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वैद्यक मतानुसार, रजोदर्शन से पूर्व स्त्री-पुरुष का संसर्ग सन्तानोत्पत्ति के लिए निरर्थक है और ऋतु स्नान के सिवा अन्य समय में किये गये मैथुन से वीर्य वृथा जाता है । इसलिये ग्रन्थकारों ने कहा है- रजोदर्शन से पहले स्त्रीसंसर्ग न करें । इस प्रकार ऋतु स्नान से पूर्व, स्त्री - सेवन का भी निषेध किया गया है । ऋतु स्नान से पूर्व स्त्री-सेवन द्वारा वीर्य को वृथा नाश करने वाले के लिए ग्रन्थकार कहते हैं:
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व्यर्थीकारेण शुक्रस्य ब्रह्महत्यामवाप्नुयात् ।
- निर्णयसिन्धु ।
वीर्य को वृथा खोने से ब्रह्महत्या का पाप होता है ।
इस प्रकार स्वच्छन्दता से अपनी स्त्री का सेवन करने का भी निषेध किया गया है । वैद्यक मतानुसार, स्व- स्त्री के साथ भी अति मैथुन करने से शारीरिक शक्ति क्षीण होती है, वीर्य पतला पड़ता है, सन्तान दुर्बल, अल्पायुषी और दुर्गुणी होती है । अति मैथुन करने वाला अच्छे कार्य नहीं कर सकता । ऐसा पुरुष यदि कभी अपनी स्त्री से अलग रहे, तो उसमें व्यभिचार दोष का प्रा जाना बहुत सम्भव है क्योंकि वह अपनी मैथुनेच्छा को रोकने में असमर्थ हो जाता है, इसलिए दुराचार में पड़ना आश्चर्य की बात नहीं । अति मैथुन से आंखों की ज्योति क्षीण हो जाती है, दांत गिर जाते हैं और शरीर से दुर्गन्ध आने लगती है । अति मैथुन के कारण क्षय, प्रमेह, स्वप्नदोष, नपुंसकता आदि रोग उत्पन्नं होते हैं और आयुर्बल कम होता है । वैद्यक ग्रन्थों में कहा है:
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