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________________ ( ३३३ ) हैं। आपको आपके पिता ने मेरे पास यही ज्ञान लेने के लिये भेजा है कि जिस प्रकार मैं निर्ममत्व रहता हूँ, उसी प्रकार निर्ममत्व रहो । संसार के किसी भी पदार्थ को अपना मत समझो, न किसी पदार्थ से अपना स्थायी सम्बन्ध मानो, किन्तु यह मानो कि आत्मा अजर अमर तथा अविनाशी है और संसार के समरत पदार्थ हैं नाशवान । इसलिए प्रात्मा का सांसारिक पदार्थों से कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है । शास्त्र में नमीराज विषयक वर्णन भी ऐसा ही है । नमीराज को जब संसार की असारता का ज्ञान हो गया था और वे विरक्त हो गये थे, उस समय उनकी परीक्षा करने के लिए इन्द्र ने ब्राह्मण का वेश बनाकर उनसे कहा था कि वह देखो, तुम्हारी मिथिलामगरी जल रही है । तब नमीराज ने उत्तर दिया था सुहं वसामो जीवामो जेसि मे नत्थि किंचरणं । मिहिलाए डज्झमारणीए न मे डज्झइ किंचरणं ॥ अर्थात् - मैं सुख से रहता हूँ और सुखपूर्वक ही जीवित हूँ; महल और मिथिलानगरी से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। मिथिलानगरी के जलने से मेरा कुछ भी नहीं जलता है । तात्पर्य यह कि मर्यादा में रहे हुए पदार्थों से भी ममत्व न करना, किन्तु निर्ममत्व रहना। उनकी प्राप्ति से प्रसन्न न होना, न उनके वियोग से दुःख करना । निर्ममत्व रहने साथ ही कृपण भी न रहना । चाहे कृपण हो या उदार, सांसारिक पदार्थ निश्चय ही छूटते हैं;
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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