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बात अपनी समझ में आई है, ठीक वही सुनने वाले की समझ में आये, उसका नाम 'सत्य' है ।
जिसके द्वारा अवास्तविक बात विचार और कार्य का विरोध होता है, तथा जिसके प्रकट हो जाने पर अवास्तविक विचार, बात और कार्य नहीं ठहर सकते हैं, उसे 'सत्य' कहते हैं अर्थात् वास्तविक विचार, बात और कार्य ही सत्य हैं । महाभारत में कहा है :
श्रविकारितमं सत्यं सर्ववर्णेषु भारत ।
सभी वर्गों में सदा विकार रहित रहने वाले का नाम ही 'सत्य' है ।
सत्य की मूर्ति किसी पाषाण की बनी हुई नहीं होती है, न इसका कोई स्थान ही नियत है । यह देह में स्थित जीव के समान सब जगह मौजूद है । कोई वस्तु या स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ सत्य न हो। जिस वस्तु में सत्य नहीं है, वह वस्तु किसी काम की नहीं रहती और उसका नाम भी बदल जाता है । जैसे सूर्य में सत्य वस्तु 'प्रकाश' है । यदि सूर्य में से प्रकाश निकल जाय, तो उसे सूर्य कोई न कहेगा । दूध में सत्य वस्तु 'घृत' है । यदि घृत निकल जाय तो उसे दूध कोई न कहेगा । तात्पर्य यह है कि 'सत्य' उस स्वाभाविक और वास्तविक वस्तु का नाम है, जिसके होने पर किसी वस्तु, विचार, कार्य आदि के नाम, रूप तथा गुण में परिवर्तन न हो सके और जिसके न रहने पर ये तीनों या इनमें से कुछ बातें बदल जाएँ ।