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को दण्ड देने का क्या अधिकार है ?
जब तक कोई स्वयं चोरी करता है, तब तक वह दूसरे को कैसे दण्ड दे सकता है ? दूसरे से किसी बात का पालन करवाने के लिये पहले स्वयं उसका पालन करना अत्यावश्यक है । आप स्वयं चोरी करें और दूसरे को चोरी के लिए उचित दण्ड दें, यह न्याय नहीं कहला सकता ।
जीवधारियों की चोरी भी द्रव्य की चोरी में शामिल है । किसी जीवधारी पर उसकी स्वयं की और यदि वह बेसमझ है तो उसके अभिभावक स्वामी आदि की आज्ञा के बिना अपना अधिकार करना, उसके द्वारा किसी रूप में लाभ उठाना, चोरी है । जैसे पशु, पक्षी, स्त्री, बालक आदि को बिना उनके स्वामी की आज्ञा के अपने अधिकार में करना, उन्हें बेच कर उनसे फायदा उठाना ।
किसी के घर, बाग, खेत, मार्ग, गांव, देश या राज्य पर बिना उसकी आज्ञा के अधिकार करना, उन्हें अपने काम में लेना या किसी प्रकार का फायदा उठाना, क्षेत्र की चोरी है।
वेतन, किराया, सूद, कमीशन आदि देने के लिये समय को न्यूनाधिक बताना, काल की चोरी है।
किसी कवि, लेखक, वक्ता के भावों को लेकर उन पर अपना रंग दे अपने बताना, किसी के उपकार को न मानना, शास्त्र या ग्रन्थ के किसी भाव को पलटना या छिपाना और उनके नाम पर अनुकम्पा को पाप में बताना, दूसरे का उपकार न करने के लिये लोगों को उपदेश देना आदि कार्यों की गणना भाव-चोरी में है ।