SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तैर्दत्ता न प्रदायभ्यो भुङक्त स्तेन एव सः । (अ० ३) अर्थात्-अपने पर जिसका उपकार है, जिससे अपने को सहायता मिली है, उसका बदला न चुकाना चोरी है । जिस वस्तु की कमी से दूसरे को हानि पहुंचती है, उस वस्तु का आवश्यकता से अधिक संचय करना या उपभोग करना भी एक प्रकार की चोरी है क्योंकि उस वस्तु का अधिक उपभोग करने वाले को भी हानि पहुंचती है, और वह चीज दूसरे को नहीं मिलती। इसलिये दूसरे की अन्तराय भी आती है । इसी प्रकार और भी बहुत से कार्यों की गणना भाव-चोरी में है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में चोरी के तीस नाम बतलाये हैं। इन नामों पर ध्यान देने से चोरी का व्यापक भाव समझ में पा सकता है । वे इस द्रकार हैं गुणानुसार चोरी के तीस नाम बताये जाते हैं । वे ये हैं- ( १ ) चोरी, (२) दूसरे के हकों को हरा जाता है, इसलिये ‘परहृत', (३) बिना दिया हुआ दूसरे का द्रव्य लिया जाता है, इसलिये ' अदत्त', ( ४ ) क्रूर मनुष्यों द्वारा सेवित होने से 'क्रूरकृत', (५) दूसरे के धन से लाभ लिया जाता है, इसलिये ‘परलाभ', ( ६ ) संयम-नाशक होने से 'असंयम', .(.७ ) दूसरे के धन में लोलुपता होने से 'पर-धनगृद्धि', (८) दूसरे के धन के लिये चंचल रहने से 'लौल्य', ( 6 ) दूसरे का धन चुराया जाता है, इसलिये 'तस्करत्व', (१०) दूसरे का धन हरण किया जाता है, इसलिये अपहार',
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy