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नहीं मिल.सकती । यह बात दूसरी है कि परदारगामी पुरुष की स्त्री अपना धर्म विचार कर स्वयं ही सदाचारिणी रहे, लेकिन परदारगामी पुरुष को सैद्धान्तिक-रूप में यह अधिकार नहीं रहता कि यह अपनी स्त्री को सदाचारिणी रहने के लिए बाध्य कर सके । यह अधिकार उसे तभी हो सकता है, जब वह भी सदाचार का पालन करता हो । बल्कि स्त्रियों को पर-पुरुष-गामिनी बनाने वाले, परदार-गामी पुरुष ही हैं । ज्यादातर स्त्री स्वयं ही पर-पुरुष-गामिनी नहीं होतो, किन्तु परदारगामी-पुरुष ही अपने लिए किसी स्त्री को पर-पुरुष-गामिनी बनाता है अतः अपनी स्त्री को पतिव्रता, सदाचारिणी और पतिपरायणा रखने के लिए भी स्वदार-सन्तोष-व्रत स्वीकार करके पालन करना चाहिये ।
७-स्व-स्त्री सेवन की मर्यादा यद्यपि इस व्रत में स्व-स्त्री का आगार रहता है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि स्व-स्त्री से भी मथुन करने में स्वच्छन्दता से काम लिया जावे क्योंकि इस व्रत का नाम, स्वदार सन्तोष है । स्वदार-रमण नाम नहीं है । यदि स्वदार-रमण नाम होता तब तो स्व-स्त्री के सेवन में स्वच्छन्दता को स्थान हो सकता था, लेकिन स्वदार-सन्तोष नाम में स्वच्छन्दता को स्थान ही नहीं रहता। इसलिए आगार होने पर भी, स्वदार-सेवन में नीतिकारों की बताई हुई मर्यादा का पालन करना आवश्यक है। नीतिकारों का कथन है:
सन्तानार्थञ्च मथुनम् । 'मैथुन का विधान सन्तान उत्पन्न करने के लिए ही है।'