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(१८) विणिपायवड्ढणं-भवपुणब्भवकरं चिरपरिचिप्रमणुगयं दुरंत कित्तियं वीयं अहम्मदारं ।
दूसरा आस्रवद्वार, अलीक वचन यानी मिथ्या-भाषण है । यह मिथ्या-भाषण, लघु-अर्थात् जो गुण-गौरव से होन हैं, उनके द्वारा सेवन किया जाता है । यह भय, दुःख अकीर्ति और वैर को बढ़ाता है तथा अरति [पारलौकिक विषयों से द्वेष] रति [सांसारिक विषयों से प्रेम और रागद्वेष रूप मन को क्लेश का देने वाला है । मिथ्या-भाषण करने से मनुष्य का विश्वास नहीं रहता और इससे प्राणियों की हिंसा भी होती है। इस मिथ्या-भाषण के कारण प्राणी को बार बार संसार में जन्म-मरण करना होता है । यह अनादि काल से चले आते हुए संसार में प्राणियों के साथ लगातार चलता आया है । इसका परिणाम बहुत ही भयंकर होता है । यह अधर्म का दूसरा द्वार है ।।
असत्य अस्वाभाविक, अवास्तविक और कृत्रिम वस्त है । मनुष्य को असत्य उसी प्रकार सीखना पड़ता है, जैसे ठग या चोर किसी को अपना गुरु बना कर उससे शनैः शनैः चोरी और ठगाई की कला सीखता है । सीखने के पहिले, जैसे मनुष्य में ये दुर्गुण नहीं होते, उसी प्रकार मनुष्य के स्वच्छ हृदय में असत्य भी नहीं होता है ।
___ जो कार्य, बात और विचार, मन, वचन या काया से अयथार्थ और दूसरे के हृदय को दुःख देने वाला हो, उसको 'असत्य' कहते हैं । असत्य अयथार्थ तो है ही, परन्तुं जिस बात, कार्य या विचार से दूसरे को दु.ख .पहुंचे तो उसके वास्तविक और यथार्थ होने पर भी शास्त्रकारों और विद्वानों