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( ३०७ ) गये हैं उनका पालन निर्ग्रन्थ ही कर सकता है और पंच महाव्रतों का पालन करने वाला ही निर्ग्रन्थ है । यद्यपि पंच महाव्रत में अपरिग्रह भी एक महाव्रत है, लेकिन यह प्रथम के चार महाव्रतों से
महाव्रत सबसे बड़ा दुष्कर और पूर्ण सम्बन्ध रखने वाला है । जो इस महाव्रत का पालन करता है, वही इससे पहले के चार महाव्रतों का पालन कर सकता है ओर जो प्रथम के चार महाव्रतों का पालन करता है, वही इस महाव्रत का भी पालन कर सकता है पांचों महाव्रत परस्पर अत्यधिक घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं । यदि विचार किया जाय तो प्रथम के चार महाव्रत इस पांचवें महाव्रत में ही आ जाते हैं बल्कि ब्रह्मचर्य नाम का चौथा महाव्रत तो भगवान् पार्श्वनाथ के समय तक अपरिग्रह व्रत में ही माना जाता था, जिसे भगवान् महावीर ने अलग करके चार महाव्रतों के बदले पांच महाव्रत बताये हैं ।
अपरिग्रह - व्रत स्वीकार करने वाले सब प्रकार की इच्छा भी त्याग देते हैं और शरीरादि जिन ग्रावश्यक पदार्थों को वे नहीं त्याग सके हैं, उनके प्रति भी मूर्छा नहीं रखते । इच्छा और मूर्छा, उनके समीप होती ही नहीं हैं । वे अपने शरीर अथवा धर्मोपकरण के प्रति भी ममत्वहीन ही रहते. हैं । न स्वयं के पास ही कोई पदार्थ रखते हैं, न दूसरे के पास ही । यदि रखते हैं तो केवल वे ही धर्मोपकरण रखते हैं, जिन्हें रखने के लिये शास्त्र में प्राज्ञा दी गई है । उनके सिवा कोई भी पदार्थ नहीं रखते ।
यहां ये प्रश्न होते हैं शास्त्रादि क्यों रखते हैं ? नहीं ? इसी प्रकार वस्त्र है ? जब तक वस्त्र हैं तब
कि निर्ग्रन्थ साधु धर्मोपकरण तथा क्या उनकी गणना परिग्रह में रखने की भी क्या आवश्यकता तक कैसे कहा जा सकता है कि