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राजा जनक के विषय में भी प्रसिद्ध है । कहा जाता है कि उनके पास शुकदेवजी ज्ञान सीखने के लिए गये । उन्होंने जनक के द्वार पर जाकर अपने आने की सूचना राजा के पास भेजी, जिसके उत्तर में राजा ने उन्हें द्वार पर ही ठहरे रहने का कहलाया । शुकदेव जी तीन दिन तक जनक के द्वार पर ही ठहरे रहे । चौथे दिन जनक ने उन्हें अपने पास बुलाया । राजा जनक के सन्मुख जाकर शुकदेव जी ने देखा कि राजा अच्छे सिंहासन पर बैठा है और उस पर चंवर छत्र हो रहा है । शुकदेवजी सोचने लगे कि पिता ने मुझे इसके पास क्या सीखने भेजा हैं ? यह माया में फंसा हुआ राजा मुझको क्या ज्ञान देगा ? शुकदेवजी इस प्रकार सोच ही रहे थे, इतने ही में राजा के पास खबर आई कि नगर में आग लग गई है । फिर खबर आई कि आग महल तक आ गई है । तीसरी
है
और नगर जल रहा
द्वार घेर लिया है ।
बार खबर आई कि आग ने महल का राजा जनक इन सब खबरों को सुनकर किंचित् भी नहीं घबराये, किन्तु वैसे ही प्रसन्न बने रहे ; लेकिन शुकदेवजी चिन्तित हो गये । राजा ने उनसे पूछा कि नगर या महल में आग लगने से आपको चिन्ता क्यों हो गई ? शुकदेवजी ने उत्तर दिया कि मेरा दण्ड और कमण्डल द्वार पर ही रखा है, मुझे उन्हीं की चिन्ता है कि कहीं वे न जल जावें । राजा ने उत्तर दिया कि मुझको महल और नगर जलने की भी चिन्ता नहीं है, न दुःख ही है और आपको दण्ड और कमण्डल की चिन्ता हो गई ! इस अन्तर का क्या कारण है ? यही कि में राज्य करता हुआ और नगर तथा महल में रहता हुआ भी इनसे निर्ममत्व रहता है, इनको अपना नहीं मानता और आप दण्ड- कमण्डल को अपना ' मानते