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( २० )
हृदय को दुःख पहुंचे, सत्य नहीं, वरन् असत्य है । मनुस्मृति में भी कहा है
हीनाङ्गानतिरिक्तान् विद्याहीनान् वयोऽधिकान् । रूपद्रव्यविहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत् ॥
भावार्थ - हीन अंग वाले को कारणा इत्यादि, अधिक अङ्ग वाले को छः उङ्गली वाला ग्रादि, अविद्वान् को मूर्ख, अधिक आयु वाले को बूढ़ा डोसा आदि, रूपहीन को कुरूप, द्रव्यहीन को कङ्गाल और हीन जाति वाले को नीच आदि शब्दों से न कहे । यद्यपि यह भाषा यथार्थ है, किन्तु इन वाक्यों से सुनने वाले का दिल दुखता है, इसलिये ऐसा 'सत्य', सत्य नहीं है ।। १ ।।
योगदर्शन के भाष्य में वेदव्यासजी ने कहा है
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एषा सर्वभूतोपकारार्थप्रवृत्ता न भूतोपघाताय, यदि चैवमप्यभिधीयमाना, भूतोपघाताय परैव स्यात् न सत्यं भवेत् ।
वाक्यों का प्रयोग, इस प्रकार से करना चाहिए, जिससे जीवों का मङ्गल हो । किसी को भी दुःख न हो । यदि वाक्य के ठीक-ठीक उच्चारण से भी दूसरे को दुःख हो तो वह सत्य नहीं, वरन् असत्य है ।
शास्त्रकारों और विद्वानों ने तो इस प्रकार उस सत्य की, जो दूसरे के हृदय को दुखित करे, निन्दा करके उसे असत्य बतलाया ही है, परन्तु ऐसे कटु सत्य का प्रयोग करने वाला संसार में भी निंद्य समझा जाता है । इसीलिये जिस