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________________ (६) स्वभावतः मनुष्य के हृदय में एक से एक उत्तम गुण विद्यमान है । उत्तम गुण सीखने के लिए मनुष्य को कहीं जाना नहीं पड़ता, वे तो सर्वथा स्वाभाविक होते हैं । यदि मनुष्य कुसंग में पड़ कर बुरी बातें अपने हृदय में न भर ले और जन्म से ही सत्य के वातावरण में पले तो संभवतः वह असत्याचरण का विचार भी न करे । यदि किसी शिशु को सत्यासत्य विवेक का उपदेश न भी दिया जाय किन्तु असत्य आचरण उसके सामने न किया जाय तो निश्चिय ही वह सत्य का अनुगामी बनेगा । सारांश यह है कि सत्य एक प्राकृतिक गुण है और असत्य अस्वाभाविक है, आरोपित है। सत्य एक व्यापक और सार्वभौम सिद्धांत है । संसार में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं और उनके सिद्धांत भी पृथक पृथ्क हैं। बहुत से मतों के ऊपरी सिद्धांत तो इतनी भिन्नता रखते हैं कि एक मतानुयायी दूसरे मतानुयायी से मिल नहीं पाता । बल्कि इन्हीं ऊपरी सिद्धान्तों को लेकर प्रायः आपस में महायुद्ध मचा देते हैं । ऐसा होते हुए भी, सब मतावलम्बी, यदि गम्भीरतापूर्वक निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो मालूम होगा कि धर्म की नींव 'सत्य' के ऊपर ही है और वह सत्य सब के लिए एक है । उस सत्य को समझ लेने पर, वे ही लोग, जो आपस में धर्म के नाम पर द्वेष करते हैं, द्वेष-रहित होकर एक दूसरे से गला मिला कर भाई की तरह प्रेमपूर्वक रह सकते हैं । सत्य का पूजन प्रत्येक मनुष्य कर सकता है। इसके लिए जाति विशेष या धर्म विशेष का कोई -बन्धन नहीं है। बल्कि जो कोई सत्याचरण करता है, वह पूरा धर्मात्मा बन
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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