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( ३०६) पदार्थों का रूप कैसा है, आदि बातें न जानने के कारण हो मन में चंचलता रहती है। इसलिए अपरिग्रह-व्रत स्वीकार करने एवं उसका पालन करने के लिए सबसे पहले संसार के पदार्थों का रूप और स्वभाव समझ कर मन को स्थिर करने, इन्द्रियों को बहिर्मुखी एवं भोगलोलुप न होने देने और सांसारिक पदार्थों की ओर से निस्पृह तथा निर्मम रहने की आवश्यकता है । शरीरादि जो पदार्थ प्राप्त हैं और जिनको त्यागा नहीं जा सकता उनकी ओर से तो निर्ममत्व रहे और जो पदार्थ अप्राप्त हैं उनकी ओर से निस्पृह रहे । शरीर की ओर से भी किस प्रकार निर्ममत्व रहे, इसके लिए उत्तराध्ययन सूत्र के १६ वें अध्ययन में कहा है :
वासीचंदनकप्पो व असणे अणसणे तहा ।
अर्थात्-- शरीर पर चाहे चंदन का लेप किया जावे अथवा शरीर को वसूले से छीला जावे दोनों अवस्थाओं में सुख-दुःख न मान कर प्रसन्न ही रहे और जो ऐसा करता है, उसके प्रति राग-द्वष भी न आने दे । इसी प्रकार मानापमान में भी समभाव ही रखे ।
इस प्रकार संतुष्ट, निस्पृह और निर्ममत्व रहने पर ही अपरिग्रह-व्रत का पालन हो सकता है ।
अपरिग्रह-व्रत स्वीकार और पालन करने वाले निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं । निर्ग्रन्थ का अर्थ है किसी प्रकार की ग्रन्थिगांठ या बन्धन में न रहना । परिग्रह बन्धन है । जो. इस बन्धन को तोड़ देता है, वह निर्ग्रन्थ और मोक्ष का पथिक है । मोक्ष प्राप्ति के लिए शास्त्र में जो पांच महाव्रत बताए