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(१२) जिस प्रकार___मा देह किंचि दारणं ।
. (प्र० व्या० सू० ) अर्थात् – जरा भी दान मत दो।
इस कथन की गणना भठ में की गई है। इसी प्रकार बहुत से कार्यों की गणना चोरी में भी की गई है । जैसेअदत्तादान विरमण व्रत का उपदेश करते हुए प्रश्न-व्याकरण सूत्र में कहा है
" इस व्रत को धारण करने वाला, दूसरे की निन्दा न करे, दूसरे के दोष न निकाले, दूसरे से द्वेष न करे, दूसरे के नाम पर. लाई हई वस्तू आप न भोगे, दूसरे के सुकृत, सच्चरित्रता और उपकार का नाश न करे, दूसरे को दान देने में विघ्न न करे और दूसरे के गुण सुन कर असह्य न बनावे क्योंकि ऐसा करना चोरी है ।" ..
दशवैकालिक सूत्र में कहा हैतवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । प्रायार-भावतेणे य, कुव्वइ देवकिविसं ॥
अर्थात्-जो आदमी तप, अवस्था, आचार और भाव को छिपाता है, दूसरे के पूछने पर स्पष्ट नहीं कहता, वहसाधु होने पर भी- किल्विष ( नोच ) देव की योनि में उत्पन्न होता है ।
गीता में कहा है