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( १४८ ) संक्षिप्त में अब्रह्मचर्य से तात्पर्य है-दुर्विषयभोग, मैथुन, या वीर्य का खण्डित करना । जैन-शास्त्रों ने ही नहीं, किन्तु अन्य ग्रन्थकारों ने भी इस अब्रह्मचर्य की लौकिक और लोकोत्तर दोनों ही दृष्टियों से बड़ी निन्दा की है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में अब्रह्मचर्य को चौथा अधर्म-द्वार मानते हुए कहा है_____ जम्बू ! अबंभं सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पत्थपिज्जं पंकपणगपासजालभूगं थोपुरिसनपुसवेदचिध, तवसंजमबंभचेरविग्धं, भेदायतणबहुपमायमूलं, कायरकापुरिससेविगं, सुयणजणवज्जरिणज्ज, उद्धृनिरयतिरियतिलोक्कपइट्ठाणं, जरामरणरोगसोगबहुलं, वधबंधविघातदुविघायं, सणचरित्तमोहस्स हेउभूयं, चिरपरिगयमणुगयं दुरंतं ।
" हे जम्बू ! चौथा अधर्म-द्वार अब्रह्मचर्य है । देव, असुर, मनुष्य, लोकपति आदि इस अब्रह्मचर्य-रूपी कीचड की दलदल में फंसे हुए हैं । देव, असुर, मनुष्यादि को यह जाल के समान फंसाने वाला है । पुरुषों के लिए यह नपूसकत्व का कारण है । तप, संयम ब्रह्मचर्य के लिए विघ्नरूप है, अर्थात् इन्हें नाश करने वाला है । विषय कषाय आदि प्रमादों का मूल है । इन्द्रियों के समीप जो कायर तथा कापूरुष हैं, उन लोगों द्वारा सेवित एवं सज्जनों द्वारा निन्दित वर्ण्य है । तीनों लोक में अप्रतिष्ठित एवं जरा मृत्यु रोग शोक की वृद्धि करने वाला है । बध, बन्धन, आघात