________________
( १४६ )
उतने ही अंश में नष्ट होता जाता है और मैथुन के आठों अंगों की पूर्ति होने पर, पूर्ण रूपेण नष्ट हो जाता है । मैथुन और ब्रह्मचर्यं परस्पर विरोधी हैं, इसलिए जहां एक है, वहां दूसरा नहीं ठहर पाता ।
मैथुन और मैथुनाङ्ग का नाम ही ब्रह्मचर्य है । वीर्यं भी मैथुन से ही नष्ट होता है । इन्द्रियों का दुर्विषय- लोलुप होना ही मैथुन है और मैथुन ही इन्द्रियों की दुविषयलोलुपता है ।
१ - प्रांशिक मैथुन सेवन से हानि
मैथुन के किसी भी एक ग्रंग के सेवन से अर्थात् आंशिक रूप में ब्रहमचर्य खण्डित होने से मैथुन का सर्वाङ्ग में सेवन और ब्रह्मचर्य का नाश होना स्वाभाविक है क्योंकि मैथुन के किसी भी एक अंग के सेवन से एक न एक इंद्रिय दुर्विषय - लोलुप बनेगी ही, और किसी भी एक इन्द्रिय के दुर्विषयलोलुप बन जाने पर सभी इन्द्रियां दुर्विषय - लोलुप बन जाती हैं । उदाहरण के लिये, यदि कान स्त्री शब्द में सुख मानते हैं, तो नाक उनके शरीर की गन्ध में, जीभ उनसे संभाषण करने में, नेत्र उनका रूप देखने में और त्वचा उनका स्पर्श करने में सुख मानेगी । क्योंकि -
इन्द्रियाणां तु सर्वेषां यद्येकं क्षरतीन्द्रियम् । तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृतेः पादादिवोदकम् ||
"
जिस प्रकार जल की जाने पर फिर उसमें जल नहीं
( मनुस्मृति अ० २ )
मशक में एक भी छेद हो ठहरता, उसी प्रकार सब