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जिससे उसके द्वारा परस्त्री-सेवन का पाप नहीं होता। दुराचारी की अपेक्षा उसका शरीर बलवान, मेधावी और दीर्घायुषी होता है और सन्तान भी ऐसी ही होती है । अन्य ग्रन्थकारों ने भी इस व्रत का वहत माहात्म्य बताया है। पुराणों के रचयिता व्यासजी कहते हैं
स्वदारे यस्य सन्तोषः परदारनिवर्तनम् । अपवादोऽपि नो यस्य तस्य तीर्थफलं गृहे ॥
___-व्यास स्मृति । 'स्वदार में सन्तोष करने और पराई स्त्री से निवर्त्तने वाला पुरुष निन्दा से बच जाता है, उसका किसी प्रकार अपवाद नहीं होता तथा घर में ही उसे तीर्थ का फल मिल जाता है।'
स्वदार-संतोप व्रत स्वीकार करने से दाम्पत्य-प्रेम में भी वृद्धि होती है । पति-पत्नी में कलह नहीं होता । लोक में निन्दा नहीं होती, किन्तु विश्वासपात्र माना जाता है । धन, वैभव, बल, बुद्धि, यश, कीर्ति, निर्भयता और सद्गुण सुरक्षित रहते हैं । परलोक में भी वह उन दुःखों से बचा रहता है, जो परदार-गामी को प्राप्त होते हैं। जैन सिद्धान्त कहते हैं, ऐसा पुरुष राज्य-भण्डार में, अन्त.पुर में, साहुकार के भण्डार में और अन्यत्र कहीं जावे तो भी उसकी अप्रतोति नहीं होती।
४-परदार-गमन स्वदार-सन्तोष व्रत रहित यानी परदार-गामी पुरुष,