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________________ ( ३३४ ) लेकिन उस समय में जैसा दु:ख कृपण को होता है, वैसा उदार को नहीं होता। श्रावक अपने व्रत की मर्यादा में जो द्रव्य शेष रखता है, उसे केवल अपने ही सुख के लिए नहीं समझता, उसे अपना ही नहीं मान बैठता । यह नहीं करता कि दूसरे आदमी चाहे उस वस्तु के लिए कष्ट पाते रहें और श्रावक उस वस्तु को दबाये बैठा रहे । श्रावक अपनी मर्यादा में जो धन धान्यादि रखता है, उससे स्वयं भी सांसारिक कार्य चलाता है और दूसरों की भी सहायता करता है। उसके पास जो धन-धान्य होता है, उसे वह आवश्यकता के समय जनता के हित में व्यय कर देता है, दुष्कालादि के समय उसके द्वारा लोगों की रक्षा करता है, लोगों की सहायता करता है। जो धन मर्यादा में रखा है, उसे पकड़ कर बैठ जाना व्यावहारिक दृष्टि से भी अनुचित है अर्थात् उसे जमीन में गाड़ देना या तिजोरी में बन्द करके रख छोड़ना ठीक नहीं । जब सम्पत्ति एक या कई जगह केन्द्रित होकर रुक जाती है, व्यवहार में नहीं आती, तब साधारण जनता को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इसलिए 'यह सम्पत्ति तो हमारी मर्यादा में ही है' ऐसा समझ कर सम्पत्ति को व्यवहार से वंचित रखना, जनता को कष्ट में डालना है। भारत में गेंद के खेल की जो प्रथा है, उससे एक शिक्षा भी मिलती है । गेंद होता तो है किसी एक व्यक्ति का ही, परन्तु उससे खेलते अनेक आदमी हैं। अनेक आदमी मिलकर, परस्पर उसका आदान प्रदान करते हैं । कोई एक आदमी
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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