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(२६४) का विशेष वर्णन प्रसंगवश आगे होगा ही, फिर भी प्रश्नव्याकरण सूत्र में परिग्रह को वृक्ष का रूप देकर जो कुछ कहा गया है, यहां उसका वर्णन करना उचित होगा ।
प्रश्नव्याकरण सूत्र में परिग्रह को वृक्ष का रूप देकर कहा है कि इस परिग्रह रूपी वृक्ष की जड़ तृष्णा है। मणि, हीरे, जवाहरात आदि सब प्रकार के रत्न तथा अन्य मूल्य. वान् पदार्थ सोना, चांदी आदि द्रव्य, स्त्री, परिजन, दासदासी आदि द्विपद, घोड़ा, हाथी, बैल, भैंस, ऊंट, गधे, भेड, बकरी आदि चतुष्पद, रथ, गाड़ी, पालकी प्रभृति वाहन, अन्न आदि भोज्य पदार्थ, पानी आदि पेय पदार्थ, वस्त्र, बर्तन, सुगन्धित-द्रव्य और घर, खेत, पर्वत, खदान, ग्राम, नगर आदि पृथ्वी की इच्छा-मूर्छा इस परिग्रह रूपी वृक्ष की जड़ हैं ।
प्राप्त वस्तु की रक्षा चाहना और अप्राप्त वस्तु की कामना करना परिग्रह वृक्ष का मूल है । क्रोध, मान, माया, लोभ इसके स्कन्ध हैं । प्राप्त की रक्षा अप्राप्त की इच्छा से की गई अनेक प्रकार की चिन्ताएं इस वृक्ष की डालियाँ हैं। इन्द्रियों के काम-भोग इस वृक्ष के पत्ते, फूल तथा फल हैं। अनेक प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक क्लेश इस वक्ष का कम्पन है । इस प्रकार परिग्रह एक वृक्ष के समान है ।
यह तो कहा ही जा चुका है कि ममत्व का नाम ही परिग्रह है । ममत्व रूपी परिग्रह की जड़ इच्छा और मूर्छा है । वस्तु के प्रति जो ममत्व-भाव होता है, वह एक तो इच्छा रूप होता है और दूसरा मूर्छा रूप । 'इच्छा' 'कामना' 'तृष्णा' या 'लोभ' कुछ भेद के साथ पर्यायवाची शब्द हैं ।