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________________ (१६) ने उसकी गणना, सत्य में नहीं की है -जैसे सूयगडाङ्ग सूत्र में कहा है - सच्चेसु वा अणवज्जं वयन्ति । 'ज' वाक्य पाप-रहित और दूसरे को पीड़ा उत्पन्न करने वाला न हो, वही सत्य है । यानी जिस वाक्य से दूसरे को पीड़ा हो, वह सत्य नहीं है ।' दश वैकालिक सूत्र में मुनियों को भाषा-प्रयोग का उपदेश देते हुए कहा है - तहेव कारणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वा । वाहियं वावि रोगित्ति, तेरणं चोरत्ति नो वए । 'काने को काना, नपुंसक को हीजड़ा, व्याधिग्रस्त को रोगी, चोरी करने वाले को चोर, ऐसा कटु वाक्य यथार्थ होते हुए भी न कहना चाहिये । यह सत्य नहीं कहलाता, क्योंकि इस से दूसरे के हृदय को दुःख होता है ।' और कहा है - तहेव फरुसा भासा, गुरुभूगोवधाइरणी । सच्चामोसा न वत्तव्वा जो पावस्स आगमो।। 'शंकित भाषा के समान कठोर भाषा, सत्य होने पर भी लोक में प्राणियों का घात करने वाली अर्थात् अत्यन्त अनर्थकारक होती है ! अतः कटु सत्य का भी प्रयोग न करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि वह सत्य, जिसके कथन से दूसरे के
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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