पर वह चली जाती है। उससे बन्धन में भी पड़ जाना होता है । उदाहरण के लिए किसी पैदल जाते हए को घोड़ा मिल गया । घोड़ा पाकर वह आदमी कुछ देर के लिए चाहे ऐसा समझे कि मुझको शांति मिली है और मैं स्वतन्त्र हुआ हूँ परन्तु वास्तव में घोड़ा पाकर वह दुःखी तथा परतन्त्र हुआ है । अब उसे घोड़े की चिन्ता ने और प्रा घेरा । वह पैदल चाहे जहां और जब जा सकता था, घोड़ा लिए हुए वहां और उस समय नहीं जा सकता । इसी प्रकार संसार के अन्य समस्त पदार्थों के लिए भी समझ लेना चाहिए । संसार के समस्त पदार्थ, स्वतन्त्रता का हरण करने वाले, परतन्त्र बनाने वाले
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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