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( १४५) मैथुन की व्याख्या इस प्रकार की है
स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षरणं गुह्यभाषणम् । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च ॥ एतन्मथुनमष्टांगं प्रवदन्ति मनीषिणः । विपरीतं ब्रह्मचर्यमेतदेवाष्टलक्षणम् ॥
" स्मरण, कीर्तन, केलि, अवलोकन, गुप्तभाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रिया-निष्पत्ति, ये मैथुन के आठ अंग हैं। इन लक्षणों से परे रहने का नाम ब्रह्मचर्य है ।"
देखी या सुनी हुई स्त्रियों की याद करना, “ स्मरण नामक मैथुन का पहला अंग है । स्त्रियों की प्रशंसा करना, उनके विषय में बात-चीत करना-" कीर्तन" मैथुन का दूसरा अंग है । स्त्रियों के साथ किसी प्रकार के खेल खेलना "केलि" मैथुन का तीसरा अंग है । काम दृष्टि से किसी स्त्री को देखना, “प्रेक्षण" मैथुन का चौथा अंग है। स्त्रियों से छिप कर बातें करना " गुह्य भाषण" पांचवां अंग है। स्त्री सम्बन्धी भोग भोगने का विचार लाना “संकल्प मैथुन" का छठा अंग है । स्त्री-प्राप्ति की चेष्टा करना, "अध्यवसाय" नाम का सातवां और स्त्री सम्भोग द्वारा वीर्य नष्ट करना, "क्रियानिष्पत्ति" मैथुन का आठवां अंग है ।।
ब्रह्मचर्य के विरोधी प्रब्रह्मचर्य-मैथुन के उक्त आठ अंगों में से जिस-जिस अंग की पूर्ति होती जाती है, ब्रह्मचर्य * जिस प्रकार पुरुषों के लिये स्त्री संबन्धी आठों कार्य त्याज्य हैं इसी इसी तरह स्त्रियों के लिये पुरुष संबन्धी आठों बातें त्याज्य हैं।