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इन्द्रियों में से एक भी इन्द्रिय के विषय - लोलुप बनने पर बुद्धि नष्ट हो जाती है ।
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बुद्धि के नष्ट होने पर इन्द्रिय- संयम कहां ? स्वभावतः विषय - प्रिय इन्द्रियाँ फिर तो दुविषयों की ही ओर दौड़ती हैं । बुद्धि के नष्ट हो जाने से इन्द्रियाँ निरंकुश हो जाती हैं और फिर आत्मा को दिन-प्रतिदिन पतन की ही ओर अग्रसर करती हैं । नष्टबुद्धि इन्द्रियों के वश होकर, यह सिद्धान्त मानने लगता है :
श्रसत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् । अपरस्परसंभूतं किमन्यत्काम हेतुकम् ॥ ( गीता अ० १६ )
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जगत् असत्य, निराधार और अनीश्वर है । यह यों
ही बना है । काम के सिवा इस संसार के बनने का दूसरा क्या हेतु हो सकता है ?"
इस सिद्धान्त को मान कर, फिर
ईहन्ते कामभोगार्थ मन्यायेनार्थ संचयान्
( गीता अ० १६ )
तात्पर्य यह है कि मैथुन के किसी एक भी अंग के सेवन से अर्थात् एक भी इन्द्रिय की दुविषय- लोलुपता से ब्रह्मचर्य पूर्ण रूपेण अपना
ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है और
श्राधिपत्य जमा लेता है :
२ -- ब्रह्मचर्य की निन्दा और उससे हानि