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अब्रह्मचर्य से हानि
जहा व किपागफला मणोरमा,
रसेण वण्णोण य भुज्जमाणा । ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा, एप्रोवमा कामगुणा विवागे ।।
. (उत्तराध्ययन सूत्र ३२ वां अ०)
" जिस प्रकार किंपाकफल वर्ण और रस से मनोरम और स्वादिष्ट होते हैं, परन्तु खाने पर मत्यू का ग्रालिंगन करना पड़ता है, उसी प्रकार काम--भोग भोगने में तो अच्छे लगते हैं, परन्तु उनका परिणाम बहुत दुःखदायी होता है। इसलिये काम-भोग को त्यागो ।
इन्द्रियों का दुर्विषय-लोलुप न होने और वीर्य का पूर्णरूपेण सुरक्षित रहने का नाम ही ब्रह्मचर्य है । इसके विपरीत अर्थात् इन्द्रियों का दुर्विषयलोलुप होने, दुर्विषय-भोग में सुख मानने और वीर्य खण्डित करने का नाम अब्रह्मचर्य है। अब्रह्मचर्य का दूसरा नाम मैथुन भी है, लेकिन मैथुन में मैथुनाङ्ग भी शामिल है। ग्रन्थकारों ने ब्रह्मचर्य का रूप बताने के लिये