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( २२५) दुराचारी कहलाता है और वह अपनी स्त्री को भी सन्तुष्ट रखने में असमर्थ रहता है । ऐसे पुरुष का विश्वास, न स्व. स्त्री ही करती है, न परस्त्री ही । स्व-पत्नी से सदा कलह बना रहता है । घर दू खमय हो जाता है । सन्तान या तो होती ही नहीं और होती भी है तो रुग्ण, अल्पायुषी और दुराचारिणी क्योंकि माता-पिता के सद्गुण-दुर्गुण का प्रभाव सन्तान पर पड़ता ही है ।
परदार-गामी पुरुष की लोक में अत्यन्त निंदा होती है । कोई उसका विश्वास नहीं करता। सब लोग यहां तक कि अपनी स्त्री भी, उसे घणा की दृष्टि से देखती है । उसका जीवन, कलंकित, दूषित एवं पापपूर्ण रहता है । परस्त्री की इच्छा रखने वाले पुरुष की संचित कीर्ति भी नष्ट हो जाती है । यश उसके पास भी नहीं फट कता । धनवैभव उसे त्याग देते है । बल, सौन्दर्य, साहस और धैर्य का उस में प्रभाव-सा हो जाता है । वह दुर्गुणों और पातकों का घर बन जाता है । उसमें से सद्गुण निकल जाते हैं । भय, क्रोध, रोग, शोक, अपमान, दीनता आदि समस्त दुःख उसे घेर लेते हैं । कभी-कभी तो मृत्यु का भी प्रालिंगन करना पड़ता है । परदारगामी का मन सदैव कलुषित बना ही रहता है, जिससे नीति और धर्म से निषिद्ध कार्य भी सदा करता ही रहता है। इस प्रकार उसका इहलौकिक जीवन भी दु:खमय बन जाता है और परलोक में भी उसे नरक की घोर से घोर वेदना सहनी पड़ती है ।
पर-स्त्री सेवन की बुराइयां बताते हुए गांधीजी लिखते हैं कि 'जहां पर-स्त्री गमन न हो, वहां पर प्रतिशत पचास डाक्टर बेकार हो जावेंगे । पर-स्त्री गमन से होने वाले