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________________ ( १७२ ) विभूसं परिवज्जिजा सरीरपरिमण्डनं । बंभचेरर भिक्खु सिंगारत्थं न धारए । - उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय १६ व ब्रह्मचर्य में रत साधु, शरीरमण्डन अर्थात् शरीर, नख, केश आदि का संस्कार करना और श्रृंगार-वस्त्रादि से शरीर को शोभित करना सर्वथा त्याग दे । ७- निवास ब्रह्मचारी ऐसे स्थान का सेवन कदापि न करे जहां स्त्रियों का निवास या श्रागमन हो । प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों में से एक गुप्ति इसी विषय में है, जो इस प्रकार है नो इत्थोपसुपंडगसंसत्ताणि सिंज्जासणाणि सेवित्ता भवइ । जिस स्थान पर स्त्री, पशु या नपुंसक रह्ते हों, उस स्थान पर, ब्रह्मचारी निवास न करे । स्त्री के साथ एकान्त में निवास करना भी ब्रह्मचर्य के लिये घातक है । एकान्त में रहने से कुभावनाओं के जन्म और ब्रह्मचर्य के खण्डित होने का भय रहता है | चाहे कोई कितना ही दृढ़-प्रतिज्ञ क्यों न हो, एकान्तवास ब्रह्मचर्य का घातक ही है । ८-- अध्ययन ब्रह्मचारी को ऐसी पुस्तकें भी कदापि न पढ़नी
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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