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( १३० ) और स्पर्श अर्थात् सुनना, देखना, सूचना, स्वाद लेना और छूना । यद्यपि ये इन्द्रियां हैं सुनने, देखने, सूघने, स्वाद लेने और स्पर्श करने के लिये ही- इसी कारण इनका नाम ज्ञानेन्द्रियाँ भी है-लेकिन ये ज्ञानेन्द्रियां तभी होती हैं और तभी आत्मा का हित भी कर सकती हैं, जब दुविषयों में लिप्त न हों, उनके भोग में सूख न मानें और अपने आप को दुर्विषय-भोग के लिये न समझे। इसी प्रकार मन भी आत्मा का हित करने वाला तभी है, जब वह अपने पद से भ्रष्ट होकर, इन्द्रियों का अनुगामो न बन जावे और न इन्द्रियों को ही दुर्विषयों की ओर जाने दे । मन का काम इन्द्रियों को सुख देना नहीं, किन्तु आत्मा को सुख देना है और इन्द्रियों को भी उन्हीं कामों में लगाना है, जिनसे आत्मा सुखी हो । इन्द्रियों और मन का, इस कर्त्तव्य को समझ कर इस पर स्थिर रहना ही 'ब्रह्मचर्य' है ।
३-गांधीजी कृत ब्रहमचर्य की परिभाषा
गांधीजी ने 'ब्रह्मचर्य' के अर्थ में लिखा है" ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इंद्रियों और संपूर्ण विकारों पर पूर्ण अधिकार कर लेना । सभी इंद्रियों को तन, मन और वचन से, सब समय और सब क्षेत्रों में संयमित करने को 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं ।"
४–ब्रहमचर्य को व्यावहारिक परिभाषा यद्यपि सब इन्द्रियां और मन का दुविषयों की ओर न दौड़ने का नाम ब्रह्मचर्य है, लेकिन व्यवहार में, ब्रह्मचर्य