________________
( ३३१ ) बनने के लिए इच्छा-परिमाण व्रत स्वीकार करना प्रावश्यक है।
इच्छा-परिमाण व्रत स्वीकार कर लेने पर धर्म-कार्य में भी मन लगता है । मन में वैसी चंचलता और अस्थिरता नहीं रहती, जैसी चंचलता और अस्थिरता अनन्त इच्छा वाले में रहती है । जिसने अपनी इच्छा को जितना अधिक संकोच लिया है, उसका मन धर्म-कार्य में उतना ही अधिक लगता है। वह निष्काम भाव से धर्म-कार्य करता है, धर्म-कार्य के बदले में चाहता कुछ नहीं है। इसके लिए पूनिया श्रावक की कथा प्रसिद्ध ही है, जो केवल बारह आने की पूँजी से व्यापार व्यवसाय करता था और जिसकी सामायिक की प्रशंसा स्वयं महावीर भगवान् ने की थी।
__इच्छा का परिमारण करके भी, यथाशक्ति उन पदार्थों से निर्ममत्व ही रहना चाहिए, जो पदार्थ मर्यादा में रखे गये हैं । मर्यादा में रखे गये पदार्थों में वृद्धि न होनी चाहिये । यदि मर्यादा में रहे हए पदार्थों में वृद्धि न रही, उनसे निर्ममत्व रहे, तो पदार्थों का सर्वथा त्याग न कर सकने पर भी वह व्यक्ति एक प्रकार से अपरिग्रही के समान ही माना जायेगा और उसको बहुत अंश में लाभ भी वैसा ही होगा। भरत चक्रवर्ती छः खण्ड पृथ्वी के स्वामी थे। लेकिन वे उस राज्य-सम्पदा के प्रति निर्ममत्व रहते थे, इस कारण उन्हें कांच-महल में ही केवलज्ञान हो गया । नेमीराज के पास समस्त राज्य-सम्पदा विद्यमान थी और वे राज्य भी करते थे, फिर भी 'राजर्षि' कहे जाते थे । इसका कारण यही था कि वे राज्य में मूछित नहीं रहते थे । नेमीराज की ही तरह