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________________ ( ४ ) जान सकते हैं, जिन्हें सत्य हृदय से प्यारा है, जो सत्य के उपासक हैं या उसकी उपासना करना चाहते हैं और सत्य के सामने त्रिलोकी की सम्पदा को ही नहीं, वे अपने प्राणों को भी तुच्छ समझते हैं । जो किसी एक सम्प्रदाय, पंथ या मजहब के पीछे उन्मत्त है, जो स्वार्थ को सर्वोपरि समझकर सत्य-असत्य की परवाह नहीं करता, जो सत्य-असत्य का विवेक न करके केवल हाँ में हाँ मिलाना ही जानता है, ऐसा मनुष्य सत्य को नहीं पहचान सकता । जिस विचार, बात और कार्य का त्रिकाल में भी पलटा न हो, जिसको अपनी आत्मा निष्पक्ष भाव से अपनावे, जिसके पूर्णरूप से हृदय में स्थित हो जाने पर भय, ग्लानि, अहंकार, मोह, दम्भ, ईर्ष्या, द्व ेष, काम, क्रोध, लोभ आदि कुत्सित भाव निःशेष हो जायें, जो भूत में था, वर्तमान में है। और भविष्य में होगा तथा जिसके होने पर आत्मा को वास्तविक शांति प्राप्त हो, उसी का नाम 'सत्य' है । वेदव्यासजी ने सत्य की व्याख्या निम्न प्रकार से की है : सत्यं यथार्थे वाङ मनसे, यथादृष्टं यथा नुमितं यथाश्रुतं वाङ मनश्चेति परत्र बोधसंक्रान्तये वागुक्ता सा यदि न वञ्चिता भ्रांता वा प्रतिपत्तिबाध्या वा भवेदिति । -योगदर्शन भाष्य सा० पा० ३ मन सहित वाणी के यथार्थ होने का नाम 'सत्य' है । यानी जैसा देखा, समझा और सुना है, दूसरे को कहते समय मन और वाणी का ठीक वैसा ही प्रयोग हो, उसे 'सत्य' कहते हैं । देख, सुन और समझकर सम्यक् प्रकार से जो
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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