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( २६३ ) चिच्चारणं धरणं च भारियं, पव्वइयो हि सि अणगारियं । मा वंतं पुणो वि प्राविए, समयं गोयम मा पमायए ।
अर्थात्-हे गौतम, जिस धन और स्त्री को त्याग कर, अनगार हुआ है, उसके जाल में पुनः मत पड़ना और इस ओर समय मात्र का भी प्रमाद मत करना ।
परिग्रह के आभ्यान्तर और बाह्य भेदों का वर्णन संक्षेप में किया जा चूका । अब आगे जो वर्णन किया जा रहा है, वह विशेषतः बाह्य परिग्रह को लक्ष्य बना कर । व्यवहार में बाह्य परिग्रह की ही प्रधानता है, लेकिन बाह्य परिग्रह पूर्णतः विद्यमान है, तब तक प्राणी परिग्रह का रूप भी सुनना-समझना नहीं चाहता और न यही मानता है कि परिग्रह त्याज्य है । जब पाभ्यन्तर परिग्रह का थोड़ा भी जोर कम होगा, कम से कम मिथ्यात्व रूप परिग्रह भी दूर होगा, तभी प्राणी यह सुन सकता है कि अमुक वस्तु, विचार या कार्य परिग्रह हैं और फिर चारित्र मोहनीय का जितने अंश में क्षय उपशम या क्षियोपशम हुआ होगा उतने अंश में परिग्रह को त्याग भी सकेगा । यह समस्त वर्णन भी उन्हीं के लिये उपयोगी हो सकता है, जो आभ्यन्तर परिग्रह में कम से कम मिथ्यात्व रूप परिग्रह से निवृत्त हो चुके हों । ऐसे ही लोगों को यह बताना है कि आत्मा पर परिग्रह का कैसा बोझ है। यह बात यद्यपि बताई जा रही है बाह्य परिग्रह के नाम पर, लेकिन बाह्य परिग्रह और आभ्यतर परिग्रह का परस्पर अत्यधिक सम्बन्ध है । इसलिए बाह्य परिग्रह विषयक वर्णन के साथ आभ्यन्तर परिग्रह का वर्णन भी आप ही आ जाएगा। बाह्य परिग्रह के भेदोपभेद