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________________ ( २५) अपना मित्र समझते हुए जो विचार किया जाय, वह मानसिक सत्य है । जिस वाणी में किसी को अनुचित कष्ट पहुंचने योग्य बात न कही गई हो, जो विचारपूर्वक बोली गई हो, जिसको वक्ता ने निःस्वार्थ-भाव से केवल सत्य का स्पष्टीकरण करने के लिए कहा हो, जो बात जैसो देखी, सुनी या समझी है, उसको वैसे ही समझाने को कही हो, वह वाचिक अर्थात् वाणी का सत्य है। जिस कार्य के करने से संसार के किसी प्राणी का अहित न होकर हित ही हो, जो स्वार्थ, छल, दम्भ, ईर्ष्या, द्वेषादि दुर्गुणों से रहित हो, शास्त्र में वर्णित नीति को जिस कार्य से क्षति न पहुंचती हो, वह कायिक सत्य है । - उपरोक्त तीनों भेदों का एकीकरण हो जाने पर शास्त्र में जिस सत्य को भगवान् ने पूर्ण सत्य कहा है, वह सत्य तैयार हो जाता है अर्थात् ऐसे सत्य को पूर्ण रूप से पालन करने वाले में और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं रहता ।। सत्य विचार, सत्य भाषण और सत्य व्यवहार करने वाला मनुष्य ही उत्कृष्ट से उत्कृष्ट सिद्धि प्राप्त कर सकता है। जिस मनुष्य में सत्य नहीं है, समझना चाहिए कि उसकी देह जीव-रहित काष्ठ-पाषाण की तरह, धर्म के लिये अनुपयोगी है। मनुष्य को असत्याचार से प्रकट में चाहे कुछ लाभ दीखे, परन्तु वे लाभ क्षणिक और अस्थायी होते हैं तथा ऐसे लाभ के पोछे अनेक ऐसी हानियां छिपी रहती हैं, जो उस समय नहीं दीखतीं ।
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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