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और अब्रह्मचर्यपूर्ण जीवन अस्वाभाविक एवं कठिन प्रतीत होता है । ज्ञान-मार्ग द्वारा प्राप्त रक्षण, स्वरूप-चिन्तन या प्रात्मविवेक से उत्पन्न हुआ होता है, इसलिये ऐकान्तिक और प्रात्यन्तिक है; कभी नष्ट नहीं होता । लेकिन क्रिया-मार्ग द्वारा प्राप्त रक्षण, ऐकान्तिक या आत्यन्तिक नहीं है । क्रिया में किंचित् भी ढिलाई होने से, अब्रह्मचर्य के सूक्ष्म संस्कारों का उग्ररूप होना सम्भव है । यद्यपि इन दोनों उपायों में से उत्तम उपाय ज्ञान-मर्ग है, फिर भी जिस ब्रह्मचारी ने ज्ञानमार्ग को पूरी तरह अपना लिया है, उसको क्रिया-मार्ग की उपेक्षा करना, कदापि उचित नहीं है क्योंकि क्रिया-मार्ग को त्याग देने से व्यवहार में भी धोखा हो सकता है। ब्रह्मचारी-अब्रह्मचारी की पहचान भी नहीं रहती और क्रियाशून्य ज्ञान, पूर्णतया लाभप्रद भी नहीं है ।
२-क्रिया-मार्ग से ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा ।
क्रिया-मार्ग में बाह्य नियमों का समावेश है । क्रियामार्ग द्वारा, ब्रह्मचर्य-व्रत की रक्षा के लिये, प्रश्नव्याकरण सूत्र में पांच भावनाएं बताई गई हैं, जो इस प्रकार हैं :१-केवल स्त्रियों से सम्बन्ध रखने वाली कथाओं को, स्त्रियों
के सन्मुख या अन्यत्र न कहे । २-स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियां न देखे । ३ - स्त्रियों के रूप को न देखे । ४-काम-भोग बढ़ाने वाली वस्तुओं को न देखे, न कहे, न
स्मरण करे । ५-कामोत्तेजक पदार्थ न खावे-पीवे ।