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________________ ( १३१ ) का अर्थ केवल वीर्यरक्षा' ही लिया जाता है । इस व्यावहारिक अर्थ - अर्थात् पूर्ण रूपेण वीर्यरक्षा - से भी इन्द्रियों और मन का दुर्विषयों की प्रोर न दौड़ना ही मतलब निकलेगा । पूर्णतया वीर्यरक्षा तभी हो सकती है, जब सभी इन्द्रियां और मन दुर्विषयों की ओर न दौड़ें । यदि एक भी इन्द्रिय दुर्विषय की ओर दौड़ती है- उसे चाहती है और उसमें सुख भी मानती है - तो सम्पूर्णतया वीर्यरक्षा कदापि नहीं हो सकती । इसलिये पूर्ण रीति से वीर्यरक्षा का अर्थ भी वही है, जो ऊपर कहा गया है अर्थात् सर्वप्रकार के असंयम - परित्याग - रूप इन्द्रियों और मन का संयम । " ५ - ब्रहमचर्य के तीन भेद ओर उनका संबन्ध ब्रह्मचर्य मन, वचन और शरीर से होता है, इसलिए ब्रह्मचर्य के तीन भेद होते हैं अर्थात् मानसिक - ब्रह्मचर्य, वाचिकब्रह्मचर्य और शारीरिक ब्रह्मचर्य । मन, वचन और काय इन तीनों द्वारा पालन किया गया ब्रह्मचर्य ही पूर्ण ब्रह्मचर्य है अर्थात् न मन में ही ब्रह्मचर्य की भावना हो, न वचन द्वारा ही अब्रह्मचर्य प्रगट हो औरं न शरीर द्वारा ही प्रब्रह्मचर्य की क्रिया की गई हो, इसका नाम पूर्ण ब्रह्मचर्य है । याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कायेन मनसा वाचा, सर्वावस्थासु सर्वदा । सर्वत्र मैथुनत्यागो, ब्रहमचर्य प्रचक्षते ॥ शरीर, मन और वचन से, सब अवस्थानों में सर्वदा और सर्वत्र मैथुन - त्याग को ब्रह्मचर्य कहा है ।
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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