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श्रावक के लिए त्याज्य श्रसत्य
नास्ति सत्यात्परो धर्मो, नानृतात्पातकं परम् । स्थितिहि सत्यधर्मस्य, तस्मात् सत्यं न लोपयेत् ॥
- महाभारत, शांतिपर्व ।
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सत्य के समान धर्म नहीं है, न असत्य के समान पाप ही है । धर्म सत्य के आश्रय से टिकता है. इसलिए सत्य का लोप कभी न करना चाहिए ।
जैन - शास्त्र में पंच महाव्रत बतलाये गये हैं । उन पंच महाव्रतों में पहला महाव्रत अहिंसा का पालन और हिंसा का त्याग है तथा दूसरा महाव्रत सत्य का धारण और मृषावाद का त्याग है । इन महाव्रतों को साधु तो सम्पूर्ण और सूक्ष्म रूप से धारण करता है, लेकिन श्रावक गृहस्थ होने के कारण पूर्ण रूप से धारण करके इनका पालन नहीं कर सकता । अहिंसा व्रत पूर्ण रूप से पालन करने में छः काय के जीवों की हिंसा का त्याग होता है और श्रावक गृहस्थ होने के कारण उन्हें खेती, व्यापारादि संसार के आवश्यक कार्यों को करना पड़ता है । इन सांसारिक कार्यों में वह सर्वथा जीव - हिंसा से बच सके, यह असम्भव है । इसी बात को ध्यान में रख कर शास्त्रकारों ने श्रावक को ऐसा अहिंसा