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जोर है, तभी तक वस्तु मेरे पास रह सकती है । उस दशा में इसे कोई नहीं ले जा सकता और पुण्य का जोर हटने पर वस्तु मेरे पास नहीं रह सकती । चाहे मैं लाखों प्रयत्न या दुःख करू, समय आने पर वस्तु चली ही जाती है । फिर मैं चिन्ता या दुःख क्यों करू ?
इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने वाले को मरण के समय भी दुःख नहीं होता । इच्छा का परिमाण न करने वाले महा-परिग्रही को मरण समय में भी घोर कष्ट होता है-'हाय ! मेरी प्रिय सम्पत्ति आज छूट रही है । इस दुःख के कारण उसके प्राण शान्ति से नहीं निकलते, किन्तु बड़े कष्ट से निकलते हैं। जिसने भारत को बड़ी बूरी तरह लूटा था, वह महमूद गजनवी जब मरने लगा, तब उसने अपनी सारी सम्पत्ति अपने सामने मंगवाई और उस सम्पत्ति को देख देख कर वह रोने लगा। उसके रोने का वास्तविक कारण क्या था, यह निश्चय-पूर्वक तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु हो सकता है कि वह सम्पत्ति छूटने के दुःख से रोया हो । महापरिग्रही को ऐसा दुःख होता ही है । उसे मरते समय आर्तरौद्र ध्यान आता है, जो दुर्गति का कारण है । इच्छा परिमाण व्रत स्वीकार करने वाला इससे बचा रहता है।
श्रावक के लिए परिग्रह परिमाण व्रत स्वीकार करना आवश्यक है । वह जब तक अपनी इच्छा को सीमित नहीं कर लेता, तब तक निर्ग्रन्थ प्रवचन पर प्रगाढ़ आन्तरिक रुचि नहीं ला सकता और महापरिग्रही है। उस में निग्रन्थ धर्म का लेश भी नहीं हो सकता । निर्ग्रन्थ धर्म का पात्र